ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 62
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
बाँसठवाँ अध्याय
सुरथ और समाधि वैश्य का मेधस् के आश्रम पर जाना, मुनि का दुर्गा की महिमा एवं उनकी आराधना-विधि का उपदेश देना तथा दुर्गा की आराधना से उन दोनों के अभीष्ट मनोरथ की पूर्ति

नारद बोले — राजा सुरथ को मुनिश्रेष्ठ मेधस् द्वारा महाज्ञान की प्राप्ति और वैश्य (समाधि) को मुक्ति की प्राप्ति कैसे हुई थी, मुझे बताने की कृपा करें ।

भगवान् नारायण बोले — ध्रुव के पौत्र तथा उत्कल के पुत्र बलवान् नन्दि स्वायम्भुव मनु के वंश में सत्यवादी एवं जितेन्द्रिय राजा थे। उन्होंने सौ अक्षौहिणी सेना लेकर महामति सुरथ के राज्य को चारों ओर से घेर लिया। नारद ! दोनों पक्षों में पूरे एक वर्ष तक निरन्तर युद्ध होता रहा । अन्त में चिरंजीवी वैष्णवनरेश नन्दि ने सुरथ पर विजय पायी । नन्दि ने उन्हें राज्य से बाहर कर दिया । भयभीत राजा सुरथ रात में अकेले घोड़े पर सवार हो गहन वन में चले गये। वहाँ भद्रा नदी के तट पर उनकी एक वैश्य से भेंट हुई।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

मुने! उन दोनों ने परस्पर बन्धु-भाव की स्थापना की और उनमें बड़ा प्रेम हो गया। राजा वैश्य के साथ मेधस् के आश्रम पर गये । भारत में सत्पुरुषों के लिये जो दुष्कर पुण्यक्षेत्र है, उस पुष्कर में जाकर राजा ने उन महातेजस्वी मुनि का दर्शन किया। मेधस् जी अपने शिष्यों को परम दुर्लभ ब्रह्मतत्त्व का उपदेश दे रहे थे। राजा और वैश्य ने मस्तक झुकाकर उन मुनि-श्रेष्ठ को प्रणाम किया। मुनि ने उन दोनों अतिथियों का आदर किया और उन्हें शुभाशीर्वाद दिया। फिर पृथक्-पृथक् उन दोनों का कुशल-मङ्गल, जाति और नाम पूछा। राजा सुरथ ने उन मुनीश्वर को क्रमशः उनके प्रश्नों का उत्तर दिया ।

सुरथ बोले — ब्रह्मन् ! मैं राजा सुरथ हूँ । मेरा जन्म चैत्रवंश में हुआ है। इस समय बलवान् राजा नन्दि ने मुझे अपने राज्य से निकाल दिया है। अब मैं कौन उपाय करूँ ? किस प्रकार पुनः अपने राज्य पर मेरा अधिकार हो ? यह आप बतावें । महाभाग मुने! मैं आपकी ही शरण में आया हूँ । यह समाधि नामक वैश्य है और बड़ा धर्मात्मा है; तथापि दैववश इसके स्त्री- पुत्रों ने धन के लोभ से इसको घर से बाहर निकाल दिया है। इसका अपराध इतना ही है कि यह स्त्री, पुत्रों और बन्धु-बान्धवों के मना करने पर भी प्रतिदिन ब्राह्मणों को प्रचुर धन और रत्न दान में दिया करता था । इसी से क्रोध में आकर उन लोगों ने इसे घर से निकाल दिया । फिर शोक के कारण वे पुनः इसका अन्वेषण करते हुए आये । परंतु यह पवित्र, ज्ञानी एवं विरक्त वैश्य उनके आग्रह करने पर भी घर को नहीं लौटा। तब इसके पुत्र भी पितृशोक से संतप्त हो सब कर्मों से विरक्त हो गये और सारा धन ब्राह्मणों को देकर घर छोड़ वन को चले गये । ‘श्रीहरि का परम दुर्लभ दास्य प्राप्त हो’ – यही इस वैश्य का अभीष्ट मनोरथ है । इस निष्काम वैश्य को वह अभीष्ट वस्तु कैसे प्राप्त होगी ? यह बात आप विस्तारपूर्वक बताने की कृपा करें।

श्रीमेधस् ने कहा — राजन् ! निर्गुण परमात्मा श्रीकृष्ण की आज्ञा से दुर्लय त्रिगुणमयी विष्णुमाया सम्पूर्ण विश्व को अपनी माया से आच्छन्न कर देती है । वह कृपामयी देवी जिन धर्मात्मा पुरुषों पर कृपा करती है, उन्हें दया करके परम दुर्लभ श्रीकृष्ण-भक्ति प्रदान करती है। नरेश्वर ! परंतु जिन मायावी पुरुषों पर विष्णुमाया दया नहीं करती है, उन दुर्गतिग्रस्त जीवों को माया द्वारा ही मोहजाल से बाँध देती है । फिर तो वे बर्बर जीव इस नश्वर एवं अनित्य संसार में सदा नित्यबुद्धि कर लेते हैं और परमेश्वर की उपासना छोड़कर दूसरे-दूसरे देवताओं की सेवामें लग जाते हैं तथा उन्हीं देवताओं के मन्त्र का जप करते हैं । लोभवश मन में किसी मिथ्या निमित्त को स्थान देकर वे इस तरह भटक जाते हैं। अन्य देवता भी श्रीहरि की कलाएँ हैं। उनका सात जन्मों तक सेवन करने के पश्चात् वे देवी प्रकृति की कृपा से उनकी आराधना में संलग्न होते हैं। सात जन्मों तक कृपामयी विष्णुमाया की सेवा करने के बाद उन्हें सनातन ज्ञानानन्दस्वरूप शिव की भक्ति प्राप्त होती है । भगवान् शंकर श्रीहरि के ज्ञान के अधिष्ठाता देवता हैं। उनका सेवन करके मनुष्य शीघ्र ही उनसे श्रीविष्णु-भक्ति प्राप्त कर लेते हैं। तब उनके द्वारा सत्त्वस्वरूप सगुण विष्णु की सेवा होने लगती है। इससे उनको परम निर्मल ज्ञान का साक्षात्कार होता है ।

सगुण विष्णु की आराधना के पश्चात् सात्त्विक वैष्णव मानव प्रकृति से परवर्ती निर्गुण श्रीकृष्ण की भक्ति पाते हैं । तदनन्तर वे साधु पुरुष श्रीकृष्ण के निरामय मन्त्र को ग्रहण करते हैं और उन निर्गुण देव की आराधना से स्वयं निर्गुण हो जाते हैं। वे वैष्णव पुरुष निरामय गोलोक में रहकर निरन्तर भगवान ्‌का दास्य- ( कैंकर्य) – मय सेवन करते हैं और अपनी आँखों से अगणित ब्रह्माओं का पतन (विनाश) देखते हैं । जो श्रेष्ठ मानव श्रीकृष्ण-भक्त से उनके मन्त्र की दीक्षा ग्रहण करता है, वह अपने पूर्वजों की सहस्रों पीढ़ियों का उद्धार कर देता है। इतना ही नहीं, वह नाना के कुल की सहस्रों पीढ़ियों का, माता का तथा दास आदि का भी उद्धार करके गोलोक में चला जाता है । महाभयंकर भवसागर में कर्णधाररूपिणी दुर्गा श्रीकृष्ण-भक्तिरूपी नौका द्वारा उन सबको पार कर देती है। वैष्णवों के कर्म-बन्धन का उच्छेद करने के लिये परमात्मा श्रीकृष्ण की वह वैष्णवी शक्ति तीखे शस्त्र का काम करती है।

नरेश्वर ! उस शक्ति की शक्ति भी दो प्रकार की है। एक विवेचनाशक्ति और दूसरी आवरणी शक्ति । पहली अर्थात् विवेचनाशक्ति तो वह भक्तों को देती है और दूसरी आवरणी शक्ति अभक्त के पल्ले बाँधती है । भगवान् श्रीकृष्ण सत्यस्वरूप हैं। उनसे भिन्न सारा जगत् नश्वर है। विवेचना-बुद्धि नित्यरूपा एवं सनातनी है । यह मेरी श्री है। यही वैष्णव भक्तों को प्राप्त होती है। किंतु आवरणी बुद्धि
कर्मों का फल भोगने वाले अधम अवैष्णव पुरुषों को प्राप्त हुआ करती है।

राजन् ! मैं प्रचेता का पुत्र और ब्रह्माजी का पौत्र हूँ तथा भगवान् शंकर से ज्ञान प्राप्त करके परमात्मा श्रीकृष्ण का भजन करता हूँ | महाराज ! नदी तट पर जाओ और सनातनी दुर्गा का भजन करो। तुम्हारे मन में राज्य की कामना है, इसलिये वे देवी तुम्हें आवरणी बुद्धि प्रदान करेंगी तथा इस निष्काम वैष्णव वैश्य को वे कृपामयी वैष्णवीदेवी शुद्ध विवेचना-बुद्धि देंगी ।

ऐसा कहकर कृपानिधान मुनिवर श्रीमेधस् ने उन दोनों को दुर्गाजी की पूजा की विधि, स्तोत्र, कवच और मन्त्र का उपदेश दिया । वैश्य ने उन कृपामयी देवी की आराधना करके मोक्ष प्राप्त किया तथा राजा को अपना अभीष्ट राज्य, मनु का पद और मनोवाञ्छित परम ऐश्वर्य प्राप्त हुआ ।

इस प्रकार मैंने सुखद, सारभूत एवं मोक्षदायक परम उत्तम दुर्गाका उपाख्यान पूर्णरूपसे सुना दिया । अब तुम और क्या सुनना चाहते हो ?    (अध्याय ६२)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृति खण्डे नारदनारायणसंवादे दुर्गोपाख्याने सुरथमेधस्संवादे सुरथवैश्ययोरभिलषितसिद्धिर्नाम द्विषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६२ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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