August 9, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमहाभागवत [देवीपुराण]-अध्याय-61 ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ इकसठवाँ अध्याय इन्द्र का ब्रह्महत्या के पाप से ग्रस्त होना, महर्षि गौतम की सम्मति से इन्द्र का ब्रह्मलोक जाना तथा इन्द्र और ब्रह्मा का वैकुण्ठलोक जाना अथः एकषष्टितमोऽध्यायः गौतमवाक्याद्ब्रह्ममयीस्थानानुसन्धानार्थं देवराजस्य चतुर्मुखविष्णुलोकगमनं श्रीमहादेवजी बोले — महामते ! युद्ध में दुर्धर्ष वृत्रासुर का संहार करके ऐरावत हाथी पर आरूढ़ होकर सभी देवगणों से घिरे तथा ब्रह्मर्षियों से स्तूयमान एवं विजयोत्सव के लिये उत्सुक देवराज इन्द्र ने अपनी पुरी में प्रवेश किया ॥ १-२ ॥ अपनी सभा में बैठकर नम्रतापूर्वक इन्द्र ने श्रेष्ठ देवगणों और देवर्षियों से स्निग्ध गम्भीर वाणी में पूछा — ॥ ३ ॥ इन्द्र बोले — मुनिश्रेष्ठ दधीचि मेरे कथनानुसार अपनी अस्थियाँ मुझे देने के लिये अपना शरीर त्यागकर स्वर्ग चले गये। इस कारण मुझे ब्रह्महत्या का पाप लगा है, मैं उससे कैसे मुक्त होऊँ, इसके लिये अब क्या करूँ ? विप्रगण ! आप कृपापूर्वक मुझे बतायें ॥ ४-५ ॥ ऋषिगण बोले — वे मुनिश्रेष्ठ दधीचि तो जीवन्मुक्त थे और वे स्वेच्छा से स्वर्ग गये, इस कारण वृत्रसूदन! आपको पूरी ब्रह्महत्या नहीं लगी है। देवराज! उस पाप का नाश करने के लिये महापापों का नाश करने वाले अश्वमेध नामक महायज्ञ को आप करें ॥ ६-७ ॥ महाबुद्धिमान् बृहस्पति एवं अन्य देवताओं ने भी ऐसा सुनकर इसमें अपनी सहमति बतायी। तब शान्तचित्त होकर इन्द्र अन्तःपुर में चले गये । देवगण भी अपने-अपने स्थान को गये ॥ ८-९ ॥ मुनिश्रेष्ठ ! तब देवराज इन्द्र ने विधिपूर्वक बहुत दान-दक्षिणासहित अश्वमेध यज्ञ किया ॥ १० ॥ एक बार देवताओं की सभा में देवर्षि नारद ने पधारकर देवराज से कहा — देवराज! आपने यद्यपि यज्ञ कर लिया है, किंतु ब्रह्महत्या अभी भी आपको लगी हुई है, उसे मिटाने के लिये आपको यत्न करना चाहिये ॥ ११-१२ ॥ इन्द्र बोले — मैंने उस पाप की शान्ति के लिये अश्वमेध महायज्ञ किया, फिर भी वह वर्तमान ही है, अब आप ही बतायें, मैं क्या करूँ ? ॥ १३ ॥ नारदजी बोले — बुद्धिमान् इन्द्र ! आप अपने गुरु गौतम ऋषि के पास जाकर इसका उपाय पूछें। वे मुनि सर्वज्ञ हैं और आपको इसका उपाय अवश्य बतायेंगे। गुरु का कथन श्रेष्ठ शास्त्र है, गुरु का कथन श्रेष्ठ तप है। करुणामय गुरु प्रसन्न होकर जैसा कह देते हैं वही होता है, उससे भिन्न नहीं। सभी वेदों का यही मत है कि गुरु की आज्ञा के अनुसार कर्म करना ही श्रेष्ठ प्रायश्चित्त है। उनके आज्ञानुसार कर्म करके पाप से आपकी मुक्ति हो जायगी ॥ १४- १६ ॥ श्रीमहादेवजी बोले — ऐसा कहने पर नारदमुनि अपने उत्तम स्थान को चले गये और इन्द्र भी शीघ्र ही महर्षि गौतम के आश्रम पर गये ॥ १७ ॥ उन्होंने मध्याह्न सूर्य के समान तेजस्वी, सिर पर पिङ्गवर्णी जटाओं से सुशोभित और ब्रह्म के ध्यान में लीन उन महात्मा गौतम को देखा ॥ १८ ॥ वृत्रासुर को मारने वाले इन्द्र ने साक्षात् शिव के समान अपने गुरु को देखकर उनकी प्रदक्षिणा की और पृथ्वी पर दण्डवत् गिरकर साष्टाङ्ग प्रणाम किया ॥ १९ ॥ समाधि के विराम होनेपर गौतम ऋषि ने देवराज को आया जानकर उनसे पूछा — तात! अब अपनी कुशल बतायें ॥ २० ॥ इन्द्र बोले — प्रभो ! आपके दर्शन से ही मेरा सब कुशल-मङ्गल है। मुने! जिसके आप-जैसे गुरु हों, उसके लिये कहीं अमङ्गल नहीं हो सकता, किंतु मुझसे अनजाने में एक पाप हो गया है, जिसके निस्तारहेतु मैं आप गुरुवर के सम्मुख उपस्थित हुआ हूँ ॥ २१-२२ ॥ महामते ! वृत्रासुर के वध के लिये दधीचिमुनि की अस्थियाँ लेने के कारण मुझे दुर्निवारिणी ब्रह्महत्या लग गयी है। उसके शमन के लिये मैंने अश्वमेधयज्ञ भी किया, किंतु फिर भी उसका सम्भवतः निवारण नहीं हो रहा है। गुरो! मेरा चित्त अत्यन्त दुःखी है, आप इस ब्रह्महत्या के निवारण का उपाय मुझे बताइये, नाथ! जिससे मेरा निस्तार हो । धर्म के मर्मज्ञ आप जिसके रक्षक और गुरु हैं, उसपर भी यह बहुत दुःखदायक पाप स्थायीरूप से लग गया है ॥ २३-२६ ॥ गौतम बोले — वत्स ! तुम दुःखी मत होओ, तुम्हारा पाप बहुत समय तक नहीं टिकेगा । मैं तुम्हारी बात सुनकर उस पूर्व पाप की शान्ति के लिये उपाय बताता हूँ ॥ २७ ॥ मुनिश्रेष्ठ दधीचि कोई साधारण ब्राह्मण नहीं थे। वे जीवन्मुक्त महात्मा दूसरे विश्वेश्वर के ही समान थे। सुरनन्दन! उनकी हत्या से उत्पन्न तुम्हारा घोर पाप अश्वमेधयज्ञ से कैसे मिट सकता है! यदि तुम इस ब्रह्महत्या से मुक्त होना चाहते हो तो वहाँ जाकर महापातकनाशिनी भगवती महाकाली के दर्शन करो ॥ २८-३०॥ इन्द्र बोले — वे पापनाशिनी महाकाली कैसी हैं और कहाँ रहती हैं, यह मुझे बताइये, जिससे मैं जाकर उन महेश्वरी के दर्शन कर सकूँ ॥ ३१ ॥ गौतम बोले — मैंने वेद और आगम शास्त्रों में जैसा देखा है, वैसा आपको बताया। मुझे नहीं मालूम कि परात्परा महाकाली कहाँ विराजती हैं। सभी श्रुतियों में ऐसा बताया गया है कि महेश्वरी महाकाली के दर्शन से मनुष्य अपने ब्रह्महत्यादिक पापों को भी नष्ट कर देता है ॥ ३२-३३ ॥ इन्द्र बोले — मुझे लगता है कि इस पाप से मेरी मुक्ति नहीं हो सकेगी; क्योंकि मुझे कभी यही ज्ञात नहीं हो पायेगा कि वे जगदम्बा कहाँ विराजती हैं ॥ ३४ ॥ गौतम बोले — तत्त्वदर्शी योगीजन दीर्घकालतक युगान्तदर्शिणी उग्र तपस्या से महाकाली के दर्शन करते हैं। जो ऐसा कर पाता है उसके समक्ष योगगम्या, सनातनी, जगन्माता महाकाली प्रकट हो जाती हैं, किंतु तुम तो देवताओं के राजा हो और राष्ट्र का पालन करने वाले हो, राज्यपालन के दायित्व को छोड़कर तुम ऐसा तप कैसे कर सकोगे ? इसलिये उनके भुवन में जाने के अतिरिक्त उनके दर्शन का दूसरा उपाय तुम्हारे लिये मुझे नहीं दिखायी देता । अतः पुरन्दर ! तुम उनकी पुरी का पता लगाकर और वहाँ जाकर ब्रह्मादि के लिये दुर्लभ भगवती महाकाली का दर्शन करो ॥ ३५–३९ ॥ सुरनायक ! उनकी पुरी को खोजने का उपाय तुम्हें बताता हूँ, तुम्हें सबसे पहले निर्विकार लोकपितामह ब्रह्माजी के पास जाकर पूछना चाहिये । वे यदि स्वयं यत्नपूर्वक खोज करेंगे तो महाकाली की पुरी का पता अवश्य लग जायगा । अतः महामते ! ब्रह्मा जिसकी खोज करें, उसका पता अवश्य ही हो जाता है — यह मैं सत्य कह रहा हूँ ॥ ४०-४२ ॥ इन्द्र बोले — देव ! आपकी आज्ञा कभी व्यर्थ नहीं होगी, मैं ब्रह्माजी के पास जाऊँगा, जिससे कोई उपाय अवश्य होगा ॥ ४३ ॥ श्रीमहादेवजी बोले — नारदजी ! ऐसा कहकर देवराज ने मुनि की तीन परिक्रमाएँ कीं और उन्हें दण्डवत् प्रणाम कर अपने मन्त्रियोंसहित पुष्पक विमान पर बैठकर उन्होंने ब्रह्मलोक के लिये प्रस्थान किया तथा महर्षि गौतम ने जैसा बताया था, वह सारा वृत्तान्त उन्हें कह सुनाया ॥ ४४-४५ ॥ ऐसा सुनकर भगवान् ब्रह्मा ने देवराज इन्द्र से कहा कि सुराधिप ! उन महाकाली की नगरी कहाँ है, यह मैं नहीं जानता । देवताओं के कार्य को सिद्ध करने के लिये कृपापूर्वक जब वे स्वयं प्रकट हुई थीं, उसी समय मैंने उन सनातनी ब्रह्मरूपा महाकाली के दर्शन किये थे । तत्पश्चात् सभी देवताओं के देखते-देखते वे अन्तर्धान हो गयी थीं। मैं इतना ही जानता हूँ, उनकी नगरी का मुझे ज्ञान नहीं ॥ ४६–४८ ॥ इन्द्र बोले — ब्रह्मन् ! जब आप ही उनकी नगरी को नहीं जानते, तब मैं कैसे जान पाऊँगा और इस ब्रह्महत्यारूपी सञ्चित पाप से मुझे कैसे मुक्ति मिल सकेगी ? ॥ ४९ ॥ ब्रह्माजी बोले — देवताओं के राजा यदि आपमें यह पातक टिका रहेगा तो स्वर्ग में बहुत-से उत्पात होने लगेंगे। इसलिये इस पाप का निवारण करने के लिये मैं निश्चितरूप से प्रयत्नशील हूँ। जगदम्बा की अत्यन्त गोपनीय नगरी को मैं सब प्रकार से खोजूँगा । यदि आपके कार्यसम्पादन में भगवती के दर्शन मुझे हो गये तो मैं मुक्त हो जाऊँगा। इससे बढ़कर करणीय कार्य अन्य कुछ नहीं है ॥ ५०-५२ ॥ श्रीमहादेवजी बोले — नारदजी ! इस प्रकार देवराज इन्द्र को आश्वासन देकर पितामह ब्रह्माजी दिव्य रथ पर आरूढ़ होकर वैकुण्ठधाम को चले गये ॥ ५३ ॥ इन्द्र भी अपने पुष्पक विमान पर पीछे- पीछे चलते हुए भगवान् विष्णु के द्वारा रक्षित उत्तम लोक वैकुण्ठधाम गये ॥ ५४ ॥ तब ब्रह्माजी ने देवराज इन्द्र को आश्वस्त करते हुए कहा कि वत्स ! सुरेश्वर ! मेरी बात सुनो और तुम बाहर ही ठहरो । मैं भगवान् विष्णु के धाम के अंदर प्रवेश कर रहा हूँ तब परब्रह्म भगवान् विष्णु की आज्ञा प्राप्त होने पर तुम भी भीतर आ जाना ॥ ५५-५६ ॥ ब्रह्माजी के ऐसे वचन सुनकर देवराज इन्द्र ने वैसा ही किया । ब्रह्माजी वहाँ पहुँचे, जहाँ जगन्नाथ भगवान् विष्णु विराजमान थे। उनके हृदय पर कौस्तुभमणि शोभा पा रही थी, नवीन मेघ के समान उनका श्यामवर्ण था। उन्होंने शङ्ख, चक्र और गदा धारण कर रखे थे तथा लक्ष्मी एवं सरस्वती उनके साथ विराजमान थीं ॥ ५७-५८ ॥ ब्रह्माजी को आया देखकर भगवान् विष्णु ने शुभागमन विषयक प्रश्न पूछे। ब्रह्माजी ने भगवान् से कहा कि आपकी कृपा से सानन्द आगमन हुआ है। जनार्दन ! देवराज इन्द्र भी आपके दर्शनार्थ आये हैं और वैकुण्ठलोक के द्वार पर यहाँ प्रवेश हेतु आपकी आज्ञा की प्रतीक्षा कर रहे हैं ॥ ५९-६० ॥ यह सुनकर अच्युत भगवान् विष्णु ने गरुड को आज्ञा दी कि देवराज इन्द्र को वैकुण्ठ के अंदर ले आओ ॥ ६१ ॥ मुने! यह सुनकर गरुड शीघ्रतापूर्वक द्वार पर गये और उन्होंने इन्द्र को श्रेष्ठ धाम के अंदर प्रवेश कराया ॥ ६२ ॥ इन्द्र ने भूमि पर दण्डवत् प्रणाम करके हाथ जोड़कर जगत्पति भगवान् विष्णु से कहा कि आपके दर्शन से मैं धन्य हुआ ॥ ६३ ॥ जब आपके चरणकमल से निकली हुई देवपूजित सौभाग्यशालिनी भगवती गङ्गा सभी लोकों को पवित्र करती हैं तो फिर सभी देवताओं के वन्दनीय आपका इन आँखों से मैं साक्षात् दर्शन कर रहा हूँ, यह मेरे पूर्वकृत शुभ कर्मों से उत्पन्न अतुलनीय अहोभाग्य है ॥ ६४ ॥ इस प्रकार परमेश्वर भगवान् विष्णु की भक्तिपूर्वक स्तुति करके ब्रह्माजी की आज्ञा पाकर इन्द्र गौतममुनि की कही बातें निवेदित कीं । इन्द्र की बात सुनकर विस्मित हुए त्रिलोकी के पालनकर्ता कमलापति भगवान् श्रीविष्णु ब्रह्माजी के समक्ष मौन रह गये ॥ ६५ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीमहाभागवतमहापुराणके अन्तर्गत ‘गौतमके कथनानुसार ब्रह्ममयीस्थानानुसन्धानार्थ देवराजका चतुर्मुखविष्णुलोकगमन’ नामक इकसठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ६१ ॥ Content is available only for registered users. 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