अग्निपुराण – अध्याय 201
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
दो सौ एकवाँ अध्याय
नवव्यूहार्चन
नवव्यूहार्चनं

अग्निदेव कहते हैं — वसिष्ठ! अब मैं नवव्यूहार्चन की विधि बताऊँगा, जिसका उपदेश भगवान् श्रीहरि ने नारदजी के प्रति किया था। पद्ममय मण्डल बीच में ‘अं’ बीज से युक्त वासुदेव की पूजा करे (यथा – अं वासुदेवाय नमः)। ‘आं’ बीज से युक्त संकर्षण का अग्निकोण में, ‘अं’ बीज से युक्त प्रद्युम्न का दक्षिण में, ‘अः’ बीजवाले अनिरुद्ध का नैर्ऋत्यकोण में, प्रणवयुक्त नारायण का पश्चिम में, तत्सद् ब्रह्म का वायव्यकोण में, ‘ह्रं’ बीज से युक्त विष्णु का और ‘क्ष्रौं’ बीज से युक्त नृसिंह का उत्तर दिशा में पृथ्वी और वराह का ईशानकोण में तथा पश्चिम द्वार में पूजन करे ॥ १-३ ॥

‘कं टं शं सं’ — इन बीजों से युक्त पूर्वाभिमुख गरुड़ का दक्षिण दिशा में पूजन करे। ‘खं छं बं हुं फट्’ तथा ‘खं ठं फं शं’ — इन बीजों से युक्त गदा की चन्द्रमण्डल में पूजा करे। ‘बं  णं मं क्षं’ तथा ‘शं धं दं भं हं’ — इन बीजों से युक्त श्रीदेवी का कोणभाग में पूजन करे। दक्षिण तथा उत्तर दिशा में ‘गं डं बं शं’ — इन बीजों से युक्त पुष्टिदेवी की अर्चना करे। पीठ के पश्चिम भाग में ‘धं वं’ इन बीजों से युक्त वनमाला का पूजन करे। ‘सं हं लं’ — इन बीजों से युक्त श्रीवत्स की पश्चिम दिशा में पूजा करे और ‘छं तं यं’ — इन बीजों से युक्त कौस्तुभ का जल में पूजन करे ॥ ४-६ ॥

फिर दशमाङ्ग क्रम से विष्णु का और उनके अधोभाग में भगवान् अनन्त का उनके नाम के साथ ‘नमः’ पद जोड़कर पूजन करे। दस 1  अङ्गादि का तथा महेन्द्र आदि दस दिक्पालों का पूर्वादि दिशाओं में पूजन करे। पूर्वादि दिशाओं में चार कलशों का भी पूजन करे। तोरण, वितान (चंदोवा) तथा अग्नि, वायु और चन्द्रमा के बीजों से युक्त मण्डलों का क्रमशः ध्यान करके अपने शरीर को वन्दनापूर्वक अमृत से प्लावित करे। आकाश में स्थित आत्मा के सूक्ष्मरूप का ध्यान करके यह भावना करे कि वह चन्द्रमण्डल से झरे हुए श्वेत अमृत की धारा में निमग्न है। प्लवन से जिसका संस्कार किया गया है, वह अमृत ही आत्मा का बीज है। उस अमृत से उत्पन्न होनेवाले पुरुष को आत्मा (अपना स्वरूप) माने। यह भावना करे कि ‘मैं स्वयं ही विष्णुरूप- से प्रकट हुआ हूँ।’ इसके बाद द्वादश बीजों का न्यास करे। क्रमशः वक्ष:स्थल, मस्तक, शिखा, पृष्ठभाग, नेत्र तथा दोनों हाथों में हृदय, सिर, शिखा, कवच, नेत्रत्रय और अस्त्र — इन अंगों का न्यास करे। दोनों हाथों में अस्त्र का न्यास करने के पश्चात् साधक के शरीर में दिव्यता आ जाती है ॥ ७-१२ ॥

जैसे अपने शरीर में न्यास करे, वैसे ही देवता के विग्रह में भी करे तथा शिष्य के शरीर में भी उसी तरह न्यास करे। हृदय में जो श्रीहरि का पूजन किया जाता है, उसे ‘निर्माल्यरहित पूजा’ कहा गया है। मण्डल आदि में निर्माल्यसहित पूजा की जाती है। दीक्षाकाल में शिष्यों के नेत्र बंधे रहते हैं। उस अवस्था में इष्टदेव के विग्रह पर वे जिस फूल को फेंकें, तदनुसार ही उनका नामकरण करना चाहिये। शिष्यों को वामभाग में बैठाकर अग्नि में तिल, चावल और घी की आहुति दे। एक सौ आठ आहुतियाँ देने के पश्चात् कायशुद्धि के लिये एक सहस्र आहुतियों का हवन करे। नवव्यूह की मूर्तियों तथा अंगों के लिये सौ से अधिक आहुतियाँ देनी चाहिये। तदनन्तर पूर्णाहुति देकर गुरु उन शिष्यों को दीक्षा दे तथा शिष्यों को चाहिये धन से गुरु की पूजा करें ॥ १३-१६ ॥

॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘नवव्यूहार्चनवर्णन’ नामक दो सौ एकवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २०१ ॥

1. पाँच अङ्गन्यास तथा पाँच करन्यास।

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