June 8, 2025 | aspundir | Leave a comment अग्निपुराण – अध्याय 043 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ तैंतालीसवाँ अध्याय मन्दिर के देवता की स्थापना और भूतशान्ति आदि का कथन का वर्णन प्रासाददेवतास्थापनम् भूतशान्त्यादिकथनम् हयग्रीवजी कहते हैं — ब्रह्मन् ! अब मैं मन्दिर में स्थापित करने योग्य देवताओं का वर्णन करूँगा, आप सुनें। पञ्चायतन मन्दिर में जो बीच का प्रधान मन्दिर हो, उसमें भगवान् वासुदेव को स्थापित करे। शेष चार मन्दिरों में से अग्निकोण वाले मन्दिर में भगवान् वामन की, नैर्ऋत्यकोण में नरसिंह की, वायव्यकोण में हयग्रीव की और ईशानकोण में वराहभगवान् की स्थापना करे। अथवा यदि बीच में भगवान् नारायण की स्थापना करे तो अग्निकोण में दुर्गा की, नैर्ऋत्यकोण में सूर्य की, वायव्यकोण में ब्रह्मा की और ईशानकोण में लिङ्गमय शिव की स्थापना करे। अथवा ईशान में रुद्ररूप की स्थापना करे। अथवा एक-एक आठ दिशाओं में और एक बीच में इस प्रकार कुल नौ मन्दिर बनवावे । उनमें से बीच में वासुदेव की स्थापना करे और पूर्वादि दिशाओं में परशुराम-राम आदि मुख्य- मुख्य नौ अवतारों की तथा इन्द्र आदि लोकपालों की स्थापना करनी चाहिये। अथवा कुल नौ धामों में पाँच मन्दिर मुख्य बनवावे। इनके मध्य में भगवान् पुरुषोत्तम की स्थापना करे ॥ १-५ ॥’ पूर्व दिशा में लक्ष्मी और कुबेर की, दक्षिण में मातृकागण, स्कन्द, गणेश और शिव की, पश्चिम में सूर्य आदि नौ ग्रहों की तथा उत्तर में मत्स्य आदि दस अवतारों की स्थापना करे। इसी प्रकार अग्निकोण में चण्डी की, नैर्ऋत्यकोण में अम्बिका की, वायव्यकोण में सरस्वती की और ईशानकोण में लक्ष्मीजी की स्थापना करनी चाहिये । मध्यभाग में वासुदेव अथवा नारायण की स्थापना करे। अथवा तेरह कमरों वाले देवालय के मध्यभाग में विश्वरूप भगवान् विष्णु की स्थापना करे ॥ ६-८ ॥ पूर्व आदि दिशाओं में केशव आदि द्वादश विग्रहों को स्थापित करे तथा इनसे अतिरिक्त गृहों में साक्षात् ये श्रीहरि ही विराजमान होते हैं। भगवान् की प्रतिमा मिट्टी, लकड़ी, लोहा, रत्न, पत्थर, चन्दन और फूल – इन सात वस्तुओं की बनी हुई सात प्रकार की मानी जाती है। फूल, मिट्टी तथा चन्दन की बनी हुई प्रतिमाएँ बनने के बाद तुरंत पूजी जाती हैं। (अधिक काल के लिये नहीं होतीं ।) पूजन करने पर ये समस्त कामनाओं को पूर्ण करती हैं। अब मैं शैलमयी प्रतिमा का वर्णन करता हूँ, जहाँ प्रतिमा बनाने में शिला (पत्थर) – का उपयोग किया जाता है ॥ ९-११ ॥ उत्तम तो यह है कि किसी पर्वत का पत्थर लाकर प्रतिमा बनवावे। पर्वतों के अभाव में जमीन से निकले हुए पत्थर का उपयोग करे। ब्राह्मण आदि चारों वर्णवालों के लिये क्रमशः सफेद, लाल, पीला और काला पत्थर उत्तम माना गया है। यदि ब्राह्मण आदि वर्णवालों को उनके वर्ण के अनुकूल उत्तम शिला न मिले तो उसमें आवश्यक वर्ण की कमी की पूर्ति करने के लिये नरसिंह-मन्त्र से हवन करना चाहिये । यदि शिला में सफेद रेखा हो तो वह बहुत ही उत्तम है, अगर काली रेखा हो तो वह नरसिंह- मन्त्र से हवन करने पर उत्तम होती है। यदि शिला से काँसे के बने हुए घण्टे की-सी आवाज निकलती हो और काटने पर उससे चिनगारियाँ निकलती हों तो वह ‘पुल्लिङ्ग’ है, ऐसा समझना चाहिये। यदि उपर्युक्त चिह्न उसमें कम दिखायी दें, तो उसे ‘स्त्रीलिङ्ग’ समझना चाहिये और पुल्लिङ्ग स्त्रीलिङ्ग-बोधक कोई रूप न होने पर उसे ‘नपुंसक’ मानना चाहिये। तथा जिस शिला में कोई मण्डल का चिह्न दिखायी दे उसे सगर्भा समझकर त्याग देना चाहिये ॥ १२-१५ ॥ प्रतिमा बनाने के लिये वन में जाकर वनयाग आरम्भ करना चाहिये। वहाँ कुण्ड खोदकर और उसे लीपकर मण्डप में भगवान् विष्णु का पूजन करना चाहिये तथा उन्हें बलि समर्पण कर कर्म में उपयोगी टंक आदि शस्त्रों की भी पूजा करनी चाहिये। फिर हवन करने के पश्चात् अगहनी के चावल के जल से अस्त्र-मन्त्र (अस्त्राय फट् ) – के उच्चारणपूर्वक उस शिला को सींचना चाहिये। नरसिंह- मन्त्र से उसकी रक्षा करके मूल मन्त्र (ॐ नमो नारायणाय) – से पूजन करे। फिर पूर्णाहुति होम करके आचार्य भूतों के लिये बलि समर्पित करें। वहाँ जो भी अव्यक्तरूप से रहनेवाले जन्तु, यातुधान (राक्षस), गुह्यक और सिद्ध आदि हों अथवा और भी जो हों, उन सबका पूजन करके इस प्रकार क्षमा- प्रार्थना करनी चाहिये ॥ १६-१९ ॥ ‘भगवान् केशव की आज्ञा से प्रतिमा के लिये हमलोगों की यह यात्रा हुई है। भगवान् विष्णु के लिये जो कार्य हो, वह आपलोगों का भी कार्य है। अतः हमारे दिये हुए इस बलिदान से आप लोग सर्वथा तृप्त हों और शीघ्र ही यह स्थान छोड़कर कुशलपूर्वक अन्यत्र चले जायें ॥ २०-२१ ॥ इस प्रकार सावधान करने पर वे जीव बड़े प्रसन्न होते हैं और सुखपूर्वक उस स्थान को छोड़कर अन्यत्र चले जाते हैं। इसके बाद कारीगरों के साथ यज्ञ का चरु भक्षण करके रात में सोते समय स्वप्न मन्त्र का जप करे। ‘जो समस्त प्राणियों के निवास स्थान हैं, व्यापक हैं, सबको उत्पन्न करनेवाले हैं, स्वयं विश्वरूप हैं और सम्पूर्ण विश्व जिनका स्वरूप है, उन स्वप्र के अधिपति भगवान् श्रीहरि को नमस्कार है। देव ! देवेश्वर! मैं आपके निकट सो रहा हूँ। मेरे मन में जिन कार्यों का संकल्प है, उन सबके सम्बन्ध में मुझसे कुछ कहिये ॥ २२-२४ ॥ ‘ॐ ॐ ह्रूं फट् विष्णवे स्वाहा।’ इस प्रकार मन्त्र जप करके सो जाने पर यदि अच्छा स्वप्न हो तो सब शुभ होता है और यदि बुरा स्वप्न हुआ तो नरसिंह-मन्त्र से हवन करने पर शुभ होता है। सबेरे उठकर अस्त्र-मन्त्र से शिला पर अर्घ्य दे। फिर अस्त्र की भी पूजा करे। कुदाल (फावड़े), टंक और शस्त्र आदि के मुख पर मधु और घी लगाकर पूजन करना चाहिये। अपने आपका विष्णुरूप से चिन्तन करे। कारीगर को विश्वकर्मा माने और शस्त्र के भी विष्णुरूप होने की ही भावना करे। फिर शस्त्र कारीगर को दे और उसका मुख पृष्ठ आदि उसे दिखा दे ॥ २५-२७ ॥ कारीगर अपनी इन्द्रियों को वश में रखे और हाथ में टंक लेकर उससे उस शिला को चौकोर बनावे। फिर पिण्डी बनाने के लिये उसे कुछ छोटी करे। इसके बाद शिला को वस्त्र में लपेटकर रथ पर रखे और शिल्पशाला में लाकर पुनः उस शिला का पूजन करे। इसके बाद कारीगर प्रतिमा बनावे ॥ २८-२९ ॥ ॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘मन्दिर के देवता की स्थापना, भूतशान्ति, शिला- लक्षण और प्रतिमा निर्माण आदि का निरूपण’ नामक तैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ४३ ॥ Content is available only for registered users. 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