June 22, 2025 | aspundir | Leave a comment अग्निपुराण – अध्याय 137 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ एक सौ सैंतीसवाँ अध्याय महामारी विद्या का वर्णन युद्धजयार्णवे महामारी महेश्वर कहते हैं — देवि ! अब मैं महामारी-विद्या का वर्णन करूँगा, जो शत्रुओं का मर्दन करनेवाली है ॥ १ ॥ महामारीविद्या मंत्र ॐ ह्रीं महामारि रक्ताक्षि कृष्णवर्णे यमस्याज्ञाकारिणि सर्वभूतसंहारकारिणि अमुकं हन हन, ॐ दह दह, ॐ पच पच, ॐ च्छिन्द च्छिन्द, ॐ मारय मारय, ओमुत्सादयोत्सादय, ॐ सर्वसत्त्ववशंकरि सर्वकामिके हुं फट् स्वाहा ॥ ॐ ह्रीं लाल नेत्रों तथा काले रंगवाली महामारि ! तुम यमराज की आज्ञाकारिणी हो, समस्त भूतों का संहार करनेवाली हो, मेरे अमुक शत्रु का हनन करो, हनन करो। ॐ उसे जलाओ, जलाओ। ॐ पकाओ, पकाओ। ॐ काटो, काटो। ॐ मारो, मारो। ॐ उखाड़ फेंको, उखाड़ फेंको। ॐ समस्त प्राणियों को वश में करनेवाली और सम्पूर्ण कामनाओं को देनेवाली ! हुं फट् स्वाहा ॥ २ ॥’ महामारीविद्या मंत्र न्यास:- ॐ मारि हृदयाय नमः । ॐ महामारि शिरसे स्वाहा । ॐ कालरात्रि शिखायै वौषट् । ॐ कृष्णवर्णे खः कवचाय हुम् । ॐ तारकाक्षि विद्युज्जिह्वे सर्वसत्त्वभयङ्करि रक्ष रक्ष सर्वकार्येषु ह्रं त्रिनेत्राय चषट् । ॐ महामारि सर्वभूतदमानि महाकालि अस्त्राय हुं फट् ॥ अङ्गन्यास — ‘ॐ मारि हृदयाय नमः । – इस वाक्य को बोलकर दाहिने हाथ की मध्यमा, अनामिका और तर्जनी अँगुलियों से हृदय का स्पर्श करे। ‘ॐ महामारि शिरसे स्वाहा।’ – इस वाक्य को बोलकर दाहिने हाथ से सिर का स्पर्श करे। ॐ कालरात्रि शिखायै वौषट् ।‘ – इस वाक्य को बोलकर दाहिने हाथ के अँगूठे से शिखा का स्पर्श करे। ‘ॐ कृष्णवर्णे खः कवचाय हुम् ।’– इस वाक्य को बोलकर दाहिने हाथ की पाँचों अँगुलियों से बायीं भुजा का और बायें हाथ की पाँचों अँगुलियों से दाहिनी भुजा का स्पर्श करे। ‘ॐ तारकाक्षि विधुजिह्वे सर्वसत्त्वभयंकरि रक्ष रक्ष सर्वकार्येषु हं त्रिनेत्राय वषट् ।’ – इस वाक्य को बोलकर दाहिने हाथ की अँगुलियों के अग्रभाग से दोनों नेत्रों और ललाट के मध्यभाग का स्पर्श करे। ॐ महामारि सर्वभूतदमनि महाकालि अस्त्राय हुं फट् ।’– इस वाक्य को बोलकर दाहिने हाथ को सिर के ऊपर एवं बायीं ओर से पीछे की ओर ले जाकर दाहिनी ओर से आगे की ओर ले आये और तर्जनी तथा मध्यमा अँगुलियों से बायें हाथ की हथेली पर ताली बजाये ॥ ३ ॥ महादेवि ! साधक को यह अङ्गन्यास अवश्य करना चाहिये। वह मुर्दे पर का वस्त्र लाकर उसे चौकोर फाड़ ले। उसकी लंबाई-चौड़ाई तीन-तीन हाथ की होनी चाहिये। उसी वस्त्र पर अनेक प्रकार के रंगों से देवी की एक आकृति बनावे, जिसका रंग काला हो वह आकृति तीन मुख और चार भुजाओं से युक्त होनी चाहिये। देवी की यह मूर्ति अपने हाथों में धनुष, शूल, कतरनी और खट्वाङ्ग (खाट का पाया) धारण किये हुए हो। उस देवी का पहला मुख पूर्व दिशा की ओर हो और अपनी काली आभा से प्रकाशित हो रहा हो तथा ऐसा जान पड़ता हो कि दृष्टि पड़ते ही वह अपने सामने पड़े हुए मनुष्य को खा जायगी। दूसरा मुख दक्षिण भाग में होना चाहिये। उसकी जीभ लाल हो और वह देखने में भयानक जान पड़ता हो। वह विकराल मुख अपनी दाढ़ों के कारण अत्यन्त उत्कट और भयंकर हो और जीभ से दो गलफर चाट रहा हो। साथ ही ऐसा जान पड़ता हो कि दृष्टि पड़ते ही यह घोड़े आदि को खा जायगा ॥ ४-७ ॥ देवी का तीसरा मुख पश्चिमाभिमुख हो। उसका रंग सफेद होना चाहिये। वह ऐसा जान पड़ता हो कि सामने पड़ने पर हाथी आदि को भी खा जायगा। गन्ध-पुष्प आदि उपचारों तथा घी-मधु आदि नैवेद्योंद्वारा उसका पूजन करे ॥ ८ ॥ पूर्वोक्त मन्त्र का स्मरण करनेमात्र से नेत्र और मस्तक आदि का रोग नष्ट हो जाता है। यक्ष और राक्षस भी वश में हो जाते हैं और शत्रुओं का नाश हो जाता है। यदि मनुष्य क्रोधयुक्त होकर, निम्ब-वृक्ष की समिधाओं को होम करे तो उस होम से ही वह अपने शत्रु को मार सकता है, इसमें संशय नहीं है। यदि शत्रु की सेना की ओर मुँह करके एक सप्ताह तक इन समिधाओं का हवन किया जाय तो शत्रु की सेना नाना प्रकार के रोगों से ग्रस्त हो जाती है और उसमें भगदड़ मच जाती है। जिसके नाम से आठ हजार उक्त समिधाओं का होम कर दिया जाय, वह यदि ब्रह्माजी के द्वारा सुरक्षित हो तो भी शीघ्र ही मर जाता है। यदि धतूरे की एक सहस्र समिधाओं को रक्त और विष से संयुक्त करके तीन दिनतक उनका होम किया जाय तो शत्रु अपनी सेना के साथ ही नष्ट हो जाता है ॥ ९-१३ ॥ राई और नमक से होम करने पर तीन दिन में ही शत्रु की सेना में भगदड़ पड़ जायगी-शत्रु भाग खड़ा होगा। यदि उसे गदहे के रक्त से मिश्रित करके होम किया जाय तो साधक अपने शत्रु का उच्चाटन कर सकता है-वहाँ से भागने के लिये उसके मन में उचाट पैदा कर सकता है। कौए के रक्त से संयुक्त करके हवन करने पर शत्रु को उखाड़ फेंका जा सकता है। साधक उसके वध में समर्थ हो सकता है तथा साधक के मन में जो-जो इच्छा होती है, उन सब इच्छाओं को वह पूर्ण कर लेता है । युद्धकाल में साधक हाथी पर आरूढ़ हो, दो कुमारियों के साथ रहकर, पूर्वोक्त मन्त्र द्वारा शरीर को सुरक्षित कर ले फिर दूर के शङ्ख आदि वाद्यों को पूर्वोक्त महामारी-विद्या से अभिमन्त्रित करे। तदनन्तर महामाया की प्रतिमा से युक्त वस्त्र को लेकर समराङ्गण में ऊँचाई पर फहराये और शत्रुसेना की ओर मुँह करके उस महान् पट को उसे दिखाये। तत्पश्चात् वहाँ कुमारी कन्याओं को भोजन करावे। फिर पिण्डी को घुमाये। उस समय साधक यह चिन्तन करे कि शत्रु की सेना पाषाण की भाँति निश्चल हो गयी है ॥ १४-१८१/२ ॥ वह यह भी भावना करे कि शत्रु की सेना में लड़ने का उत्साह नहीं रह गया है, उसके पाँव उखड़ गये हैं और वह बड़ी घबराहट में पड़ गयी है। इस प्रकार करने से शत्रु की सेना का स्तम्भन हो जाता है। (वह चित्रलिखित की भाँति खड़ी रह जाती है, कुछ कर नहीं पाती।) यह मैंने स्तम्भन का प्रयोग बताया है। इसका जिस किसी भी व्यक्ति को उपदेश नहीं देना चाहिये। यह तीनों लोकों पर विजय दिलानेवाली देवी ‘माया’ कही गयी है और इसकी आकृति से अङ्कित वस्त्र को ‘मायापट’ कहा गया है। इसी तरह दुर्गा, भैरवी, कुब्जिका, रुद्रदेव तथा भगवान् नृसिंह की आकृति का भी वस्त्र पर अङ्कन किया जा सकता है। इस तरह की आकृतियों से अङ्कित पट आदि के द्वारा भी यह स्तम्भन का प्रयोग सिद्ध हो सकता है ॥ १९-२१ ॥ ॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘महामारी विद्या का वर्णन’ नामक एक सौ सैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १३७ ॥ Content is available only for registered users. 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