अग्निपुराण – अध्याय 175
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
एक सौ पचहत्तरवाँ अध्याय
व्रत के विषय में अनेक ज्ञातव्य बातें
व्रतपरिभाषा

अग्निदेव कहते हैं — वसिष्ठजी! अब मैं तिथि, वार, नक्षत्र, दिवस, मास, ऋतु वर्ष तथा सूर्य संक्रान्ति के अवसर पर होनेवाले स्त्री-पुरुष- सम्बन्धी व्रत आदि का क्रमशः वर्णन करूँगा, ध्यान देकर सुनिये — ॥ १ ॥

शास्त्रोक्त नियम को ही ‘व्रत’ कहते हैं, वही ‘तप’ माना गया है। ‘दम’ (इन्द्रियसंयम) और ‘शम’ (मनोनिग्रह) आदि विशेष नियम भी व्रत के ही अङ्ग हैं। व्रत करने वाले पुरुष को शारीरिक संताप सहन करना पड़ता है, इसलिये व्रत को ‘तप’ नाम दिया गया है। इसी प्रकार व्रत में इन्द्रियसमुदाय का नियमन (संयम) करना होता है, इसलिये उसे ‘नियम’ भी कहते हैं। जो ब्राह्मण या द्विज (क्षत्रिय-वैश्य) अग्निहोत्री नहीं हैं, उनके लिये व्रत, उपवास, नियम तथा नाना प्रकार के दानों से कल्याण की प्राप्ति बतायी गयी उक्त व्रत-उपवास आदि के पालन से प्रसन्न है ॥ २-४ ॥

उक्त व्रत-उपवास आदि के पालन से प्रसन्न होकर देवता एवं भगवान् भोग तथा मोक्ष प्रदान करते हैं। पापों से उपावृत (निवृत्त) होकर सब प्रकार के भोगों का त्याग करते हुए जो सद्गुणों के साथ वास करता है, उसी को ‘उपवास’ समझना चाहिये। उपवास करने वाले पुरुष को काँसे के बर्तन, मांस, मसूर, चना, कोदो, साग, मधु, पराये अन्न तथा स्त्री-सम्भोग का त्याग करना चाहिये। उपवासकाल में फूल, अलंकार, सुन्दर वस्त्र, धूप, सुगन्ध, अङ्गराग, दाँत धोने के लिये मञ्जन तथा दाँतौन — इन सब वस्तुओं का सेवन अच्छा नहीं माना गया है। प्रातः काल जल से मुँह धो, कुल्ला करके, पञ्चगव्य लेकर व्रत प्रारम्भ कर देना चाहिये ॥ ५-९ ॥

अनेक बार जल पीने, पान खाने, दिन में सोने तथा मैथुन करने से उपवास (व्रत) दूषित हो जाता है। क्षमा, सत्य, दया, दान, शौच, इन्द्रियसंयम, देवपूजा, अग्निहोत्र, संतोष तथा चोरी का अभाव — ये दस नियम सामान्यतः सम्पूर्ण व्रतों में आवश्यक माने गये हैं। व्रत में पवित्र ऋचाओं को जपे और अपनी शक्ति के अनुसार हवन करे। व्रती पुरुष प्रतिदिन स्नान तथा परिमित भोजन करे। गुरु, देवता तथा ब्राह्मणों का पूजन किया करे। क्षार, शहद, नमक, शराब और मांस को त्याग दे । तिल-मूँग आदि के अतिरिक्त धान्य भी त्याज्य हैं धान्य (अन्न) में उड़द, कोदो, चीना, देवधान्य, शमी धान्य, गुड़, शितधान्य, पय तथा मूली — ये क्षारगण माने गये हैं। व्रत में इनका त्याग कर देना चाहिये। धान, साठी का चावल, मूँग, मटर, तिल, जौ, साँवाँ, तिनी का चावल और गेहूँ आदि अन्न व्रत में उपयोगी हैं। कुम्हड़ा, लौकी, बैंगन, पालक तथा पूतिका को त्याग दे। चरु, भिक्षा में प्राप्त अन्न, सत्तू के दाने, साग, दही, घी, दूध, साँवाँ, अगहनी का चावल, तिनी का चावल, जौ का हलुवा तथा मूल तण्डुल — ये ‘हविष्य’ माने गये हैं। इन्हें व्रत में, नक्तव्रत में तथा अग्निहोत्र में भी उपयोगी बताया गया है। अथवा मांस, मदिरा आदि अपवित्र वस्तुओं को छोड़कर सभी उत्तम वस्तुएँ व्रत में हितकर हैं ॥ १०-१७ ॥

‘प्राजापत्यव्रत का अनुष्ठान करनेवाला द्विज तीन दिन केवल प्रातः काल और तीन दिन केवल संध्याकाल में भोजन करे। फिर तीन दिन केवल बिना माँगे जो कुछ मिल जाय, उसी का दिन में एक समय भोजन करे; उसके बाद तीन दिनों तक उपवास करके रहे। (इस प्रकार यह बारह दिनों का व्रत है।) इसी प्रकार ‘अतिकृच्छ्र- व्रत’ का अनुष्ठान करने वाला द्विज पूर्ववत् तीन दिन प्रातःकाल, तीन दिन सायंकाल और तीन दिनों तक बिना माँगे प्राप्त हुए अन्न का एक-एक ग्रास भोजन करे तथा अन्तिम दिनों में उपवास करे। गाय का मूत्र, गोबर, दूध, दही, घी तथा कुश का जल — इन सबको मिलाकर प्रथम दिन पीये। फिर दूसरे दिन उपवास करे — यह ‘सांतपनकृच्छ्र’ नामक व्रत है। उपर्युक्त द्रव्यों का पृथक् पृथक् एक-एक दिन के क्रम से छः दिनों तक सेवन करके सातवें दिन उपवास करे — इस प्रकार यह एक सप्ताह का व्रत ‘महासांतपन- कृच्छ्र‘ कहलाता है, जो पापों का नाश करनेवाला है। लगातार बारह दिनों के उपवास से सम्पन्न होनेवाले व्रत को ‘पराक’ कहते हैं। यह सब पापों का नाश करनेवाला है। इससे तिगुने अर्थात् छत्तीस दिनों तक उपवास करने पर यही व्रत ‘महापराक’ कहलाता है। पूर्णिमा को पंद्रह ग्रास भोजन करके प्रतिदिन एक-एक ग्रास घटाता रहे; अमावास्या को उपवास करे तथा प्रतिपदा को एक ग्रास भोजन आरम्भ करके नित्य एक-एक ग्रास बढ़ाता रहे, इसे ‘चान्द्रायण’ कहते हैं। इसके विपरीतक्रम से भी यह व्रत किया जाता है। (जैसे शुक्ल प्रतिपदा को एक ग्रास भोजन करे; फिर एक-एक ग्रास बढ़ाते हुए पूर्णिमा को पंद्रह ग्रास भोजन करे। तत्पश्चात् कृष्ण प्रतिपदा से एक-एक ग्रास घटाकर अमावास्या को उपवास करे) ॥ १८-२३ ॥

कपिला गाय का मूत्र एक पल, गोबर अँगूठे के आधे हिस्से के बराबर, दूध सात पल, दही दो पल, घी एक पल तथा कुश का जल एक पल एक में मिला दे। इनका मिश्रण करते समय गायत्री मन्त्र से गोमूत्र डाले। ‘गन्धद्वारां दुराधर्षा०’ (श्रीसूक्त) इस मन्त्र से गोबर मिलाये। ‘आप्यायस्व०’ (यजु० १२ । ११२) इस मन्त्र से दूध डाल दे। ‘दधि क्राव्णो०’ (यजु० २३ । ३२ ) इस मन्त्र से दही मिलाये। ‘तेजोऽसि शुक्रमस्यमृतमसि०’ ( यजु० २२ ।१ ) इस मन्त्र से घी डाले तथा ‘देवस्य o’ (यजु० २० । ३ ) इस मन्त्र से कुशोदक मिलाये। इस प्रकार जो वस्तु तैयार होती है, उसका नाम ‘ब्रह्मकूर्च’ है। ब्रह्मकूर्च तैयार होने पर दिन भर भूखा रहकर सायंकाल में अघमर्षण- मन्त्र अथवा प्रणव के साथ ‘आपो हि० (यजु० ११।५० ) इत्यादि ऋचाओं का जप करके उसे पी डाले। ऐसा करने वाला सब पापों से मुक्त हो विष्णुलोक में जाता है। दिनभर उपवास करके केवल सायंकाल में भोजन करने वाला दिन के आठ भागों में से केवल छठे भाग में आहार ग्रहण करनेवाला संन्यासी, मांसत्यागी, अश्वमेधयज्ञ करनेवाला तथा सत्यवादी पुरुष स्वर्ग को जाते हैं। अग्न्याधान, प्रतिष्ठा, यज्ञ, दान, व्रत, देवव्रत, वृषोत्सर्ग, चूडाकरण, मेखलाबन्ध (यज्ञोपवीत), विवाह आदि माङ्गलिक कार्य तथा अभिषेक — ये सब कार्य मलमास नहीं करने चाहिये ॥ २४-३० ॥

अमावास्या से अमावास्या तक का समय ‘चान्द्रमास’ कहलाता है। तीस दिनों का ‘सावन मास माना गया है। संक्रान्ति से संक्रान्तिकाल तक ‘सौरमास’ कहलाता है तथा क्रमशः सम्पूर्ण नक्षत्रों के परिवर्तन से ‘नाक्षत्रमास’ होता है। विवाह आदि में ‘सौरमास’, यज्ञ आदि में ‘सावन मास’ और वार्षिक श्राद्ध तथा पितृकार्य में ‘चान्द्रमास’ उत्तम माना गया है। आषाढ़ की पूर्णिमा के बाद जो पाँचवाँ पक्ष आता है, उसमें पितरों का श्राद्ध अवश्य करना चाहिये। उस समय सूर्य कन्याराशि पर गये हैं या नहीं, इसका विचार श्राद्ध के लिये अनावश्यक है ॥ ३१-३३ ॥

मासिक तथा वार्षिक व्रत में जब कोई तिथि दो दिन की हो जाय तो उसमें दूसरे दिन वाली तिथि उत्तम जाननी चाहिये और पहली को मलिन। ‘नक्षत्रव्रत’ में उसी नक्षत्र को उपवास करना चाहिये, जिसमें सूर्य अस्त होते हों। ‘दिवसव्रत’ में दिनव्यापिनी तथा ‘नक्तव्रत’ में रात्रिव्यापिनी तिथियाँ पुण्य एवं शुभ मानी गयी हैं। द्वितीया के साथ तृतीया का, चतुर्थी पञ्चमी का, षष्ठी के साथ सप्तमी का, अष्टमी-नवमी का, एकादशी के साथ द्वादशी का, चतुर्दशी के साथ पूर्णिमा का तथा अमावास्या के साथ प्रतिपदा का वेध उत्तम है। इसी प्रकार षष्ठी – सप्तमी आदि में भी समझना चाहिये। इन तिथियों का मेल महान् फल देने वाला है। इसके विपरीत, अर्थात् प्रतिपदा से द्वितीया का, तृतीया से चतुर्थी आदि का जो युग्मभाव है, वह बड़ा भयानक होता है, वह पहले के किये हुए समस्त पुण्य को नष्ट कर देता है ॥ ३४-३७ ॥

राजा, मन्त्री तथा व्रतधारी पुरुषों के लिये विवाह में, उपद्रव आदि में, दुर्गम स्थानों में, संकट के समय तथा युद्ध के अवसर पर तत्काल शुद्धि बतायी गयी है। जिसने दीर्घकाल में समाप्त होने वाले व्रत को आरम्भ किया है, वह स्त्री यदि बीच में रजस्वला हो जाय तो वह रज उसके व्रत में बाधक नहीं होता। गर्भवती स्त्री, प्रसव गृह में पड़ी हुई स्त्री अथवा रजस्वला कन्या जब अशुद्ध होकर व्रत करने योग्य न रह जाय तो सदा दूसरे से उस शुभ कार्य का सम्पादन कराये। यदि क्रोध से, प्रमाद से अथवा लोभ से व्रत भङ्ग हो जाय तो तीन दिनों तक भोजन न करे अथवा मूँड़ मुँड़ा ले । यदि व्रत करने में असमर्थता हो तो पत्नी या पुत्र से उस व्रत को करावे आरम्भ किये हुए व्रत का पालन जननाशौच तथा मरणाशौच में भी करना चाहिये। केवल पूजन का कार्य बंद कर देना चाहिये। यदि व्रती पुरुष उपवास के कारण मूर्च्छित हो जाय तो गुरु दूध पिलाकर या और किसी उत्तम उपाय से उसे होश में लाये। जल, फल, मूल, दूध, हविष्य (घी), ब्राह्मण की इच्छापूर्ति, गुरु का वचन तथा औषध — ये आठ व्रत के नाशक नहीं हैं ॥ ३८- ४३ ॥

( व्रती मनुष्य व्रत के स्वामी देवता से इस प्रकार प्रार्थना करे ) व्रतपते! मैं कीर्ति, संतान विद्या आदि, सौभाग्य, आरोग्य, अभिवृद्धि, निर्मलता तथा भोग एवं मोक्ष के लिये इस व्रत का अनुष्ठान करता हूँ। यह श्रेष्ठ व्रत मैंने आपके समक्ष ग्रहण किया है। जगत्पते! आपके प्रसाद से इसमें निर्विघ्न सिद्धि प्राप्त हो। संतों के पालक ! इस श्रेष्ठ व्रत को ग्रहण करने के पश्चात् यदि इसकी पूर्ति हुए बिना ही मेरी मृत्यु हो जाय तो भी आपके प्रसन्न होने से वह अवश्य ही पूर्ण हो जाय।
व्रतमूर्तिं जगद्भूतिं मण्डले सर्वसिद्धये ।
आवहये नमस्तुभ्यं सन्निधीभव केशव ॥ ४७ ॥

केशव! आप व्रतस्वरूप हैं, संसार की उत्पत्ति के स्थान एवं जगत्को कल्याण प्रदान करनेवाले हैं; मैं सम्पूर्ण मनोरथों की सिद्धि के लिये इस मण्डल में आपका आवाहन करता हूँ। आप मेरे समीप उपस्थित हों।
मनसा कल्पितैर्भक्त्या पञ्चगव्यैर्जलैः शुभैः ।
पञ्चामृतैः स्नापयामि त्वं मे च भव पापहा ॥ ४८ ॥

मन के द्वारा प्रस्तुत किये हुए पञ्चगव्य, पञ्चामृत तथा उत्तम जल के द्वारा मैं भक्तिपूर्वक आपको स्नान कराता हूँ। आप मेरे पापों के नाशक हों।
गन्धपुष्पोदकैर्युक्तमर्घ्यमर्घ्यपते शुभं ।
गृहाण पाद्यमाचाममर्घ्यार्हङ्कुरु मां सदा ॥ ४९ ॥

अर्घ्यपते! गन्ध, पुष्प और जल से युक्त उत्तम अर्ध्य एवं पाद्य ग्रहण कीजिये, आचमन कीजिये तथा मुझे सदा अर्ध ( सम्मान) पाने के योग्य बनाइये।
वस्त्रं वस्त्रपते पुण्यं गृहाण कुरु मां सदा ।
भूषणाद्यैः सुवस्त्राद्यैश्छादितं व्रतसत्पते ॥ ५० ॥

वस्त्रपते ! व्रतों के स्वामी! यह पवित्र वस्त्र ग्रहण कीजिये और मुझे सदा सुन्दर वस्त्र एवं आभूषणों आदि से आच्छादित किये रहिये ।
सुगन्धिगन्धं विमलं गन्धमूर्ते गृहाण वै ।
पापगन्धविहीनं मां कुरु त्वं हि सुगन्धिकं ॥ ५१ ॥

गन्धस्वरूप परमात्मन्! यह परम निर्मल उत्तम सुगन्ध से युक्त चन्दन लीजिये तथा मुझे पाप की दुर्गन्ध से रहित और पुण्य की सुगन्ध से युक्त कीजिये ।
पुष्पं गृहाण पुष्पादिपूर्ण मां कुरु सर्वदा ।
पुष्पगन्धं सुविमलं आयुरारोग्यवृद्धये ॥ ५२ ॥

भगवन् ! यह पुष्प लीजिये और मुझे सदा फल-फूल आदि से परिपूर्ण बनाइये। यह फूल की निर्मल सुगन्ध आयु तथा आरोग्य की वृद्धि करनेवाली हो।
दशाङ्गं गुग्गुलुघृतयुक्तं धूपं गृहाण वै ।
सधूप धूपित मां त्वं कुरु धूपितसत्पते ॥ ५३ ॥

संतों के स्वामी! गुग्गुल और घी मिलाये हुए इस दशाङ्ग धूप को ग्रहण कीजिये । धूप द्वारा पूजित परमेश्वर! आप मुझे उत्तम धूप की सुगन्ध से सम्पन्न कीजिये।
दीपमूर्धशिखं दीप्तं गृहाणाखिलभासकं ।
दीपमूर्ते प्रकाशाढ्यं सर्वदोर्ध्वगतिं कुरु ॥ ५४ ॥

दीपस्वरूप देव! सबको प्रकाशित करनेवाले इस प्रकाशपूर्ण दीप को, जिसकी शिखा ऊपर की ओर उठ रही है, ग्रहण कीजिये और मुझे भी प्रकाशयुक्त एवं ऊर्ध्वगति (उन्नतिशील एवं ऊपर के लोकों में जानेवाला) बनाइये।
अन्नादिकञ्च नैवेद्यं गृहाणान्नादि सत्पते ।
अन्नादिपूर्णं कुरु मामन्नदं सर्वदायकं ॥ ५५ ॥

अन्न आदि उत्तम वस्तुओं के अधीश्वर ! इस अन्न आदि नैवेद्य को ग्रहण कीजिये और मुझे ऐसा बनाइये, जिससे मैं अन्न आदि वैभव से सम्पन्न, अन्नदाता एवं सर्वस्वदान करनेवाला हो सकूँ।
मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं मया प्रभो ।
यत्पूजितं व्रतपते परिपूर्णन्तदसु मे ॥ ५६ ॥
धर्मं देहि धनं देहि सौभाग्यं गुणसन्ततिं ।
कीर्तिं विद्यां देहि चायुः स्वर्गं मोक्षञ्च देहि मे ॥ ५७ ॥

प्रभो ! व्रत के द्वारा आराध्य देव! मैंने मन्त्र, विधि तथा भक्ति के बिना ही जो आपका पूजन किया है, वह आपकी कृपा से परिपूर्ण सफल हो जाय। आप मुझे धर्म, धन, सौभाग्य, गुण, संतति, कीर्ति, विद्या, आयु, स्वर्ग एवं मोक्ष प्रदान करें।
इमां पूजां व्रतपते गृहीत्वा व्रज साम्प्रतं ।
पुनरागमनायैव वरदानाय वै प्रभो ॥ ५८ ॥

व्रतपते! प्रभो! आप इस समय मेरे द्वारा की हुई इस पूजा को स्वीकार करके पुनः यहाँ पधारने और वरदान देने के लिये अपने स्थान को जायें ॥ ४४- ५८ ॥

सब प्रकार के व्रतों में व्रतधारी पुरुष को उचित है कि वह स्नान करके व्रत-सम्बन्धी देवता की स्वर्णमयी प्रतिमा का यथाशक्ति पूजन करे तथा रात को भूमिपर सोये। व्रत के अन्त में जप, होम और दान सामान्य कर्तव्य है। साथ ही अपनी शक्ति के अनुसार चौबीस, बारह, पाँच, तीन अथवा एक ब्राह्मण की एवं गुरुजनों की पूजा करके उन्हें भोजन करावे और यथाशक्ति सबको पृथक्- पृथक् गौ, सुवर्ण आदि; खड़ाऊँ, जूता, जलपात्र, अन्नपात्र, मृत्तिका, छत्र, आसन, शय्या, दो वस्त्र और कलश आदि वस्तुएँ दक्षिणा में दे। इस प्रकार यहाँ ‘व्रत’ की परिभाषा बतायी गयी है ॥ ५९-६२ ॥

॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘व्रत- परिभाषा का वर्णन’ नामक एक सौ पचहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १७५ ॥

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