March 21, 2025 | aspundir | Leave a comment ओषधिसूक्त ऋग्वेद दशम मण्डल का ९७वाँ सूक्त ओषधिसूक्त कहलाता है। इस सूक्त के ऋषि आथर्वण भिषग् तथा देवता ओषधि हैं, छन्द अनुष्टुप् हैं और सूक्त की कुल ऋचाओं की संख्या २३ है। इस सूक्त के आरम्भ में ही ऋषि ने ओषधियों को देवरूप मानकर उनसे रोगनिवारण करके आरोग्य तथा दीर्घायुष्यप्राप्ति की प्रार्थना की है। इस सूक्त में ओषधियों का प्राकट्य देवताओं से भी पूर्व बताया गया है- ‘या ओषधीः पूर्वा जाता देवेभ्यः ।’ ओषधियों को माता के समान रक्षक तथा पालन-पोषण करने वाली और अनन्तशक्तिसम्पन्ना बताया गया है। आरोग्य प्राप्ति की दृष्टि से इस सूक्त का बड़ा महत्त्व हैं। या ओषधीः पूर्वा जाता देवेभ्यस्त्रियुगं पुरा । मनै नु बभ्रूणामहं शतं धामानि सप्त च ॥ १ ॥ शतं वो अम्ब धामानि सहस्रमुत वो रुहः । अधा शतक्रत्वो यूयमिमं मे अगदं कृत ॥ २ ॥ ओषधीः प्रति मोदध्वं पुष्पवतीः प्रसूवरी: । अश्वा इव सजित्वरीर्वीरुधः पारयिष्णवः ॥ ३ ॥ जो देवों के पूर्व (अर्थात् उनकी) तीन पीढ़ियों के पहले ही उत्पन्न हुईं, उन (पुरातन) पीतवर्णा ओषधियों के एक सौ सात सामर्थ्यों का मैं मनन करता हूँ ॥ १ ॥ हे माताओ ! तुम्हारी शक्तियाँ सैकड़ों हैं एवं तुम्हारी वृद्धि भी सहस्र ( प्रकारों की) है। हे शत- सामर्थ्य धारण करने वाली औषधियो ! तुम मेरे इस (रुग्ण) पुरुष को निश्चय ही रोग मुक्त करो ॥ २ ॥ हे ओषधियो ! (मेरी संगति में) आनन्द मानो । तुम खिलने वाली और फलप्रसवा हो । जोड़ी से ( स्पर्धा या युद्ध) जीतने वाली घोड़ियों की तरह ये लताएँ (आपत्ति) पार पहुँचाने वाली हैं ॥ ३ ॥ ओषधीरिति मातरस्तद्वो देवीरूप देवीरुप ब्रुवे | सनेयमश्वं गां वास आत्मानं तव पूरुष ॥ ४ ॥ अश्वत्थे वो निषदनं पर्णे वो वसतिष्कृता । गोभाज इत् किलासथ यत् सनवथ पूरुषम् ॥ ५ ॥ यत्रौषधी: समग्मत राजानः समिताविव । विप्रः स उच्यते भिषग् रक्षोहामीवचातनः ॥ ६ ॥ अश्वावतीं सोमावतीमूर्जयन्तीमुदोजसम् । आवित्सि सर्वा ओषधीरस्मा अरिष्टतातये ॥ ७ ॥ हे ओषधियो, माताओ, देवियो! मैं तुम्हारे पास इस प्रकार याचना करता हूँ कि अश्व, गाय तथा वस्त्र – ये (मेरी दक्षिणा के रूप में) मुझे मिलें और हे ( व्याधिग्रस्त ) पुरुष ! तुम्हारा आत्मा भी ( रोगों के पंजे से छूटकर) मेरे वश में हो जाय ॥ ४ ॥ हे ओषधियो ! तुम्हारा विश्रामस्थान अश्वत्थवृक्ष पर है और तुम्हारे निवास की योजना पर्णवृक्ष पर की गयी है। अगर तुम इस व्याधिपीडित पुरुष को (व्याधियों के पाश से मुक्तकर मेरे पास फिर) लाकर दोगी तो ( पुरस्काररूप में) तुम्हें अनेक गायों की प्राप्ति होगी ॥ ५ ॥ राजा लोग जिस प्रकार राजसभा में सम्मिलित होते हैं, उसी तरह जिस विप्र ( – की संगति) में सभी ओषधियाँ एक साथ निवास करती हैं, उसे लोग ‘भिषक्’ कहते हैं। वह राक्षसों का विनाश करके व्याधियों को भगा देता है ॥ ६ ॥ इस ( व्याधिग्रस्त ) पुरुष के सभी दुःख नष्ट करने के उद्देश्य से अश्व प्राप्त करा देने वाली, सोम-सम्बद्ध, ऊर्जा बढ़ाने वाली तथा ओजस्विनी ऐसी सभी ओषधियाँ मैंने प्राप्त कर ली हैं ॥ ७ ॥ उच्छुष्मा ओषधीनां गावो ओषधीनां गावो गोष्ठादिवेरते । धनं सनिष्यन्तीनामात्मानं तव पुरुष ॥ ८ ॥ इष्कृतिर्नाम वो माता ऽथो यूयं स्थ निष्कृती: । सीराः पतत्रिणीः स्थन यदामयति निष्कृथ ॥ ९ ॥ अति विश्वाः परिष्ठाः स्तेन इव व्रजमक्रमुः । ओषधीः प्राचुच्यवुर्यत् किं च तन्वो३ रपः ॥ १० ॥ यदिमा वाजयन्नहमोषधीर्हस्त आदधे । आत्मा यक्ष्मस्य नश्यति पुरा जीवगृभो यथा ॥ ११ ॥ धनलाभ की इच्छा करने वाली और तुम्हारे ( व्याधिग्रस्त ) आत्मा को अपने वश में लाने वाली इन औषधियों की ये सभी शक्तियाँ हे रुग्णपुरुष ! उसी प्रकार मेरे पास से बाहर निकल रही हैं, जिस प्रकार गोष्ठ में से गायें ॥ ८ ॥ (स्वस्थ अवयवों को अच्छी प्रकार समृद्ध करने वाली हे ओषधियो !) इष्कृति नामक तुम्हारी माता है और तुम स्वयं निष्कृति (दूषित अवयवों का निःसारण करने वाली) हो। बहने वाली होकर भी तुम्हारे पंख हैं। (रोगी के शरीर में) रोग-निर्माण करने वाली जो-जो बातें हैं, उन्हें तुम बाहर निकाल देती हो ॥ ९ ॥ सभी प्रतिबन्धकों को तुच्छ मानकर जिस प्रकार (कुशल) चोर गायों के गोष्ठ में प्रवेश करके गायों को भगा देता है, उसी प्रकार हमारी इन ओषधियों ने (रोगी के शरीर में) प्रवेश किया है और उसके शरीर में जो कुछ पीडा थी, उसे (पूर्णतया ) बाहर निकाल दिया है ॥ १० ॥ जिस समय ओषधियों को शक्तिसम्पन्न बनाता हुआ मैं उन्हें अपने हाथ में धारण करता हूँ, उसी समय (व्याघ्रद्वारा) जीवन्त पकड़े जाने के पूर्व ही जिस प्रकार मृगादिक (प्राण बचाकर भाग जाते हैं, उसी प्रकार व्याधियों का आत्मा ही विनष्ट हो जाता है ॥ ११ ॥ यस्यौषधीः प्रसर्पथाङ्गमङ्ग परुष्परुः । ततो यक्ष्मं वि बाधध्व उग्रो मध्यमशीरिव ॥ १२ ॥ साकं यक्ष्म प्र पत चाषेण किकिदीविना । साकं वातस्य ध्राज्या साकं नश्य निहाकया ॥ १३ ॥ अन्या वो अन्यामवत्वन्यान्यस्या उपावत । ताः सर्वाः संविदाना इदं में प्रावता वचः ॥ १४ ॥ याः फलिनीर्या अफला अपुष्पा याश्च पुष्पिणीः । बृहस्पतिप्रसूतास्ता नो मुञ्चन्त्वंहसः ॥ १५ ॥ हे ओषधियो ! जिस व्याधिपीडित पुरुष के अंग-प्रत्यंगों में और सभी सन्धियों में तुम प्रसृत हो जाती हो, उसके उन अंग और सन्धियों से अपने शिकारों के मध्य में पड़े रहने वाले उग्र हिंस्र श्वापद की तरह तुम उस व्याधि को दूर कर देती हो ॥ १२ ॥ हे यक्ष्मा ! चाष और किकिदीविन- इन पक्षियों के साथ तुम दूर उड़ जाओ अथवा वात के अंधड़ एवं कुहरे के साथ विनष्ट हो जाओ ॥ १३ ॥ तुम परस्पर एक-दूसरे की सहायता करो। तुम आपस में वार्तालाप करो ( और फिर ), सभी एकमत होकर मेरी उस प्रतिज्ञा की रक्षा करो ॥ १४ ॥ जिनमें फल लगते हैं और जिनमें नहीं लगते; जिनमें फूल प्रकट होते हैं और जिनमें नहीं प्रकट होते, वे सभी ओषधियाँ बृहस्पति की आज्ञा होने पर हमें इस आपत्ति से मुक्त करें ॥ १५ ॥ मुञ्चन्तु मा शपथ्या३दथो वरुण्यादुत । अथो यमस्य पड्वीशात् सर्वस्माद्देवकिल्बिषात् ॥ १६ ॥ अवपतन्तीरवदन् दिव ओषधयस्परि । यं जीवमश्नवामहै न स रिष्याति पूरुषः ॥ १७ ॥ या ओषधीः सोमराज्ञीर्बह्वीः शतविचक्षणाः । तासां त्वमस्युत्तमारं कामाय शं हृदे ॥ १८ ॥ या ओषधीः सोमराज्ञीर्विष्ठिताः पृथिवीमनु । बृहस्पतिप्रसूता अस्यै सं दत्त वीर्यम् ॥ १९ ॥ ( शत्रुओं की) शपथों से निर्मित या वरुण द्वारा पीछे लगायी गयी आपत्ति से वे मुझे मुक्त करें। उसी प्रकार यम के पाशबन्धन से और देवों के विरुद्ध किये गये अपराधों से भी (वे मुझे) मुक्त करें ॥ १६ ॥ स्वर्गलोक से इधर-उधर नीचे पृथ्वी पर अवतरण करती हुई ओषधियों ने प्रतिज्ञा की कि जिस पुरुष को उसके जीवन की अवधि में हम स्वीकार करेंगी, वह कभी विनष्ट नहीं होगा ॥ १७ ॥ यह सोम जिनका राजा है तथा जो बहुसंख्यक होकर शत प्रकारों की निपुणताओं से परिपूर्ण हैं, उन सभी ओषधियों में तुम्हीं श्रेष्ठ हो और हमारी अभिलाषा सफल करने तथा हमारे हृदय को आनन्द देने में भी समर्थ हो ॥ १८ ॥ यह सोम जिनका राजा हैं तथा जो ओषधियाँ पृथिवी के पृष्ठभाग पर इधर-उधर बिखरी पड़ी हैं तथा तुम सभी बृहस्पति की आज्ञा हो जाने पर इस (मेरे हाथ में ली गयी ) ओषधि को अपना-अपना वीर्य समर्पित करो ॥ १९ ॥ मा वो रिषत् खनिता यस्मै चाहं खनामि वः । द्विपच्चतुष्पदस्माकं सर्वमस्त्वनातुरम् ॥ २० ॥ याश्चेदमुपशृण्वान्ते याश्च दूरं परागताः । सर्वाः संगत्य वीरुधो ऽस्यै सं दत्त वीर्यम् ॥ २१ ॥ ओषधयः सं वदन्ते सोमेन सह राज्ञा । यस्मै कृणोति ब्राह्मणस्तं राजन् पारयामसि ॥ २२ ॥ त्वमुत्तमास्योषधे तव वृक्षा उपस्तयः । उपस्तिरस्तु सोऽस्माकं यो अस्माँ अभिदासति ॥ २३ ॥ [ ऋक्० १० । ९७] ( भूमि के उदर में से) तुम्हें खोदकर निकालने वाला मैं और जिसके लिये तुम्हें खोदकर निकालता हूँ वह रुग्ण पुरुष – इन दोनों को किसी प्रकार का उपद्रव न होने दो। उसी प्रकार हमारे द्विपाद तथा चतुष्पाद प्राणी और अन्य जीव- ये सभी तुम्हारी कृपा से नीरोग रहें ॥ २० ॥ हे ओषधिलताओ ! तुम में से जो मेरा यह वचन सुन रही हैं और जो यहाँ से दूर – अन्तर पर (अपने-अपने कार्य के निमित्त) गयी हैं, वे सभी और तुम एकत्र होकर (मेरे हाथ में ली हुई ) ओषधि को अपना-अपना वीर्य समर्पित करो ॥ २१ ॥ अपना राजा जो सोम, उसके पास सभी ओषधियाँ सहमत होकर प्रतिज्ञा करती हैं कि हे राजन्! जिसके लिये यह ब्राह्मण (कविराज) हमें अभिमन्त्रित करता है, उसे हम ( व्याधियों से) पार करा देती हैं ॥ २२ ॥ हे ओषधि ! तुम सर्वश्रेष्ठ हो । सभी वृक्ष तुम्हारे आज्ञाकारी सेवक हैं। (वैसे ही) जो हमें कष्ट देना चाहता है, वह हमारी आज्ञा का वशवर्ती (दास) बनकर रहे ॥ २३ ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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