September 1, 2015 | aspundir | Leave a comment इन्द्रकृतं परमेश्वर-श्रीकृष्णस्तोत्रं इन्द्र उवाच अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरुपं सनातनम् । गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तकम् ।।१ भक्तध्यानाय सेवायै नानारुपधरं वरम् । शुक्लरक्तपीतश्यामं युगानुक्रमणेन च ।।२ शुक्लतेजःस्वरुपं च सत्ये सत्यस्वरुपिणम् । त्रेतायां कुङ्कुमाकारं ज्वलन्तं ब्रह्मतेजसा ।।३ द्वापरे पीतवर्णे च शोभितं पीतवाससा । कृष्णवर्णे कलौ कृष्णं परिपूर्णतमं प्रभुम् ।।४ नवधाराधरोत्कृष्टश्यामसुन्दरविग्रहम् । नन्दैकनन्दनं वन्दे यशोदानन्दनं प्रभुम् ।।५ गोपिकाचेतनहर राधाप्राणाधिकं परम् । विनोदमुरलीशब्दं कुर्वन्तं कौतुकेन च ।।६ रुपेणाप्रतिमेनैव रत्नभूषणभूषितम् । कंदर्पकोटिसौन्दर्ये विभ्रतं शान्तमीश्वरम् ।।७ क्रीडन्तं राधया सार्धे वृन्दारण्ये च कुत्रचित् । कुत्रचिन्निर्जनेऽरण्ये राधावक्षःस्थलस्थितम् ।।८ जलक्रीडां प्रकुर्वन्तं राधया सह कुत्रचित् । राधिकाकबरीभारं कुर्वन्तं कुत्रचिद् वने ।।९ कुत्रचिद् राधिकापादे दत्तवन्तमलक्तकम् । राधाचर्वितताम्बूलं गृह्णन्तं कुत्रचिन्मुदा ।।१० पश्यन्तं कुत्रचिद् राधां पश्यन्तीं वक्रचक्षुषा । दत्तवन्तं च राधायै कृत्वा मालां च कुत्रचित् ।।११ कुत्रचिद् राधाया सार्धं गच्छन्तं रासमण्डलम् । राधादत्तां गले मालां धृतवन्तं च कुत्रचित् ।।१२ सार्धं गोपालिकाभिश्च विहरन्तं च कुत्रचित् । राधा गृहीत्वा गच्छन्तं विहाय तां च कुत्रचित् ।।१३ विप्रपत्नीदत्तमन्नं भुक्तवन्तं च कुत्रचित् । भुक्तवन्तं तालफलं बालकैः सह कुत्रचित् ।।१४ वस्त्रं गोपालिकानां च हरन्तं कुत्रचिन्मुदा । गवां गणं व्याहरन्तं कुत्रचिद् बालकैः सह ।।१५ कालीयमूर्घ्नि पादाब्जं दत्तवन्तं च कुत्रचित् । विनोदमुरलीशब्दं कुर्वन्तं कुत्रचिन्मदा ।।१६ गायन्तं रम्पसंगीतं कुत्रचिद् बालकैः सह । स्तुत्वा शकः स्तवेन्द्रेण प्रणनाम हरिं भिया ।।१७ पुरा दत्तेन गुरुणा रणे वृत्रासुरेण च । कृष्णेन दत्तं कृपया ब्रह्मणे च तपस्यते ।।१८ एकादशाक्षरो मन्त्रः कवचं सर्वलक्षणम् । दत्तमेतत् कुमाराय पुष्करे ब्रह्मणा पुरा ।।१९ कुमारोऽङ्गिरसे दत्तो गुरवेऽङ्गिरसा मुने । इदमिन्द्रकृतं स्तोत्रं नित्यं भक्तया च यः पठेत् ।।२० इह प्राप्य दृढां भक्तिमन्ते दास्यं लभेद् ध्रुवम् । जन्ममृत्युजराव्याधिशोकेभ्यो मुच्यते नरः ।। न हि पश्यति स्वप्नेऽपि यमदूतं यमालयम् ।।२१ ।।श्रीब्रह्मवैवर्ते इन्द्रकृतं परमेश्वरश्रीकृष्ण-स्तोत्रं।। (श्रीकृष्ण-जन्म-खण्ड 21/176-196) भावार्थ – इन्द्र बोले – जो अविनाशी, परब्रह्म, ज्योतीःस्वरुप, सनातन, गुणातीत, निराकार, स्वेच्छामय और अनन्त हैं; जो भक्तों के ध्यान तथा आराधना के लिये नाना रुप धारण करते हैं; युग के अनुसार जिनके श्वेत, रक्त, पीत और श्याम वर्ण हैं; सत्य-युग में जिनका स्वरुप शुक्ल तेजोमय है तथा उस युग में जो सत्य-स्वरुप है; त्रेता में जिनकी अंग-कान्ति कुंकुम के समान लाल है और जो ब्रह्म-तेज से जाज्वल्यमान रहते हैं, द्वापर में जो पीत कान्ति धारण करके पीताम्बर से सुशोभित होते हैं, कलियुग में कृष्णवर्ण होकर ‘कृष्ण’ नाम धारण करते हैं; इन सब रुपों में जो एक ही परिपूर्णतम परमात्मा हैं; जिनका श्रीविग्रह नूतन जलधर के समान अत्यन्त श्याम एवं सुन्दर है; उन नन्दनन्दन यशोदाकुमार भगवान् गोविन्द की मैं वन्दना करता हूँ। जो गोपियों का चित्त चुराते हैं तथा राधा के लिये प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं, जो कौतूहलवश विनोद के लिये मुरली की ध्वनि का विस्तार करते रहते हैं, जिनके रुप की कहीं तुलना नहीं है, जो रत्नमय आभूषणों से विभूषित हो कोटि-कोटि कन्दर्पों का सौन्दर्य धारण करते हैं; उन शान्त-स्वरुप परमेश्वर को मैं प्रणाम करता हूँ । जो वृन्दावन में कहीं राधा के पास क्रीड़ा करते हैं, कहीं निर्जन स्थल में राधा के वक्षःस्थल पर विराजमान होते हैं, कहीं राधा के साथ जल-क्रीड़ा करते हैं, कहीं वन में राधिका के केश-कलापों की चोटी गूँथते हैं, कहीं राधिका के चरणों में महावर लगाते हैं, कहीं राधिका के चबाये हुए ताम्बूल को सानन्द ग्रहण करते हैं, कहीं बाँके नेत्रों से देखती हुई राधा को स्वयं निहारते हैं, कहीं फूलों की माला तैयार करके राधिका को अर्पित करते हैं, कहीं राधा की दी हुई माला को अपने कण्ठ में धारण करते हैं, कहीं गोपांगनाओं के साथ विहार करते हैं, कहीं राधा को साथ लेकर चल देते हैं और कहीं उन्हें भी छोड़कर चले जाते हैं । जिन्होंने कहीं ब्राह्मण-पत्नियों के दिये हुए अन्न का भोजन किया है और कहीं बालकों के साथ ताड़ का फल खाया है; जो कहीं आनन्दपूर्वक गोप-किशोरियों के चित्त चुराते हैं, कहीं ग्वाल-बालों के साथ दूर गयी हुई गौओं को आवाज देकर बुलाते हैं, जिन्होंने कहीं कालिय-नाग के मस्तक पर अपने चरण-कमलों को रखा है और जो कहीं मौज में आकर आनन्द-विनोद के लिये मुरली की तान छेड़ते हैं तथा कहीं ग्वाल-बालों के साथ मधुर गीत गाते हैं; उन परमात्मा श्रीकृष्ण को मैं प्रणाम करता हूँ । इस स्तव-राज से स्तुति करके इन्द्र ने श्रीहरि को भय से प्रणाम किया । पूर्वकाल में वृत्रासुर के साथ युद्ध के समय गुरु बृहस्पति ने इन्द्र को यह स्तोत्र दिया था । सबसे पहले श्रीकृष्ण ने तपस्वी ब्रह्मा को कृपा-पूर्वक एकादशाक्षर मन्त्र, सब लक्षणों से युक्त कवच और यह स्तोत्र दिया था । फिर ब्रह्मा ने पुष्कर में कुमार को, कुमार ने अंगिरा को और अंगिरा ने बृहस्पति को इसका उपदेश दिया था । इन्द्र द्वारा किये गये इस स्तोत्र का जो प्रतिदिन भक्तिपूर्वक पाठ करता है, वह इहलोक में श्रीहरि की सुदृढ़ भक्ति और अन्त में निश्चय ही उनका दास्य-सुख प्राप्त कर लेता है । जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि और शोक से छुटकारा पा जाता है और स्वप्न में भी कभी यमदूत तथा यमलोक को नहीं देखता । Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe