January 19, 2019 | Leave a comment श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम् – अध्याय २ ॐ गणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम् भक्ति को दुःख दूर करने के लिये नारदजी का उद्योग नारदजी ने कहा — बाले ! तुम व्यर्थ ही अपने को क्यों खेद में डाल रही हो ? अरे ! तुम इतनी चिन्तातुर क्यों हो ? भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमलों का चिन्तन करो, उनकी कृपा से तुम्हारा सारा दुःख दूर हो जायगा ॥ १ ॥ जिन्होंने कौरवों के अत्याचार से द्रौपदी की रक्षा की थी और गोपसुन्दरियों को सनाथ किया था, वे श्रीकृष्ण कहीं चले थोड़े हो गये हैं ॥ २ ॥ फिर तुम तो भक्ति हो और सदा उन्हें प्राणों से भी प्यारी हो; तुम्हारे बुलाने पर तो भगवान् नीचों के घरों में भी चले जाते हैं ॥ ३ ॥ सत्य, त्रेता और द्वापर-इन तीन युगों में ज्ञान और वैराग्य मुक्ति के साधन थे; किन्तु कलियुग में तो केवल भक्ति ही ब्रह्मसायुज्य (मोक्ष) की प्राप्ति करानेवाली है ॥ ४ ॥ यह सोचकर ही परमानन्दचिन्मूर्ति ज्ञानस्वरूप श्रीहरि ने अपने सत्स्वरूप से तुम्हें रचा है, तुम साक्षात् श्रीकृष्णचन्द्र की प्रिया और परम सुन्दरी हो ॥ ५ ॥ एक बार जब तुमने हाथ जोड़कर पूछा था कि ‘मैं क्या करूं ?’ तब भगवान् ने तुम्हें यही आज्ञा दी थी कि ‘मेरे भक्तों का पोषण करो ।’ ॥ ६ ॥ तुमने भगवान् की वह आज्ञा स्वीकार कर ली; इससे तुमपर श्रीहरि बहुत प्रसन्न हुए और तुम्हारी सेवा करने के लिये मुक्ति को तुम्हें दासी के रूप में दे दिया और इन ज्ञान-वैराग्य को पुत्रों के रूप में ॥ ७ ॥ तुम अपने साक्षात् स्वरूप से वैकुण्ठधाम में ही भक्त का पोषण करती हो, भूलोक में तो तुमने उनकी पुष्टि के लिये केवल छायारूप धारण कर रखा है ॥ ८ ॥ तब तुम मुक्ति, ज्ञान और वैराग्य को साथ लिये पृथ्वीतल पर आयीं और सत्ययुग से द्वापरपर्यन्त बड़े आनन्द से रहीं ॥ १९ ॥ कलियुग में तुम्हारी दासी मुक्ति पाखण्डरूप रोग से पीड़ित होकर क्षीण होने लगी थी, इसलिये वह तो तुरंत हीं तुम्हारी आज्ञा से वैकुण्ठलोक को चली गयी ॥ १० ॥ इस लोक में भी तुम्हारे स्मरण करने से ही वह आती है और फिर चली जाती है, किंतु इन ज्ञान-वैराग्य को तुमने पुत्र मानकर अपने पास ही रख छोड़ा है ॥ ११ ॥ फिर भी कलियुग में इनकी उपेक्षा होने के कारण तुम्हारे ये पुत्र उत्साहहीन और वृद्ध हो गये हैं, फिर भी तुम चिन्ता न करो, मैं इनके नवजीवन का उपाय सोचता हूँ ॥ १२ ॥ सुमुखि ! कलि के समान कोई भी युग नहीं है, इस युग में मैं तुम्हें घर-घर में प्रत्येक पुरुष के हृदय में स्थापित कर दूंगा ॥ १३ ॥ देखो, अन्य सब धर्मों को दबाकर और भक्तिविषयक महोत्सव को आगे रखकर यदि मैंने लोक में तुम्हारा प्रचार न किया तो मैं श्रीहरि का दास नहीं ॥ १४ ॥ इस कलियुग में जो जीव तुमसे युक्त होंगे, वे पापी होनेपर भी बेखटके भगवान् श्रीकृष्ण के अभय-धाम को प्राप्त होंगे ॥ १५ ॥ जिनके हृदय में निरन्तर प्रेमरूपिणी भक्ति निवास करती है, वे शुद्धान्तःकरण पुरुष स्वप्न में भी यमराज को नहीं देखते ॥ १६ ॥ जिनके हृदय में भक्ति महारानी का निवास हैं, उन्हें प्रेत, पिशाच, राक्षस या दैत्य आदि स्पर्श करने में भी समर्थ नहीं हो सकते ॥ १७ ॥ भगवान् तप, वेदाध्ययन, ज्ञान और कर्म आदि किसी भी साधन से वश में नहीं किये जा सकते; वे केवल भक्ति से ही वशीभूत होते हैं । इसमें श्रीगोपीजन प्रमाण हैं ॥ १८ ॥ मनुष्यों का सहस्रों जन्म के पुण्य-प्रताप से भक्ति में अनुराग होता है । कलियुग में केवल भक्ति, केवल भक्ति ही सार है । भक्ति से तो साक्षात् श्रीकृष्णचन्द्र सामने उपस्थित हो जाते हैं ॥ १९ ॥ जो लोग भक्ति से द्रोह करते हैं, वे तीनों लोकों में दुःख-ही-दुःख पाते हैं । पूर्वकाल में भक्त का तिरस्कार करनेवाले दुर्वासा ऋषि को बड़ा कष्ट उठाना पड़ा था ॥ २० ॥ बस, बस — व्रत, तीर्थ, योग, यज्ञ और ज्ञान चर्चा आदि बहुत-से साधनों की कोई आवश्यकता नहीं है, एकमात्र भक्ति ही मुक्ति देनेवाली है ॥ २१ ॥ सूतजी कहते हैं — इस प्रकार नारदजी के निर्णय किये हुए अपने माहात्म्य को सुनकर भक्ति के सारे अङ्ग पुष्ट हो गये और वे उनसे कहने लगीं ॥ २२ ॥ भक्ति ने कहा — नारदजी ! आप धन्य हैं । आपकी मुझमें निश्चल प्रीति हैं । मैं सदा आपके हृदय में रहूँगी, कभी आपको छोड़कर नहीं जाऊँगी ॥ २३ ॥ साधो ! आप बड़े कृपालु हैं । आपने क्षणभर में ही मेरा सारा दुःख दूर कर दिया । किन्तु अभी मेरे पुत्रों में चेतना नहीं आयी है; आप इन्हें शीघ्र ही सचेत कर दीजिये, जगा दीजिये ॥ २४ ॥ सूतजी कहते हैं — भक्ति के ये वचन सुनकर नारदजी को बड़ी करुणा आयी और वे उन्हें हाथ से हिलाडुलाकर जगाने लगे ॥ २५ ॥ फिर उनके कान के पास मुँह लगाकर जोर से कहा, ‘ओ ज्ञान ! जल्दी जग पड़ो; ओ वैराग्य ! जल्दी जग पड़ो।’ ॥ २६ ॥ फिर उन्होंने वेदध्वनि, वेदान्त्तोष और बार-बार गीतापाठ करके उन्हें जगाया; इससे वे जैसे-तैसे बहुत जोर लगाकर उठे ॥ २७ ॥ किन्तु आलस्य के कारण वे दोनों जंभाई लेते रहे, नेत्र उघाड़कर देख भी नहीं सके । उनके बाल बगुलों की तरह सफेद हो गये थे, उनके अङ्ग प्रायः सूखे काठ के समान निस्तेज और कठोर हो गये थे ॥ २८ ॥ इस प्रकार भूख-प्यास के मारे अत्यन्त दुर्बल होने के कारण उन्हें फिर सोते देख नारदजी को बड़ी चिन्ता हुई और ये सोचने लगे, ‘अब मुझे क्या करना चाहिये ? ॥ २९ ॥ इनकी यह नींद और इससे भी बढ़कर इनकी वृद्धावस्था कैसे दूर हो ?’ शौनकजी ! इस प्रकार चिन्ता करते-करते वे भगवान् का स्मरण करने लगे ॥ ३० ॥ उसी समय यह आकाशवाणी हुई कि ‘मुने ! खेद मत करो, तुम्हारा यह उद्योग निःसंदेह सफल होगा ॥ ३१ ॥ देवर्षे ! इसके लिये तुम एक सत्कर्म करो, वह कर्म तुम्हें संतशिरोमणि महानुभाव बतायेंगे ॥ ३२ ॥ उस सत्कर्म का अनुष्ठान करते ही क्षणभर में उनकी नींद और वृद्धावस्था चली जायेंगी तथा सर्वत्र भक्ति का प्रसार होगा’ ॥ ३३ ॥ यह आकाशवाणी वहाँ सभी को साफ-साफ सुनाई दी । इससे नारदजी को बड़ा विस्मय हुआ और वे कहने लगे, ‘मुझे तो इसका कुछ आशय समझ में नहीं आया’ ॥ ३४ ॥ नारदजी बोले — इस आकाशवाणी ने भी गुप्तरुप में ही बात कही है । यह नहीं बताया कि वह कौन-सा साधन किया जाय, जिससे इनका कार्य सिद्ध हो ॥ ३५ ॥ वे संत न जाने कहाँ मिलेंगे और किस प्रकार उस साधन को बतायेंगे ? अब आकाशवाणी ने जो कुछ कहा है, उसके अनुसार मुझे क्या करना चाहिये ? ॥ ३६ ॥ सूतजी कहते हैं — शौनकजी ! तब ज्ञान-वैराग्य दोनों को वहीं छोड़कर नारदमुनि वहाँ से चल पड़े और प्रत्येक तीर्थ में जा-जाकर मार्ग में मिलनेवाले मुनीश्वरों से वह साधन पूछने लगे ॥ ३७ ॥ उनकी उस बात को सुनते तो सब थे, किंतु उसके विषय में कोई कुछ भी निश्चित उत्तर न देता । किन्हीं ने उसे असाध्य बताया; कोई बोले-इसका ठीक-ठीक पता लगना ही कठिन हैं ।’ कोई सुनकर चुप रह गये और कोई-कोई तो अपनी अवज्ञा होने के भय से बात को टाल-टूलकर खिसक गये ॥ ३८ ॥ त्रिलोकी में महान् आश्चर्यजनक हाहाकार मच गया । लोग आपस में कानाफूसी करने लगे – ‘भाई ! जब वेदध्वनि, वेदान्तघोष और बार-बार गीतापाठ सुनानेपर भी भक्ति, ज्ञान और वैराग्य ये तीनों नहीं जगाये जा सके, तब और कोई उपाय नहीं है ॥ ३९-४० ॥ स्वयं योगिराज नारद को भी जिसका ज्ञान नहीं हैं, उसे दूसरे संसारी लोग कैसे बता सकते हैं ?’ ॥ ४१ ॥ इस प्रकार जिन-जिन ऋषियों से इसके विषय में पूछा गया, उन्होंने निर्णय करके यहीं कहा कि यह बात दुःसाध्य ही है ॥ ४२ ॥ तब नारदजी बहुत चिन्तातुर हुए और बदरीवन में आये । ज्ञान-वैराग्य को जगाने के लिये वहाँ उन्होंने यह निश्चय किया कि मैं तप करूंगा’ ॥ ४३ ॥ इसी समय उन्हें अपने सामने करोड़ों सूर्यों के समान तेजस्वी सनकादि मुनीश्वर दिखायी दिये । उन्हें देखकर वे मुनिश्रेष्ठ कहने लगे ॥ ४४ ॥ नारदजी ने कहा — महात्माओ ! इस समय बड़े भाग्य से मेरा आपलोगों के साथ समागम हुआ है, आप मुझपर कृपा करके शीघ्र ही वह साधन वताइये ॥ ४५ ॥ आप सभी लोग बड़े योगी, बुद्धिमान् और विद्वान् हैं । आप देखने में पाँच-पाँच वर्ष के बालक-से जान पड़ते हैं, किंतु हैं पूर्वजों के भी पूर्वज ॥ ४६ ॥ आपलोग सदा वैकुण्ठधाम में निवास करते हैं, निरन्तर हरिकीर्तन में तत्पर रहते हैं, भगवल्लीलामृत का रसास्वादन कर सदा उसमें उन्मत्त रहते हैं और एकमात्र भगवत्कथा ही आपके जीवन का आधार है ॥ ४७ ॥ हरिशरणम् (भगवान् ही हमारे रक्षक है) यह वाक्य (मन्त्र) सर्वदा आपके मुख में रहता है; इसीसे कालप्रेरित वृद्धावस्था भी आपको बाधा नहीं पहुँचाती ॥ ४८ ॥ पूर्वकाल में आपके भ्रूभङ्गमात्र से भगवान् विष्णु के द्वारपाल जय और विजय तुरंत पृथ्वी पर गिर गये थे और फिर आपकी ही कृपा से वे पुनः वैकुण्ठलोक पहुँच गये ॥ ४९ ॥ धन्य है, इस समय आपका दर्शन बड़े सौभाग्य से ही हुआ है । मैं बहुत दीन हूँ और आपलोग स्वभाव से ही दयालु हैं; इसलिये मुझपर आपको अवश्य कृपा करनी चाहिये ॥ ५० ॥ बताइये-आकाशवाणी ने जिसके विषय में कहा है, वह कौन-सा साधन है और मुझे किस प्रकार उसका अनुष्ठान करना चाहिये । आप इसका विस्तार से वर्णन कीजिये ॥ ५१ ॥ भक्ति, ज्ञान और वैराग्य को किस प्रकार सुख मिल सकता हैं ? और किस तरह इनकी प्रेमपूर्वक सब वर्णों में प्रतिष्ठा की जा सकती हैं ? ॥ ५२ ॥ सनकादि ने कहा — देवर्षे ! आप चिन्ता न करें, मन में प्रसन्न हों; उनके उद्धार का एक सरल उपाय पहले से ही विद्यमान है ॥ ५३ ॥ नारदजी ! आप धन्य हैं । आप विरक्तों के शिरोमणि हैं । श्रीकृष्णदासों के शाश्वत पथ-प्रदर्शक एवं भक्ति-योग के भास्कर हैं ॥ ५४ ॥ आप भक्ति के लिये जो उद्योग कर रहे हैं, यह आपके लिये कोई आश्चर्य की बात नहीं समझनी चाहिये । भगवान् के भक्त के लिये तो भक्ति को सम्यक् स्थापना करना सदा उचित ही है ॥ ५५ ॥ ऋषियों ने संसार में अनेकों मार्ग प्रकट किये हैं । किंतु वे सभी कष्टसाध्य हैं और परिणाम में प्रायः स्वर्ग की ही प्राप्ति करानेवाले हैं ॥ ५६ ॥ अभीतक भगवान् की प्राप्ति करानेवाला मार्ग तो गुप्त ही रहा है । उसका उपदेश करनेवाला पुरुष प्रायः भाग्य से ही मिलता है ॥ ५७ ॥ आपको आकाशवाणी ने जिस सत्कर्म का संकेत किया है, उसे हम बतलाते हैं, आप प्रसन्न और समाहितचित्त होकर सुनिये ॥ ५८ ॥ नारदजी ! द्रव्ययज्ञ, तपोयज्ञ, योगयज्ञ और स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ — ये सब तो स्वर्गादि की प्राप्ति करानेवाले कर्म की ही ओर संकेत करते हैं ॥ ५९ ॥ पण्डित ने ज्ञानयज्ञ को ही सत्कर्म (मुक्तिदायक कर्म) का सूचक माना है । यह श्रीमद्भागवत का पारायण है, जिसका गान शुकादि महानुभाव ने किया है ॥ ६० ॥ उसके शब्द सुनने से ही भक्ति, ज्ञान और वैराग्य को बड़ा बल मिलेगा । इससे ज्ञान-वैराग्य का कष्ट मिट जायगा और भक्ति को आनन्द मिलेगा ॥ ६१ ॥ सिंह की गर्जना सुनकर जैसे भेड़िये भाग जाते हैं, उसी प्रकार श्रीमद्भागवत की ध्वनि से कलियुग के सारे दोष नष्ट हो जायेंगे ॥ ६२ ॥ तब प्रेमरस प्रवाहित करनेवाली भक्ति, ज्ञान और वैराग्य को साथ लेकर प्रत्येक घर और व्यक्ति के हृदय क्रीडा करेगी ॥ ६३ ॥ नारदजी ने कहा — मैंने वेद-वेदान्त की ध्वनि और गीतापाठ करके उन्हें बहुत जगाया, किंतु फिर भी भक्ति, ज्ञान और वैराग्य ये तीनों नहीं जगे ॥ ६४ ॥ ऐसी स्थिति में श्रीमद्भागवत सुनाने से वे कैसे जगेंगे ? क्योंकि उस कथा के प्रत्येक श्लोक और प्रत्येक पद में भी वेदों का ही तो सारांश है ॥ ६५ ॥ आपलोग शरणागतवत्सल हैं । तथा आपका दर्शन कभी व्यर्थ नहीं होता; इसलिये मेरा यह संदेह दूर कर दीजिये, इस कार्य में विलम्ब न कीजिये ॥ ६६ ॥ सनकादि ने कहा — श्रीमद्भागवत कथा वेद और उपनिषदों के सार से बनी है । इसलिये उनसे अलग उनकी फलरूपा होने के कारण वह बड़ी उत्तम जान पड़ती हैं ॥ ६७ ॥ जिस प्रकार रस वृक्ष को जड़ से लेकर शाखापर्यन्त रहता है, किंतु इस स्थिति में उसका आस्वादन नहीं किया जा सकता; वही जब अलग होकर फल के रूप में आ जाता है, तब संसार में सभी को प्रिय लगने लगता है ॥ ६८ ॥ दूध में घी रहता ही है, किन्तु उस समय उसका अलग स्वाद नहीं मिलता; वही जब उससे अलग हो जाता है, तब देवताओं के लिये भी स्वादवर्धक हो जाता हैं ॥ ६९ ॥ खाँड ईख के ओर-छोर और बीच में भी व्याप्त रहती है, तथापि अलग होनेपर उसकी कुछ और ही मिठास होती हैं । ऐसी ही यह भागवत् की कथा है ॥ ७० ॥ यह भागवतपुराण वेदों के समान है । श्रीव्यासदेव ने इसे भक्ति, ज्ञान और वैराग्य की स्थापना के लिये प्रकाशित किया है ॥ ७१ ॥ पूर्वकाल में जिस समय वेद-वेदान्त के पारगामी और गीता की भी रचना करनेवाले भगवान् व्यासदेव खिन्न होकर अज्ञानसमुद्र में गोते खा रहे थे, उस समय आपने ही उन्हें चार श्लोकों में इसका उपदेश किया था । उसे सुनते ही उनकी सारी चिन्ता दूर हो गयी थी ॥ ७२-७३ ॥ फिर इसमें आपको आश्चर्य क्यों हो रहा है, जो आप हमसे प्रश्न कर रहे हैं ? आपको उन्हें शोक और दुःख का विनाश करनेवाला श्रीमद्भागवतपुराण ही सुनाना चाहिये ॥ ७४ ॥ नारदजी ने कहा — महानुभावो ! आपका दर्शन जीव के सम्पूर्ण पापों को तत्काल नष्ट कर देता हैं और जो संसार-दुःखरूप दावानल से तपे हुए हैं, उनपर शीघ्र ही शान्ति की वर्षा करता है । आप निरन्तर शेषजी के सहस्र मुखों से गाये हुए भगवत्कथामृत का ही पान करते रहते हैं । में प्रेमलक्षणा भक्ति का प्रकाश करने के उद्देश्य से आपकी शरण लेता हूँ ॥ ७५ ॥ जब अनेकों जन्मों के संचित पुण्यपुञ्ज का उदय होने से मनुष्य को सत्सङ्ग मिलता हैं, तब वह उसके अज्ञानजनित मोह और मदरूप अन्धकार का नाश करके विवेक उदय होता है ॥ ७६ ॥ ॥ श्रीपद्मपुराणे उत्तरखण्डे श्रीमद्भागवतमाहात्म्ये कुमारनारदसंवादो नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Know More ;- 1. श्रीमद्भागवत-माहात्म्य 2. श्रीमद्भागवत – श्रीशुकदेवजी को नमस्कार 3. श्रीमद्भागवत की पूजनविधि 4. श्रीमद्भागवत विनियोग, न्यास एवं ध्यान 5. श्रीमद्भागवत-सप्ताह की आवश्यक विधि 6. श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम् – अध्याय १ Related