ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 61
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
इकसठवाँ अध्याय
बृहस्पति को तारा की प्राप्ति तथा बुध की उत्पत्ति

नारद बोले — हे भगवन् ! उसके पश्चात् दैत्यों और देवों में क्या हुआ? यह रहस्य सुनने का मुझे बड़ा कौतूहल हो रहा है ।

नारायण बोले — ब्रह्मा महात्मा शुक्र के भवन गये जो अनेक भाँति के दैत्यों से आच्छन्न एवं रत्नों के मण्डपों से विभूषित था । पचास करोड़ ब्रह्मवेत्ता शिष्य उनके चारों ओर वर्तमान थे और उनका दुर्ग सात परिखाओं ( खाइयों) से घिरा था । सौ करोड़ दैत्य रक्षकगण दुर्ग की रक्षा करते थे और वह दुर्ग पद्मराग मणियों की बनी चहारदीवारों से सुशोभित था । उपरान्त जगत् के विधाता ब्रह्मा ने वहाँ भृग-पुत्र शुक्र को देखा जो दैत्यों तथा मुनिगणों द्वारा स्तुत और रत्नसिंहासन पर सुखासीन थे । परब्रह्म, परमात्मा एवं ईश्वर भगवान् श्रीकृष्ण का जप कर रहे थे, जो करोड़ों सूर्य की प्रभा से पूर्ण तथा ब्रह्मतेज से निरन्तर देदीप्यमान थे । हे नारद ! इस प्रकार प्रभायुक्त पौत्र को देखकर ब्रह्मा का मन उस समय हर्षमग्न हो गया । वे अपने को और पुत्र-पौत्र को कृतकृत्य समझने लगे ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

पश्चात् शुक्र जगत् के विधाता एवं प्रभु ब्रह्मा को देखते ही सहसा उठ खड़े हुए और भयभीत होते हुए अंजली बांधकर उन्हें प्रणाम किया । षोडशोपचार मंगाकर सविधि पूजन किया, तथा परमभक्ति से आगमानुसार उनकी स्तुति आरम्भ की, जो विद्या और मन्त्र के प्रदाता, समस्त सम्पत्ति तथा अपने कर्मों के फल देने वाले एवं विश्व में सर्वश्रेष्ट हैं । शुक्र की ऐसी स्तुति से जगत्पति ब्रह्मा सन्तुष्ट होकर शीघ्र रथ से उतर पड़े और उनकी सभा को सम्बोधित किया । शुक्र ने उनके बैठने के लिए शिर झुकाकर वह उत्तम सिंहासन प्रदान किया, जो तेज से प्रज्वलित, रम्य और विश्वकर्मा द्वारा सुनिर्मित था ।

हे मुने ! शुक्र ने ब्रह्मा को प्रणाम करने के उपरान्त कुमार, सनक, ऋतु, वसिष्ठ, मरीचि, सनन्द, सनातन, कपिल, पञ्चशिख, वोढु, अंगिरा, धर्म, मुझे (नारायण) और नर को भक्तिपूर्वक हाथ जोड़कर प्रणाम किया । उस धार्मिक ने सादर यथोचित प्रत्येक की पूजा की और उन्हें रत्नसिंहासनों पर बैठाया । अनन्तर दितिनन्दन और वहाँ के ऋषिसंघ ने प्रसन्नचित्त होकर शास्त्रानुसार ब्रह्मा को प्रणाम किया । सब का सादर स्वागत करने के अनन्तर कवि (शुक्र) ने अंजली बाँधकर, सजल नेत्र, पुलकायमान शरीर से विनय-विनम्र होकर कहना आरम्भ किया ।

शुक्र बोले — आज हमारा जन्म सफल हो गया, हमारा जीवन सुजीवन हो गया, क्योंकि आज अपने भवन में साक्षात् भगवान् ब्रह्मा स्वयं दृष्टिगोचर हुए हैं । और उनके पुत्र – भगवान् सनातन आदि भी – प्रसन्न चित्त से साक्षात् दर्शन दे रहे हैं। इससे आज परात्पर एवं परमात्मा श्रीकृष्ण मुझ पर अत्यधिक प्रसन्न मालूम हो रहे हैं । मुझ शिशु को कृतार्थ करने में समर्थ आप लोगों का स्वागत है । अपने आत्मा में रमण करने वालों को कुशल पूछना तो बिडम्बना मात्र है । हमें पवित्र करने के लिए ही आप महानुभावों का यहाँ आगमन हुआ है । हमें बतायें या शासन करें कि मैं क्या करूँ ।

ब्रह्मा बोले — तुम्हारे चिरकाल के वियोग के नाते हमें बड़ी उद्विग्नता थी अतः अपने पौत्र (तुम) को देखने के लिए आया हूँ। क्योंकि पुत्र-पौत्र का वियोग मरण से भी अधिक दुःखप्रद होता है । हे मुनिश्रेष्ठ ! तुम कुशल से तो हो ? तुम्हारे पुत्र, स्त्रियाँ, स्वधर्म तथा काम्य तप कुशलपूर्वक चल रहे हैं न ? तुम्हारा दिन-प्रतिदिन भगवान श्रीकृष्ण का यथेष्ट पूजन और अपने गुरु की नित्य अविच्छिन्न सेवा चलती रहे । क्योंकि गुरु और इष्टदेव का पूजन करना समस्त मंगलों का कारण होता है, पाप, रोग एवं शोक का नाश करता है और पुण्य, हर्षप्रद तथा शुभ होता है । गुरु के संतुष्ट होने पर मनुष्यों के इष्टदेव सन्तुष्ट रहते हैं और इष्टदेव के प्रसन्न होने पर समस्त देवगण प्रसन्न होते हैं । जिन पापियों से गुरु, ब्राह्मण तथा देवता रुष्ट रहते हैं, उनका कुशल नहीं होता है एवं पद-पद पर उनका विघ्न ही होता है । हे वत्स ! तुम्हारी भक्ति से भगवान् श्रीकृष्ण, जो प्रकृति से परे और सभी के अन्तरात्मा एवं निर्गुण हैं, तुम्हारी भक्ति से सतत सन्तुष्ट रहते हैं ।

जगत् का विधाता मैं तुम्हारा गुरु हूँ और तुम पर प्रसन्न हूँ, मेरे प्रसन्न होने से भगवान् प्रसन्न हैं और भगवान् के प्रसन्न होने पर सभी देवगण प्रसन्न हैं । हे धीमन् ! सम्प्रति मेरे यहाँ आने का कुछ और कारण है, कह रहा हूँ, सुनो। मैं देवगणों और विश्व के संहार करने वाले (शिव) का भेजा हुआ हूँ । शिवजी के गुरुपुत्र बृहस्पति की पतिव्रता पत्नी तारा का अपहरण करके चन्द्रमा तुम्हारी ही शरण में आकर रह रहा है । हे पुत्र ! इसी कारण शम्भु, धर्म, सूर्य, इन्द्र, अनन्त, आदित्यगण, वसुगण, रुद्रगण, दिक्पाल, और दिशाओं के अधीश्वर युद्ध के लिए आ रहे हैं, जिसमें तीन करोड़ देवता, नागवर्ग, किम्पुरुषगण, यक्ष, राक्षस, गुह्यकवर्ग, भूत, प्रेत, पिशाच, कूष्माण्ड, ब्रह्मराक्षस, किरात, और गन्धर्वगण अत्यन्त सन्नद्ध होकर इस समय समुद्र के तट पर अवस्थित हैं । इस युद्ध में सनत्कुमार आदि पुत्रों समेत मैं ही मध्यस्थ बनाया गया हूँ, अतः तारा को लौटा दो या युद्ध करो । किन्तु मेरा कहना है कि कामी चन्द्रमा का ही त्याग कर दो ।

शुक्र बोले — युद्ध के लिए तैयार होने वाले दुर्मदान्ध देवगणों को आने दीजिए, सभी के परमगुरु एक शिव को छोड़कर शेष सभी लोगों से मैं युद्ध करूंगा ।

दैत्य बोले — शिव जो दोनों (दैत्य- देवगणों) के गुरु, मान्य और सर्वदा वन्दनीय हैं, धर्म ( कर्मों के ) साक्षी हैं और आप पितामह ही हैं। शेष अन्य देवों को हम लोग तृण के तुल्य भी नहीं गिनते हैं । अतः हे जगद्गुरो ! जाओ, उनसे कहो, आवें, हम लोग युद्ध के लिए तैयार हैं । हे प्रभो ! यदि शिव भी गुरुपुत्र ( वृहस्पति) के ऊपर कृपा करने के नाते आयेंगे, तो सर्वप्रथम आग्नेयास्त्र का प्रयोग करके पश्चात् युद्ध करेंगे ।

ब्रह्मा बोले — हे वत्स ! वे कालाग्नि हैं, विश्व के संहर्ता होने के नाते सभी बलवानों में बड़े हैं, इसलिए हाथ में खङ्ग और उनके साथ कौन युद्ध कर सकेगा ? उनके साथ में रहने वाली जगन्माता भद्रकाली हैं, जो हाथ खप्पर लिये रहती हैं, उस दुर्द्धर्षा के साथ कौन युद्ध करेगा ?  उस सहस्रभुजा देवी के साथ कौन लड़ेगा, जो मुण्डमाला से विभूषित है तथा जिसका मुख एक योजन लंबा है और दश योजन विस्तृत है । उसके सात ताड़ के प्रमाण भयानक दाँत तथा एक कोश की लपलपाती और भयंकरी जिह्वा है । अत्यन्त रौद्र और भीषण शंकर के सेवक भी सन्नद्ध हैं, और अति भयंकर भैरव एवं रणकर्कश नन्दी तथा शिवजी के अन्य सभी वीरभद्र आदि पार्षदगण महाबलवान्, पराक्रमी, शूर और करोड़ों सूर्य के समान प्रभापूर्ण हैं । सहस्र शिर वाले शेष भी हैं, जिनके फणा – मण्डल ही भूषण हैं एवं जो विश्व को राई के समान अपने शिर पर रखते हैं । उनके समान कौन योद्धा है ?  हे पुत्र ! त्रिपुरहन्ता और ब्रह्मतेज से प्रज्वलित होने वाले जिस शिव जी के कालाग्निरुद्र संहर्ता हैं एवं सेवक त्रिशूलधारी हैं, तथा जिनके दुर्निवार पाशुपत अस्त्र से समस्त विश्व भस्म हो सकता है, उनके सामने दैत्यों की क्या गिनती है ?  जिनके शूल से प्रतापी शंखचूड़ छिन्न-भिन्न होकर नष्ट हो गया, जो परमात्मा श्रीकृष्ण का सुदामा नामक उत्तम पार्षद और तीन करोड़ सूर्य के समान तेजस्वी, परम अद्भुत, कण्ठ में राधा जी के कवच से भूषित एवं समस्त दैत्यों का अधीश्वर था, वे तथा मधु-कैटभ के निहन्ता और हिरण्यकशिपु को विदीर्ण करने वाले स्वयं प्रभु विष्णु भी श्वेतद्वीप से आ रहे हैं ।

इस प्रकार उस सभा में कहकर जगत् के विधाता ब्रह्मा चुप हो गये । अनन्तर दानवों के अधीश्वर दैत्य ने हँसकर कहा ।

प्रह्लाद बोले — हे जगत् के विधाता एवं सभी के प्राचीन अधीश्वर ! आप सभी के पूज्य और सभी के स्वामी हैं, अतः आपके सामने मैं क्या कहूँ । जो हिरण्यकशिपु और मधुकैटभ का हनन करने वाला है, वह जिसकी कला है वह भगवान् श्रीकृष्ण परिपूर्णतम हैं और सभी के अन्तरात्मा हैं । उनका दुःसह सुदर्शन चक्र हमारे लोक और हम लोगों की निरन्तर रक्षा करेगा । हे विधे ! उससे बलवान् न शिव हैं, न पाशुपत अस्त्र, न काली, न शेष, और न रुद्र आदि देवता हैं । हे जगत्पते ! जिसके लोभ में समस्त विश्व निहित है और जो सभी का आधार, विभु और स्थूल से स्थूलतर है । उसी भगवान् का सोलहवाँ अंश महान् विराट् है । उसके समान स्थूल न तो अनन्त है और न काली ही उससे बड़ी है । अब सभी देवगण आयें और युद्ध करें क्योंकि शिवके बाणों और उनके पाशुपत से मैं डरता नहीं । हे प्रजापते ! शिव (कल्याण) रूपी उस भगवान् शिव को नमस्कार है, अनन्त को नमस्कार है, साधु, वैष्णवों को नमस्कार है । हे प्रभो ! भगवान् श्रीकृष्ण के प्रसाद से मैं निर्भय और स्वस्थ हूँ। मेरा अपना कुछ बल नहीं है, जो कुछ है वह प्रभु का है । पूर्वकाल में मेरे पिता अपने पाप- विष्णु की निन्दा – करने से मरे । निर्बन्ध ( दुराग्रह ) के कारण शंखचूड मारा गया और दर्प (अभिमान) के नाते मधुकैटभ का निधन हुआ । त्रिपुर हम लोगों का किंकर (सेवक ) था, वीरों में उसकी गणना नहीं है । तथापि उससे उकसाये जाने पर महादेव ने रथ पर बैठ कर उसका संहार किया था ।

हे नारद! सभा में दानवश्रेष्ठ प्रह्लाद इतना कहकर चुप हो गये, अनन्तर जगत् के विधाता ब्रह्मा ने पुनः कहना आरम्भ किया ।

ब्रह्मा बोले — हे वत्स ! युद्ध देव-दानव दोनों कुल के विनाश का कारण होगा, अतः अति प्रेम से व्यवहार करो, जो समस्त मंगलों का कारण है । हे राजन् ! मैं ब्रह्मा होकर तुम्हारे यहाँ भिक्षुक बना हूँ, अतः मुझे भिक्षा रूप में तारा को दे दो। क्योंकि भिक्षुक के विमुख होने पर गृहस्थ को समस्त पाप का भागी होना पड़ता है ।

सनत्कुमार बोले — हे राजेन्द्र ! देव और दैत्य के वंश में तुम सिंह हो, अतः अपनी कीर्ति की रक्षा करो। और जिसके यहाँ ( द्वार पर ) जगत् के विधाता भिक्षुक हों, उसकी कीर्ति की कौन बात कही जाये ।

सनातन बोले — ब्रह्मा, शिव आदि देवगण तुम्हें जीत नहीं सके, क्योंकि तुम पुण्यवान् एवं पवित्र वैष्णव हो और गुरु वैष्णव शुक्र हैं,इसीलिए भगवान् श्रीकृष्ण के चक्र से सुरक्षित हो ।

सनन्दन बोले — जिसके इष्टदेव सर्वात्मा श्रीकृष्ण हैं, जो प्रकृति से परे हैं और उस महान् को कौन जीत सकता है ।

सनक बोले — पुण्यवान् को कोई नहीं जीत सकता है। पापी अपने पातकों से विजित होता है। क्योंकि पाषण्डरूपी वायु से पुण्यदीप कभी भी नहीं बुझता ।

ऋषिगण बोले — हे महाभाग ! गुरु ( बृहस्पति) को तारा और प्राणों से बढ़कर चन्द्रमा दे दो । मैं बार-बार प्रार्थना करता हूँ कि अपनी कीर्ति को अति चिरकाल तक के लिए सुरक्षित रखो ।

प्रह्लाद बोले हम लोगों के अधीश्वर के साक्षात् विद्यमान रहते हुए, कोई सेवक उस पद को सुशोभित नहीं कर सकता है ( अर्थात् इसकी स्वीकृति प्रदान नहीं कर सकता ) । यह बातें मेरे गुरु एवं स्वामी शुक्र से कहिये, जो सज्जनों में प्रवर हैं । सज्जन शिष्यों के अधिपति गुरु होते हैं, जो ईश्वर के समान होते हैं। मैंने अपना समस्त ऐश्वर्य पूर्वकाल में ही गुरु को सौंप दिया था । हम लोग अपने गुरु के सेवक एवं पोष्य वर्ग हैं, क्योंकि वे ही शिष्य कुशली कहे जाते हैं जो गुरु की आज्ञा का पालन करते हैं ।

हे मुने!  प्रह्लाद की ऐसी बातें सुनकर उन्होंने कवि (शुक्र) से प्रार्थना की । अनन्तर शुक्र ने तारा को और पापी चन्द्रमा को उन्हें लौटा दिया । शुक्र ने तारा और चन्द्रमा को देकर ब्रह्मा का चरणस्पर्श करते हुए उन्हें प्रणाम किया और विनय-विनम्र होकर मुनियों को प्रणाम करके अपने नगर को चले गये । अपने गण समेत प्रह्लाद ने भी भक्तिपूर्वक ब्रह्मा का चरण स्पर्श करके प्रत्येक मुनिगण को प्रणाम किया और अपने गृह चले गये ।

हे मुने ! ब्रह्मा ने गर्भिणी सती तारा को अपना चरणस्पर्श करते देखा जो लज्जा से नीचे मुख किये,  रोदन कर रही थी । अनन्तर प्रणाम करते हुए चन्द्रमा को देखकर दयालु ब्रह्मा ने उन्हें उठाया और माया से अपनी गोद में बैठा कर मलिन तथा डरी हुई तारा से कहा । हे तारे ! मुझसे भय न करो और मेरे रहते तुम्हें भय कैसा ? मेरे वरदान द्वारा तुम पुनः अपने पति की सौभाग्यशालिनी हो जाओगी । क्योंकि दुर्बला निष्काम स्त्री किसी बलवान् से ग्रस्त होने पर ( स्वधर्म से ) च्युत नहीं होती है। वह प्रायश्चित्त से शुद्ध हो जाती है, और जार (व्यभिचारी) द्वारा दूषित नहीं मानी जाती । जो कामनापूर्वक कामुकी होकर अपने सुख के लिए जार ( व्यभिचारी) पुरुष का सेवन करती है, उसकी शुद्धि प्रायश्चित्त से भी नहीं होती है, इसीलिए वह पतित्यक्ता हो जाती है । तथा चन्द्र-सूर्य के समय तक वह कुम्भीपाक नरक में पकती रहती है । उसका अन्न विष्ठा के तुल्य, जल मूत्र के समान और स्पर्श समस्तपापप्रदायक होता है । अतः उस अत्यन्त पापिनी का अन्न-पान साधुओं को त्याज्य है । हे वत्से ! अब यह बताओ कि यह किसका गर्भ है ? और तुम बृहस्पति के यहाँ चली जाओ । हे महाभागे ! अब लज्जा त्याग दो, क्योंकि सभी कुछ प्राक्तन ( जन्मान्तरीय) कर्म के अनुसार ही होता है ।

ब्रह्मा की ऐसी बातें सुनकर उस पतिव्रता ने उनसे कहा हे तात ! यह चन्द्रमा का गर्भ है, जिसका अपने कर्मानुसार मैं भरण-पोषण कर रही हूँ । हे प्रजापते ! जिस समय दुष्टबुद्धि एवं निर्दय चन्द्रमा ने मुझ दुर्बला को पकड़ लिया उस समय के सभी लोग मेरे साक्षी हैं ।

इतना कहकर तारा ने सुवर्ण के समान प्रभापूर्ण एक कुमार उत्पन्न किया । उस सुन्दर कुमार को, जो ब्रह्मतेज से देदीप्यमान था, लेकर चन्द्रमा ने ब्रह्मा को नमस्कार किया और अपने घर चले गये । पश्चात् ब्रह्मा भी बृहस्पति को तारा सौंपकर देवों को अभय और शिव एवं धर्म को शुभाशिष प्रदान कर अपने लोक चले गये । अनन्तर देवता लोग और बृहस्पति भी अपने-अपने घर गये ।

अपनी भावानुरागिणी स्त्री को पुनः प्राप्त कर गुरु अत्यन्त प्रसन्न हुए। इस प्रकार तारा के गर्भ से उत्पन्न होने वाले कुमार का नाम बुध हुआ ।

हे ब्रह्मन् ! चन्द्रमा का वह ( बुध) पुत्र महान् तेजस्वी एवं उत्तम ग्रह हुआ । उसी बुध ने एक बार निर्जन नन्दन वन में चित्रा को देखकर, जो कुबेर के वीर्य से घृताची अप्सरा के गर्भ से उत्पन्न हुई थी तथा रम्य, कमल के समान नेत्रों वाली तथा पूर्ण यौवन सम्पन्न सोलह वर्ष की बाला थी, गान्धर्व विवाह द्वारा उसको अपना लिया । एकान्त में उसके साथ उपभोग कर उन्होंने उसमें गर्भाधान किया, जिससे चित्रा में चैत्र नामक मण्डलेश्वर राजा उत्पन्न हुआ । उस धार्मिक तथा बलवान् (राजा) ने सातों द्वीप वाली पृथिवी पर ( एकच्छत्र) शासन किया | उसके शासन काल में घृत की सौ नदियाँ, दही की सौ नदियाँ, दुग्ध की सौ नदियाँ, मधु (शहद) की सोलह नदियाँ एवं तेल की दश नदियाँ बहती थीं । तथा एक लक्ष शक्कर की राशि और लड्डुओं तथा मिष्टान्नों की नित्य एक लक्षराशि, पाँच करोड़ मांस- राशि, एवं मालपूआ आदि समेत सुन्दर भोजन बनता था । हे मुने ! इन नदियों एवं राशियों के उपभोग ब्राह्मण- वृन्द नित्य करते थे । इस भाँति राजा अपने जीवन काल तक नित्य एक लाख गौ, एक लाख रत्न मणि, सौ लाख सुवर्ण, एक लाख सूक्ष्म वस्त्र, रत्नों के आभूषण और अति मनोहर पात्र ब्राह्मणों को दान करता था । अनन्तर उस चैत्र राजा के अधिरथ नामक पुत्र हुआ ।

उसके सुरथ नामक चक्रवर्ती राजा बृहच्छ्रवा पुत्र हुआ, जिसने पूर्वकाल में मुनिश्रेष्ठ मेधस् ऋषि से महाज्ञान को प्राप्ति कर पुण्यक्षेत्र भारत में विष्णुमाया (दुर्गा) की उपासना की थी। उस महाज्ञानी ने शारदीय नवरात्र में नदी के तट पर वैश्य के साथ महापूजा सुसम्पन्न की ।

हे मुनिश्रेष्ठ ! कलिंग देश का राजा विराध वैश्यों में श्रेष्ठ था । उसका पुत्र द्रुमिण महायोगी एवं ज्ञानिप्रवर हुआ। महाबुद्धिमान् एवं वैष्णव द्रुमिण ने पुष्कर क्षेत्र में महाकठिन तप किया जिससे उसके समाधि नामक पुत्र प्राप्त हुआ, जो ज्ञानियों और वैष्णवों में अग्रणी था । उसके दुष्ट पुत्र और स्त्री ने घन के लोभ से उसे घर से निकाल दिया था, जो नित्य करोड़ सुवर्ण-मुद्रा दान कर जल पीता था । उपरान्त उसने सनातनी विष्णुमाया (दुर्गा) की आराधना करके मुक्ति प्राप्त की ।

हे मुने! इस प्रकार उस राजा ने निष्कण्टक राज्य को प्राप्त किया तथा जन्मान्तर में वह मनु हुआ जिसे तीनों लोकों के स्वामी विधाता ने मधुर वाक्य कहा था ।

॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के दूसरे प्रकृति खण्ड में नारद-नारायण-संवादान्तर्गत दुर्गापाख्यान में गुरु तारा की प्राप्ति और बुध की उत्पत्ति आदि का वर्णन नामक इकसठवाँ अध्याय समाप्त ॥ ६१ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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