August 1, 2015 | Leave a comment तिलक महिमा स्नान एवं धौत वस्त्र धारण करने के उपरान्त वैष्णव ललाट पर ऊर्ध्वपुण्ड्र, शैव त्रिपुण्ड, गाणपत्य रोली या सिन्दूर का तिलक शाक्त एवं जैन क्रमशः लाल और केसरिया बिन्दु लगाते हैं। दिगम्बर जैन सम्प्रदाय में केसरिया तिलक तथा बौद्धों में श्वेताम्बर मतावलम्बियों के समान ही बिन्दु मस्तक पर धारण करते हैं। नारद पुराण में उल्लेख आया है कि ब्राह्मण को ऊर्ध्वपुण्ड्र, क्षत्रिय को त्रिपुण्ड व वैश्य को अर्धचन्द्र तथा शुद्र को वर्तुलाकार चन्दन से ललाट को अंकित करना चाहिये। योगी सन्यासी ऋषि साधकों तथा इस विषय से सम्बन्धित ग्रन्थों के अनुसार भृकुटि के मध्य भाग देदीप्यमान है। आज्ञाचक्र के ऊपर बिन्दुद्व नाद और शक्ति नाम के तीन पीठ हैं। अतः भाल तिलक प्रणव, उक्त तीन पीठ का मुख्य केन्द्र, आज्ञाचक्र को जाग्रत करने का कलात्मक सांस्कृतिक पूजन है। इसीलिए वासुदेव उपनिषद् में ऊर्ध्वपुण्ड्र को ऐसी यौगिक क्रिया बताया गया है, जिससे परमात्मा के सम्बन्ध में सच्चा ज्ञान प्राप्त होता है। वैष्णव सम्प्रदायों का कलात्मक भाल तिलक ऊर्ध्वपुण्ड्र कहलाता है। चन्दन, गोपीचन्दन, हरिचन्दन या रोली से भृकुटि के मध्य में नासाग्र या नासामूल से ललाट पर केश पर्यन्त अंकित खड़ी दो रेखाएं ऊर्ध्वपुण्ड्र कही जाती हैं। पद्मपुराण के अनुसार तुलसी के काष्ठ को घिसकर उसमें कपूर, अररू या केसर के मिलाने से हरिचन्दन बनता है। गोपीचन्दन द्वारका के पास स्थित गोपी सरोवर की रज है, जिसे वैष्णवों में परम पवित्र माना जाता है। स्कन्द पुराण में उल्लेख आया है कि श्रीकृष्ण ने गोपियों की भक्ति से प्रभावित होकर द्वारका में गोपी सरोवर का निर्माण किया था, जिसमें स्नान करने से उनको सुन्दर का सदा सर्वदा के लिये स्नेह प्राप्त हुआ था। इसी भाव से अनुप्रेरित होकर वैष्णवों में गोपी चन्दन का ऊर्ध्वपुण्ड्र मस्तक पर लगाया जाता है। इसी पुराण के पाताल खण्ड में कहा गया है कि गोपीचन्दन का तिलक धारण करने मात्र से ब्राह्मण से लेकर चांडाल तक पवित्र हो जाता है। वर्त्तमान में गोपी सरोवर तीर्थ गुजरात नागेश्वर के पास स्थित है। यहाँ आचार्य श्री बल्लभाचार्य की बैठक भी है। प्रसिद्ध वैष्णव सन्त श्री रामानुजाचार्य ने दक्षिण भारत में शैल पर्वत पर स्थित सरोवर की श्वेत मृत्तिका की खोज की है, जिसे वैष्णव सम्प्रदाय में गोपी चन्दन के समान पवित्र माना गया है और पाशा नाम से सम्बोधित किया गया है। स्कन्दपुराण में गोमती, गोकुल और गोपीचन्दन को पवित्र और दुर्लभ बताया गया है तथा कहा गया है कि जिसके घर में गोपीचन्दन की मृत्तिका विराजमान हैं, वहाँ श्रीकृष्ण सहित द्वारिकापुरी स्थित है। श्री राधावल्लभ सम्प्रदाय में ऊर्ध्वपुण्ड्र राधिकाचरण चिन्ह् के रूप में धारण किया जाता है। इस सम्प्रदाय में गोस्वामी गण बिन्दु परम्परा तथा सेवक या विरक्तगण बाद परम्परा वाले माने जाते हैं। बिन्दु परम्परा वाले गोस्वामीगण लाल रोली के ऊर्ध्वपुण्ड्र के बीच में श्याम बिन्दु तथा सेवक या विरक्त त्यागी पीत या श्वेत बिन्दु धारण करते हैं। वैष्णव ऊर्ध्वपुण्ड्र के विषय में पुराणों में दो प्रकार की मान्यताएं मिलती हैं। नारद पुराण में इसे विष्णु की गदा का द्योतक माना गया है, जबकि वासुदेव, ऊर्ध्वपुण्ड्र रूद्र तथा नारायणोपनिषद में इसे विष्णु के चरण पाद का परिचायक कहा गया है। ऊर्ध्वपुण्ड्रोपनिषद में ऊर्ध्वपुण्ड्र को विष्णु के चरण पाद का प्रतीक बताकर विस्तार से इसकी व्याख्या की है। वैष्णव साहित्य में राम और कृष्ण को विष्णु का ही अवतार माना है। इसलिये विष्णु के चरणपादों को मध्ययुगीन वैष्णव मतावलम्बियों ने राम और कृष्ण के चरण पाद के रूप में ही ग्रहण किया है। इस युग के भक्ति साहित्य के व्याख्याकार नाभादास भी इसी बात को स्वीकार करते हैं। अतः सम्पूर्ण वैष्णव भक्ति वाङ्गमय के इस सत्य को वैष्णव समाज विष्णु के युगल चरण तल की विभूति को ललाट पर धारण कर उसके करूणामय सौन्दर्य को ऊर्ध्वपुण्ड्र के कलात्मक अंकन द्वारा मन, वचन तथा कर्म में उतारता है। पुराणों की भाषा में ऊर्ध्वपुण्ड्र की दक्षिण रेखा को विष्णु अवतार राम या कृष्ण के दक्षिण चरण तल का प्रतिबिम्ब माना गया है, जिसमें वज्र, अंकुश, अंबर, कमल, यव, अष्टकोण, ध्वजा, चक्र, स्वास्तिक तथा ऊर्ध्वरेख है, तथा ऊर्ध्वपुण्ड्र की बायीं केश पर्यन्त रेखा विष्णु का बायाँ चरण तल है जो गोपद, शंख, जम्बूफल, कलश, सुधाकुण्ड, अर्धचन्द्र, षटकोण, मीन, बिन्दु, त्रिकोण तथा इन्द्रधनुष के मंगलकारी चिन्हों से युक्त है। इन मंगलकारी चिन्हों के धारण करने से वज्र से बल तथा पाप संहार, अंकुश से मनानिग्रह, अम्बर से भय विनाश, कमल से भक्ति, अष्टकोण से अष्टसिद्धि, ध्वजा से ऊर्ध्व गति, चक्र से शत्रुदमन, स्वास्तिक से कल्याण, ऊर्ध्वरेखा से भवसागर तरण, पुरूष से शक्ति और सात्त्विक गुणों की प्राप्ति, गोपद से भक्ति, शंख से विजय और बुद्धि से पुरूषार्थ, त्रिकोण से योग्य, अर्धचन्द्र से शक्ति, इन्द्रधनुष से मृत्यु भय निवारण होता है। विभिन्न सम्प्रदायों के भक्तों को कदाचित् इसकी जानकारी कम ही होगी कि वैष्णव ऋषि आचार्यों ने पुराणों में ऊर्ध्वपुण्ड्र की व्याख्या विष्णु युगल चरण विभूति को मस्तक पर धारण करने के रूप में ही की हैं। इस प्रकार सम्प्रदायों तथा व्याख्याओं में विभाजित समस्त वैष्णव समाज ऊर्ध्वपुण्ड्र की उक्त पौराणिक व्याख्या के अनुसार एक ही विभूति के उपासक हैं। विष्णु उपासक वैष्णवों के समान ही शिव उपासक ललाट पर भस्म या केसर युक्त चन्दन द्वारा भौहों के मध्य भाग से लेकर जहाँ तक भौहों का अन्त है उतना बड़ा त्रिपुण्ड और ठीक नाक के ऊपर लाल रोली का बिन्दु या तिलक धारण करते हैं। मध्यमा, अनामिका और तर्जनी से तीन रेखाएँ तथा बीच में रोली का अंगुष्ठ द्वारा प्रतिलोम भाव से की गई रेखा त्रिपुण्ड कहलाती है। शिवपुराण में त्रिपुण्ड को योग और मोक्ष दायक बताया गया है। शिव साहित्य में त्रिपुण्ड की तीन रेखाओं के नौ-नौ के क्रम में सत्ताईस देवता बताए गये हैं। वैष्णव द्वादय तिलक के समान ही त्रिपुण्ड धारण करने के लिये बत्तीस या सोलह अथवा शरीर के आठ अंगों में लगाने का आदेश है तथा स्थानों एवं अवयवों के देवों का अलग-अलग विवेचन किया गया है। शैव ग्रन्थों में विधिवत त्रिपुण्ड धारण कर रूद्राक्ष से महामृत्युजंय का जप करने वाले साधक के दर्शन को साक्षात रूद्र के दर्शन का फल बताया गया है। अप्रकाशिता उपनिषद के बहिवत्रयं तच्च जगत् त्रय, तच्च शक्तित्रर्य स्यात् द्वारा तीन अग्नि, तीन जगत और तीन शक्ति ज्ञान इच्छा और क्रिया का द्योतक बताकर कहा है कि जिसने त्रिपुण्ड धारण कर रखा है, उसे देवात् कोई देख ले तो वह सभी बाधाओं से विमुक्त हो जाता है। त्रिपुण्ड के बीच लाल तिलक या बिन्दु कारण तत्त्व बिन्दु माना जाता है। गणेश भक्त गाणपत्य अपनी भुजाओं पर गणेश के एक दाँत की तप्त मुद्रा दागते हैं तथा गणपति मुख की छाप लगाकर मस्तक पर लाल रोली या सिन्दूर का तिलक धारण कर गजवदन की उपासना करते हैं। धार्मिक तिलक के समान ही हमारे पारिवारिक या सामाजिक चर्या में तिलक इतना समाया हुआ है कि इसके अभाव में हमारा कोई भी मंगलमय कार्य हो ही नहीं सकता। धार्मिक तिलक स्वयं के द्वारा लगाया जाता है, जबकि सांस्कृतिक तिलक दूसरा लगाता है। अह्यिप्रकाश, स्मृति-मुक्ताफल तथा ब्रह्माण्ड पुराण के अनुसार तिलक लगाते समय मध्यमा और अंगुठे का ही प्रयोग होना चाहिये एवं इसका रूप या आकार दीपक की ज्याति, बाँस की पत्ती, कमल, कली, मछली या शंख के समान होना चाहिए। धर्म शास्त्र के ग्रन्थों के अनुसार इसका आकार दो से दस अंगुल तक हो सकता है। तिलक से पूर्व ‘श्री’ स्वरूपा बिन्दी लगानी चाहिये उसके पश्चात् अंगुठे से विलोम भाव से तिलक लगाने का विधान है। अंगुठा दो बार फेरा जाता है। ब्रह्माण्ड पुराण के अनुसार तिलक में अंगुठे के प्रयोग से शक्ति, मध्यमा के प्रयोग से दीर्घायु, अनामिका के प्रयोग से समृद्धि तथा तर्जनी से लगाने पर मुक्ति प्राप्त होती है। तिलक विज्ञान विषयक समस्त ग्रन्थ तिलक अंकन में नाखून स्पर्श तथा लगे तिलक को पौंछना अनिष्टकारी बतलाते हैं। देवताओं पर केवल अनामिका से तिलक बिन्दु लगाया जाता है। तिलक की विधि सांस्कृतिक सौन्दर्य सहित जीवन की मंगल दृष्टि को मनुष्य के सर्वाधिक मूल्यवान् तथा ज्ञान विज्ञान के प्रमुख केन्द्र मस्तक पर अंकित करती है। नेपाली समाज में कनिष्ठों के वन्दन के प्रत्युत्तर में उनके ललाट पर बिना उपकरण के केवल अंगुठा फेरकर आशीर्वाद दिया जाता है। तिलक के मध्य में चावल लगाये जाते हैं। तिलक के चावल शिव के परिचायक हैं। शिव कल्याण के देवता हैं जिनका वर्ण शुक्ल है। लाल तिलक पर सफेद चावल धारण कर हम जीवन में शिव व शक्ति के साम्य का आशीर्वाद ग्रहण करते हैं। इच्छा और क्रिया के साथ ज्ञान का समावेश हो। सफेद गोपी चन्दन तथा लाल बिन्दु इसी सत्य के साम्य का सूचक है। शव के मस्तक पर रोली तिलक के मध्य चावल नहीं लगाते, क्योंकि शव में शिव तत्त्व तिरोहित है। वहाँ शिव शक्ति साम्य की मंगल कामना का कोई अर्थ ही नहीं है। मार्कण्डेय पुराण के ‘स्त्रिय समस्ता सकला जगत्सु’ के अनुसार नारी समाज शक्ति रूपा है। नारी समाज के सौभाग्य में लाल वर्ण की प्रधानता का यही कारण और मस्तक पर लाल वर्ण के रूप में हम मातृशक्ति धारण करने की कामना करते हैं। यही कारण है कि ज्यादातर सांस्कृतिक तिलक महिलाएं ही पुरूषों के भाल पर करती है। चाहे वह बहिन, पत्नी या माँ किसी भी रूप में हो। Related