ब्रह्मवैवर्तपुराण – ब्रह्मखण्ड – अध्याय 19
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः
उनीसवाँ अध्याय
ब्रह्माण्ड पावन नामक कृष्ण कवच, संसार पावन नामक शिव कवच और शिवस्तवराज का वर्णन तथा इन सबकी महिमा

सौति कहते हैं — मालावती ब्राह्मणों को धन देकर बहुत प्रसन्न हुई। उसने स्वामी की सेवा के लिये नाना प्रकार अपना श्रृंगार किया। वह प्रतिदिन पति की सेवा-शुश्रूषा और समयोचित पूजा करने लगी। उत्तम व्रत का पालन करने वाली उस पतिव्रता ने स्वयं एकान्त में पति को भूले हुए महापुरुष के स्तोत्र, पूजन, कवच और मन्त्र का बोध कराया।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

पूर्वकाल में वसिष्ठ जी ने पुष्कर तीर्थ में गन्धर्व और मालावती को इस श्रीहरि के स्तोत्र, पूजन आदि का तथा एक मन्त्र का उपदेश दिया था। इसी तरह शंकर जी का स्तोत्र और कवच भी गन्धर्व को भूल गया था। कृपानिधान वसिष्ठ ने एकान्त में गन्धर्वराज को उसका भी बोध कराया। इस प्रकार बोध सम्पन्न हो परमानन्दमय गन्धर्व ने अपने कुबेर भवन सदृश आश्रम में रहकर बन्धु-बान्धवों के साथ राज्य किया। उपबर्हण की अन्य स्त्रियाँ भी जैसे-तैसे वहाँ आयीं और आकर उन्होंने बड़े आनन्द के साथ पुनः अपने स्वामी को प्राप्त किया।

शौनक ने पूछा — सूतनन्दन! पूर्वकाल में वसिष्ठ जी ने उन दोनों दम्पति को भगवान् विष्णु के किस स्तोत्र, कवच, मन्त्र और पूजा-विधि का उपदेश किया था — यह आप बताने की कृपा करें। पूर्वकाल में वसिष्ठ जी ने गन्धर्वराज को भगवान् शिव के जिस द्वादशाक्षर-मन्त्र और कवच आदि का उपदेश दिया था, वह भी मुझे बताइये। यह सब सुनने के लिये मेरे मन में बड़ा कौतूहल है; क्योंकि शंकर का स्तोत्र, कवच और मन्त्र दुर्गति का नाश करने वाला है।

सौति बोले — शौनक जी! मालती ने जिस स्तोत्र के द्वारा परमेश्वर श्रीकृष्ण का स्तवन किया था, वही स्तोत्र वसिष्ठ जी ने उन गन्धर्व-दम्पति को दिया था। अब उनके दिये हुए मन्त्र और कवच का वर्णन सुनिये।

‘ॐ नमो भगवते रासमण्डलेशाय स्वाहा’

यह षोडशाक्षर-मन्त्र उपासकों के लिये कल्पवृक्ष-स्वरूप है। इसी का उपदेश वसिष्ठ जी ने दिया था। पूर्वकाल में श्रीहरि के पुष्करधाम में ब्रह्मा जी ने कुमार को यह मन्त्र दिया था तथा श्रीकृष्ण ने गोलोक में भगवान् शंकर को इसका ज्ञान प्रदान किया था। यहाँ भगवान् विष्णु के वेदवर्णित स्वरूप का ध्यान किया जाता है, जो सनातन एवं सबके लिये परम दुर्लभ है। पूर्वोक्त मूल मन्त्र से उत्तम नैवेद्य आदि सभी उपचार समर्पित करने चाहिये। भगवान् का जो कवच है, वह अत्यन्त गुप्त है। उसे मैंने अपने पिता जी के मुख से सुना था।

विप्रवर! पूर्वकाल में त्रिशूलधारी भगवान् शंकर ने ही पिता जी को गंगा के तट पर इसका उपदेश दिया था। भगवान् शंकर को, ब्रह्मा जी को तथा धर्म को गोलोक के रासमण्डल में गोपीवल्लभ श्रीकृष्ण ने कृपापूर्वक यह परम अद्भुत कवच प्रदान किया था।

सर्व-सिद्ध-प्रद ब्रह्माण्ड-पावन श्रीकृष्ण कवच

॥ ब्रह्मोवाच ॥
राधाकान्त महाभाग कवचं यत्प्रकाशितम् ।
ब्रह्माण्डपावनं नाम कृपया कथय प्रभो ॥ १७ ॥
मां महेशं च धर्मं च भक्तं च भक्तवत्सल ।
त्वत्प्रसादेन पुत्रेभ्यो दास्यामि भक्तिसंयुतः ॥ १८ ॥

ब्रह्मा जी बोले — महाभाग! राधाकान्त ! प्रभो ! ब्रह्माण्ड-पावन नामक जो कवच आपने प्रकाशित किया है, उसका उपदेश कृपापूर्वक मुझको, महादेव जी को तथा धर्म को दीजिये। भक्तवत्सल! हम तीनों आपके भक्त हैं । आपकी कृपा से मैं अपने पुत्रों को भक्तिपूर्वक इसका उपदेश दूँगा ।

॥ श्रीकृष्ण उवाच ॥
शृणु वक्ष्यामि ब्रह्मेश धर्मेदं कवचं परम् ।
अहं दास्यामि युष्मभ्यं गोपनीयं सुदुर्लमम् ॥ १९ ॥
यस्मै कस्मै न दातव्यं प्राणतुल्यं ममैव हि ।
यत्तेजो मम देहेऽस्ति तत्तेजः कवचेऽपि च ॥ २० ॥

 श्रीकृष्ण ने कहा — ब्रह्मन ! महेश्वर ! और धर्म ! तुम लोग सुनो ! मैं इस उत्तम कवच का वर्णन कर रहा हूँ । यद्यपि यह परम दुर्लभ और गोपनीय है तथापि तुम्हें इसका उपदेश दूँगा । परंतु ध्यान रहे, जिस–किसी को भी इसका उपदेश नहीं देना चाहिये; क्योंकि यह मेरे लिये प्राणों के समान है । जो तेज मेरे शरीर में है, वही इस कवच में भी है।

कुरु सृष्टिमिमं धृत्वा धाता त्रिजगतां भव ।
संहर्त्ता भव हे शम्भो मम तुल्यो भवे भव ॥ २१ ॥
हे धर्म त्वमिमं धृत्वा भव साक्षी च कर्मणाम् ।
तपसां फलदातारो यूयं भवत मद्वरात् ॥ २२ ॥

ब्रह्मन ! तुम इस कवच को धारण करके सृष्टि करो और तीनों लोकों के विधाता के पद पर प्रतिष्ठित रहो । शम्भो ! तुम भी इस कवच को ग्रहण करके संहार का कार्य सम्पन्न करो और संसार में मेरे समान शक्तिशाली हो जाओ । धर्म ! तुम इस कवच को धारण करके कर्मों के साक्षी बने रहो । तुम सब लोग मेरे वर से तपस्या के फलदाता हो जाओ ।

ब्रह्माण्डपावनस्यास्य कवचस्य हरिः स्वयम् ।
ऋषिश्छन्दश्च गायत्री देवोऽहं जगदीश्वरः ॥ २३ ॥
धर्मार्थकाममोक्षेषु विनियोगः प्रकीर्तितः ।
त्रिलक्षवार पठनात्सिद्धिदं कवचं विधे ॥ २४ ॥

इस ब्रह्माण्ड पावन कवच के स्वयं श्रीहरि ऋषि हैं, गायत्री छन्द हैं, मैं जगदीश्वर श्रीकृष्ण ही देवता हूँ तथा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि के लिये इसका विनियोग कहा गया है । विधे ! तीन लाख बार पाठ करने पर यह कवच सिद्धिदायक होता है।
इस कवच का विनियोग वाक्य संस्कृत में इस प्रकार है —

विनियोग:- ॐ अस्य श्रीब्रह्माण्डपावनकवचस्य साक्षात् श्रीहरिः ऋषिः, गायत्री छन्दः, स एव जगदीश्वरः श्रीकृष्णो देवता धर्मार्थकाममोक्षेषु विनियोगः।

यो भवेत्सिद्धकवचो मम तुल्यो भवेच्च सः ।
तेजसा सिद्धियोगेन ज्ञानेन विक्रमेण च ॥ २५ ॥
प्रणवो मे शिरः पातु नमो रामेश्वराय च ।
भालं पायान्नेत्रयुग्मं नमो राधेश्वराय च ॥ २६ ॥
कृष्णः पायाच्छ्रोत्रयुग्मं हे हरे प्राणमेव च ।
जिह्विकां वह्निजाया तु कृष्णायेति च सर्वतः ॥ २७ ॥
श्रीकृष्णाय स्वाहेति च कण्ठं पातु षडक्षरः ।
ह्रीं कृष्णाय नमो वक्त्रं क्लींपूर्वश्च भुजद्वयम् ॥ २८ ॥
नमो गोपाङ्गनेशाय स्कन्धावष्टाक्षरोऽवतु ।
दन्तपङ्क्तिमोष्ठयुग्मं नमो गोपीश्वराय च ॥ २९ ॥
ॐ नमो भगवते रासमण्डलेशाय स्वाहा ।
स्वयं वक्षःस्थलं पातु मन्त्रोऽयं षोडशाक्षरः ॥ ३० ॥
ऐं कृष्णाय स्वाहेति च कर्णयुग्मं सदाऽवतु ।
ॐ विष्णवे स्वाहेति च कपोलं सवर्तोऽवतु ॥ ३१ ॥
ॐ हरये नम इति पृष्ठं पादं सदा ऽवतु ।
ॐ गोवर्द्धनधारिणे स्वाहा सर्वशरीरकम् ॥ ३२ ॥
प्राच्यां मां पातु श्रीकृष्ण आग्नेय्यां पातु माधवः ।
दक्षिणे पातु गोपीशो नैर्ऋत्यां नन्दनन्दनः ॥ ३३ ॥
वारुण्यां पातु गोविन्दो वायव्यां राधिकेश्वरः ।
उत्तरे पातु रासेश ऐशान्यामच्युतः स्वयम् ॥ ३४ ॥
सततं सर्वतः पातु परो नारायणः स्वयम् ।
इति ते कथितं ब्रह्मन्कवचं परमाद्भुतम् ॥ ३५ ॥
मम जीवनतुल्यं च युष्मभ्यं दत्तमेव च ।

जो इस कवच को सिद्ध कर लेता है, वह तेज, सिद्धियों के योग, ज्ञान और बल-पराक्रम में मेरे समान हो जाता है । प्रणव (ओंकार) मेरे मस्तक की रक्षा करे, ‘नमो रासेश्वराय’ (रासेश्वर को नमस्कार है) यह मन्त्र मेरे ललाट का पालन करे । ‘नमो राधेश्वराय’ (राधापति को नमस्कार है) यह मन्त्र दोनों नेत्रों की रक्षा करे । ‘कृष्ण’ दोनों कानों का पालन करें । ‘हे हरे’ यह नासिका की रक्षा करे । ‘स्वाहा’ मन्त्र जिह्वा को कष्ट से बचावे । ‘कृष्णाय स्वाहा’ यह मन्त्र सब ओर से हमारी रक्षा करे । ‘श्रीकृष्णाय स्वाहा’ यह षडक्षर-मन्त्र कण्ठ को कष्ट से बचावे । ‘ह्लीं कृष्णाय नमः’ यह मन्त्र मुख की तथा ‘क्लीं कृष्णाय नमः’ यह मन्त्र दोनों भुजाओं की रक्षा करे । ‘नमो गोपाङ्गनेशाय’ (गोपाङ्गना-वल्लभ श्रीकृष्ण को नमस्कार है) यह अष्टाक्षर-मन्त्र दोनों कंधों का पालन करे । ‘नमो गोपीश्वराय’ (गोपीश्वर को नमस्कार है) यह मन्त्र दन्त-पंक्ति तथा ओष्ठ-युगल की रक्षा करे । ‘ॐ नमो भगवते रासमण्डलेशाय स्वाहा’ (रासमण्डल के स्वामी सच्चिदानन्दस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण को नमस्कार है । उनकी प्रसन्नता के लिये मैं अपने सर्वस्व की आहुति देता हूँ- त्याग करता हूँ ) यह षोडशाक्षर-मन्त्र मेरे वक्षःस्थल की रक्षा करे । ‘ऐं कृष्णाय स्वाहा’ यह मन्त्र सदा मेरे दोनों कानों को कष्ट से बचावे । ‘ॐ विष्णवे स्वाहा’ यह मन्त्र मेरे कंकाल (अस्थिपंजर) की सब ओर से रक्षा करे । ‘ॐ हरये नमः’ यह मन्त्र सदा मेरे पृष्ठभाग और पैरों का पालन करे। ‘ॐ गोवर्धन-धारिणे स्वाहा’ यह मन्त्र मेरे सम्पूर्ण शरीर की रक्षा करे । पूर्व दिशा में श्रीकृष्ण, अग्निकोण में माधव, दक्षिण दिशा में गोपीश्वर तथा नैर्ऋत्य कोण में नन्दनन्दन मेरी रक्षा करें । पश्चिम दिशा में गोविन्द, वायव्य कोण में राधिकेश्वर, उत्तर दिशा में रासेश्वर और ईशान कोण में स्वयं अच्युत मेरा संरक्षण करें तथा परमपुरुष साक्षात नारायण सदा सब ओर से मेरा पालन करें । ब्रह्मन ! इस प्रकार इस परम अद्भुत कवच का मैंने तुम्हारे सामने वर्णन किया । यह मेरे जीवन के तुल्य है । यह मैंने तुम लोगों को अर्पित किया ।

अश्वमेधसहस्राणि वाजपेयशतानि च ।
कलां नार्हन्ति तान्येव कवचस्यैव धारणात् ॥ ३६ ॥
गुरुमभ्यर्च्य विधिवद्वस्त्रालङ्कारचन्दनैः ।
स्नात्वा तं च नमस्कृत्य कवचं धारयेत्सुधीः ॥ ३७ ॥
कवचस्य प्रसादेन जीवन्मुक्तो भवेन्नरः ।
यदि स्यात्सिद्धकवचो विष्णुरेव भवेद्द्विज ॥ ३८ ॥

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे ब्रह्मखण्डे महापुरुषब्रह्माण्डपावनं नाम श्रीकृष्णकवचं सम्पूर्णम् ॥

इस कवच को धारण करने से जो पुण्य होता है, सहस्रों अश्वमेध और सैकड़ों वाजपेय-यज्ञ उसकी सोलहवीं कला के भी बराबर नहीं हो सकते । विद्वान् पुरुष को चाहिये कि स्नान करके वस्त्र-अलंकार और चन्दन द्वारा विधिवत गुरु की पूजा और वन्दना करने के पश्चात कवच धारण करे । इस कवच के प्रसाद से मनुष्य जीवन्मुक्त हो जाता है । शौनक जी ! यदि किसी ने इस कवच को सिद्ध कर लिया तो वह विष्णु रूप ही हो जाता है ।
इस प्रकार श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराण के ब्रह्मखण्ड में महापुरुष ब्रह्माण्ड पावन नामक श्रीकृष्णकवच पूरा हुआ ।

सौति कहते हैं — शौनक! अब शिव का कवच और स्तोत्र सुनिये, जिसे वसिष्ठ जी ने गन्धर्व को दिया था। शिव का जो द्वादशाक्षर-मन्त्र है, वह इस प्रकार है —

‘ॐ नमो भगवते शिवाय स्वाहा’।

 प्रभो! इस मन्त्र को पूर्वकाल में वसिष्ठ जी ने पुष्कर तीर्थ में कृपापूर्वक प्रदान किया था। प्रचीन काल में ब्रह्मा जी ने रावण को यह मन्त्र दिया था और शंकर जी ने पहले कभी बाणासुर को और दुर्वासा को भी इसका उपदेश दिया था। इस मूलमन्त्र से इष्टदेव को नैवेद्य आदि सम्पूर्ण उत्तम उपचार समर्पित करना चाहिये। इस मन्त्र का वेदोक्त ध्यान ‘ध्यायेन्नित्यं महेशं’ इत्यादि श्लोक के अनुसार है, जो सर्वसम्मत है। [‘ध्यायेन्नित्यं महेशं’ इत्यादि श्लोक इस प्रकार है –

ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरिनिभं चारुचन्द्रावतंसं
दिव्याकल्पोज्ज्वलाङ्गं परशुमृगवराभीतिहस्तं प्रसन्नम् ।
रत्नासीनं समन्तात् स्तुतममरगणैर्व्याघ्रकृत्तिं वसानं
विश्वाद्यं विश्ववन्द्यं सकलभयहरं पञ्चवक्त्रं त्रिनेत्रम् ॥

‘प्रतिदिन महेश्वर का ध्यान करे। उनकी अंगकान्ति चाँदी के पर्वत अथवा कैलास के समान है, मस्तक पर मनोहर चन्द्रमा का मुकुट शोभा पाता है, दिव्य वेश-भूषा एवं श्रृंगार से उनका प्रत्येक अंग उज्ज्वल– जगमगाता हुआ जान पड़ता है, उनके एक हाथ में फरसा, दूसरे में मृगछौना तथा शेष दो हाथों पर अभय की मुद्राएँ हैं, वे सदा प्रसन्न रहते हैं, रत्नमय सिंहासन पर विराजमान हैं, देवता लोग चारों ओर से खड़े होकर उनकी स्तुति करते हैं। वे बाघम्बर पहने बैठे हैं, सम्पूर्ण विश्व के आदिकारण और वन्दनीय हैं, सबका भय दूर कर देने वाले हैं, उनके पाँच मुख हैं और प्रत्येक मुख में तीन-तीन नेत्र हैं।’]

॥ ॐ नमो महादेवाय ॥
॥ बाणासुर उवाच ॥
महेश्वर महाभाग कवचं यत्प्रकाशितम् ।
संसार पावनं नाम कृपया कथय प्रभो ॥ ४३ ॥

सच्चिदानन्दस्वरूप श्री महादेव जी को नमस्कार है।

बाणासुर ने कहा महेश्वर! महाभाग! प्रभो! आपने ‘संसार पावन’ नामक जो कवच प्रकाशित किया है, उसे कृपापूर्वक मुझसे कहिये।

॥ संसार पावन शिव कवच ॥

॥ महेश्वर उवाच ॥
शृणु वक्ष्यामि हे वत्स कवचं परमाद्भुतम् ।
अहं तुम्यं प्रदास्यामि गोपनीयं सुदुर्लभम् ॥ ४४ ॥
पुरा दुर्वाससे दत्तं त्रैलोक्यविजयाय च ॥ ४५ ॥
ममैवेदं च कवचं भक्त्या यो धारयेत्सुधीः ।
जेतुं शक्नोति त्रैलोक्यं भगवन्नवलीलया ॥ ४६ ॥

महेश्वर बोले — बेटा! सुनो, उस परम अद्भुत कवच का मैं वर्णन करता हूँ, यद्यपि वह परम दुर्लभ और गोपनीय है तथापि तुम्हें उसका उपदेश दूँगा। पूर्वकाल में त्रैलोक्य-विजय के लिये वह कवच मैंने दुर्वासा को दिया था। जो उत्तम बुद्धि वाला पुरुष भक्तिभाव से मेरे इस कवच को धारण करता है, वह भगवान् की भाँति लीलापूर्वक तीनों लोकों पर विजय पा सकता है।

संसारपावनस्यास्य कवचस्य प्रजापतिः ।
ऋषिश्छन्दश्च गायत्री देवोऽहं च महेश्वरः ।
धर्मार्थकाममोक्षेषु विनियोगः प्रकीर्तितः ॥ ४७ ॥
पंचलक्षजपेनैव सिद्धिदं कवचं भवेत् ।
यो भवेत्सिद्धकवचो मम तुल्यो भवेद्भुवि ।
तेजसा सिद्धि योगेन तपसा विक्रमेण च ॥ ४८ ॥
शम्भुर्मे मस्तकं पातु मुखं पातु महेश्वरः ।
दन्तपक्तिं नीलकण्ठोऽप्यधरोष्ठं हरः स्वयम् ॥ ४९ ॥
कण्ठं पातु चन्द्रचूडः स्कन्धौ वृषभवाहनः ।
वक्षःस्थलं नीलकण्ठः पातु पृष्ठं दिगम्बरः ॥ ५० ॥
सर्वाङ्गं पातु विश्वेशः सर्वदिक्षु च सर्वदा ।
स्वप्ने जागरणे चैव स्थाणुर्मे पातु सन्ततम् ॥ ५१ ॥
इति ते कथितं बाण कवचं परमाद्भुतम् ।
यस्मै कस्मै न दातव्यं गोपनीयं प्रयत्नतः ॥ ५२ ॥
यत्फलं सर्वतीर्थानां स्नानेन लभते नरः ।
तत्फलं लभते नूनं कवचस्यैव धारणात् ॥ ५३ ॥
इदं कवचमज्ञात्वा भजेन्मां यः सुमन्दधीः ।
शतलक्षप्रजप्तोऽपि न मन्त्रः सिद्धिदायकः ॥ ५४ ॥

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते संसारपावनं नाम शंकरकवचं सम्पूर्णम् ॥

इस ‘संसारपावन’ नामक शिव कवच के प्रजापति ऋषि, गायत्री छन्द तथा मैं महेश्वर देवता हूँ। धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष के लिये इसका विनियोग है।

(विनियोग-वाक्य यों समझना चाहिये — ‘ॐ अस्य श्रीसंसारपावननामधेयस्य शिवकवचस्य प्रजापतिर्ऋषिर्गायत्री छन्दो महेश्वरो देवता धर्मार्थकाममोक्षसिद्धौ विनियोगः।’)

पाँच लाख बार पाठ करने से यह कवच सिद्धिदायक होता है। जो इस कवच को सिद्ध कर लेता है, वह तेज, सिद्धियोग, तपस्या और बल-पराक्रम में इस भूतल पर मेरे समान हो जाता है।

शम्भु मेरे मस्तक की और महेश्वर मुख की रक्षा करें। नीलकण्ठ दाँतों की पाँत का और स्वयं हर अधरोष्ठ का पालन करें। चन्द्रचूड़ कण्ठ की और वृषभ वाहन दोनों कंधों की रक्षा करें। नीलकण्ठ वक्षःस्थल का और दिगम्बर पृष्ठभाग का पालन करें। विश्वेश सदा सब दिशाओं में सम्पूर्ण अंगों की रक्षा करें। सोते और जागते समय स्थाणुदेव निरन्तर मेरा पालन करते रहें।

बाण! इस प्रकार मैंने तुमसे इस परम अद्भुत कवच का वर्णन किया। इसका उपदेश जो ही आवे, उसी को देना चाहिये, अपितु प्रयत्नपूर्वक इसको गुप्त रखना चाहिये। मनुष्य सब तीर्थों में स्नान करके जिस फल को पाता है, उसको अवश्य इस कवच को धारण करने मात्र से पा लेता है। जो अत्यन्त मन्दबुद्धि मानव इस कवच को जाने बिना मेरा भजन करता है, वह सौ लाख बार जप करे तो भी उसका मन्त्र सिद्धिदायक नहीं होता।

इस प्रकार श्रीब्रह्मवैवर्तपुराण में ‘संसार पावन’ नामक कवच पूरा हुआ।

सौति कहते हैं — शौनक! यह तो कवच कहा गया। अब स्तोत्र सुनिये। मन्त्रराज कल्पवृक्ष-स्वरूप है। इसे पूर्वकाल में वसिष्ठ जी ने दिया था।

॥ ॐ नमः शिवाय ॥
॥ बाणासुर उवाच ॥
वन्दे सुराणां सारं च सुरेशं नीललोहितम् ।
योगीश्वरं योगबीजं योगिनां च गुरोर्गुरुम् ॥ ५६ ॥
ज्ञानानन्दं ज्ञानरूपं ज्ञानबीजं सनातनम् ।
तपसां फलदातारं दातारं सर्वसम्पदाम् ॥ ५७ ॥
तपोरूपं तपोबीजं तपोधनधनं वरम् ।
वरं वरेण्यं वरदमीड्यं सिद्धगणैर्वरैः ॥ ५८ ॥
कारणं भुक्तिमुक्तीनां नरकार्णवतारणम् ।
आशुतोषं प्रसन्नास्यं करुणामयसागरम् ॥ ५९ ॥
हिमचन्दनकुन्देन्दुकुमुदाम्भोजसन्निभम् ।
ब्रह्मज्योतिःस्वरूपं च भक्तानुग्रहविग्रहम् ॥ ६० ॥
विषयाणां विभेदेन बिभ्रतं बहुरूपकम् ।
जलरूपमग्निरूपमाकाशरूपमीश्वरम् ॥ ६१ ॥
वायुरूपं चन्द्ररूपं सूर्य्यरूपं महत्प्रभुम् ।
आत्मनः स्वपदं दातुं समर्थमवलीलया ॥ ६२ ॥
भक्तजीवनमीशं च भक्तानुग्रहकातरम् ।
वेदा न शक्ता यं स्तोतुं किमहं स्तौमि तं प्रभुम् ॥ ६३ ॥
अपरिच्छिन्नमीशानमहो वाङ्मनसोः परम् ।
व्याघ्रचर्माम्बरधरं वृषभस्थं दिगम्बरम् ।
त्रिशूलपट्टिशधरं सस्मितं चन्द्रशेखरम् ॥ ६४ ॥
इत्युक्त्वा स्तवराजेन नित्यं बाणः सुसंयतः ।
प्राणमच्छङ्करं भक्त्या दुर्वासाश्च मुनीश्वरः ॥ ६५ ॥

सच्चिदानन्दस्वरूप शिव को नमस्कार है।

बाणासुर बोला — जो देवताओं के सार-तत्त्व स्वरूप और समस्त देव गणों के स्वामी हैं, जिनका वर्ण नील और लोहित है, जो योगियों के ईश्वर, योग के बीज तथा योगियों के गुरु के भी गुरु हैं, उन भगवान् शिव की मैं वन्दना करता हूँ। जो ज्ञानानन्द स्वरूप, ज्ञानरूप, ज्ञानबीज, सनातन देवता, तपस्या के फलदाता तथा सम्पूर्ण सम्पदाओं को देने वाले हैं, उन भगवान् शंकर को मैं प्रणाम करता हूँ। जो तपःस्वरूप, तपस्या के बीज, तपोधनों के श्रेष्ठ, धन, वर, वरणीय, वरदायक तथा श्रेष्ठ सिद्धगणों के द्वारा स्तवन करने-योग्य हैं, उन भगवान् शंकर को मैं नमस्कार करता हूँ।

जो भोग और मोक्ष के कारण, नरक समुद्र से पार उतारने वाले, शीघ्र प्रसन्न होने वाले, प्रसन्नमुख तथा करुणासागर हैं, उन भगवान् शिव को मैं प्रणाम करता हूँ। जिनकी अंगकान्ति हिम, चन्दन, कुन्द, चन्द्रमा, कुमुद तथा श्वेत कमल के सदृश उज्ज्वल है, जो ब्रह्मज्योतिःस्वरूप तथा भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये विभिन्न रूप धारण करने वाले हैं, उन भगवान् शंकर को मैं प्रणाम करता हूँ। जो विषयों के भेद से बहुतेरे रूप धारण करते हैं, जल, अग्नि, आकाश, वायु, चन्द्रमा और सूर्य जिनके स्वरूप हैं, जो ईश्वर एवं महात्माओं के प्रभु हैं और लीलापूर्वक अपना पद देने की शक्ति रखते हैं, जो भक्तों के जीवन हैं तथा भक्तों पर कृपा करने के लिये कातर हो उठते हैं, उन ईश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ।

वेद भी जिनका स्तवन करने में असमर्थ हैं, जो देश, काल और वस्तु से परिच्छिन्न नहीं हैं तथा मन और वाणी की पहुँच से परे हैं, उन परमेश्वर प्रभु की मैं क्या स्तुति करूँगा! जो बाघम्बरधारी अथवा दिगम्बर हैं, बैल पर सवार हो त्रिशूल और पट्टिश धारण करते हैं, उन मन्द मुस्कान की आभा से सुशोभित मुख वाले भगवान् चन्द्रशेखर को मैं प्रणाम करता हूँ।

यों कहकर बाणासुर प्रतिदिन संयमपूर्वक रहकर स्वतराज से भगवान् की स्तुति करता था और भक्तिभाव से शंकर जी के चरणों में मस्तक झुकाता था। मुनीश्वर दुर्वासा भी ऐसा ही करते थे।

मुने! वसिष्ठ जी ने पूर्वकाल में त्रिशूलधारी शिव के इस परम महान अद्भुत स्तोत्र का गन्धर्व को उपदेश दिया था। जो मनुष्य भक्तिभाव से इस परम पुण्यमय स्तोत्र का पाठ करता है, वह निश्चय ही सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान का फल पा लेता है। जो संयमपूर्वक हविष्य खाकर रहते हुए जगद्गुरु शंकर को प्रणाम करके एक वर्ष तक इस स्तोत्र को सुनता है, वह पुत्रहीन हो तो अवश्य ही पुत्र प्राप्त कर लेता है। जिसको गलित कोढ़ का रोग हो या उदर में बड़ा भारी शूल उठता हो, वह यदि एक वर्ष तक इस स्तोत्र को सुने तो अवश्य ही उस रोग से मुक्त हो जाता है। यह बात मैंने व्यास जी के मुँह से सुनी है। जो कैद में पड़कर शान्ति न पाता हो, वह भी एक मास तक इस स्तोत्र को श्रवण करके अवश्य ही बन्धन से मुक्त हो जाता है।

जिसका राज्य छिन गया हो, ऐसा पुरुष यदि भक्तिपूर्वक एक मास तक इस स्तोत्र का श्रवण करे तो अपना राज्य प्राप्त कर लेता है। एक मास तक संयमपूर्वक इसका श्रवण करके निर्धन मनुष्य धन पा लेता है। राजयक्ष्मा से ग्रस्त होने पर जो आस्तिक पुरुष एक वर्ष तक इसका श्रवण करता है, वह भगवान् शंकर के प्रसाद से निश्चय ही रोगमुक्त हो जाता है। द्विज शौनक! जो सदा भक्तिभाव से इस स्तवराज को सुनता है उसके लिए तीनों लोकों में कुछ भी असाध्य नहीं रह जाता। भारतवर्ष में उसको कभी अपने बन्धुओं से वियोग का दुःख नहीं होता। वह अविचल एवं महान ऐश्वर्य का भागी होता है, इसमें संशय नहीं है। जो पूर्ण संयम से रहकर अत्यन्त भक्तिभाव से एक मास तक इस स्तोत्र का श्रवण करता है, वह यदि भार्याहीन हो तो अति विनयशील सती-साध्वी सुन्दरी भार्या पाता है।

जो महान मूर्ख और खोटी बुद्धि का है, ऐसा मनुष्य यदि इस स्तोत्र को एक मास तक सुनता है तो वह गुरु के उपदेश मात्र से बुद्धि और विद्या पाता है। जो प्रारब्ध-कर्म से दुःखी और दरिद्र मनुष्य भक्तिभाव से इस स्तोत्र का श्रवण करता है, उसे निश्चय ही भगवान् शंकर की कृपा से धन प्राप्त होता है। जो प्रतिदिन तीनों संध्याओं के समय इस उत्तम स्तोत्र को सुनता है, वह इस लोक में सुख भोगता, परम दुर्लभ कीर्ति प्राप्त करता और नाना प्रकार के धर्म का अनुष्ठान करके अन्त में भगवान् शंकर के धाम को जाता है, वहाँ श्रेष्ठ पार्षद होकर भगवान् शिव की सेवा करता है। (अध्याय १९)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे ब्रह्मखण्डे सौतिशौनक संवादे विष्णुशङ्करस्तोत्रकथनं नामैकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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