ब्रह्मवैवर्तपुराण-गणपतिखण्ड-अध्याय 01
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
पहला अध्याय
नारदजी की नारायण से गणेशचरित के विषय में जिज्ञासा, नारायण द्वारा शिव-पार्वती के विवाह तथा स्कन्द की उत्पत्ति का वर्णन, पार्वती की महादेवजी से पुत्रोत्पत्ति के लिये प्रार्थना, शिवजी का उन्हें पुण्यक-व्रत के लिये प्रेरित करना

नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् ।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॥

अन्तर्यामी नारायणस्वरूप श्रीकृष्ण, (उनके नित्यसखा) नरस्वरूप नरश्रेष्ठ अर्जुन, ( उनकी लीलाको प्रकट करनेवाली) देवी सरस्वती तथा (उस लीलाको संकलित करनेवाले) व्यासजीको नमस्कार करके जय ( पुराण – इतिहास आदि)- का पाठ करना चाहिये ।

नारदजी ने पूछा — भगवन्! जो सर्वोत्कृष्ट, मूढ़ों के लिये ज्ञान की वृद्धि करनेवाला तथा अमृत का उत्तम सागर है, उस अभीप्सित प्रकृतिखण्ड को तो मैंने सुन लिया। अब मैं गणपतिखण्ड को, जो मनुष्यों के सम्पूर्ण मङ्गलों का भी मङ्गलस्वरूप तथा गणेशजी के जन्म-वृत्तान्त से परिपूर्ण है, सुनना चाहता हूँ । जगदीश्वर ! भला, पार्वतीजी के शुभ उदर से सुरश्रेष्ठ गणेश की उत्पत्ति कैसे हुई ? किस प्रकार पार्वतीदेवी ने ऐसे पुत्र को प्राप्त किया ? गणेशजी किस देवता के अंश से उत्पन्न हुए थे? उन्हें जन्म क्यों लेना पड़ा ?

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

वे अयोनिज थे अथवा किसी योनि से उत्पन्न हुए थे ? उनका ब्रह्मतेज कैसा था ? उनमें कितना पराक्रम था ? उनकी तपस्या कैसी थी ? वे कितने ज्ञानी थे तथा उनका यश कितना निर्मल था ? जगदीश्वर नारायण, शम्भु और ब्रह्मा के रहते हुए सम्पूर्ण विश्व में उनकी अग्रपूजा क्यों होती है ? वे हाथी के मुखवाले एकदन्त तथा विशाल तोंदवाले कैसे हो गये ? महाभाग ! पुराणों में उनके रहस्यमय जन्म-वृत्तान्त का वर्णन किया गया है। आप उस परम मनोहर तथा अत्यन्त विस्तृत चरित्र को पूर्णरूप से वर्णन कीजिये; क्योंकि उसे सुनने के लिये मुझे परम कौतूहल हो रहा है ।

श्रीनारायण ने कहा — नारद! मैं उस परम अद्भुत रहस्य का वर्णन करता हूँ, सुनो! वह पाप-संताप का हरण करनेवाला, सम्पूर्ण विघ्नों का विनाशक, समस्त मङ्गलों का दाता, साररूप, निखिल श्रुतियों के लिये मनोहर सुखप्रद, मोक्ष का बीज तथा पापों का मूलोच्छेद करने वाला है । दैत्यों द्वारा पीड़ित हुए देवताओं की तेजोराशि से उत्पन्न हुई देवी ने दैत्यसमुदाय का संहार कर डाला। तत्पश्चात् वे दक्ष की कन्या होकर प्रकट हुईं। उस समय उन देवी का नाम सती था । उन्होंने अपने स्वामी ( शिवजी ) – की निन्दा होने के कारण योग-धारणा द्वारा अपने शरीर का परित्याग कर दिया और फिर शैलराज की प्रिय पत्नी (मेना) – के पेट से जन्म लिया।

पर्वतराज ने उन पार्वतीजी का विवाह शंकरजी के साथ कर दिया। तब महादेवजी उन्हें साथ लेकर निर्जन वन में चले गये। वहाँ दीर्घकाल तक शंकर-पार्वती का विहार चलता रहा। जब देवताओं ने आकर विहार से विरत होने के लिये उनसे प्रार्थना की, तब भगवान् शंकर विरत हो गये । उस समय महादेवजी का शुक्र भूमि पर गिर पड़ा, जिससे स्कन्द – कार्तिकेय उत्पन्न हुए। (अध्याय ०१ )

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे तृतीये गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

See Also –

शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [चतुर्थ-कुमारखण्ड] – अध्याय 01
शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [चतुर्थ-कुमारखण्ड] – अध्याय 02

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