श्रीमहाभागवत [देवीपुराण]-अध्याय-62
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
बासठवाँ अध्याय
भगवान् विष्णु का इन्द्र से महाकाली के लोक के विषय में अनभिज्ञता व्यक्त करना; ब्रह्मा, विष्णु और इन्द्र का शिवलोक जाना तथा भगवान् शिव के साथ भगवती महाकाली के लोक में जाना
अथः द्विषष्टितमोऽध्याय
ब्रह्मादीनां देवराजेन सह भगवतीस्थानगमनं

श्रीमहादेवजी बोले — नारदजी ! कुछ देर मौन रहकर कमललोचन भगवान् विष्णु ने मीठी वाणी में देवराज इन्द्र से कहा — ॥ १ ॥

श्रीभगवान् बोले — मुझे यह ज्ञात नहीं है कि वे ब्रह्मरूपा सर्वस्वरूपा सनातनी महेश्वरी महाकाली कहाँ विराजती हैं। वे देवी जहाँ रहती हैं, उसे महेश्वर भगवान् शिव जानते हैं। इसलिये उन्हीं महेश्वर के पास जाओ और उनसे पूरी बात निवेदित करो। मैं भी देवी के दिव्य लोक को देखने आऊँगा । इन नेत्रों से देवी के दर्शन होंगे, इससे बढ़कर और क्या कार्य होगा ? ॥ २–४ ॥

महादेवजी बोले — ऐसा कहकर भगवान् विष्णु सहसा ही गरुड़ पर आरूढ़ होकर ब्रह्माजी के साथ भगवान् शिव के पास गये। मुने ! इन्द्र भी अपने विमान पर चढ़कर उन दोनों के पीछे चले। बुद्धिमानों में श्रेष्ठ नन्दी ने उन सबको आया देखकर तत्क्षण भगवान् शिव के निकट जाकर निवेदन किया ॥ ५-७ ॥

महादेव ! विश्वनाथ ! प्रभो ! पितामह ब्रह्मा और देवराज इन्द्रके साथ भगवान् नारायण स्वयं उपस्थित हुए हैं ॥ ८ ॥

महामते! मुने! भगवान् शिव ने नन्दी से कहा कि उन्हें शीघ्र ले आओ। ऐसा सुनकर वे नन्दी भी वहाँ जाकर उन सबको शिवलोक में ले आये ॥ ९ ॥ मुनिश्रेष्ठ ! भगवान् शिव की सन्निधि में जाकर उन्होंने अत्यन्त भक्तिपूर्वक पार्वतीसहित भगवान् शंकर को साष्टाङ्ग प्रणाम किया। तब विश्वनाथ भगवान् शंकर ने उनसे पूछा कि आप लोग किस कारण से यहाँ आये हैं, आपलोगों का कौन-सा कार्य आ पड़ा है, इसे शीघ्र बताइये ॥ १०-११ ॥

श्रीविष्णु बोले — इन बुद्धिमान् इन्द्र ने शास्त्रवेत्ताओं में श्रेष्ठ मुनिवर गौतम से ब्रह्महत्या का प्रायश्चित्त पूछा था। उन्होंने बताया कि सुरश्रेष्ठ! भगवती महाकाली के लोक में जाकर उनके दर्शन करो, किंतु उनका लोक कहाँ है, यह मैं नहीं जानता। उनकी यह बात सुनकर इन्द्र ब्रह्माजी के पास आये और उन्होंने उनसे पूछा — प्रभो ! जगदम्बिका का दिव्य लोक कहाँ है, यह मुझे बताइये । उन्होंने भी कहा कि देवी का दिव्य लोक कहाँ हैं, यह मैं नहीं जानता । तब ब्रह्मा इन्द्र को लेकर मेरे पास आये ॥ १२-१५ ॥ प्रभो! ब्रह्माजी की प्रेरणा से इन्द्र ने मुझसे भी यही बात पूछी। यह सुनकर विस्मित हुआ मैं उन दोनों के साथ यहाँ आया हूँ। विभो! आप अवश्य ही महाकाली के दिव्य लोक को जानते हैं, इसलिये आप कृपापूर्वक हम सबको महादेवी के पुर ले जाकर देवी के दर्शन कराइये ॥ १६-१७ ॥ महेश्वर ! यह महाबाहु त्रिलोकेश इन्द्र यदि ब्रह्महत्या के महापातक से युक्त रहेगा तो त्रिलोकी कैसे रहेगी ? ॥ १८ ॥

श्रीशिवजी बोले — मधुसूदन ! एक लाख वर्षों तक तपस्या करके मैंने उस स्थान का ज्ञान प्राप्त किया है। आप सभी मेरे साथ आयें, मैं वहाँ ले चलूँगा। शीघ्र ही उनके लोक में पहुँचकर उन भगवती के दर्शन कराऊँगा ॥ १९ ॥

श्रीमहादेवजी बोले — ऐसा कहकर भगवान् शिव ने नन्दी को शीघ्र वृषवाहन तैयार करने की आज्ञा दी और कहा कि हम सभी आज ही महाकाली के रत्नमण्डित लोक को जायँगे ॥ २० ॥ महामुने ! यह सुनकर नन्दी ने शीघ्र ही उस आज्ञा का पालन किया। तब महेश्वर शिव वृषवाहन पर आरूढ़ होकर, भगवान् विष्णु वायु से भी द्रुतगामी गरुड पर, पितामह ब्रह्मा मणिजटित विमान पर तथा इन्द्र भी अपने पुष्पक विमान पर आरूढ़ होकर चले ॥ २१-२२ ॥ मुने ! आकाशमार्ग से जाते हुए श्रेष्ठ देवों ने एकत्र होकर परस्पर वार्तालाप में ऐसा कहा कि वे ही महामहेश्वरी पराशक्ति हैं और श्रीमहाकाली से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं ॥ २३ ॥ वे ही महेश्वरी इस जगत् का सृजन करती हैं, सारी विपत्तियों से इसकी रक्षा करती हैं और अन्त में इसका संहार भी करती हैं । हम तीनों तो निमित्तमात्र हैं ॥ २४ ॥ मुने ! इस प्रकार देवी के अनेकशः गुणगान करते हुए वे श्रेष्ठ देवगण मार्ग को पारकर श्रीमहाकाली के श्रेष्ठ लोक में आये, जो स्वर्णादि से मण्डित होकर अद्भुत शोभा को प्राप्त हो रहा था ॥ २५ ॥

वहाँ पहुँचकर तथा चारों ओर की शोभा देखकर इन्द्र, ब्रह्मा और विष्णु अत्यन्त चकित हुए और आपसमें कहने लगे कि हमारे लोकों को धिक्कार है, लगता है कि इनकी रचना व्यर्थ ही हुई है ॥ २६ ॥ ब्रह्मा, विष्णु, महेश और इन्द्र चारों ओर भ्रमण करते भगवती जगदम्बिका के उस नगर की शोभा देखकर देर तक स्थित रहे और अपने सभी अभीष्ट उद्देश्यों को भूलकर किसी को भी यह स्मरण नहीं रहा कि वे वहाँ क्यों उपस्थित हुए हैं ॥ २७ ॥

॥ इस प्रकार श्रीमहाभागवत महापुराणके अन्तर्गत ‘ब्रह्मादि का इन्द्र के साथ भगवतीस्थानगमन’ नामक बासठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ६२ ॥

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