January 19, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण – ब्रह्मखण्ड – अध्याय 25 ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः पच्चीसवाँ अध्याय नारदजी को भगवान् शिव का दर्शन, शिव द्वारा नारदजी का सत्कार तथा उनकी मनोवाञ्छापूर्ति के लिये आश्वासन सौति कहते हैं — शौनक ! तदनन्तर विप्रवर नारद क्षण-भर में बड़ी प्रसन्नता के साथ शिव के मनोहर धाम में जा पहुँचे । भगवान् शिव का वह अभीष्ट लोक ध्रुव से एक लाख योजन ऊपर था । त्रिशूलधारी शिव ने दिव्य रत्नों द्वारा उसका निर्माण किया है। आधारशून्य आकाश में योगबल से शम्भु द्वारा धारण किया गया वह विचित्र लोक भाँति-भाँति के दिव्य भवनों से सुशोभित है तथा दिन- रात तेज से उद्भासित होता रहता है। पवित्र अन्तःकरण वाले श्रेष्ठ साधक तथा मुनीन्द्र-शिरोमणि महात्मा-जन ही उस लोक का दर्शन कर पाते हैं । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय मुने! वहाँ सूर्य और चन्द्रमा की किरणें नहीं पहुँच पातीं। परकोटों के रूप में प्रकट हुए अत्यन्त ऊँचे, बहुत बढ़े हुए तथा ज्वालाओं से जगमगाते हुए असंख्य पावक उस लोक को चारों ओर से घेरकर स्थित हैं । उस श्रेष्ठ धाम का विस्तार एक लाख योजन है। उसमें श्रेष्ठ रत्नों के बने हुए तीन हजार गृह हैं । हीरे के सार तत्त्व से बने हुए भाँति-भाँति के चित्र-विचित्र मनोहर भवन उसकी शोभा बढ़ाते हैं। वहाँ माणिक्य तथा मुक्ता-मणि के दर्पण हैं। विश्वकर्मा ने उस लोक को सपने में भी नहीं देखा होगा । एकमात्र शिव-सेवी महात्मा-जन ही उसमें कल्प-पर्यन्त निरन्तर वास करते हैं । वह शिवलोक करोड़ों-करोड़ों सिद्धों तथा शिव-पार्षदों से युक्त है । वहाँ लाखों विकट भैरव निवास करते हैं। सैकड़ों लाख क्षेत्र उसे घेरे हुए हैं । सुन्दर फूलों से भरे हुए मन्दार आदि देव-वृक्षों से वह सदा आवेष्टित है । सुन्दर कामधेनुएँ उस धाम की उसी तरह शोभा बढ़ाती हैं, जैसे सैकड़ों बलाकाएँ आकाश की । उस लोक को देखकर नारदमुनि मन-ही-मन बड़े विस्मित हुए और सोचने लगे — ‘जहाँ ज्ञानियों तथा योगियों के गुरु निवास करते हैं, वहाँ ऐसी विचित्रता का होना क्या आश्चर्य है ? यह सृष्टि-लोक त्रिलोकी से अत्यन्त विलक्षण है और भय, मृत्यु, रोग, पीड़ा तथा जरावस्था को हर लेने वाला है। नारदजी ने देखा, दूर सभा-मण्डप के मध्य-भाग में शान्तस्वरूप, कल्याणदाता एवं मनोहर शिव विराजमान हैं। उनके पाँच मुख पाँच चन्द्रमाओं के समान आह्लाद-दायक जान पड़ते हैं । प्रत्येक मुख में प्रफुल्ल कमल के समान तीन-तीन नेत्र हैं। उन्होंने मस्तक पर गङ्गाजी को धारण कर रखा है तथा उनके भालदेश में निर्मल चन्द्रमा का मुकुट शोभा पा रहा है । तपाये हुए सुवर्ण के समान कान्तिमती पीली जटा धारण करने वाले दिगम्बर भगवान् शिव उस समय आकाश-गङ्गा में उत्पन्न कमलों के बीज (पद्माक्ष ) – की माला से सानन्द ‘श्रीकृष्ण’ नाम का जप कर रहे थे । उनकी अङ्ग-कान्ति गौर वर्ण की है, वे अनन्त और अविनाशी हैं। उनके कण्ठ में सुन्दर नील चिह्न शोभा पाता है । वे नागराज के हार से अलंकृत हैं। बड़े-बड़े योगीन्द्र, सिद्धेन्द्र और मुनीन्द्र उनके चरणों की वन्दना करते हैं। वे सिद्धेश्वर हैं, सिद्धि-विधान के कारण हैं, मृत्युञ्जय तथा काल और यम का भी अन्त करने वाले हैं। उनका मुख प्रसन्नता-सूचक हास्य से अत्यन्त मनोहर जान पड़ता है । वे सम्पूर्ण आश्रितों को कल्याण तथा अभीष्ट वर प्रदान करने वाले हैं । सदा शीघ्र ही संतुष्ट होने वाले, भवरोग से रहित, भक्तजनों के प्रिय तथा भक्तों के एकमात्र बन्धु हैं । दूर से देखने के पश्चात् निकट जाकर मुनि ने भगवान् शूलपाणि को मस्तक झुकाकर प्रणाम किया। उस समय मुनि के शरीर में रोमाञ्च हो आया था। वे तीन तारवाली वीणा बजाते हुए कलहंस के समान मधुर कण्ठ से पुनः श्रीकृष्ण का गुणगान करने लगे। ब्रह्माजी के पुत्र और वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ मुनीन्द्रशिरोमणि नारद को आया देख भगवान् शंकर योगीन्द्र, सिद्धेन्द्र और महर्षियों के साथ मुस्कराते हुए सिंहासन से वेगपूर्वक उठकर खड़े हो गये। फिर उन्होंने मुनि को बड़े वेग से पकड़कर हृदय से लगा लिया और आशीर्वाद तथा आसन आदि दिये। साथ ही उन तपोधन से आने का प्रयोजन और कुशल – मङ्गल पूछा । इसके बाद भगवान् शम्भु उत्तम रत्नों के बने हुए श्रेष्ठ एवं सुन्दर सिंहासन पर अपने प्रमुख पार्षदों के साथ बैठे। किंतु ब्रह्माजी के पुत्र नारद नहीं बैठे। उन्होंने भक्तिभाव से प्रभु को प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़कर उनकी स्तुति की। गन्धर्वराज के द्वारा किये गये शुभदायक वेदोक्त स्तोत्र से स्तुति करके पुनः प्रणाम करने के अनन्तर भगवान् शिव की आज्ञा ले नारदजी उनके वाम-भाग में बैठे। वहीं उन्होंने जगत् की वाञ्छा पूर्ण करने वाले भगवान् शिव से अपनी हार्दिक अभिलाषा बतायी। मुनि का वह वचन सुनकर कृपानिधान शंकर ने तुरंत प्रतिज्ञापूर्वक कहा — ‘बहुत अच्छा, तुम्हारी अभिलाषा पूर्ण होगी।’ (अध्याय २५) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे ब्रह्मखण्डे सौतिशौनकसंवादे कैलासं प्रति नारदागमनं नाम पञ्चविंशतितमोऽध्यायः ॥ २५ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Related