ब्रह्मवैवर्तपुराण-गणपतिखण्ड-अध्याय 12
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
बारहवाँ अध्याय
पार्वती के कहने से शनैश्चर का गणेश पर दृष्टिपात करना, गणेश के सिर का कटकर गोलोक में चला जाना, पार्वती की मूर्च्छा, श्रीहरि का आगमन और गणेश के धड़ पर हस्ती का सिर जोड़कर जीवित करना, फिर पार्वती को होश में लाकर बालक को आशीर्वाद देना, पार्वती द्वारा शनैश्चर को शाप

श्रीनारायणजी कहते हैं — नारद! शनैश्चर का वचन सुनकर दुर्गा ने परमेश्वर श्रीहरि का स्मरण किया और ‘सारा जगत् ईश्वर की इच्छा के वशीभूत ही है’ यों कहा। फिर दैववशीभूता पार्वतीदेवी ने कौतूहलवश शनैश्चर से कहा — ‘तुम मेरी तथा मेरे बालक की ओर देखो। भला, इस निषेक ( कर्मफलभोग) – को कौन हटा सकता है ?’

तब पार्वती का वचन सुनकर शनैश्चर स्वयं मन-ही-मन यों विचार करने लगे — ‘अहो ! क्या मैं इस पार्वतीनन्दन पर दृष्टिपात करूँ अथवा न करूँ? क्योंकि यदि मैं बालक को देख लूँगा तो निश्चय ही उसका अनिष्ट हो जायगा ।’

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

यों विचार कर धर्मात्मा शनैश्चर ने धर्म को साक्षी बनाकर बालक को तो देखने का विचार किया, परंतु बालक की माता को नहीं । शनैश्चर का मन तो पहले से ही खिन्न था । उनके कण्ठ, ओष्ठ और तालु भी सूख गये थे; फिर भी उन्होंने अपने बायें नेत्र के कोने से शिशु के मुख की ओर निहारा । मुने ! शनि की दृष्टि पड़ते ही शिशु का मस्तक धड़ से अलग हो गया। तब शनैश्चर ने अपनी आँख फेर ली और फिर वे नीचे मुख करके खड़े हो गये। इसके बाद उस बालक का खून से लथपथ हुआ सारा शरीर तो पार्वती की गोद में पड़ा रह गया, परंतु मस्तक अपने अभीष्ट गोलोक में जाकर श्रीकृष्ण में प्रविष्ट हो गया । यह देखकर पार्वतीदेवी बालक को छाती से चिपटाकर फूट-फूटकर विलाप करने लगीं और उन्मत्त की भाँति भूमि पर गिरकर मूर्च्छित हो गयीं।

तब वहाँ उपस्थित सभी देवता, देवियाँ, पर्वत, गन्धर्व, शिव तथा कैलासवासीजन यह दृश्य देखकर आश्चर्यचकित हो गये। उस समय उनकी दशा चित्रलिखित पुत्तलिका के समान जड़ हो गयी । इस प्रकार उन सबको मूर्च्छित देखकर श्रीहरि गरुड़ पर सवार हुए और उत्तरदिशा में स्थित पुष्पभद्रा के निकट गये। वहाँ पुष्पभद्रा नदी के तट पर वन में स्थित एक गजेन्द्र को देखा, जो निद्रा के वशीभूत हो बच्चों से घिरकर हथिनी के साथ सो रहा था । उसका सिर उत्तर दिशा की ओर था, मन परमानन्द से पूर्ण था और वह सुरत के परिश्रम से थका हुआ था । फिर तो श्रीहरि ने शीघ्र ही सुदर्शनचक्र से उसका सिर काट लिया और रक्त से भीगे हुए उस मनोहर मस्तक को बड़े हर्ष के साथ गरुड़ पर रख लिया । गज के कटे हुए अङ्ग के गिरने से हथिनी की नींद टूट गयी। तब अमङ्गल शब्द करती हुई उसने अपने शावकों को भी जगाया। फिर वह शोक से विह्वल हो शावकों के साथ बिलख-बिलखकर चीत्कार करने लगी।

तत्पश्चात् जो लक्ष्मी के स्वामी हैं, जिनका स्वरूप परम शान्त है; जिनके करकमलों में शङ्ख, चक्र, गदा और पद्म शोभा पाते हैं; जो पीताम्बरधारी, परात्पर, जगत् के स्वामी, निषेक का खण्डन करने में समर्थ, निषेक को उत्पन्न करनेवाले, सर्वव्यापक, निषेक के भोग के दाता और भोग के निस्तार के कारणस्वरूप हैं तथा जो गरुड़ पर आरूढ़ हो मुस्कराते हुए सुदर्शनचक्र को घुमा रहे हैं — उन परमेश्वर का उसने स्तवन किया ।

विप्रवर! उसकी स्तुति से प्रसन्न होकर भगवान् ने उसे वर दिया और दूसरे गज का मस्तक काटकर इसके धड़ से जोड़ दिया । फिर उन ब्रह्मवेत्ता ने ब्रह्मज्ञान से उसे जीवित कर दिया और उस गजेन्द्र के सर्वाङ्ग में अपने चरणकमल का स्पर्श कराते हुए कहा — ‘गज ! तू अपने कुटुम्ब के साथ एक कल्पपर्यन्त जीवित रह ।’ यों कहकर मन के समान वेगशाली भगवान् कैलास पर आ पहुँचे। वहाँ पार्वती के वासस्थान पर आकर उन्होंने उस बालक को अपनी छाती से चिपटा लिया और उस हाथी के मस्तक को सुन्दर बनाकर बालक के धड़ से जोड़ दिया। फिर ब्रह्मस्वरूप भगवान् ने ब्रह्मज्ञान से हुंकारोच्चारण किया और खेल-खेल में ही उसे जीवित कर दिया । पुनः श्रीकृष्ण ने पार्वती को सचेत करके उस शिशु को उनकी गोद में रख दिया और आध्यात्मिक ज्ञान द्वारा पार्वती को समझाना आरम्भ किया ।

विष्णु ने कहा — शिवे ! तुम तो जगत् की बुद्धिस्वरूपा हो । क्या तुम नहीं जानतीं कि ब्रह्मा से लेकर कीटपर्यन्त सारा जगत् अपने कर्मानुसार फल भोगता है । प्राणियों का जो स्वकर्मार्जित भोग है, वह सौ करोड़ कल्पों तक प्रत्येक योनि में शुभ-अशुभ फलरूप से नित्य प्राप्त होता रहता है । सती ! इन्द्र अपने कर्मवश कीड़े की योनि में जन्म ले सकते हैं और कीड़ा पूर्वकर्मफलानुसार इन्द्र भी हो सकता है । पूर्वजन्मार्जित कर्मफल के बिना सिंह मक्खी को भी मारने में असमर्थ है और मच्छर अपने प्राक्तन कर्म के बल से हाथी को भी मार डालने की शक्ति रखता है। सुख-दुःख, भय-शोक, आनन्द- ये कर्म के ही फल हैं। इनमें सुख और हर्ष उत्तम कर्म के और अन्य पापकर्म के परिणाम हैं (सुखं दुःख भयं शोकमानन्दं कर्मणः फलम् । सुकर्मणः सुखं हर्षमितरे पापकर्मणः ॥ २७ ॥) ।

कर्म का भोग शुभ-अशुभ-रूप से इहलोक अथवा परलोक में प्राप्त होता है, परंतु कर्मोपार्जन के योग्य पुण्यक्षेत्र भारत ही है । स्वयं श्रीकृष्ण कर्म के फलदाता, विधि के विधाता, मृत्यु के भी मृत्यु, काल के काल, निषेक के निषेककर्ता, संहर्ता के भी संहारक, पालक के भी पालक, परात्पर, परिपूर्णतम गोलोकनाथ हैं । हम ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर जिस पुरुष की कलाएँ हैं, महाविराट् जिसका अंश है, जिसके रोम-विवर में जगत् भरे हैं, कोई-कोई उनके कलांश हैं और कोई-कोई कलांश के भी अंश हैं और जो सम्पूर्ण चराचर जगत्-स्वरूप हैं, उन्हीं श्रीकृष्ण में विनायक स्थित हैं ।

इस प्रकार श्रीविष्णु का कथन सुनकर पार्वती का मन संतुष्ट हो गया। तब वे उन गदाधर भगवान्‌ को प्रणाम करके शिशु को दूध पिलाने लगीं । तदनन्तर प्रसन्न हुई पार्वती ने शंकरजी की प्रेरणा से अञ्जलि बाँधकर भक्तिपूर्वक उन कमलापति भगवान् विष्णु की स्तुति की। तब विष्णु ने शिशु को तथा शिशु की माता को आशीर्वाद दिया और अपने आभूषण कौस्तुभमणि को बालक के गले में डाल दिया । ब्रह्मा ने अपना मुकुट और धर्म ने रत्न का आभूषण दिया । फिर क्रमशः देवियों ने तथा उपस्थित सभी देवताओं, मुनियों, पर्वतों, गन्धर्वों और समस्त महिलाओं ने यथोचितरूप से रत्न प्रदान किये। उस समय महादेवजी का हृदय अत्यन्त हर्षमग्न था । वे विष्णु का स्तवन करने लगे। नारद! वहाँ मरकर जीवित हुए बालक को देखकर शिव-पार्वती ने ब्राह्मणों को असंख्य रत्न दान किये। मरे हुए बालक के जी उठने पर हर्षगद्गद हुए हिमालय ने वन्दियों को एक सौ हाथी और एक सहस्र घोड़े प्रदान किये तथा देवगण हर्षित होकर ब्राह्मणों को और सभी नारियों ने वन्दियों को दान दिया । लक्ष्मीपति विष्णु ने माङ्गलिक कार्य सम्पन्न कराया, ब्राह्मणों को भोजन से तृप्त किया और वेदों तथा पुराणों का पाठ कराया।

तत्पश्चात् शनैश्चर को लज्जायुक्त देखकर पार्वती को क्रोध आ गया और उन्होंने उस सभा के बीच शनैश्चर को यों शाप देते हुए कहा — ‘तुम अङ्गहीन हो जाओ।’    शनि को शाप देते देखकर सूर्य, कश्यप और यम ने अत्यन्त रुष्ट होकर शंकर के गृह से यात्रा की तैयारी कर दी। तब ब्रह्मा जी के समझाने पर पार्वतीजी संतुष्ट होते हुए बोली — हे शनि ! मेरे वरदान द्वारा तुम ग्रहों का राजा, भगवान् का प्रिय, चिरजीवी और योगीन्द्र होगे । हरिभक्तों को कोई संकट नहीं होता है। आज से भगवान् में तुम्हारी निर्विघ्न और दृढ़ भक्ति होगी । मेरा शाप व्यर्थ नहीं होता है, अतः कुछ खञ्जपाद ( लंगड़े) रहोगे !     (अध्याय १२)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे तृतीये गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे शनिकृतगणेशदर्शन तज्जातगणेशशिरःपतन विष्णुकृतगणेशशिरोयोजन शनिशापादिकथनं नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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