June 26, 2025 | aspundir | Leave a comment अग्निपुराण – अध्याय 174 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ एक सौ चौहत्तरवाँ अध्याय प्रायश्चित्तों का वर्णन प्रायश्चित्तानि अग्निदेव कहते हैं — देव मन्दिर के पूजन आदि का लोप करने पर प्रायश्चित्त करना चाहिये। पूजा का लोप करने पर एक सौ आठ बार जप करे और दुगुनी पूजा की व्यवस्था करके पञ्चोपनिषद्- मन्त्रों से हवन कर ब्राह्मण भोजन करावे । सूतिका स्त्री, अन्त्यज अथवा रजस्वला के द्वारा देवमूर्ति का स्पर्श होने पर सौ बार गायत्री जप करे । दुगुना स्नान करके पश्चोपनिषद् मन्त्रों से पूजन एवं ब्राह्मण भोजन कराये। होम का नियम भङ्ग होने पर होम, स्नान और पूजन करे। होम- द्रव्य को चूहे आदि खा लें या वह कीटयुक्त हो जाय, तो उतना अंश छोड़कर तथा शेष द्रव्य का जल से प्रोक्षण करके देवताओं का पूजन करे। भले ही अङ्कुरमात्र अर्पण करे, परंतु छिन्न-भिन्न द्रव्य का बहिष्कार कर दे। अस्पृश्य मनुष्यों का स्पर्श हो जाने पर पूजा द्रव्य को दूसरे पात्र में रख दे। पूजा के समय मन्त्र अथवा द्रव्य की त्रुटि होने पर दैव एवं मानुष विघ्नों का विनाश करनेवाले गणपति के बीज मन्त्र का जप करके पुन: पूजन करे। देव मन्दिर का कलश नष्ट हो जाने पर सौ बार मन्त्र जप करे। देवमूर्ति के हाथ से गिरने एवं नष्ट हो जाने पर उपवासपूर्वक अग्नि में सौ आहुतियाँ देने से शुभ होता है। जिस पुरुष के मन में पाप करने पर पश्चात्ताप होता है, उसके लिये श्रीहरि का स्मरण ही परम प्रायश्चित्त है। चान्द्रायण, पराक एवं प्राजापत्य व्रत पापसमूहों का विनाश करनेवाले हैं। ‘सूर्य, शिव, शक्ति और विष्णु के मन्त्र का जप भी पापों का प्रशमन करता है। गायत्री प्रणव, पापप्रणाशनस्तोत्र एवं मन्त्र का जप पापों का अन्त करनेवाला है। सूर्य, शिव, शक्ति और विष्णु के ‘क’ से प्रारम्भ होनेवाले, ‘रा’ बीज से संयुक्त, रादि आदि और रान्त मन्त्र करोड़गुना फल देनेवाले हैं। इनके सिवा ‘ॐ क्लीं’ से प्रारम्भ होनेवाले चतुर्थ्यन्त एवं अन्त में ‘नमः’ संयुक्त मन्त्र सम्पूर्ण कामनाओं को सिद्ध करनेवाले हैं। नृसिंह भगवान् के द्वादशाक्षर एवं अष्टाक्षर मन्त्र का जप पापसमूहों का विनाश करता है। अग्निपुराण का पठन एवं श्रवण करने से भी मनुष्य समस्त पापसमूहों से छूट जाता है। इस पुराण में अग्निदेव का माहात्म्य भी वर्णित है। परमात्मा श्रीविष्णु ही मुखस्वरूप अग्निदेव हैं, जिनका सम्पूर्ण वेदों में गान किया गया है। भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले उन परमेश्वर का प्रवृत्ति और निवृत्ति-मार्ग से भी पूजन किया जाता है। अग्निरूप में स्थित श्रीविष्णु के उद्देश्य से हवन, जप, ध्यान, पूजन, स्तवन एवं नमस्कार शरीर-सम्बन्धी सभी पापों का विध्वंस करनेवाला है। दस प्रकार के स्वर्णदान, बारह प्रकार के धान्यदान, तुलापुरुष आदि सोलह महादान एवं सर्वश्रेष्ठ अन्नदान – ये सब महापापों का अपहरण करनेवाले हैं। तिथि, वार, नक्षत्र, संक्रान्ति, योग, मन्वन्तरारम्भ आदि के समय सूर्य, शिव, शक्ति तथा विष्णु के उद्देश्य से किये जानेवाले व्रत आदि पापों का प्रशमन करते हैं। गङ्गा, गया, प्रयाग, अयोध्या, उज्जैन, कुरुक्षेत्र, पुष्कर, नैमिषारण्य, पुरुषोत्तमक्षेत्र, शालग्राम, प्रभासक्षेत्र आदि तीर्थ पापसमूहों को विनष्ट करते हैं। ‘मैं परम प्रकाशस्वरूप बल हूँ।’ – इस प्रकार की धारणा भी पापों का विनाश करनेवाली है। ब्रह्मपुराण, अग्निपुराण, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, भगवान् के अवतार, समस्त देवताओं की प्रतिमा-प्रतिष्ठा एवं पूजन, ज्यौतिष, पुराण, स्मृतियाँ, तप, व्रत, अर्थशास्त्र, सृष्टि के आदितत्त्व, आयुर्वेद, धनुर्वेद, शिक्षा, छन्द:- शास्त्र, व्याकरण, निरुक्त, कोष, कल्प, न्याय, मीमांसा शास्त्र एवं अन्य सब कुछ भी भगवान् श्रीविष्णु की विभूतियाँ हैं। वे श्रीहरि एक होते हुए भी सगुण-निर्गुण दो रूपों में विभक्त एवं सम्पूर्ण संसार में संनिहित हैं। जो ऐसा जानता है, श्रीहरि स्वरूप उन महापुरुष का दर्शन करने से दूसरों के पाप विनष्ट हो जाते हैं। भगवान् श्रीहरि ही अष्टादश विद्यारूप, सूक्ष्म, स्थूल, सच्चित्- स्वरूप, अविनाशी परब्रह्म एवं निष्पाप विष्णु हैं ॥ १-२४ ॥ ॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘प्रायश्चित्त-वर्णन’ नामक एक सौ चौहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ७४ ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe