February 8, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 57 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ सतावनवाँ अध्याय दुर्गाजी के सोलह नामों की व्याख्या, दुर्गा की उत्पत्ति तथा उनके पूजन की परम्परा का संक्षिप्त वर्णन नारदजी बोले — ब्रह्मन् ! मैंने अत्यन्त अद्भुत सम्पूर्ण उपाख्यानों को सुना। अब दुर्गाजी के उत्तम उपाख्यान को सुनना चाहता हूँ । दुर्गा नारायणीशाना विष्णुमाया शिवा सती । नित्या सत्या भगवती शर्वाणी सर्वमङ्गला ॥ २ ॥ अम्बिका वैष्णवी गौरी पार्वती च सनातनी । नामानि कौथुमोक्तानि सर्वेषां शुभदानि च ॥ ३ ॥ वेद की कौथुमी शाखा में जो दुर्गा, नारायणी, ईशाना, विष्णुमाया, शिवा, सती, नित्या, सत्या, भगवती, सर्वाणी, सर्वमङ्गला, अम्बिका, वैष्णवी, गौरी, पार्वती और सनातनी — ये सोलह नाम बताये गये हैं, वे सबके लिये कल्याणदायक हैं । वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ नारायण ! इन सोलह नामों का जो उत्तम अर्थ है, वह सबको अभीष्ट है । उसमें सर्वसम्मत वेदोक्त अर्थ को आप बताइये। पहले किसने दुर्गाजी की पूजा की है ? फिर दूसरी, तीसरी और चौथी बार किन-किन लोगों ने उनका सर्वत्र पूजन किया है ? ॐ नमो भगवते वासुदेवाय श्रीनारायण ने कहा — देवर्षे ! भगवान् विष्णु ने वेद में इन सोलह नामों का अर्थ किया है, तुम उसे जानते हो तो भी मुझसे पुनः पूछते हो। अच्छा, मैं आगमों के अनुसार उन नामों का अर्थ कहता हूँ । दुर्गा शब्द का पदच्छेद यों है – दुर्ग + आ । ‘दुर्ग’ शब्द दैत्य, महाविघ्न, भवबन्धन, कर्म, शोक, दुःख, नरक, यमदण्ड, जन्म, महान् भय तथा अत्यन्त रोग के अर्थ में आता है तथा ‘आ’ शब्द ‘हन्ता’ का वाचक है। जो देवी इन दैत्य और महाविघ्न आदि का हनन करती है, उसे ‘दुर्गा’ कहा गया है। यह दुर्गा यश, तेज, रूप और गुणों में नारायण के समान है तथा नारायण की ही शक्ति है । इसलिये ‘नारायणी’ कही गयी है। ईशाना का पदच्छेद इस प्रकार है – ईशान+आ । ‘ईशान’ शब्द सम्पूर्ण सिद्धियों के अर्थ में प्रयुक्त होता है और ‘आ’ शब्द दाता का वाचक है। जो सम्पूर्ण सिद्धियों को देनेवाली है, वह देवी ‘ईशाना’ कही गयी है । पूर्वकाल में सृष्टि के समय परमात्मा विष्णु ने माया की सृष्टि की थी और अपनी उस माया द्वारा सम्पूर्ण विश्व को मोहित किया । वह मायादेवी विष्णु की ही शक्ति है, इसलिये ‘विष्णुमाया’ कही गयी है । ‘शिवा’ शब्द का पदच्छेद यों है- शिव + आ । ‘शिव’ शब्द शिव एवं कल्याण — अर्थ में प्रयुक्त होता है तथा ‘आ’ शब्द प्रिय और दाता – अर्थ में। वह देवी कल्याणस्वरूपा है, शिवदायिनी है और शिवप्रिया है, इसलिये ‘शिवा’ कही गयी है। देवी दुर्गा सद्बुद्धि की अधिष्ठात्री देवी हैं, प्रत्येक युग में विद्यमान हैं तथा पतिव्रता एवं सुशीला हैं । इसीलिये उन्हें ‘सती’ कहते हैं । जैसे भगवान् नित्य हैं, उसी तरह भगवती भी ‘नित्या’ हैं । प्राकृत प्रलय के समय वे अपनी माया से परमात्मा श्रीकृष्ण में तिरोहित रहती हैं । ब्रह्मा से लेकर तृण अथवा कीटपर्यन्त सम्पूर्ण जगत् कृत्रिम होने के कारण मिथ्या ही है, परंतु दुर्गा सत्यस्वरूपा हैं। जैसे भगवान् सत्य हैं, उसी तरह प्रकृतिदेवी भी ‘सत्या’ हैं । सिद्ध, ऐश्वर्य आदि के अर्थ में ‘भग’ शब्द का प्रयोग होता है, ऐसा समझना चाहिये । वह सम्पूर्ण सिद्ध, ऐश्वर्यादिरूप भग प्रत्येक युग में जिनके भीतर विद्यमान है, वे देवी दुर्गा ‘भगवती’ कही गयी हैं। जो विश्व के सम्पूर्ण चराचर प्राणियों को जन्म, मृत्यु, जरा आदि की तथा मोक्ष की भी प्राप्ति कराती हैं, वे देवी अपने इसी गुण के कारण ‘सर्वाणी’ कही गयी हैं । ‘मङ्गल’ शब्द मोक्ष का वाचक है और ‘आ’ शब्द दाता का । जो सम्पूर्ण मोक्ष देती हैं, वे ही देवी ‘सर्वमङ्गला’ हैं । ‘मङ्गल’ शब्द हर्ष, सम्पत्ति और कल्याण के अर्थ में प्रयुक्त होता है। जो उन सबको देती हैं, वे ही देवी ‘सर्वमङ्गला’ नाम से विख्यात हैं। ‘अम्बा’ शब्द माता का वाचक है तथा वन्दन और पूजन – अर्थ में भी ‘अम्ब’ शब्द का प्रयोग होता है । वे देवी सबके द्वारा पूजित और वन्दित हैं तथा तीनों लोकों की माता हैं, इसलिये ‘अम्बिका’ कहलाती हैं। देवी श्रीविष्णु की भक्ता, विष्णुरूपा तथा विष्णु की शक्ति हैं। साथ ही सृष्टिकाल में विष्णु के द्वारा ही उनकी सृष्टि हुई है । इसलिये उनकी ‘वैष्णवी’ संज्ञा है । ‘गौर’ शब्द पीले रंग, निर्लिप्त एवं निर्मल परब्रह्म परमात्मा के अर्थ में प्रयुक्त होता है। उन ‘गौर’ शब्दवाच्य परमात्मा की वे शक्ति हैं, इसलिये वे ‘गौरी’ कही गयी हैं। भगवान् शिव सबके गुरु हैं और देवी उनकी सती-साध्वी प्रिया शक्ति हैं । इसलिये ‘गौरी’ कही गयी हैं। श्रीकृष्ण ही सबके गुरु हैं और देवी उनकी माया हैं । इसलिये भी उनको ‘गौरी’ कहा गया है। ‘पर्व’ शब्द तिथिभेद ( पूर्णिमा), पर्वभेद, कल्पभेद तथा अन्यान्य भेद अर्थ में प्रयुक्त होता है तथा ‘ती’ शब्द ख्याति के अर्थ में आता है। उन पर्व आदि में विख्यात होने से उन देवी की ‘पार्वती’ संज्ञा है । ‘पर्वन्’ शब्द महोत्सव- विशेष के अर्थ में आता है । उसकी अधिष्ठात्री देवी होने के नाते उन्हें ‘पार्वती’ कहा गया है । वे देवी पर्वत (गिरिराज हिमालय) – की पुत्री हैं । पर्वत पर प्रकट हुई हैं तथा पर्वत की अधिष्ठात्री देवी हैं। इसलिये भी उन्हें ‘पार्वती’ कहते हैं।’ ‘सना’ का अर्थ है सर्वदा और ‘तनी’ का अर्थ है विद्यमाना । सर्वत्र और सब काल में विद्यमान होने से वे देवी ‘सनातनी’ कही गयी हैं । महामुने! आगमों के अनुसार सोलह नामों का अर्थ बताया गया। अब देवी का वेदोक्त उपाख्यान सुनो। पहले-पहल परमात्मा श्रीकृष्ण ने सृष्टि के आदिकाल में गोलोकवर्ती वृन्दावन के रासमण्डल में देवी की पूजा की थी। दूसरी बार मधु और कैटभ से भय प्राप्त होने पर ब्रह्माजी ने उनकी पूजा की। तीसरी बार त्रिपुरारि महादेव ने त्रिपुर से प्रेरित होकर देवी का पूजन किया था। चौथी बार पहले दुर्वासा के शाप से राज्यलक्ष्मी से भ्रष्ट हुए देवराज इन्द्र ने भक्तिभाव के साथ देवी भगवती सती की समाराधना की थी । तबसे मुनीन्द्रों, सिद्धेन्द्रों, देवताओं तथा श्रेष्ठ महर्षियों द्वारा सम्पूर्ण विश्व में सब ओर और सदा देवी की पूजा होने लगी। मुने! पूर्वकाल में सम्पूर्ण देवताओं के तेजःपुञ्ज से देवी प्रकट हुई थीं। उस समय सब देवताओं ने अस्त्र-शस्त्र और आभूषण दिये थे । उन्हीं दुर्गादेवी ने दुर्ग आदि दैत्यों का वध किया और देवताओं को अभीष्ट वर के साथ स्वराज्य दिया। दूसरे कल्प में महात्मा राजा सुरथ ने, जो मेधस् ऋषि के शिष्य थे, सरिता के तट पर मिट्टी की मूर्ति में देवी की पूजा की थी। उन्होंने वेदोक्त सोलह उपचार अर्पित करके विधिवत् पूजन और ध्यान के पश्चात् कवच धारण किया तथा परिहार नामक स्तुति करके अभीष्ट वर पाया। इसी तरह उसी सरिता के तट पर उसी मृण्मयी मूर्ति में एक वैश्य ने भी देवी की पूजा करके मोक्ष प्राप्त किया । राजा और वैश्य ने नेत्रों से आँसू बहाते हुए दोनों हाथ जोड़कर देवी की स्तुति की और उनकी उस मृण्मयी प्रतिमा का नदी के निर्मल गम्भीर जल में विसर्जन कर दिया। वैसी मृण्मयी प्रतिमा को जलमग्न हुई देख राजा और वैश्य दोनों रो पड़े और वहाँ से अन्यत्र चले गये । वैश्य ने देह त्याग करके जन्मान्तर में पुष्करतीर्थ में दुष्कर तपस्या की और दुर्गादेवी के वरदान से वे गोलोकधाम में चले गये। राजा अपने निष्कण्टक राज्य को लौट गये और वहाँ सबके आदरणीय होकर बलपूर्वक शासन करने लगे। उन्होंने साठ हजार वर्षों तक राज्य भोग किया। तत्पश्चात् अपनी पत्नी तथा राज्य का भार पुत्र को सौंपकर वे कालयोग से पुष्कर तप करके दूसरे जन्म में सावर्णि मनु हुए। वत्स ! मुनिश्रेष्ठ ! इस प्रकार मैंने आगमों के अनुसार दुर्गोपाख्यान का संक्षेप से वर्णन किया। अब तुम और क्या सुनना चाहते हो ? तदनन्तर नारदजी के पूछने पर भगवान् नारायण ने तारा की कथा कही और चैत्रतनय राजा अधिरथ से राजा सुरथ की उत्पत्ति का प्रसङ्ग सुनाया । (अध्याय ५७ ) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे दुर्गोपाख्याने दुर्गादिनामव्युत्पत्त्यादिकथनं नाम सप्तपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५७ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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