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श्रीमद्भागवतमहापुराण – नवम स्कन्ध – अध्याय १९
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
उन्नीसवाँ अध्याय
ययाति का गृहत्याग

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! राजा ययाति इस प्रकार स्त्री के वश में होकर विषयों का उपभोग करते रहे । एक दिन जब अपने अधःपतन पर दृष्टि गयी तब उन्हें बड़ा वैराग्य हुआ और उन्होंने अपनी प्रिय पत्नी देवयानी से इस गाथा का गान किया ॥ १ ॥ ‘भृगुनन्दिनी ! तुम यह गाथा सुनो । पृथ्वी में मेरे ही समान विषय का यह सत्य इतिहास है । ऐसे ही ग्रामवासी विषयी पुरुषों के सम्बन्ध में वनवासी जितेन्द्रिय पुरुष दुःख के साथ विचार किया करते हैं कि इनका कल्याण कैसे होगा ?”॥ २ ॥ एक था बकरा । वह वन में अकेला ही अपने को प्रिय लगनेवाली वस्तुएँ हूँढ़ता हुआ घूम रहा था । उसने देखा कि अपने कर्मवश एक बकरी कूएँ में गिर पड़ी है ॥ ३ ॥ वह बकरा बड़ा कामी था । वह सोचने लगा कि इस बकरी को किस प्रकार कुएँ से निकाला जाय । उसने अपने सींग से कुएँ के पास की धरती खोद डाली और रास्ता तैयार कर लिया ॥ ४ ॥ जब वह सुन्दरी बकरी कूएँ से निकली, तो उसने उस बकरे से ही प्रेम करना चाहा । वह दाढ़ी-मूंछ मण्डित बकरा हृष्ट-पुष्ट, जवान, बकरियों को सुख देनेवाला, विहार-कुशल और बहुत प्यारा था । जब दूसरी बकरियों ने देखा कि कूएँ में गिरी हुई बकरी ने उसे अपना प्रेमपात्र चुन लिया है, तब उन्होंने भी उसी को अपना पति बना लिया । वे तो पहले से ही पति की तलाश में थीं । उस बकरे के सिर पर कामरूप पिशाच सवार था । वह अकेला ही बहुत-सी बकरियों के साथ विहार करने लगा और अपनी सब सुध-बुध खो बैठा ॥ ५-६ ॥

जब उसकी कूएँ में से निकाली हुई प्रियतमा बकरी ने देखा कि मेरा पति तो अपनी दूसरी प्रियतमा बकरी से विहार कर रहा है, तो उसे बकरे की यह करतूत सहन न हुई ॥ ७ ॥ उसने देखा कि यह तो बड़ा कामी है, इसके प्रेम का कोई भरोसा नहीं है और यह मित्र के रूप में शत्रु का काम कर रहा है । अतः वह बकरी उस इन्द्रियलोलुप बकरे को छोड़कर बड़े दुःख से अपने पालनेवाले के पास चली गयी ॥ ८ ॥ वह दीन कामी बकरा उसे मनाने के लिये ‘में-में करता हुआ उसके पीछे-पीछे चला । परन्तु उसे मार्ग में मना न सका ॥ ९ ॥ उस बकरी का स्वामी एक ब्राह्मण था । उसने क्रोध में आकर बकरे के लटकते हुए अण्डकोष को काट दिया । परन्तु फिर उस बकरी का ही भला करने के लिये फिर से उसे जोड़ भी दिया । उसे इस प्रकार के बहुत-से उपाय मालूम थे ॥ १० ॥ प्रिये ! इस प्रकार अण्डकोष जुड़ जाने पर वह बकरा फिर कुएँ से निकली हुई बकरी के साथ बहुत दिनों तक विषयभोग करता रहा, परन्तु आज तक उसे सन्तोष न हुआ ॥ ११ ॥ सुन्दरी ! मेरी भी यही दशा हैं । तुम्हारे प्रेमपाश में बँधकर मैं भी अत्यन्त दीन हो गया । तुम्हारी माया से मोहित होकर मैं अपने-आपको भी भूल गया हूँ ॥ १२ ॥

‘प्रिये ! पृथ्वी में जितने भी धान्य (चावल, जौ आदि), सुवर्ण, पशु और स्त्रियाँ हैं वे सब-के-सब मिलकर भी उस पुरुष के मन को सन्तुष्ट नहीं कर सकते, जो कामनाओं के प्रहार से जर्जर हो रहा है ॥ १३ ॥ विषयों के भोगने से भोगवासना कभी शान्त नहीं हो सकती । बल्कि जैसे घी की आहुति डालने पर आग और भड़क उठती है, वैसे ही भोगवासनाएँ भी भोगों से प्रबल हो जाती हैं ॥ १४ ॥ जब मनुष्य किसी भी प्राणी और किसी भी वस्तु के साथ राग-द्वेष का भाव नहीं रखता, तब वह समदर्शी हो जाता है तथा उसके लिये सभी दिशाएँ सुखमयी बन जाती हैं ॥ १५ ॥ विषयों की तृष्णा ही दुःखों का उद्गम स्थान है । मन्दबुद्धि लोग बड़ी कठिनाई से उसका त्याग कर सकते हैं । शरीर बूढ़ा हो जाता है, पर तृष्णा नित्य नवीन ही होती जाती है । अतः जो अपना कल्याण चाहता है, उसे शीघ्र-से-शीघ्र इस तृष्णा (भोग-वासना) का त्याग कर देना चाहिये ॥ १६ ॥ और तो क्या अपनी मा, बहिन और कन्या के साथ भी अकेले एक आसन पर सटकर नहीं बैठना चाहिये । इन्द्रियाँ इतनी बलवान् हैं कि वे बड़े-बड़े विद्वानों को भी विचलित कर देती हैं ॥ १७ ॥

विषयों का बार-बार सेवन करते-करते मेरे एक हजार वर्ष पूरे हो गये, फिर भी क्षण-प्रति-क्षण उन भोगों की लालसा बढ़ती ही जा रहीं है ॥ १८ ॥ इसलिये मैं अब भोगों की वासना-तृष्णा का परित्याग करके अपना अन्तःकरण परमात्मा के प्रति समर्पित कर दूंगा और शीत-उष्ण, सुख-दुःख आदि के भावों से ऊपर उठकर अहङ्कार से मुक्त हो हरिनों के साथ वन में विचरूंगा ॥ १९ ॥ लोक-परलोक दोनों के ही भोग असत् हैं, ऐसा समझकर न तो उनका चिन्तन करना चाहिये और न भोग ही । समझना चाहिये कि उनके चिन्तन से ही जन्म-मृत्युरूप संसार की प्राप्ति होती है और उनके भोग से तो आत्मनाश ही हो जाता हैं । वास्तव में इनके रहस्य को जानकर इनसे अलग रहनेवाला ही आत्मज्ञानी है ॥ २० ॥

परीक्षित् ! ययाति ने अपनी पत्नी से इस प्रकार कहकर पूरु की जवानी उसे लौटा दी और उससे अपना बुढ़ापा ले लिया । यह इसलिये कि अब उनके चित्त में विषयों की वासना नहीं रह गयी थी ॥ २१ ॥ इसके बाद उन्होंने दक्षिण-पूर्व दिशा में द्रुह्यु, दक्षिण में यदु, पश्चिम में तुर्वसु और उत्तर में अनु को राज्य दे दिया ॥ २२ ॥ सारे भूमण्डल की समस्त सम्पत्तियों के योग्यतम पात्र पूरु को अपने राज्य पर अभिषिक्त करके तथा बड़े भाइयों को उसके अधीन बनाकर वे वन में चले गये ॥ २३ ॥ यद्यपि राजा ययाति ने बहुत वर्षों तक इन्द्रियों से विषयों का सुख भोगा था — परन्तु जैसे पाँख निकल आने पर पक्षी अपना घोंसला छोड़ देता है, वैसे ही उन्होंने एक क्षण में ही सब कुछ छोड़ दिया ॥ २४ ॥ वन में जाकर राजा ययाति ने समस्त आसक्तियों से छुट्टी पा ली । आत्मसाक्षात्कार के द्वारा उनका त्रिगुणमय लिङ्गशरीर नष्ट हो गया । उन्होंने माया-मल से रहित परब्रह्म परमात्मा वासुदेव में मिलकर वह भागवती गति प्राप्त की, जो बड़े-बड़े भगवान् के प्रेमी संतों को प्राप्त होती है ॥ २५ ॥

जब देवयानी ने वह गाथा सुनी, तो उसने समझा कि ये मुझे निवृत्तिमार्ग के लिये प्रोत्साहित कर रहे हैं । क्योंकि स्त्री-पुरुष में परस्पर प्रेम के कारण विरह होने पर विकलता होती है, यह सोचकर ही इन्होंने यह बात हँसी-हँसी में कहीं है ॥ २६ ॥ स्वजन-सम्बन्धियों का-जो ईश्वर के अधीन है — एक स्थान पर इकट्ठा हो जाना वैसा ही है, जैसा प्याऊ पर पथिकों का । यह सब भगवान् की माया का खेल और स्वप्न के सरीखा ही है । ऐसा समझकर देवयानी ने सब पदार्थों की आसक्ति त्याग दी और अपने मन को भगवान् श्रीकृष्ण में तन्मय करके बन्धन के हेतु लिङ्गशरीर का परित्याग कर दिया — वह भगवान् को प्राप्त हो गयी ॥ २७-२८ ॥ उसने भगवान् को नमस्कार करके कहा — ‘समस्त जगत् के रचयिता, सर्वान्तर्यामी, सबके आश्रयस्वरूप सर्वशक्तिमान् भगवान् वासुदेव को नमस्कार हैं । जो परम शान्त और अनन्त तत्त्व है, उसे मैं नमस्कार करती हूँ ॥ २९ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धे एकोनविंशोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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