August 10, 2019 | Leave a comment शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [द्वितीय-सतीखण्ड] – अध्याय 12 श्री गणेशाय नमः श्री साम्बसदाशिवाय नमः बारहवाँ अध्याय दक्षप्रजापति का तपस्या के प्रभाव से शक्ति का दर्शन और उनसे रुद्रमोहन की प्रार्थना करना नारदजी बोले — हे ब्रह्मन् ! हे शिवभक्त ! हे प्राज्ञ ! हे निष्पाप ! आपने शिवा तथा शिव के कल्याणकारी चरित्र का भली-भाँति वर्णन किया और मेरे जन्म को पवित्र कर दिया ॥ १ ॥ अब आप यह बताइये कि व्रत में दृढ़ता रखनेवाले दक्ष ने तप करके देवी से कौन-सा वर प्राप्त किया तथा वे शिवा किस प्रकार दक्षकन्या के रूप में उत्पन्न हुईं ? ॥ २ ॥ शिवमहापुराण ब्रह्माजी बोले — हे नारद ! तुम इन मुनियों के साथ शिव में भक्ति रखने के कारण अत्यन्त धन्य हो । उत्तम व्रतवाले दक्ष ने जिस प्रकार तपस्या की तथा वर प्राप्त किया, उसे सुनो ॥ ३ ॥ मेरी आज्ञा पाकर वे बुद्धिमान् महाराज दक्षप्रजापति उस कार्य की सिद्धि की इच्छा से चित्त को समाहितकर देवी जगदम्बा की उपासना के लिये गये और क्षीरसागर के उत्तरतट पर रहनेवाली उन जगदम्बिका को हृदय में धारण करके उनका प्रत्यक्ष दर्शन करने हेतु तपस्या करने लगे ॥ ४-५ ॥ इन्द्रियों को अपने वश में करके दृढव्रती उन दक्ष ने देवताओं के तीन हजार वर्षपर्यन्त नियमपूर्वक तप किया ॥ ६ ॥ उन जगन्मयी शिवा का ध्यान करते हुए दक्ष ने कुछ दिन पत्ते खाकर, कुछ दिन जल पीकर, कुछ दिन निराहार रहकर तथा कुछ दिन वायु पीकर उस समय को व्यतीत किया ॥ ७ ॥ इस प्रकार वे सुव्रत दुर्गा के ध्यान में संलग्न होकर बहुत समय तक तपस्या करते रहे और अनेक नियमों से देवी की आराधना करते रहे । तब हे मुनिश्रेष्ठ ! अहिंसा, ब्रह्मचर्य आदि यमों से युक्त होकर जगदम्बा की पूजा करते हुए उन दक्ष के सामने जगदम्बा शिवा प्रत्यक्ष हुईं ॥ ८-९ ॥ तब दक्ष प्रजापति ने उन जगन्मयी जगदम्बा को अपने सामने प्रत्यक्ष देखकर अपने को कृत्यकृत्य समझा ॥ १० ॥ सिंह पर सवार, कृष्णवर्णवाली, सुन्दर मुखवाली, चार भुजाओंवाली, हाथों में वर-अभय-नीलकमल तथा खड्ग धारण की हुई, मनोहर, लाल नेत्रवाली, बिखरे हुए सुन्दर बालों से युक्त, जगत् की जन्मदात्री तथा सुन्दर कान्तिवाली उन कालिका को प्रणामकर दक्षप्रजापति ने [अपनी] विचित्र वाणी से उनकी स्तुति की ॥ ११-१२ ॥ दक्ष बोले — हे जगदम्बे ! हे महामाये ! हे जगदीश्वरि ! हे महेश्वरि ! आपने कृपा करके मुझे अपने रूप का दर्शन दिया है, आपको मेरा नमस्कार है ॥ १३ ॥ हे भगवति ! हे आद्ये ! मुझपर प्रसन्न हों, हे शिवरूपिणि ! प्रसन्न हों, हे भक्तवरदे ! प्रसन्न हों, हे जगन्माये ! आपको नमस्कार है ॥ १४ ॥ ब्रह्माजी बोले — हे मुने ! संयत चित्तवाले दक्ष ने इस प्रकार महेश्वरी की स्तुति की, तब उनके मनोरथ को जानती हुई भी वे दक्ष से कहने लगीं – ॥ १५ ॥ देवी बोलीं — हे दक्ष ! मैं आपकी इस भक्ति से बहुत प्रसन्न हूँ, तुम्हारे लिये कुछ भी अदेय नहीं है, अतः अपना अभीष्ट वर माँगिये ॥ १६ ॥ ब्रह्माजी बोले — जगन्माता के इस वचन को सुनकर दक्ष प्रजापति अत्यन्त प्रसन्न होकर शिवा को बारंबार प्रणाम करते हुए कहने लगे — ॥ १७ ॥ दक्ष बोले — हे जगदम्ब ! हे महामाये ! यदि आप मुझे वर देना चाहती हैं, तो मेरे वचनों को सुनिये और प्रसन्नता से मेरा मनोरथ पूर्ण कीजिये ॥ १८ ॥ जो मेरे स्वामी शिव हैं, वे रुद्रनाम से ब्रह्मा के पुत्ररूप में अवतरित हुए हैं, वे परमात्मा के पूर्णावतार हैं, परंतु अभीतक आपका अवतार नहीं हुआ है, [आपके अतिरिक्त] उनकी पत्नी कौन हो सकती है ? अतः हे शिवे ! आप पृथ्वी पर अवतरित होकर उन्हें मोहित करें ॥ १९-२० ॥ [हे देवि!] आपके अतिरिक्त अन्य कोई भी उन्हें मोहित नहीं कर सकती, इसलिये आप इस समय मेरी कन्या के रूप में जन्म लेकर शिवपत्नी बनें ॥ २१ ॥ इस प्रकार उत्तम लीला करके आप शिवजी को मोह में डालें, हे देवि ! मेरा यही वर है, आपके सामने मैंने सत्य कह दिया ॥ २२ ॥ इसमें केवल मेरा ही स्वार्थ नहीं है, अपितु सम्पूर्ण लोकों का और ब्रह्मा, विष्णु तथा शिवजी का भी स्वार्थ है । इसीलिये ऐसा करने के लिये ब्रह्माजी ने मुझे प्रेरित किया है ॥ २३ ॥ ब्रह्माजी बोले — दक्ष के इस वचन को सुनकर जगदम्बा मन में उन शिवजी का स्मरण करके हँसकर कहने लगीं – ॥ २४ ॥ देवी बोलीं — हे तात ! हे प्रजापते ! हे दक्ष ! मेरी सत्य बात सुनिये । मैं आपकी भक्ति से अत्यन्त प्रसन्न होकर सब कुछ प्रदान करनेवाली हूँ । हे दक्ष ! मैं महेश्वरी आपकी पुत्री बनूँगी, इसमें सन्देह नहीं । मैं आपकी भक्ति के वश में हो गयी हूँ ॥ २५-२६ ॥ हे अनघ ! मैं अत्यन्त कठोर तप करके ऐसा प्रयत्न करूँगी, जिससे शिवजी से वर को प्राप्तकर उनकी पत्नी बन जाऊँ ॥ २७ ॥ वे प्रभु सदाशिव ब्रह्मा तथा विष्णु के सेव्य, विकाररहित तथा पूर्ण हैं । अतः बिना तप के इस प्रकार की कार्यसिद्धि नहीं हो सकती है ॥ २८ ॥ मैं तो प्रत्येक जन्म में उनकी प्रिय दासी हूँ और अनेक प्रकार के रूप धारण करनेवाले वे सदाशिव मेरे स्वामी हैं ॥ २९ ॥ वे वर के प्रभाव से ब्रह्माजी की भृकुटि से अवतीर्ण हुए हैं और मैं भी उन्हीं की आज्ञा से ब्रह्माजी के वरदान से इस लोक में अवतार लूँगी ॥ ३० ॥ हे तात ! अब आप अपने घर जाइये । मैंने अपनी दूती को सारी बात बता दी है । मैं [कुछ ही दिनों में] आपकी कन्या बनकर शीघ्र ही शिव की पत्नी बनूँगी ॥ ३१ ॥ इस प्रकार दक्षप्रजापति से श्रेष्ठ वचन कहकर और मन में शिव की आज्ञा पाकर वे शिवजी के चरणकमलों का ध्यान करके पुनः कहने लगीं — ॥ ३२ ॥ देवी बोलीं — हे प्रजापते ! परंतु मेरी एक प्रतिज्ञा अपने मन में सदैव रखना । मैं उस प्रतिज्ञा को तुम्हें सुना देती हूँ, उसे सत्य समझना, असत्य नहीं ॥ ३३ ॥ यदि आपने कभी मेरा अनादर किया तो मैं अपना शरीर त्याग दूंगी, यह सत्य है । मैं सर्वथा स्वतन्त्र हूँ, अतः दूसरा शरीर धारण करूँगी ॥ ३४ ॥ हे प्रजापते ! मैं प्रत्येक सर्ग में आपकी कन्या बनकर शिवजी की पत्नी बनूँगी – मैंने यह वरदान आपको दिया ॥ ३५ ॥ ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार दक्ष प्रजापति से कहकर वे महेश्वरी उनके देखते-देखते वहीं अन्तर्धान हो गयीं ॥ ३६ ॥ देवी के अन्तर्धान होनेपर दक्ष भी अपने घर चले गये और यह विचारकर आनन्दित हो गये कि देवी मेरी कन्या बनकर अवतार ग्रहण करेंगी ॥ ३७ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के द्वितीय सतीखण्ड में दक्षवरप्राप्तिवर्णन नामक बारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १२ ॥ Related