ब्रह्मवैवर्तपुराण – ब्रह्मखण्ड – अध्याय 21
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः
इक्कीसवाँ अध्याय

शूद्रयोनि में उत्पन्न बालक नारद की जीवनचर्या, नाम की व्युत्पत्ति, उसके द्वारा संतों की सेवा, सनत्कुमार द्वारा उसे उपदेश की प्राप्ति, उसके द्वारा श्रीहरि के स्वरूप का ध्यान, आकाशवाणी तथा उस बालक के देह-त्याग का वर्णन

सौति कहते हैं — शौनक जी! समय के अनुसार क्रमशः बढता हुआ वह बालक पाँच वर्ष का हो गया। उसे पूर्व जन्म की बातों का स्मरण था। वह सदा ज्ञान से सम्पन्न रहता था। उसे पूर्वजन्म में जपे हुए मन्त्र का सदा स्मरण बना रहा। अतः वह निरन्तर श्रीकृष्ण के नाम, यश और गुण आदि का गान किया करता था। क्षण भर में होने लगता और दूसरे ही क्षण नृत्य करते हुए उसका सारा शरीर रोमांचित हो उठता था। वह बालक जहाँ-जहाँ श्रीकृष्ण से सम्बन्ध रखने वाली गाथा तथा तत्सम्बन्धी पुराण सुनता, वहीं ठहरता था। उसके सारे अंग धूल से धूसरित रहते थे। वह धूल में भगवान् की प्रतिमा बनाकर धूल से ही श्रीहरि का पूजन करता और धूल ही अभीष्ट नैवेद्य अर्पित करता था। मुने! यदि माता सबेरे कलेवे के लिये बेटे को बुलाती तो वह माता को यही उत्तर देता था कि ‘मैं श्रीहरि का पूजन करता हूँ।’

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

शौनक ने पूछा — सूतनन्दन! इस बालक का इस नये जन्म में क्या नाम हुआ? संज्ञा और व्युत्पत्ति के साथ आप उसे बताने की कृपा करें।

सौति ने कहा — शौनक जी! अनावृष्टि के अन्त में वह बालक उत्पन्न हुआ था। अतः जन्मकाल में जगत को नार (जल) प्रदान किया। इसी से उसका नाम ‘नारद’ हुआ। पूर्वजन्म की बातों का स्मरण रखने वाला वह महाज्ञानी बालक दूसरे बालकों को नार अर्थात ज्ञान देता था, इसलिये भी नारद नाम से विख्यात हुआ। मुने! वह मुनीन्द्र नारद से ही उत्पन्न हुआ था, इस कारण भी उसका नाम नारद रखा गया।

शौनक जी ने पूछा —शिशु का जो नारद नाम रखा गया था, वह तो व्युत्पत्ति के अनुसार उचित जान पड़ा। परंतु उसके उत्पादक मुनीन्द्र का मंगलमय नाम नारद किस प्रकार हुआ?

सौति ने कहा — शौनक जी! धर्मपुत्र मुनिवर नर ने पुत्रहीन ब्राह्मण कश्यप को पुत्र प्रदान किया था, अतः नरप्रदत्त होने के कारण उसका नाम नारद हुआ।

शौनक बोले — सूतनन्दन! अब मैंने शिशु के भी नारद नाम की व्युत्पत्ति सुन ली। अब यह बताइये कि शूद्रयोनि में तथा ब्रह्मपुत्र-अवस्था में उनका नाम नारद कैसे सम्भव हुआ?

सौति ने कहा — कल्पान्तर में ब्रह्मा जी के कण्ठ से बहुसंख्यक नर उत्पन्न हुए थे। उनके कण्ठ ने नर का दान किया था, इसलिये वह ‘नारद’ कहलाया। उस नरद अर्थात कण्ठ से बालक की उत्पत्ति हुई, इसलिये ब्रह्मा जी ने उसका मंगलमय नाम नारद रखा। अब आप सावधान होकर उस शिशु का वृत्तान्त सुनिये। बालक के नारद नाम की उपलब्धि में क्या रहस्य है, इस बात की जानकारी होने से कौन-सा विशिष्ट प्रयोजन सिद्ध होता है।

वह गोपी का बालक ब्राह्मण के घर में प्रतिदिन बढ़ने और हृष्ट-पुष्ट होने लगा। ब्राह्मण पुत्र सहित उस गोपी का अपनी पुत्री की भाँति पालन करते थे, इसी बीच में कुछ महातेजस्वी ब्राह्मण, जो देखने में पाँच वर्ष के बालकों की भाँति जान पड़ते थे, उस ब्राह्मण के घर आये। वे अपने तेज से ग्रीष्म-ऋतु के मध्याह्नकालिक सूर्य की प्रभा को तिरस्कृत कर रहे थे। गृहस्थ ब्राह्मण ने मधुपर्क आदि देकर उन सबको प्रणाम किया। भोजन के समय उन चारों मुनिवरों ने ब्राह्मण के दिये हुए फल-मूल आदि का आहार ग्रहण किया। उनकी जूठन उस शिशु ने खायी। उनमें जो चौथे मुनि थे, उन्होंने उस बालक को प्रसन्नतापूर्वक श्रीकृष्ण-मन्त्र का उपदेश दिया।

ब्राह्मण और अपनी माता की आज्ञा से वह बालक उन चारों महात्माओं का दास बनकर उनकी सेवा-टहल करता रहा। एक दिन उस शिशु की माता रात के समय मार्ग पर चल रही थी। इतने ही में ही एक साँप ने उसे डँस लिया और वह श्रीहरि का स्मरण करती हुई तत्काल चल बसी। वह सती साध्वी गोपी उत्तम रत्नों द्वारा निर्मित वैष्णव विमान पर बैठकर विष्णु-पार्षदों के साथ उसी क्षण वैकुण्ठधाम में जा पहुँची।

प्रातःकाल वह बालक उन ब्राह्मणों के साथ गृहस्थ ब्राह्मण के घर से चल दिया। उन कृपालु ब्राह्मणों ने उस बालक को तत्त्वज्ञान प्रदान किया। इसके बाद वे सब ब्रह्मकुमार उस शिशु को वहीं छोड़कर अपने स्थान को चले गये। वह शिशु बड़ा ज्ञानी था। अतः गंगा जी के मनोहर तट पर ठहर गया। वहाँ स्नान करके उसने ब्राह्मणों के दिये हुए विष्णु-मन्त्र का जप किया, जो क्षुधा, पिपासा, रोग तथा शोक को हर लेने वाला है और वेदों में भी दुर्लभ है। घोर विशाल वन में पीपल के नीचे योगासन लगाकर वह बालक वहाँ सुदीर्घकाल तक बैठा रहा।

शौनक ने पूछा — सूतनन्दन! उस बालक को किस मन्त्र की प्राप्ति हुई? बुद्धिमान् सनत्कुमार के दिये हुए श्रीहरि के उस उत्तम मन्त्र को आप मुझे बताने की कृपा करें।

सौति बोले — शौनक जी! पूर्वकाल में भगवान् श्रीकृष्ण ने गोलोक-धाम के भीतर ब्रह्मा जी को कृपापूर्वक जिस बाईस अक्षर वाले मन्त्र का उपदेश दिया था, वह वेदों में भी परम दुर्लभ है। ब्रह्मा जी ने बुद्धिमान् सनत्कुमार को उनके भक्तिभाव से प्रभावित होकर वह मन्त्र दिया तथा सनत्कुमार ने उक्त गोपी-बालक को उस मन्त्र का उपदेश दिया। वह मन्त्र इस प्रकार है–

ॐ श्रीं नमो भगवते रासमण्डलेश्वराय श्रीकृष्णाय स्वाहा।

यह मन्त्र कल्पवृक्ष स्वरूप है। इसके साथ ही महापुरुष स्तोत्र तथा पूर्वोक्त कवच भी दिया। इस मन्त्र के लिये उपयोगी जो सामवेदोक्त ध्यान है, उसका भी उपदेश कर दिया।

तेजोमण्डलरूपे च सूर्य्यकोटिसमप्रभे ।
योगिभिर्वाञ्छितं ध्याने योगैः सिद्धगणैः सुरैः ॥ ३२ ॥
ध्यायन्ते वैष्णवा रूपं तदभ्यन्तरसन्निधौ ।
अतीव कमनीयानिर्वचनीयं मनोहरम् ॥ ३३ ॥
नवीनजलदश्यामं शरत्पङ्कजलोचनम् ।
शरत्पार्वणचन्द्रास्यं पक्वबिम्बाधिकाधरम् ॥ ३४ ॥
मुक्तापङ्क्तिविनिन्दैकदन्तपंक्तिमनोहरम् ।
सस्मितं मुरलीन्यस्तहस्तावलम्बनेन च ॥ ३५ ॥
कोटिकन्दर्पलावण्यं लीलाधाम मनोहरम् ।
चन्द्रलक्षप्रभाजुष्टं पुष्टश्रीयुक्तविग्रहम् ॥ ३६ ॥
त्रिभङ्गसङ्गि वा युक्तं द्विभुजं पीतवाससम् ।
रत्नकेयूरवलयरत्ननूपुरभूषि तम् ॥ ३७ ॥
रत्नकुण्डलयुग्मेन गण्डस्थलविराजितम् ।
मयूरपुच्छचूडं च रत्नमालाविभूषितम् ॥ ३८ ॥
शोभितं जानुपर्य्यन्तं मालतीवनमालया ।
चन्दनोक्षितसर्वाङ्गं भक्तानुग्रहकारकम् ॥ ३९ ॥
मणिना कौस्तुभेन्द्रेण वक्षस्थलसमुज्ज्वलम् ।
वीक्षितं गोपिकाभिश्च शश्वद्व्रीडितलोचनैः ॥ ४० ॥
स्थिरयौवनयुक्ताभिर्वेष्टिताभिश्च सन्ततम् ।
भूषणैर्भूषिताभिश्च राधावक्षःस्थलस्थितम् ॥ ४१ ॥
ब्रह्मविष्णुशिवाद्यैश्च पूजितं वन्दितं स्तुतम् ।
किशोरं राधिकाकान्तं शान्तरूपं परात्परम् ॥ ४२ ॥
निर्लिप्तं साक्षिरूपं च निर्गुणं प्रकृतेः परम् ।
ध्यायेत्सर्वेश्वरं तं च परमात्मानमीश्वरम् ॥ ४३ ॥

“करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान् तेजो मण्डलस्वरूप जो अनिर्वचनीय चिन्मय प्रकाश है, उसमें ध्यान लगाकर योगी, सिद्धगण तथा देवता मनोवांछित रूप का साक्षात्कार करते हैं। वैष्णवजन उस ज्योतिःपुंज के भीतर अपने निकट ही जिस रूप का ध्यान करते हैं, वह अत्यन्त कमनीय, अनिर्वचनीय एवं मनोहर है। नूतन जलधर के समान उसकी श्याम कान्ति है। नेत्र शरत्काल के प्रफुल्ल पंकज की शोभा को छीन लेते हैं। मुख शरत्पूर्णिमा के चन्द्रमा की भाँति आह्लादजनक है। अधर कटे हुए बिम्बफल से भी अधिक अरुण है। मोतियों की पंक्ति को तिरस्कृत करने वाली दन्तावली के कारण वे बड़े मनोहर जान पड़ते हैं। उनके मुख पर मुस्कराहट खेलती रहती है। उनके हाथ में मुरली शोभा पाती है। श्रीअंगों में करोड़ों कामदेवों का लावण्य संचित है। वे लीला के मनोहर धाम हैं। लाखों चन्द्रमाओं की प्रभा उनके श्रीविग्रह की सेवा करती है। उनका प्रत्येक अंग परिपुष्ट तथा श्रीसम्पन्न है।

वे त्रिभंगी छवि से सुशोभित होते हैं, उनके दो बाँहें हैं। शरीर पर पीताम्बर शोभा पाता है। रत्नों के बने हुए बाजूबंद और कंगन तथा रत्ननिर्मित नूपुर उनके विभिन्न अंगों की शोभा बढ़ाते हैं। दोनों कपोलों पर रत्नमय कुण्डल झिलमिलाते रहते हैं। मस्तक पर मोरपंख का मुकुट शोभा पाता है। रत्नमयी माला कण्ठदेश को विभूषित करती है। मालती की वनमाला से घुटनों तक का भाग सुशोभित है। उनके सारे अंग चन्दन से चर्चित हैं तथा वे भक्तों पर अनुग्रह करने वाले हैं। श्रेष्ठ कौस्तुभ मणि की प्रभा से उनका वक्षःस्थल उद्भासित होता है। सुस्थिर यौवन से युक्त तथा सदा सब ओर घेरकर खड़ी हुई भूषण-भूषित गोपिकाएँ सदा बाँकि चितवन से उनकी ओर देखा करती हैं। वे श्रीराधा के वक्षःस्थल में विराजमान् हैं। ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव आदि देवता नित्य-निरन्तर उनकी पूजा, वन्दना और स्तुति करते हैं। उनकी अवस्था किशोर है। वे श्रीराधा के प्राणनाथ, शान्तस्वरूप एवं परात्पर हैं। वे निर्लिप्त एवं साक्षीरूप हैं। निर्गुण तथा प्रकृति से परे हैं। वे सर्वेश्वर परमात्मा एवं ऐश्वर्यशाली हैं।”

इस प्रकार उन भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान करें। मुने! इस प्रकार मैंने तुमसे भगवान् के ध्यान, स्तोत्र, कवच तथा मन्त्रोपयोगी सत्य का वर्णन किया है। उनका मन्त्र भी कल्प वृक्ष स्वरूप हैं। शौनक! उस समय वह बालक एक हजार दिव्य वर्षों तक बिना कुछ खाये-पीये ध्यान में बैठा रहा। उसका पेट सटकर अत्यन्त कृश हो गया था। फिर भी वह सिद्ध मन्त्र के प्रभाव से परिपुष्ट एवं शक्तिमान् था। उसने ध्यान में देखा —

एक दिव्य लोक है, जहाँ रत्नमय सिंहासन पर एक दिव्य बालक विराजमान् है। रत्नमय आभूषण उसके अंगों की शोभा बढ़ाते हैं। किशोर-अवस्था, श्याम-कान्ति, गोप-वेष और मुख पर मन्द-मन्द मुस्कान है। वह पीताम्बर-धारी द्विभुज किशोर गोपों और गोपांगनाओं से घिरा हुआ है। उसके हाथ में मुरली है। चन्दन से उसके श्रीअंगों का श्रृंगार किया गया है तथा ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि देवता उस चिर-शान्त परात्पर पुरुष की स्तुति कर रहे हैं। वह शान्त स्वभाव वाला गोपी का बालक श्यामसुन्दर की उस मनोहर झाँकी को देखकर ध्यान से विरत हो गया।

ध्यान टूटने पर जब फिर वह उनका दर्शन न कर सका तब शोक से पीड़ित हो गया। ध्यानगत बालक को पुनः न देखने पर वह गोपीकुमार पीपल की जड़ पर बैठकर रोने लगा। तब उस रोते हुए बालक को सम्बोधित करके आकाशवाणी हुई। आकाशवाणी का कथन सत्य प्रबोधयुक्त, हितकर एवं संक्षिप्त था।

आकाशवाणी बोली — ‘बालक! एक बार जो रूप तेरे दृष्टिपथ में आ चुका है, वही इस समय पर्याप्त है। अब फिर तुझे उसका दर्शन नहीं हो सकता; क्योंकि जिनके अन्तःकरण की वासना परिपक्व नहीं हुई है, ऐसे कुयोगियों को उस स्वरूप का दर्शन होना अत्यन्त कठिन है। तेरे इस शरीर का अन्त होने पर जब तुझे दिव्य शरीर प्राप्त होगा, तब तू पुनः जन्म, मृत्यु और जरा का नाश करने वाले गोविन्द का दर्शन करेगा।’

यह सुनकर वह बालक बड़ी प्रसन्नता के साथ पुनः ध्यान के प्रयास से विरत हो गया। उसने समय आने पर मन-ही-मन श्रीकृष्ण का स्मरण करते हुए तीर्थ भूमि में अपने शरीर को त्याग दिया। उस समय स्वर्गलोक में दुन्दुभियाँ बजने लगीं। आकाश से पृथ्वी पर फूलों की वर्षा होने लगी। इस प्रकार महामुनि नारद शापमुक्त हो गये। गोप-शरीर का त्याग करके वह जीव ब्रह्म-विग्रह में विलीन हो गया।

वह नित्यस्वरूप तो है ही, पूर्वकाल में उसका आविर्भाव हुआ और भिन्न काल में वह तिरोहित हो गया। नित्यरूपधारी जो भक्तजन हैं, उनका अपनी इच्छा से आविर्भाव अथवा तिरोभाव होता है। उन्हें जन्म, मृत्यु, जरा और व्याधि का स्पर्श नहीं होता। (अध्याय २१)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे ब्रह्मखण्डे सौतिशौनकसंवादे नारदशापविमोचनं नामैकविंशोऽध्यायः ॥ २१ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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