ब्रह्मवैवर्तपुराण – ब्रह्मखण्ड – अध्याय 27
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः
सत्ताईसवाँ अध्याय
ब्राह्मणों के लिये भक्ष्याभक्ष्य तथा कर्तव्याकर्तव्य का निरूपण

नारदजी ने पूछा — प्रभो ! गृहस्थ ब्राह्मणों, यतियों, वैष्णवों, विधवा स्त्रियों और ब्रह्मचारियों के लिये क्या भक्ष्य है और क्या अभक्ष्य ? क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य ? अथवा उनके लिये क्या भोग्य है और क्या अभोग्य ? आप सर्वज्ञ, सर्वेश्वर और सबके कारण हैं, अतः मेरी पूछी हुई सब बातें बताइये ।

महादेवजीने कहा — मुने ! कोई तपस्वी ब्राह्मण चिरकाल तक मौन रहकर बिना आहार के ही रहता है । कोई वायु पीकर रह जाता है और कोई फलाहारी होता है। कोई गृहस्थ ब्राह्मण अपनी स्त्री के साथ रहकर यथोचित समय पर अन्न ग्रहण करता है । ब्रह्मन् ! जिनकी जैसी इच्छा होती है, वे उसी के अनुसार आहार करते हैं; क्योंकि रुचियों का स्वरूप भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है। गृहस्थ ब्राह्मणों के लिये हविष्यान्न- भोजन सदा उत्तम माना गया है। भगवान् नारायण का उच्छिष्ट प्रसाद ही उनके लिये अभीष्ट भोजन है। जो भगवान् ‌को निवेदित नहीं हुआ है, वह अभक्षणीय है । जो भगवान् विष्णु को अर्पित नहीं किया गया, वह अन्न विष्ठा और जल मूत्र के समान है।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय


एकादशी के दिन सब प्रकार का अन्न- जल मल-मूत्र के तुल्य कहा गया है। जो ब्राह्मण एकादशी के दिन स्वेच्छा से अन्न खाता है, वह पाप खाता है, इसमें संशय नहीं है । नारद! एकादशी का दिन प्राप्त होने पर गृहस्थ ब्राह्मणों को कदापि अन्न नहीं खाना चाहिये, नहीं खाना चाहिये, नहीं खाना चाहिये । जन्माष्टमी के दिन, रामनवमी के दिन तथा शिवरात्रि के दिन जो अन्न खाता है, वह भी दूने पातक का भागी होता है । जो सर्वथा उपवास करने में समर्थ न हो, वह फल-मूल और जल ग्रहण करे; अन्यथा उपवास के कारण शरीर नष्ट हो जाने पर मनुष्य आत्महत्या के पाप का भागी होता है। जो व्रत के दिन एक बार हविष्यान्न खाता अथवा भगवान् विष्णु के नैवेद्य-मात्र का भक्षण करता है, उसे अन्न खाने का पाप नहीं लगता। वह उपवास का पूरा फल प्राप्त कर लेता है ।

उपवासासमर्थश्च सकृद् फलमूलजलं पिबेत् ।
नष्टे शरीरे स भवेदन्यथा चात्मघातकः ॥
सकृद् भुंक्ते हविष्यान्नं विष्णोर्नैवेद्यमेव ।
न भवेत् प्रत्यवायी स चोपवासफलं लभेत् ॥
(ब्रह्मखण्ड २७ । १२-१३ )

नारद ! गृहस्थ, शैव, शाक्त, विशेषतः वैष्णव यति तथा ब्रह्मचारियों के लिये यह बात बतायी गयी है। जो वैष्णव पुरुष नित्य भगवान् श्रीकृष्ण के नैवेद्य (प्रसाद) — का भोजन करता है, वह जीवन्मुक्त हो प्रतिदिन सौ उपवास-व्रतों का फल पाता है। सम्पूर्ण देवता और तीर्थ उसके अङ्गों का स्पर्श चाहते हैं। उसके साथ वार्तालाप तथा उसका दर्शन समस्त पापों का नाश करने वाला है । यतियों, विधवाओं और ब्रह्मचारियों के लिये ताम्बूल- भक्षण निषिद्ध है।

नारद ! समस्त ब्राह्मणों के लिये जो अभक्ष्य है, उसका वर्णन सुनो।

ताँबे के पात्र में दूध पीना, जूठे बर्तन या अन्न में घी लेकर खाना तथा नमक के साथ दूध पीना तत्काल गोमांस भक्षण के समान माना गया है। काँस के बर्तन में रखा हुआ एवं जो द्विज उठकर बायें हाथ से जल पीता है, वह शराबी माना गया है और समस्त धर्मो से बहिष्कृत है । मुने ! भगवान् श्रीहरि को निवेदित न किया गया अन्न, खाने से बचा हुआ जूठा भोजन तथा पीने से शेष रहा जूठा जल — ये सब सर्वथा निषिद्ध हैं। कार्तिक में बैगन का फल, माघ में मूली तथा श्रीहरि के शयनकाल ( चौमासे) – में कलम्बी (कलंबी (Ipomoea aquatica ) या करमी साग, एक पत्तेदार सब्ज़ी है. यह भारतीय उपमहाद्वीप में पाया जाने वाला साग है. इसे कई नामों से जाना जाता है, जैसे कि करेमू, केरमुआ, नारी, नाड़ी, या करमा।)का शाक सर्वथा नहीं खाना चाहिये । सफेद ताड़, मसूर और मछली — ये सभी ब्राह्मणों के लिये समस्त देशों में त्याज्य हैं ।

प्रतिपदा को कूष्माण्ड (कोहड़ा) नहीं खाना चाहिये; क्योंकि उस दिन वह अर्थ का नाश करने वाला है । द्वितीया को बृहती (छोटे बैगन अथवा कटेहरी) भोजन कर ले तो उसके दोष से छुटकारा पाने के लिये श्रीहरि का स्मरण करना चाहिये । तृतीया को परवल शत्रुओं की वृद्धि करने वाला होता है; अतः उस दिन उसे नहीं खाना चाहिये । चतुर्थी को भोजन के उपयोग में लायी हुई मूली धन का नाश करने वाली होती है पञ्चमी को बेल खाना कलङ्क लगने में कारण होता है । षष्ठी को नीम की पत्ती चबायी जाय या उसका फल या दाँतुन मुँह में डाला जाय तो उस पाप से मनुष्य को पशु-पक्षियों की योनि में जन्म लेना पड़ता है। सप्तमी को ताड़ का फल खाया जाय तो वह रोग बढ़ाने वाला तथा शरीर का नाशक होता है । अष्टमी को नारियल का फल खाया जाय तो उससे बुद्धि का नाश होता है। नवमी को लौकी और दशमी को कलम्बी का शाक सर्वथा त्याज्य है। एकादशी को शिम्बी (सेम), द्वादशी को पूतिका (पोई) और त्रयोदशी को बैगन खाने से पुत्र का नाश होता है। मांस सबके लिये सदा वर्जित है ।

पार्वणश्राद्ध और व्रत के दिन प्रातः कालिक स्नान के समय सरसों का तेल और पकाया हुआ तेल उपयोग में लाया जाय तो उत्तम है। अमावास्या, पूर्णिमा, संक्रान्ति, चतुर्दशी और अष्टमी तिथियों में, रविवार को, श्राद्ध और व्रत के दिन स्त्री-सहवास तथा तिल के तेल का सेवन निषिद्ध है । सभी वर्णों के लिये दिन में अपनी स्त्री का भी सेवन वर्जित है। रात में दही खाना, दिन में दोनों संध्याओं के समय सोना तथा रजस्वला स्त्री के साथ समागम करना — ये नरक की प्राप्ति के कारण हैं। रजस्वला तथा कुलटा का अन्न नहीं खाना चाहिये ।

ब्रह्मर्षे ! शूद्रजातीय स्त्री से सम्बन्ध रखने वाले ब्राह्मण का अन्न भी खाने योग्य नहीं है । ब्रह्मन् ! सूदखोर और गणक का अन्न भी नहीं खाना चाहिये। अग्रदानी ब्राह्मण ( महापात्र) तथा चिकित्सक (वैद्य या डाक्टर) – का अन्न भी खाने योग्य नहीं है। अमावास्या तिथि और कृत्तिका नक्षत्र में द्विजों के लिये क्षौर कर्म (हजामत ) वर्जित है । जो मैथुन करके देवताओं तथा पितरों का तर्पण करता है, उसका वह जल रक्त के समान होता है तथा उसे देने वाला नरक में पड़ता है।

नारद! जो करना चाहिये, जो नहीं करना चाहिये, जो भक्ष्य है और जो अभक्ष्य है, वह सब तुम्हें बताया गया । अब और क्या सुनना चाहते हो ?  (अध्याय २७)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे ब्रह्मखण्डे सौतिशौनकसंवादे नारदं प्रति शिवोपदेशे भक्ष्याभक्ष्यादिविवरणं नाम सप्तविंशतितमोऽध्यायः ॥ २७ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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