February 8, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 60 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ साठवाँ अध्याय तारा के उद्धार का उपाय – कथन नारद बोले — हे नारायण ! हे महाभाग ! आप वेद-वेदांग के पारगामी विद्वान् हैं, आपके मुखचन्द्र से निकले हुए आख्यान रूप अमृत का मैंने यथेच्छ पान किया । सम्प्रति मैं यही सुनना चाहता हूँ कि बृहस्पति ने कैलास जाकर समस्त सम्पत्ति के प्रदाता शिव जी से क्या कहा । और जगन्नियन्ता एवं रचयिता शिव जी ने उन्हें क्या उत्तर दिया । हे वेदविदों में श्रेष्ठ ! यह सब बातें भलीभाँति विचार कर मुझे बताने की कृपा करें । नारायण बोले — श्रीहत गुरु बृहस्पति ने शीघ्र कैलास जाकर शंकर को प्रणाम किया और लज्जा से कन्धा झुकाये उन्हीं के सामने बैठ गये । अनन्तर शिव ने गुरुपुत्र बृहस्पति को सामने देख कर तुरन्त कुशासन से उठ कर उनका आलिंगन किया और मांगलिक शुभाशिष प्रदान किया । शिव जी ने उन्हें अपने आसन पर बैठा कर जो भयभीत और लज्जित हो रहे थे, मधुर शब्दों में उनसे कुशल पूछा । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय श्रीशंकर बोले — हे भ्रातः ! इस भाँति तुम दुःखी और मलिन शरीर आँखों में आँसू भरे तथा लज्जित क्यों हो रहे हो, उसका कारण कहो । हे मुने ! क्या तुम्हारी तपस्या नहीं हो पायी या सन्ध्यारहित हो गये ? अथवा दैवदोषवश भगवान् श्रीकृष्ण की सेवा नहीं कर पाये ? या अभीष्ट देव या गुरु की भक्ति से विहीन हो गए या किसी शरण प्राप्त की रक्षा नहीं कर पाये ? । या तुम्हारे यहाँ से अतिथि निराश होकर चला तो नहीं गया ? या तुम्हारे पोष्य वर्ग भूखे तो नहीं हैं? क्या तुम्हारी स्त्री स्वतन्त्र हो गयी ? या पुत्र तुम्हारा कहना नहीं मानता ? । या शिष्य सुशासित नहीं है? सेवक वर्ग ने कहीं उत्तर तो नहीं दे दिए हैं? क्या लक्ष्मी विमुख होकर चली गयी? क्या गुरु तुम पर रुष्ट हो गए ? । हे निरन्तर सन्तुष्ट रहने वाले ! तुम गौरवपूर्ण और श्रेष्ठ हो, अहो तुम्हारे गुरु वशिष्ठ जी सज्जनों में अति श्रेष्ठ और बड़े हैं । क्या अभीष्ट देव रुष्ट हो गए हैं या ब्राह्मणवर्ग रुष्ट है? या वैष्णव लोग रुष्ट हो गए हैं? या तुम्हारा शत्रु प्रबल हो गया है? या बन्धु-वियोग हो गया है? या बलवान् के साथ युद्धारम्भ हो गया है? या तुम्हारा पद या बन्धुओं का धन दूसरे के अधीन हो गया है ? हे मुने ! अथवा किसी पापी दुष्ट ने तुम्हारी निन्दा की है? या प्रिय बन्धु ने तुम्हारा त्याग कर दिया है? या तुम्हीं ने वैराग्य अथवा क्रोधवश बन्धु-त्याग कर दिया है या तीर्थ में स्नान नहीं किया अथवा पुण्य अवसर पर दान नहीं दिया ? या दुष्टों के मुख से गुरु या बन्धुओं की निन्दा तो नहीं सुनी? क्योंकि गुरुनिन्दा साधु स्वभाव वाले को मरण से भी अधिक दुःखप्रद होती है । असत्कुल में उत्पन्न दुष्ट स्वभाव वाले प्राणियों का, जो निरन्तर नरक सेवन करते हैं, निन्दा करना स्वभाव ही होता है । भारत में पुण्यात्मा सन्त लोग दूसरे की प्रशंसा ही करते हैं, इसीलिए निरन्तर मंगल युक्त होकर सदा प्रसन्नचित्त रहते हैं । क्योंकि पुत्र, यश, जल, घन, पराक्रम, ऐश्वर्य, प्रताप, प्रजा, भूमि, धन, वचन, बुद्धि, स्वभाव, चरित्र, आचार और व्यवहार में मनुष्यों का हृदय स्वयं प्रवृत्त होता है । इसलिए जिन लोगों के हृदय में जितनी शुद्धता रहती है, उतना ही उन्हें मंगल प्राप्त होता है और पूर्व का ( किया हुआ) जिनका जैसा पुण्य रहता है वैसा उनका मन होता है । इस प्रकार अपनी सभा में कह कर महादेव चुप हो गये । अनन्तर महावक्ता बृहस्पति जी स्वयं कहने लगे । बृहस्पति बोले — हे ईश्वर ! यद्यपि मेरा समाचार कहने योग्य नहीं है, तथापि कहूँगा ही । कर्म के अधीन प्राणी अनेक जन्मों में जो कुछ कर्म करता है, अपने कर्मों के फल उसे प्रत्येक जन्म में भोगने पड़ते हैं। क्योंकि भारत में बिना उपभोग किए कर्म नष्ट नहीं होता है । हे प्रभो ! कुछ लोगों का कहना है कि भारत में मनुष्यों के सुख, दुःख, भय एवं शोक अपने किए कर्म वश होते हैं, कोई कहते हैं कि दैव वश और कुछ लोग कहते हैं कि स्वभावतः होते हैं । हे वेद-वेदांग के पारगामी ( विद्वान् ) ! इस प्रकार इसकी तीन प्रकार की गतियाँ बतायी गयी हैं । प्राणी जो स्वयं कर्म करता है, वही कर्म दैव का कारण होता है और मनुष्यों का स्वभाव उसके पूर्व जन्म के कर्मानुसार ही होता है । इस प्रकार सभी प्राणियों को प्रत्येक जन्म में उसके पूर्वजन्मकृत कर्मानुसार ही सुख, दुःख, भय एवं शोक होता है । अपना कर्म फल भोगने के लिए जीव सदा सगुण रहता है, और आत्मा भोग कराने वाला, साक्षी, निर्गुण और प्रकृति से परे है । इसीलिए वह आत्मा सभी के सेवन करने योग्य है । वही सब को फल प्रदान करता है, वही दैव (भाग्य), स्वभाव और कर्म का सर्जन करता है । इसलिए मनुष्यों को कर्मानुसार ही लज्जा, प्रशंसा और प्रफुल्लता ( प्रसन्नता) प्राप्त होती है । हमारा समाचार लज्जाजनक है, किन्तु मैं आप से कह ही रहा हूँ । इतना कह कर बृहस्पति ने उन्हें अपना वृत्तान्त सुना दिया, जिसे सुन कर गौरी के प्राणेश्वर शिव ने उसी समय लज्जित होकर नीचे मुख कर लिया । अनन्तर क्रुद्ध होने पर शिव के हाथ से जपमाला गिर पड़ी और नेत्र रक्त कमल की भाँति लाल हो गये और वे स्वयं काँपने लगे । हे नारद ! शिव जी संहर्त्ता रुद्र के ईश, पालन करने वाले विष्णु के सखा, सर्जन करने वाले (ब्रह्मा) के स्तुत्य और मान्य तथा स्वात्मभूत, निर्गुण एवं प्रकृति के ईश श्रीकृष्ण की परम गति हैं। कोप के नाते शिव जी का कण्ट, ओंठ और ताल सूख गया । अनन्तर उन्होंने कहना आरम्भ किया । शिव बोले —साधुओं, वैष्णवों एवं सज्जनों का कल्याण हो और अवैष्णव असज्जनों का पग-पग पर अशुभ हो । जो प्राणी अच्छी स्थिति में रह कर वैष्णवों को दुःख देता है, उसका संहार भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं करते हैं और पद-पद पर उसका अशुभ होता है । जो वैष्णव नहीं है उसका हृदय शुद्ध नहीं रहता है, सदा मल से भरा रहता है; क्योंकि मन के निर्मल होने में भगवान् श्रीकृष्ण के मन्त्र का स्मरण करना ही कारण कहा गया है । भगवान् विष्ण के मन्त्र की उपासना करने से मनुष्यों के हृदय की ग्रन्थि नष्ट हो जाती है, समस्त सन्देह छिन्न-भिन्न हो जाते हैं और कर्मों का क्षय हो जाता है । अहो ! भगवान् श्रीकृष्ण के दासों का स्वभाव कैसा निर्मल होता है कि स्त्री के अपहरण हो जाने पर गुरु ( बृहस्पति ) मुर्च्छित हो गए, किन्तु उस शत्रु को उन्होंने शाप नहीं दिया । जिसके गुरु श्रेष्ठ, क्रोधरहित और धार्मिक हैं उस मुनि ने सैकड़ों पुत्रों के हनन करने वाले के समान होते हुए भी उस शत्र को शाप नहीं दिया । यद्यपि हमारे भाई देव गुरु बृहस्पति के निःश्वास से निमेष ( पलक ) मात्र में सैकड़ों चन्द्रमा निश्चित भस्म हो सकते हैं, तथापि धर्म – भंग होने के भय से इन्होंने उसे शाप नहीं दिया । क्योंकि क्रुद्ध होकर जो शाप देते हैं उनकी तपस्या नित्यशः न्यून होती चली जाती है । अहो ! तपस्वी, वैष्णव ब्रह्मा के पुत्र एवं धीमान् महर्षि अत्रि के असज्जन, परस्त्री-लोभी और शठ पुत्र हो आश्चर्य है । ब्रह्मा के पुत्र धार्मिक, वैष्णव एवं ब्राह्मण हुए हैं तो कुछ देवता, कुछ ब्राह्मण एवं दैत्य तीन प्रकार के उनके पौत्र हैं । उनमें सात्त्विक जो हैं वे ब्राह्मण हैं, देव लोग राजसिक (रजोगुण प्रधान) और दैत्य गण तामसी हुए, जो सदा भीषण, बलवान् तथा उद्धत होते हैं । ब्राह्मणगण अपने धर्म में लगे हुए नारायण का सतत चिन्तन करते हैं, देवगण शैव और शाक्त होते हैं और दैत्यगण पूजाहीन होते हैं । विष्णु के भक्त वैष्णव गण मुमुक्षु (मोक्ष के इच्छुक ) होते हैं, ब्राह्मण ( भगवान के ) दास होने की इच्छा रखते हैं; देवगण ऐश्वर्य के इच्छुक और असुरगण तामसी होते हैं । निष्काम ब्राह्मणों का अपना धर्म है- भगवान् श्रीकृष्ण की अर्चा करना जो निर्गुण और प्रकृति से भी परे हैं । जो ब्राह्मण वैष्णव होते हैं वे स्वतन्त्र होकर परमपद प्राप्त करते हैं और अन्य की उपासना करने वाले भी प्राकृत लय के समय अन्य के साथ परम पद प्राप्त कर लेते हैं । वर्णों में ब्राह्मण श्रेष्ठ होते हैं यदि वे साधु एवं वैष्णव हों। क्योंकि भगवान विष्णु के मन्त्र से रहित ब्राह्मणों से श्वपच ( चाण्डाल ) कहीं श्रेष्ठ होता है । वैष्णव एवं साधु ब्राह्मण भक्ति में परिपक्व हों या अपक्व, विष्णु का चक्र सुदर्शन उन सब की रक्षा करता ही है । जिस प्रकार अग्नि में सूखा तृण सदा भस्म हो जाता है, उसी तरह तेजस्वी वैष्णवों में अग्नि से पाप नष्ट हो जाते हैं । जिसके कान में गुरु के मुख से निकला हुआ विष्णु- मन्त्र प्रवेश करता है, विद्वद्वृन्द उसे महापवित्र वैष्णव कहते हैं । वैष्णव लोग पितरों (पूर्वजों) की सौ पीढ़ी, मातामह (नाना ) की सौ पीढ़ी तथा अपने सहोदरों और माता का उद्धार करते हैं । गया में पिण्डदान करने वाले केवल पिण्ड-भोजियों का ही उद्धार करते हैं किन्तु वैष्णवगण सैकड़ों पीढ़ियों का उद्धार करते हैं । केवल मन्त्रग्रहण मात्र से मनुष्य जीवन्मुक्त हो जाता है, गरुड़ से सर्प की भाँति उससे यम भी महाभयभीत होता है । हे वाक्पते ! भारत में गंगादि तीर्थ नदियाँ स्नान करने पर पुनीत करती हैं, किन्तु भगवान् श्रीकृष्ण के मंत्र की उपासना करने वाले ( वैष्णव ) केवल स्पर्शमात्र से पवित्र करते हैं । तीर्थ में पापियों के जितने पाप उत्पन्न होते हैं, वे सभी पाप वैष्णव के स्पर्शमात्र से नष्ट हो जाते हैं । भगवान कृष्ण के मन्त्र की उपासना करने वालों के चरण-कमल के रज से यह समस्त पृथ्वी पातकों से तुरन्त मुक्त होकर पवित्र हो जाती है । यद्यपि वायु, पवन, अग्नि और सूर्य सभी को पुनीत करते हैं किन्तु ये सब वैष्णवों के लीलास्पर्श मात्र से पवित्र हो जाते हैं । मैं, ब्रह्मा, शेष, और धर्म जो कर्मों के साक्षी हैं, ये सभी अति हर्षित होकर वैष्णवों के समागम की नित्य अभिलाषा रखते हैं । यद्यपि भारत में सभी को कर्मानुरूप ही फल प्राप्त होता है, किन्तु सिद्ध ( पकाये ) धान्य में अंकुर न होने की भाँति वैष्णवों को वैसा कर्मफल प्राप्त नहीं होता है । क्योंकि भक्तवत्सल एवं कृपानिधान भगवान् सर्वप्रथम भक्तों के पूर्व जन्म के कर्मों का नाश कर देते हैं, पश्चात् कृपया अपना पद प्रदान करते हैं । वह दुर्बल चन्द्रमा भयभीत होकर तेजस्विजनों में श्रेष्ठ एवं वैष्णव भृगुनन्दन शुक्र की शरण में गया है । यद्यपि ( भगवान् का ) सुदर्शन चक्र बली शुक्र को जीतने में सशक्त नहीं है, तथापि अपने गुरु ( भगवान कृष्ण ) के मंत्र द्वारा मैं तारा का उद्धार करूँगा । भगवान् श्रीकृष्ण का भजन करो, जो सत्यमूर्ति, परब्रह्म एवं ईश्वर हैं । भगवान् के सुप्रसन्न होने पर तुम्हें पत्नी अनायास प्राप्त हो जायगी । हे भ्रातः ! मैं तुम्हें उन्हीं का मन्त्र दे रहा हूँ, जो परम कल्पतरु- रूप है। करोड़ों जन्म का पाप नष्ट करता है तथा समस्त मंगलों का कारण है । ब्रह्मा से लेकर तृण पर्यन्त सभी जल-बिम्ब के समान नश्वर हैं, अतः गोविन्द की शरण में जाओ, जो परमात्मा एवं ईश्वर हैं। मनुष्यों को तभी तक संसारी इच्छा, भोग की इच्छा और स्त्री-सुख की इच्छा होती है जब तक गुरु के मुख कमल से भगवान् का मंत्र प्राप्त नहीं कर लेता है । क्योंकि उस दुर्लभ मन्त्र के प्राप्त होने पर मनुष्य को कोई इच्छा ही नहीं होती है । इसलिए वैष्णव लोग भगवान् की दास्य-भक्ति के बिना इन्द्रत्व, अमरत्व नहीं चाहते हैं और मोक्ष भी नहीं चाहते हैं । भक्त भगवद्भक्ति का विनाशक मोक्ष भी नहीं चाहता तथा ज्ञान, मृत्युंजयत्व, अभीष्ट सर्व सिद्धियाँ, वासिद्धि और ब्रह्मा होना भी भक्तों को अभीष्ट नहीं है । क्योंकि भगवान् की भक्ति का त्याग कर जो विषय की अभिलाषा करता है वह (मानों) विष्णु की माया से वंचित होने के नाते सुधा त्याग कर विष भक्षण करता है । ब्रह्मा, विष्णु, धर्म, अनन्त कश्यप, कपिल, कुमार, नर-नारायण ऋषि, स्वायम्भुव मनु, प्रह्लाद, पराशर, भृगु, शुक्र, दुर्वासा, वसिष्ठ, ऋतु, अंगिरा, बलि, बालखिल्य, वरुण, अग्नि, वायु, सूर्य, गरुड़, दक्ष और गणपति, ये परमात्मा श्रीकृष्ण के श्रेष्ठ भक्त हैं, एवं जो लोग उनकी श्रेष्ट कला (अंश) रूप हैं, वे उनकी भक्ति में निरत रहते | हे मुने ! इतना कहकर शंकर जी ने भगवान् का कल्पवृक्ष तुल्य मंत्र ‘ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं कृष्णाय नमः’ उत्तम पूजाविधान, स्तोत्र और कवच गुरु-पुत्र को प्रदान किया । हे मुने ! शुद्ध मन्दाकिनी-तट पर जगद्गुरु शिव द्वारा पुरश्चरणपूर्वक ध्यान एवं मंत्र प्राप्त कर बृहस्पति ने संसार-सागर से खिन्नता प्रकट करते हुए शिव से कहा । बृहस्पति बोले — हे जगन्नाथ ! मुझे आज्ञा प्रदान करें, मैं भगवान् का तप करने जा रहा हूँ, और अब तारा से मुझे कोई प्रयोजन नहीं है, अतः वह वहीं रहे । क्योंकि हे ईश्वर ! संसार की सभी वस्तुएँ नश्वर होने के नाते मुझे विष के समान दिखाई दे रही हैं । इसीलिए मैं भगवान् श्रीकृष्ण की शरण में जाना चाहता हूँ, जो सत्य, नित्य और निर्गुण हैं । श्री महादेव बोले —हे मुने ! शत्रु के अधीन पड़ी हुई स्त्री को त्याग कर तप करने जाना अच्छा नहीं, क्योंकि सम्भावित दुरचर्चा ( अयश ) मरण से अधिक दुःखप्रद होती है । हे महाभाग ! इसलिए तुम आगे चलो, मैं भी नर्मदा तट पर, जहाँ ब्रह्मा आदि सभी देव हैं, शीघ्र ही चल रहा हूँ । शिव की बातें सुनकर देव-गुरु बृहस्पति नर्मदा तट की ओर चल पड़े और महाभाग शंकर भी वहाँ पहुँच गये । अपने गण समेत शिव को वहाँ आये हुए देख कर जिनके मुख और नेत्र से प्रसन्नता स्पष्ट प्रतीत हो रही थी, समस्त देवता, मनु और मुनियों ने सादर प्रणाम किया । शिव ने भी विष्णु और ब्रह्मा को शिर से नमस्कार किया । अनन्तर विष्णु ने शिव से प्रेमालिंगन कर उन्हें आसन प्रदान किया । उसी बीच वहाँ बृहस्पति भी आ गये । उन्होंने महादेव, विष्णु, ब्रह्मा, सूर्य, धर्म, अनन्त, नर-नारायण, मुनिवृन्द, अपने गुरु और पिता को भक्तिपूर्वक सादर प्रणाम किया, और वहीं बैठ गये । अनन्तर वहाँ की सभा में भगवान् विष्णु ने मन से भलीभांति युक्ति सोच कर ब्रह्मा और शिव से स्वयं कहा । विष्णु बोले — तुम दोनों और मुनिवृन्द मिलकर समुद्रतट पर शुक्राचार्य के यहाँ किसी को मध्यस्थ बनाकर शीघ्र भेजो। क्योंकि युद्ध करने से विषम परिणाम होगा, इसमें संशय नहीं । और मेरे आशीर्वाद से बृहस्पति तारा को निश्चित प्राप्त करेंगे । इसलिए देवलोग शुक्राचार्य की स्तुति करके उन्हें सन्तुष्ट करें, क्योंकि कृष्ण-चक्र सुदर्शन द्वारा रक्षित होने के नाते शुक्र को देवलोग भी जीत नहीं सकते हैं । तुम लोगों की प्रार्थना-स्तुति से प्रसन्न होकर मैं श्वेत द्वीप से यहाँ आया हूँ । अतः शुक्र के आश्रम के पास सभी देवता जायें। क्योंकि श्रुति कहती है कि बलवान् शत्रु को उसकी स्तुति द्वारा वशीभूत करना चाहिए । इतना कहकर जगत् के नाथ भगवान् विष्णु ब्रह्मादि देवों द्वारा प्रणाम, स्तुति तथा अर्चना करने के उपरान्त उसी स्थान पर अन्तर्हित हो गये । हे नारद! जगदीश्वर भगवान् विष्णु के श्वेतद्वीप चले जाने पर सभी देवता खिन्नमन होकर चिन्ता-कुल हो उठे। उसी बीच सभा में मुनियों और देवों को सम्बोधित करते हुए ब्रह्मा ने कहा, जो नीति का सार और शंकर को पसन्द था । ब्रह्मा बोले — हे पुत्रवृन्द ! मेरा, शिव का धर्म का एवं सबके साक्षी विष्णु का देवों और दैत्यों में समान स्नेह रहा है । और दैत्यों के गुरु शुक्र के यहाँ चन्द्रमा रह रहा है, तथा दैत्यगणों से पूजित होने के नाते शुक्र को देवगण कभी जीत नहीं पाये । इसलिए हे देवगण ! विष्णु की आज्ञानुसार तुम लोग समुद्रतट पर चलो और तारा के लिए मैं अकेला शुक्र के भवन में जा रहा हूँ । हे मुने ! इतना कहकर जगत् के धाता (ब्रह्मा) शुक्र के पास गये और देवगण एवं ब्राह्मण-वृन्द ने समुद्र तट की यात्रा की । ॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के दूसरे प्रकृति खण्ड में नारद-नारायण-संवाद के अन्तर्गत श्री कृष्णोपदिष्ट तारा के उद्धार का उपाय ज्ञान नामक साठवाँ अध्याय समाप्त ॥ ६० ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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