श्रीलिङ्गमहापुराण -[पूर्वभाग] -004
॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥
चौथा अध्याय
ब्रह्माजी की आयु का परिमाण, काल का स्वरूप, कल्प, मन्वन्तर एवं युगादि का मान तथा ब्रह्माजी द्वारा विभिन्न लोकों की संरचना
श्रीलिङ्गमहापुराणे पूर्वभागे चतुर्थोऽध्यायः
सृष्टिप्रारम्भवर्णनं

सूतजी बोले —  ब्रह्मा की प्राकृत सृष्टि का जो समय है, वही उनका दिन है तथा उतने ही परिमाण की उनकी रात्रि है ॥ १ ॥ वे ब्रह्मा दिन में सृष्टि करते हैं तथा रात में प्रलय करते हैं। ब्रह्मा का अहोरात्र उत्पत्ति – प्रलयरूपात्मक है, मनुष्यों के दिन-रात के समान सूर्योदयास्त वाला नहीं है ॥ २ ॥ दिन में सभी प्रकार की वैकारिक सृष्टि, समस्त देवता, सभी प्रजापतिगण तथा अन्य महर्षि लोग विद्यमान रहते हैं तथा रात में ये सभी विलीन हो जाते हैं। रात की समाप्ति पर वे सभी पुनः उत्पन्न हो जाते हैं । ब्रह्मा का एक दिन ही एक कल्प कहा जाता है तथा उसी प्रकार उनकी रात भी एक कल्प के मान के तुल्य कही गयी है ॥ ३-४ ॥

एक हजार चतुर्युगी की अवधि में चौदह मनु उत्पन्न होते हैं। हे विप्रो ! सत्ययुग का काल चार हजार दिव्य वर्षों का है और उस सत्ययुग के चार सौ वर्षों की सन्ध्या तथा सन्ध्यांश होते हैं। उसी प्रकार क्रम से त्रेतायुग की सन्ध्या तीन सौ वर्ष की, द्वापर की सन्ध्या दो सौ वर्ष की तथा कलियुग की सन्ध्या एक सौ वर्ष की होती है ॥ ५-६ ॥ इस प्रकार सत्ययुगके सन्ध्यांशकको छोड़कर अन्य तीन युगों के कुल सन्ध्यांशक छः सौ वर्ष के होते हैं तथा इन त्रेता, द्वापर और कलि के सन्ध्या सन्ध्यांशक को छोड़कर इनका नियत समय क्रमशः तीन हजार, दो हजार तथा एक हजार वर्षों का होता है ॥ ७ ॥

हे सुव्रत ऋषियो ! अब मैं आप लोगों को त्रेता, द्वापर, कलियुग तथा सत्ययुग के कालमान बताता हूँ। स्वस्थ मनुष्य के नेत्र के पन्द्रह निमेष के समय को एक काष्ठा कहते हैं और तीस काष्ठा की एक कला होती है । हे विप्रो ! तीस कला को मिलाकर एक मुहूर्त कहा जाता है ॥ ८-९ ॥ पन्द्रह मुहूर्त की एक रात होती है तथा उसी प्रकार पन्द्रह मुहूर्त का एक दिन होता है। मनुष्यों का एक कृष्णपक्ष पितरों के एक दिन के बराबर होता है तथा शुक्लपक्ष उनकी स्वप्नसम्बन्धी रात के समान होता है। मनुष्यों के तीस महीने का समय पितरों के एक मास के बराबर माना गया है ॥ १०-११ ॥ मनुष्यों के तीन सौ साठ महीनों का समय पितरों का एक संवत्सर (वर्ष) माना जाता ॥ १२ ॥ मानवीय मान से सन्ध्या-सन्ध्यांशसहित जो १०० वर्ष होते हैं, यहाँ वे ही पितरों के तीन वर्ष कहे गये हैं। जैसे लौकिक मान से बारह मास का एक मानव वर्ष होता है, उसी प्रकार पितृमान से बारह मास का एक पितृवर्ष होता है। लिङ्गपुराण में इस प्रकार दिव्य अहोरात्र तथा दिव्य वर्ष का विभागपूर्वक वर्णन किया गया है ॥ १३-१५ ॥

सूर्य का उत्तर की ओर संक्रमण [ उत्तरायण–सूर्य का मकरराशि मिथुनराशि तक ] ही देवताओं का दिवस तथा सूर्य का दक्षिण की ओर संक्रमण [दक्षिणायन- कर्कराशि से धनुराशि तक ] ही देवों की रात्रि होती है । विशेषतया ये दिव्य अहोरात्र कहे गये हैं ॥ १६ ॥ मनुष्यों के तीस वर्षों का काल देवताओं के एक महीने के समय के बराबर होता है। हे विप्रो ! मनुष्यों का एक सौ वर्ष देवताओं के तीन माह तथा दस दिन के बराबर माना गया है ॥ १७१/२

मनुष्यों के तीन सौ साठ वर्षों का कालमान देवताओं के एक वर्ष के समय तुल्य कहा गया है ॥ १८१/२

मनुष्यों के कालप्रमाण के अनुसार उनके तीन हजार तीस वर्ष सप्तर्षियों के एक वर्ष के बराबर माने गये हैं ॥ १९१/२

मनुष्यों के नौ हजार नब्बे वर्षों को मिलाकर वह एक ध्रौव्य वर्ष (ध्रुव वर्ष) होता है ॥ २०१/२

मनुष्यों का जो छत्तीस हजार वर्षों का समय है, वही देवताओं का सौ वर्ष कहा जाता है ॥ २११/२

कालगणना के विद्वान् मनुष्यों के तीन लाख साठ हजार वर्षों के समय को देवताओं के एक हजार वर्षों के बराबर कहते हैं ॥ २२-२३ ॥ देवताओं के ही कालप्रमाण से युगों की संख्या कल्पित की गयी है। हे सुव्रत ऋषियो ! सर्वप्रथम सत्ययुग, इसके बाद त्रेता, फिर द्वापर और अन्त में कलियुग – ये चार युग कहे गये हैं। अब मानुषीवर्ष- प्रमाण से इनका काल बताया जाता है ॥ २४-२५ ॥

हे विप्रवरो! प्रथम कृतयुग का कालमान देवताओं के प्रमाण से बताया जा चुका है। वह कृतयुग मानुषी वर्ष से चौदह लाख चालीस हजार वर्षों का है तथा त्रेतायुग का काल प्रमाण दस लाख अस्सी हजार वर्षों का, द्वापरयुग का कालमान सात लाख बीस हजार वर्षों का तथा कलियुग का समय तीन लाख साठ हजार वर्षों का कहा गया है। इस प्रकार सन्ध्या तथा सन्ध्यांश को छोड़कर चारों युगों का काल छत्तीस लाख वर्ष कहा गया है। चारों युगों के सन्ध्यांश का काल तीन लाख साठ हजार वर्ष होता है ॥ २६–३११/२

इकहत्तर कृत- त्रेतादि चतुर्युगों के काल से कुछ अधिक काल को एक मन्वन्तर कहा जाता है और आगे दिये गये वर्षों से मन्वन्तर की संख्या कही गयी है ॥ ३२-३३ ॥ हे उत्तम ब्राह्मणो! मनुष्य वर्ष से तीस करोड़ सरसठ लाख बीस हजार वर्षों का काल सभी मनुओं का होता है; हे द्विजो! ऐसा इस लिङ्गपुराण में बताया गया है ॥ ३४-३५ ॥ हे श्रेष्ठ ब्राह्मणो ! चतुर्युग की भी वर्षसंख्या कही गयी है। एक हजार चतुर्युगों का काल एक कल्प कहा गया ॥ ३६ ॥ ब्रह्माजी दिन के आरम्भ में जगत् की रचना करते हैं तथा रात्रि में प्राणियों का संहार होता है। उनमें देवताओं की संख्या अट्ठाईस करोड़ है । यह संख्या मन्वन्तरों में तीन सौ बानबे करोड़ होती है । हे ब्राह्मणो ! कल्प व्यतीत होने पर यह संख्या अठहत्तर हजार होती है ॥ ३७-३९ ॥ प्रलयकाल उपस्थित होने पर कल्प के अन्त में विद्यमान देवताओं को छोड़कर महर्लोक में निवास करने वाले लोग जनलोक में चले जाते हैं ॥ ४० ॥

आधे दिव्य (देव) कल्प की वर्षसंख्या दो हजार आठ सौ बासठ करोड़ सत्तर लाख है; इसी से कल्प की संख्या ज्ञात होती है । हजार कल्पों का काल ही ब्रह्माजी का एक वर्ष है ॥ ४१-४२ ॥ ब्रह्मा के आठ हजार वर्षों का काल (आठ हजार ब्राह्म वर्ष) ब्रह्मा का एक युग होता है। सभी देवों के उत्पत्तिकर्ता ब्रह्मा का एक हजार युग विष्णु के एक दिन के बराबर होता है ॥ ४३ ॥
विष्णु के नौ हजार दिनों का समय कालात्मा प्रभु ब्रह्मस्वरूप रुद्र के एक दिन का समय कहा गया है ॥ ४४ ॥

हे मुनिश्रेष्ठो ! भवोद्भव, तप, भव्य, रम्भ, क्रतु, ऋतु, वह्नि, हव्यवाह, सावित्र, शुद्ध, उशिक, कुशिक, गान्धार, ऋषभ, षड्ज, मज्जालीय, मध्यम, वैराज, निषाद, मुख्य, मेघवाहन, पंचम, चित्रक, आकूति, ज्ञान, मन, सुदर्श, बृंह, श्वेतलोहित, रक्त, पीतवासा, असित एवं सर्वरूपक — ये तैंतीस संख्या वाले कल्प उस अव्यक्तजन्मा ब्रह्मा के होते हैं ॥ ४५-४८१/२

हे मुनिश्रेष्ठो ! इस प्रकार ब्रह्मा के दिन रात में हजारों करोड़ कल्प बीत गये तथा शेष अभी व्यतीत होंगे ॥ ४९१/२

महाप्रलय के समय सम्पूर्ण सृष्टि का लय हो जाता है और पश्चात् शिव की आज्ञा से प्रलय का भी प्रलय हो जाता है ॥ ५०१/२

इस प्रकार सबका प्रलय हो जाने पर तथा प्रकृति के परमात्मा में स्थित हो जाने पर केवल प्रधान (प्रकृति) तथा पुरुष – ये दो ही रह जाते हैं ॥ ५११/२

हे विप्रो ! इस प्रकार गुणों की ही विषमता से सृष्टि गुणों के ही साम्य से प्रलय होते हैं और उन दोनों का हेतु वे ही महेश्वर हैं ॥ ५२१/२

उन देवाधिदेव ने अपनी लीला से इस प्रकार की असंख्य सृष्टि की है। वे सर्ग प्रधान से अन्वधिष्ठित होते हैं ॥ ५३१/२

इस प्रकार असंख्य कल्प, अनगिनत पितामह (ब्रह्मा) तथा असंख्य विष्णु उत्पन्न होते हैं; किंतु वे महेश्वर मात्र एक हैं ॥ ५४१/२

प्रकृति अपनी लीला से प्राकृत सर्ग की रचना करती है और उस परमात्मा की वृत्ति तीन प्रकार के गुणों (सत्-रज-तम)-वाली है। उस अप्राकृत का अपना न कोई आदि है, न मध्य है और न अन्त ही है ॥ ५५-५६ ॥ ब्रह्मा की आयु [पर] दो परार्ध है । उस ब्रह्मा के द्वारा दिन में जो भी सृजित होता है, वह सब कुछ रात में नष्ट हो जाता है ॥ ५७ ॥ भूः, भुवः, स्वः, महः — ये लोक नष्ट हो जाते हैं; किंतु इनसे ऊपर के लोकों का नाश नहीं होता है। समस्त चर – अचर के अनन्त समुद्र में विनष्ट हो जाने पर रात्रि में ब्रह्माजी उसी जलराशि में शयन करते हैं; इसीलिये उन्हें नारायण कहा जाता है ॥ ५८१/२

प्रलयकालीन रात के बीतने पर ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ ब्रह्माजी उठे और चराचर जगत् को शून्य देखकर उन्होंने सृष्टि करने का विचार किया ॥ ५९१/२

उन सनातन ब्रह्मा ने वाराह का रूप धारण करके जल में डूबी हुई पृथ्वी को निकालकर उसे पुनः पूर्व की भाँति स्थापित कर दिया और उसपर नदी, नद तथा समुद्रों को उन प्रभु ने पूर्व की भाँति पुनः कर दिया ॥ ६०-६१ ॥ ब्रह्माजी ने प्रयत्नपूर्वक पृथ्वीतल पर दबे हुए तथा उठे भागों को ठीक करके उन्हें समतल किया और उन्होंने पूर्वकाल में अग्नि से दग्ध सभी पर्वतों को धरा पर पुनः पूर्ववत् बना दिया ॥ ६२ ॥ इस प्रकार भगवान् ब्रह्मा ने जब भूः आदि चारों लोकों की पूर्व की भाँति रचना कर ली, तब उन सृष्टिकर्ता ने पुनः सृष्टि करने का विचार किया ॥ ६३ ॥

॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराण के अन्तर्गत पूर्वभाग में ‘सृष्टिप्रारम्भवर्णन’ नामक चौथा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४ ॥

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  1. archive.org – श्रीलिंगमहापुराण (संस्कृत एवं हिन्दी अनुवाद) – Linga MahaPurana – Gita Press
  2. archive.org – 1.  2008 -Ling Mahapuran – Vol 1 Of 2 2. 2008 -Ling Mahapuran Vol 2 Of 2
  3. archive.org – Linga Purana (with the Shiva-toshini Sanskrit Commentary)

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