December 19, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीलिङ्गमहापुराण -[पूर्वभाग] -003 ॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥ तीसरा अध्याय अलिङ्ग एवं लिङ्गतत्त्व का स्वरूप, शिवतत्त्व की व्यापकता, महदादि तत्त्वों का विवेचन, जगत् की उत्पत्ति का क्रम तथा महेश्वर शिव की महिमा श्रीलिङ्गमहापुराणे पूर्वभागे तृतीयोऽध्यायः प्राकृतप्राथमिकसर्गकथनं सूतजी बोले — वह निर्गुण ब्रह्म शिव (अलिङ्ग) ही लिङ्ग (प्रकृति) – का मूल कारण है तथा स्वयं लिङ्गरूप (प्रकृतिरूप) भी है । लिङ्ग (प्रकृति) को भी शिवोद्भासित जाना गया है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध आदि से रहित, अगुण, ध्रुव, अक्षय, अलिङ्ग (निर्गुण) तत्त्व को ही शिव कहा गया है तथा शब्द- स्पर्श-रूप-रस- गन्धादि से संयुक्त प्रधान प्रकृति को ही उत्तम लिङ्ग कहा गया है ॥ १-३ ॥ हे श्रेष्ठ विप्रो ! वह जगत् का उत्पत्तिस्थान है, पंचभूतात्मक अर्थात् पृथ्वी, जल, तेज, आकाश, वायु से युक्त है, स्थूल है, सूक्ष्म है, जगत् का विग्रह है तथा यह लिङ्गतत्त्व निर्गुण परमात्मा शिव से स्वयं उत्पन्न हुआ है ॥ ४ ॥ उस अलिङ्ग अर्थात् निर्गुण परमात्मा की माया से सात, आठ तथा फिर ग्यारह इस तरह कुल छब्बीस रूप वाले लिङ्गत्तत्त्व इस ब्रह्माण्ड में व्याप्त हैं 1 ॥ ५ ॥ उन्हीं माया-वितत लिङ्गों से उद्भूत तीनों प्रधान देव शिवात्मक हैं । उन तीनों में एक ब्रह्मा से यह जगत् उत्पन्न हुआ, एक विष्णु जगत् की रक्षा होती है तथा एक रुद्र से जगत् का संहार होता है। 2 इस प्रकार शिवतत्त्व से यह विश्व व्याप्त है। वह परमात्मा निर्गुण भी है तथा सगुण भी है । लिङ्ग अर्थात् व्यक्त तथा अलिङ्ग अर्थात् अव्यक्तरूप में कही गयी सभी मूर्तियाँ शिवात्मक ही हैं; इसलिये यह ब्रह्माण्ड साक्षात् ब्रह्मरूप है। वही अलिङ्गी अर्थात् अव्यक्त तथा बीजी भगवत्तत्त्व परमेश्वर है ॥ ६-८ ॥ वह परमात्मा बीज (ब्रह्मा) भी है, योनि (विष्णु) भी है तथा निर्बीज (शिव) भी है और बीजरहित वह शिव जगत् का बीज अर्थात् मूल कारण कहा जाता है। बीजरूप ब्रह्मा, योनिरूप विष्णु तथा प्रधानरूप शिव की इस जगत् में अपनी-अपनी विश्व, प्राज्ञ तथा तैजस अवस्था की संज्ञा भी है ॥ ९ ॥ यह विशुद्ध मुनिरूप परब्रह्म परमात्मा रुद्र नित्य बुद्ध स्वभाव के कारण पुराणों में ‘शिव’ कहे गये हैं ॥ १० ॥ हे विप्रो ! शिव की दृष्टिमात्र से प्रकृति ‘शैवी’ हो गयी तथा सृष्टि के समय अव्यक्त स्वभाव वाली वह प्रकृति गुणों से युक्त हो गयी ॥ ११ ॥ अव्यक्त तथा महत्तत्त्वादि से लेकर स्थूल पंचमहाभूत पर्यन्त सम्पूर्ण जगत् उसी प्रकृति के अधीन है। अतः विश्व को धारण करने वाली शैवीशक्ति प्रकृति ही अजा नाम से कही गयी है ॥ १२ ॥ रक्तवर्णा अर्थात् रजोगुणवाली, शुक्लवर्णा अर्थात् सत्त्वगुणवाली तथा कृष्णवर्णा अर्थात् तमोगुणवाली एवं बहुविध प्रजाओं की उत्पत्ति करने वाली अजास्वरूपिणी उस प्रकृति की प्रेमपूर्वक सेवा करता हुआ यह बद्ध जीव उसका अनुसरण करता है ॥ १३ ॥ दूसरे प्रकार का अनासक्त जीव प्रकृति के भोगों को भोगकर और उसकी असारता तथा क्षणभंगुरता को समझकर उस माया का परित्याग कर देता है। परमेश्वर के द्वारा अधिष्ठित वह अजा अनन्त ब्रह्माण्ड की उत्पत्तिकर्त्री है ॥ १४ ॥ सृष्टि के समय में तीन गुणों से युक्त अजरूप पुरुष की आज्ञा से उसमें अधिष्ठित माया से वह महत्तत्त्व उत्पन्न हुआ ॥ १५ ॥ सृष्टि करने की इच्छा से युक्त होकर उस अधिष्ठित महत्तत्त्व ने स्वतः अव्यय तथा अव्यक्त पुरुष में प्रविष्ट होकर व्यक्त सृष्टिमें विक्षोभ उत्पन्न किया ॥ १६ ॥ उस महत्तत्त्व से संकल्प-अध्यवसायवृत्तिरूप सात्त्विक अहंकार उत्पन्न हुआ तथा उसी महत्तत्त्व से त्रिगुणात्मकरूप रजोगुण की अधिकता वाला राजस अहंकार उत्पन्न हुआ और उस रजोगुण से सम्यक् प्रकार से आवृत तमोगुण की अधिकता वाला तामस अहंकार भी उसी महत्तत्त्व से उत्पन्न हुआ है तथा उसी अहंकार से सृष्टि को व्याप्त करने वाली शब्द, स्पर्श आदि तन्मात्राएँ भी उत्पन्न हुई हैं ॥ १७-१८ ॥ महत्तत्त्वजन्य उस तामस अहंकार से शब्द तन्मात्रा वाले अव्यय आकाश की उत्पत्ति हुई और बाद में शब्द के कारणरूप उस अहंकार ने शब्दयुक्त आकाश को व्याप्त कर लिया । हे विप्रो ! इसी प्रकार तन्मात्रात्मक भूतसर्ग के विषय में कहा गया है। हे मुने! उस आकाश से स्पर्श- तन्मात्रा वाला महान् वायु उत्पन्न हुआ । पुनः उस वायु से रूपतन्मात्रा वाले अग्नि की उत्पत्ति हुई तथा अग्नि से रसतन्मात्रा वाले जल का प्रादुर्भाव हुआ। फिर रसतन्मात्रा वाले उस जल से गन्धतन्मात्रा वाली कल्याणमयी पृथ्वी की उत्पत्ति हुई ॥ १९–२१ ॥ हे श्रेष्ठ विप्रो ! आकाश स्पर्शतन्मात्रा वाले वायु को आवृत किये रहता है तथा रूपतन्मात्रा वाले अग्नि को आच्छादित करके यह क्रियाशील वायु बहता रहता है ॥ २२ ॥ साक्षात् अग्निदेव रसतन्मात्रा वाले जल को आच्छादित किये रहते हैं तथा सभी रसों से युक्त जलतत्त्व गन्धतन्मात्रा वाली पृथ्वी को आच्छादित किये रहता है ॥ २३ ॥ इस प्रकार पृथ्वी पाँच (शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध) गुणों से, गन्धरहित शेष चार गुणों से जल, भगवान् अग्नि तीन गुणों से तथा स्पर्शसमन्वित वायु दो गुणों से युक्त हुए और अन्य अवयवों से रहित आकाशदेव मात्र एक गुण वाले हुए। इस प्रकार तन्मात्राओं के पारस्परिक संयोग वाला भूतसर्ग कहा गया है ॥ २४-२५ ॥ राजस, तामस तथा सात्त्विक सर्ग साथ-साथ प्रवृत्त होते हैं, किंतु यहाँ पर तामस अहंकार से ही सर्ग का होना बताया गया है ॥ २६ ॥ शब्द-स्पर्श आदि को ग्रहण करने के लिये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ तथा उभयात्मक मन इस जीव के लिये बनाये गये हैं ॥ २७ ॥ महत्तत्त्वादि से लेकर पंचमहाभूतपर्यन्त सभी तत्त्व अण्ड की उत्पत्ति करते हैं। 3 वह परमात्मा ही पितामह ब्रह्मा, शंकर तथा विश्वव्यापी प्रभु विष्णु के रूप में उस अण्ड से जल के बुलबुले की भाँति अवतीर्ण हुआ। ये सभी लोक तथा उनके भीतर का यह सम्पूर्ण जगत् उस अण्ड में सन्निविष्ट था ॥ २८-२९ ॥ वह अण्ड अपने से दस गुने जल से बाहर से व्याप्त था और जल बाहर से अपने से दस गुने तेज से आवृत था ॥ ३० ॥ तेज अपने दस गुने वायु से बाहर से आवृत था और वायु अपने से दस गुने आकाश से बाहर से आवृत था ॥ ३१ ॥ शब्दजन्य वायु को आवृत किये हुए वह आकाश तामस अहंका रसे आवृत है । शब्द- हेतु आकाश को आवृत करने वाला वह तामस अहंकार महत्तत्त्व से घिरा हुआ है और वह महत्तत्त्व स्वयं अव्यक्त प्रधान से आवृत है ॥ ३२ ॥ उस अण्ड (ब्रह्माण्ड ) – के ये सात प्राकृत आवरण कहे गये हैं । कमलासन ब्रह्माजी उसकी आत्मा हैं । इस सृष्टि में करोड़ों-करोड़ों अण्डों (ब्रह्माण्डों ) – की स्थिति के विषय में कहा गया है 4 ॥ ३३ ॥ प्रधान (प्रकृति) ही सदाशिव के आश्रय को प्राप्त करके इन करोड़ों ब्रह्माण्डों में सर्वत्र चतुर्मुख ब्रह्मा, विष्णु और शिव का सृजन करती है । अन्त में शम्भु का सहयोग प्राप्तकर वहीं प्रधान लय भी करती है । इस प्रकार परस्पर सम्बद्ध आदि (सृष्टि) तथा अन्त (प्रलय) के विषय में कहा गया है। इस सृष्टि की रचना, पालन तथा संहार करने वाले वे ही एकमात्र महेश्वर हैं ॥ ३४-३५ ॥ वे ही महेश्वर क्रमपूर्वक तीन रूपों में होकर सृष्टि करते समय रजोगुण से युक्त रहते हैं, पालन की स्थिति में सत्त्वगुण में स्थित रहते हैं तथा प्रलयकाल में तमोगुण से आविष्ट रहते हैं ॥ ३६ ॥ वे ही भगवान् शिव प्राणियों के सृष्टिकर्ता, पालक तथा संहर्ता हैं। अतएव वे महेश्वर ब्रह्मा के अधिपतिरूप में प्रतिष्ठित हैं, जिस कारण से भगवान् सदाशिव भव, विष्णु, ब्रह्मा आदि रूपों में स्थित हैं तथा सर्वात्मक हैं, इसी कारण वे ही ब्रह्माण्डवर्ती इन लोकों के रूप में तथा इनके कर्ता पितामह के रूप में कहे गये हैं ॥ ३७-३८ ॥ हे द्विजो ! पुरुषाधिष्ठित यह प्राथमिक ईश्वरकृत अबुद्धिपूर्वक उत्पन्न तथा कल्याणकारी प्राकृत सर्ग मैंने तुम्हें सुनाया है ॥ ३९ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभागमें ‘प्राकृतप्राथमिकसर्गकथन’ नामक तीसरा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३ ॥ 1. छब्बीस तत्त्व सप्तविंशक तत्त्व से उत्पन्न होते हैं : [ यः सप्तविंशको नित्यः पदात्परतरः प्रभुः (१।७१।५१)] – इस निरूपण में, तेईस तत्त्वों का स्रोत प्रधान (चौबीसवाँ) जड़ है; जीव (पच्चीसवाँ ) प्रधान का ज्ञाता है; पुरुष (छब्बीसवाँ) को जीव और प्रधान – इन दो निम्न श्रेणियों का बोध है , परन्तु वह कृपा प्रदान नहीं कर सकता [षड्विंशकमणिश्वरम् (१।७१।१०९]। केवल महेश्वर (सत्ताईसवाँ) ही अपने भक्तों पर कृपा करने में समर्थ हैं। इस संदर्भ में, प्रधान या प्रकृति अप्रतिबुद्ध है, जीव बुद्धिमान है , पुरुष बुद्ध है और महेश्वर प्रबुद्ध है । 2. ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र—तीन गुणों—रज, सत्व और तम—के साकार स्वरूप, जो प्रधान या प्रकृति का निर्माण करते हैं, जो ब्रह्मांड का उपादान कारण है—ब्रह्मांड की रचना, पालन और संहार के लिए उत्तरदायी हैं। ये तीनों पारलौकिक वास्तविकता महेश्वर से उत्पन्न होते हैं। (देवी भागवत पुराण १ । ८ । ४; ब्रह्माण्ड १ । ४ । ६; विष्णु १ । २ । ६६) 3. महत् (बुद्धि) से आरम्भ होकर विशेष ( भूत ) पर समाप्त होने वाला सात का समूह ब्रह्माण्डीय अण्ड का निर्माण करता है, जो भौतिक है, यद्यपि यह अपनी चेतना (चेतना) की शक्ति पुरुष से प्राप्त करता है। अण्डा, जहाँ से ब्रह्मा जल के बुलबुले के समान उत्पन्न हुए। 4. ब्रह्माण्डीय अण्डे के सात कोषों में बुद्धि (महत्), अहङ्कार (अहङ्कार) और पांच सूक्ष्म तत्व ( तन्मात्राएँ ) सम्मिलित हैं। ( वायु . ४ । ८७; कूर्म १ । ४ । ४६)। Content is available only for registered users. 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