ब्रह्मवैवर्तपुराण-गणपतिखण्ड-अध्याय 42
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
बयालीसवाँ अध्याय
परशुराम का शिव के अन्तःपुर में जाने के लिये गणेश से अनुरोध, गणेश का उन्हें समझाना

परशुराम ने कहा भाई ! मैं ईश्वर को प्रणाम करने के लिये अन्तःपुर में जाऊँगा और भक्तिपूर्वक माता पार्वती को नमस्कार करके तुरंत ही घर को लौट जाऊँगा । जो सगुण-निर्गुण, भक्तों के लिये अनुग्रह के मूर्तरूप, सत्य, सत्यस्वरूप, ब्रह्मज्योति, सनातन, स्वेच्छामय, दयासिन्धु, दीनबन्धु, मुनियों के ईश्वर, आत्मा में रमण करने वाले, पूर्णकाम, व्यक्त-अव्यक्त, परात्पर, पर-अपर के रचयिता, इन्द्रस्वरूप, सम्मानित, पुरातन, परमात्मा, ईशान, सबके आदि, अविनाशी, समस्त मङ्गलों के मङ्गलस्वरूप, सम्पूर्ण मङ्गलों के कारण, सभी मङ्गलों के दाता, शान्त, समस्त ऐश्वर्यों को प्रदान करने वाले, परमोत्कृष्ट, शीघ्र ही संतुष्ट होने वाले, प्रसन्न मुख वाले, शरण में आये हुए की रक्षा करने वाले, भक्तों के लिये अभयप्रद, भक्तवत्सल और समदर्शी हैं, जिनसे मैंने नाना प्रकार की विद्याओं और अनेक प्रकार के परम दुर्लभ शस्त्रों को प्राप्त किया है; उन जगदीश्वर गुरु के इस समय मैं दर्शन करना चाहता हूँ ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

यों कहकर परशुराम गणपति के आगे खड़े हो गये । इस पर श्रीगणेशजी ने उनको बहुत तरह से समझाया कि इस समय भगवान् शंकर और माताजी अन्तः पुर में हैं। आपको वहाँ नहीं जाना चाहिये, पर परशुरामजी हठ करते ही रहे । उन्होंने अनेकों युक्तियों द्वारा अपना अंदर जाना निर्दोष बतलाया। यों परस्पर दोनों में वाद-विवाद होता रहा। (अध्याय ४२ )

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे गणेशपरशुरामसंवादो नामद्विचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४२ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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