ब्रह्मवैवर्तपुराण – ब्रह्मखण्ड – अध्याय 28
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः
अट्ठाइसवाँ अध्याय
परब्रह्म परमात्मा के स्वरूप का निरूपण

नारदजी ने पूछा जगन्नाथ ! जगद्गुरो ! आपकी कृपा से मैंने सब कुछ सुन लिया। अब आप ब्रह्म के स्वरूप का वर्णन – ब्रह्मतत्त्व का निरूपण कीजिये । प्रभो ! सर्वेश्वर ! ब्रह्म साकार है या निराकार ? क्या उसका कुछ विशेषण भी है ? अथवा वह विशेषणों से रहित (निर्विशेष) ही है ? ब्रह्म का नेत्रों से दर्शन हो सकता है या नहीं ? वह समस्त देहधारियों में लिप्त है अथवा नहीं ? उसका क्या लक्षण बताया गया है ? वेद में उसका किस प्रकार निरूपण किया गया है ? क्या प्रकृति ब्रह्म से अतिरिक्त है या ब्रह्मस्वरूपिणी ही है ? श्रुति में प्रकृति का सारभूत लक्षण किस प्रकार सुना गया है ? ब्रह्म और प्रकृति इन दोनों में से किसकी सृष्टि में प्रधानता है ? दोनों में कौन श्रेष्ठ है ? सर्वज्ञ ! इन सब बातों पर मन से विचार करके जो सिद्धान्त हो, उसे अवश्य मुझे बताइये ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

नारदजी की यह बात सुनकर भगवान् पञ्चमुख महादेव ठठाकर हँस पड़े और उन्होंने परब्रह्म-तत्त्व का निरूपण आरम्भ किया ।

महादेवजी बोले — वत्स नारद! तुमने जो-जो पूछा है, वह उत्तम गूढ़ ज्ञान का विषय है । वेदों और पुराणों में भी वह उत्तम एवं गूढ़ ज्ञान परम दुर्लभ है। ब्रह्मन् ! मैं, ब्रह्मा, विष्णु, शेषनाग, धर्म और महाविराट् — इन सबने तथा श्रुतियों ने भी सब बातों का निरूपण किया है। वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ नारद! जो सविशेष तथा प्रत्यक्ष दृश्य-तत्त्व है, उसका हम लोगों ने वेद में निरूपण किया है।

प्राचीन काल की बात है, वैकुण्ठधाम में मैंने, ब्रह्माजी ने और धर्म ने श्रीहरि के समक्ष अपना प्रश्न उपस्थित किया था । उस समय श्रीहरि ने उसका जो कुछ उत्तर दिया, वह सुनो; मैं तुम्हें बताता हूँ। वह ज्ञान तत्त्वों का सारभूत तत्त्व है, अज्ञानान्धकार से अन्धे हुए लोगों के लिये नेत्ररूप है तथा दुविधा अथवा द्वैत नामक भ्रमरूपी अन्धकार का नाश करने के लिये सर्वोत्तम प्रदीप के समान है।

सनातन परब्रह्म परमात्मस्वरूप है । वह देहधारियों के कर्मों के साक्षीरूप से समस्त शरीरों में विराजमान है। प्रत्येक शरीर में पाँचों प्राणों के रूप में साक्षात् भगवान् विष्णु विद्यमान हैं । मन के रूप में प्रजापति ब्रह्मा विराज रहे हैं। सम्पूर्ण ज्ञान (बुद्धि) – के रूप में स्वयं मैं हूँ और शक्ति के रूप में ईश्वरीय प्रकृति है । हम सब-के-सब परमात्मा के अधीन हैं । शरीर में उसके स्थित होने पर ही स्थित होते हैं और उसके चले जाने ( सम्बन्ध हटा लेने) – पर हम भी चले जाते हैं। जैसे राजा के सेवक सदा राजा का अनुसरण करते हैं, उसी प्रकार हम लोग उस परमात्मा के अनुगामी बने रहते हैं । जीव परमात्मा का प्रतिबिम्ब है । वही कर्मों के फल का उपभोग करता है । जैसे जल से भरे हुए घड़ों में पृथक्-पृथक् सूर्य और चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब होता है तथा उन घड़ों के फूट जाने पर वह प्रतिबिम्ब फिर चन्द्रमा और सूर्य में लीन हो जाता है, उसी प्रकार सृष्टिकाल में परमात्मा के प्रतिबिम्ब – स्वरूप जीव की उपलब्धि होती है तथा सृष्टिमयी उपाधि के नष्ट हो जाने पर वह प्रतिबिम्ब स्वरूप जीव पुनः सर्वव्यापी परमात्मा में लीन हो जाता है।

वत्स! संसार का संहार हो जाने पर एकमात्र परब्रह्म परमात्मा ही शेष रहता है। हम तथा यह चराचर जगत् उसी में लीन हो जाते हैं। वह ब्रह्म मण्डलाकार ज्योतिःपुञ्ज-स्वरूप है। ग्रीष्म ऋतु के मध्याह्नकाल में प्रकट होने वाले कोटि-कोटि सूर्यों के समान उसका प्रकाश है। वह आकाश के समान विस्तृत, सर्वत्र व्यापक तथा अविनाशी है । योगीजनों को ही वह चन्द्र-मण्डल के समान सुखपूर्वक दिखायी देता है। योगीलोग उसे सनातन परब्रह्म कहते हैं और दिन-रात उस सर्वमङ्गलमय सत्यस्वरूप परमात्मा का ध्यान करते रहते हैं । वह परमात्मा निरीह, निराकार तथा सबका ईश्वर है । उसका स्वरूप उसकी इच्छा के अनुसार है। वह स्वतन्त्र तथा समस्त कारणों का भी कारण है । परमानन्दस्वरूप तथा परमानन्द की प्राप्ति का हेतु है।

सबसे उत्कृष्ट, प्रधान पुरुष ( पुरुषोत्तम), प्राकृत गुणों से रहित तथा प्रकृति से परे है। प्रलय के समय उसी में सर्वबीजस्वरूपिणी प्रकृति लीन होती है। ठीक उसी तरह, जैसे अग्नि में उसकी दाहिका शक्ति, सूर्य में प्रभा, दुग्ध में धवलता और जल में शीतलता लीन रहती है। मुने! जैसे आकाश में शब्द और पृथ्वी में गन्ध सदा विद्यमान है, उसी तरह निर्गुण ब्रह्म में निर्गुण प्रकृति सर्वदा स्थित है । जब ब्रह्म सृष्टि के लिये उन्मुख होता है, तब अपने अंश से पुरुष कहलाता है ।

वत्स ! वही गुणों – विषयों से सम्बन्ध स्थापित करने पर प्राकृत एवं विषयी कहा गया है । त्रिगुणा प्रकृति उस परमात्मा में ही उत्कृष्ट छायारूपिणी मानी गयी है। मुने! जैसे कुम्हार मिट्टी से घड़ा बनाने में सदा ही समर्थ होता है, उसी प्रकार वह ब्रह्म प्रकृति के द्वारा सृष्टि का निर्माण करने में नित्य समर्थ है। जैसे सुनार सुवर्ण से कुण्डल बनाने की शक्ति रखता है, उसी तरह परमेश्वर उपादानभूता प्रकृति के द्वारा सदा सृष्टि करने में समर्थ है। जैसे कुम्हार मिट्टी का निर्माण नहीं करता, मिट्टी उसके लिये नित्य एवं सनातन है तथा जैसे सुनार सुवर्ण की सृष्टि नहीं करता, सुवर्ण उसके लिये नित्य वस्तु ही है, उसी प्रकार वह परब्रह्म परमात्मा नित्य है और वह प्रकृति भी नित्य मानी गयी है । इसीलिये कुछ लोग सृष्टि में उन दोनों की ही समानरूप से प्रधानता बतलाते हैं । कुम्हार और सुनार स्वयं मिट्टी और सुवर्ण पैदा करके लाने में समर्थ नहीं हैं तथा मिट्टी और सुवर्ण भी कुम्हार और सुनार को ले आने की शक्ति नहीं रखते। अतः मिट्टी और कुम्हार की घट में तथा सुवर्ण और सुनार की कुण्डल में समानरूप से प्रधानता है ।

नारद ! इस विवेचन से ब्रह्म प्रकृति से परे ही सिद्ध होता है । यही बात दृष्टि में रखकर कुछ लोग प्रकृति और ब्रह्म दोनों की ही निश्चितरूप से नित्यता का प्रतिपादन करते हैं। कुछ विद्वानों का कथन है कि ब्रह्म स्वयं ही प्रकृति और पुरुषरूप में प्रकट है। कुछ लोग यह भी कहते हैं कि प्रकृति ब्रह्म से अतिरिक्त (भिन्न ) है । वह ब्रह्म परमधाम – स्वरूप तथा समस्त कारणों का भी कारण है। ब्रह्मन्! उस ब्रह्म का लक्षण श्रुति में कुछ इस प्रकार का सुना गया है – ब्रह्म सबका आत्मा है। वह सबसे निर्लिप्त और सबका साक्षी है । सर्वत्र व्यापक और सबका आदिकारण है । सर्वबीजस्वरूपिणी प्रकृति उस ब्रह्म की शक्ति है । जिससे वह ब्रह्म शक्तिमान् है, अतः शक्ति और शक्तिमान् दोनों अभिन्न हैं।

योगी लोग सदा तेज: स्वरूप में ही ब्रह्म का ध्यान करते हैं; परंतु सूक्ष्म बुद्धि वाले मेरे भक्त- वैष्णवजन ऐसा नहीं मानते। वे वैष्णवजन उस आश्चर्यमय तेजोमण्डल के भीतर सदा साकार, सर्वात्मा, स्वेच्छामय पुरुष के मनोहर रूप का ध्यान करते हैं।

करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान जो मण्डलाकार तेजःपुञ्ज है, उसके भीतर नित्यधाम छिपा हुआ है, जिसका नाम गोलोक है। वह मनोहर लोक चारों ओर से लक्षकोटि योजन विस्तृत है । सर्वश्रेष्ठ दिव्य रत्नों के सारतत्त्व से जिनका निर्माण हुआ है, ऐसे दिव्य भवनों तथा गोपाङ्गनाओं से वह लोक भरा हुआ है। उसे सुखपूर्वक देखा जा सकता है । चन्द्रमण्डल के समान ही वह गोलाकार है । रत्नेन्द्रसार से निर्मित वह धाम परमात्मा की इच्छा के अनुसार बिना किसी आधार के ही स्थित है । उस नित्य लोक की स्थिति वैकुण्ठ से पचास करोड़ योजन ऊपर है । वहाँ गौएँ, गोप और गोपियाँ निवास करती हैं। वहाँ कल्पवृक्षों के वन हैं । गोलोक कामधेनु गौओं से भरा हुआ तथा रासमण्डल से मण्डित है । मुने! वह वृन्दावन से आच्छन्न और विरजा नदी से आवेष्टित है । वहाँ सैकड़ों शिखरों से सुशोभित गिरिराज विराजमान है। सुवर्ण-निर्मित लक्ष कोटि मनोहर आश्रम हैं, जिनसे वह अभीष्ट धाम अत्यन्त दीप्तिमान् एवं श्रीसम्पन्न दिखायी देता है ।

उन सबके मध्यभाग में एक परम मनोहर आश्रम है, जो अकेला ही सौ मन्दिरों से संयुक्त है । वह परकोटों तथा खाइयों से घिरा हुआ तथा पारिजात के वनों से सुशोभित है। उस आश्रम के भवनों में जो कलश लगे हैं, उनका निर्माण रत्नराज कौस्तुभमणि से हुआ है। इसलिये वे उत्तम ज्योतिःपुञ्ज से जाज्वल्यमान रहते हैं। उन भवनों में जो सीढ़ियाँ हैं, वे दिव्य हीरों के सार तत्त्व से बनी हुई हैं । उनसे उन भवनों का सौन्दर्य बहुत बढ़ गया है। मणीन्द्रसार से निर्मित वहाँ के किवाड़ों में दर्पण जड़े हुए हैं । नाना प्रकार के चित्र-विचित्र उपकरणों से वह आश्रम भली-भाँति सुसज्जित है । उसमें सोलह दरवाजे हैं तथा वह आश्रम रत्नमय प्रदीपों से अत्यन्त उद्भासित होता रहता है ।

वहाँ बहुमूल्य रत्नों द्वारा निर्मित तथा नाना प्रकार के विचित्र चित्रों से चित्रित रमणीय रत्नमय सिंहासन पर सर्वेश्वर श्रीकृष्ण बैठे हुए हैं। उनकी अङ्गकान्ति नवीन मेघ-माला के समान श्याम है । वे किशोर अवस्था के बालक हैं। उनके नेत्र शरत्काल की दोपहरी के सूर्य की प्रभा को छीने लेते हैं। उनका मुखमण्डल शरत्पूर्णिमा के पूर्ण चन्द्रमा की शोभा को ढक देता है। उनका सौन्दर्य कोटि कामदेवों की लावण्यलीला को तिरस्कृत कर रहा है। उनका पुष्ट श्रीविग्रह करोड़ों चन्द्रमाओं की प्रभा से सेवित है। उनके मुख पर मुस्कराहट खेलती रहती है। उनके हाथ में मुरली शोभा पाती है । उनके मनोहर छबि की सबने भूरि-भूरि प्रशंसा की है। वे परम मङ्गलमय हैं। अग्नि में तपाकर शुद्ध किये गये सुवर्ण के समान रंग वाले दो पीताम्बर धारण करने से उनका श्रीविग्रह परम उज्ज्वल प्रतीत होता है । भगवान्‌ के सम्पूर्ण अङ्ग चन्दन से चर्चित तथा कौस्तुभमणि से प्रकाशित हैं । घुटनों तक लटकती हुई मालती की माला और वनमाला से वे विभूषित हैं । त्रिभंगी छबि से युक्त और मणि-माणिक्य से अलंकृत हैं। मोरपंख का मुकुट धारण करते हैं । उत्तम रत्नमय मुकुट से उनका मस्तक जगमगाता रहता है। रत्नों के बाजूबंद, कंगन और मंजीर से उनके हाथ-पैर सुशोभित हैं। उनके गण्डस्थल रत्नमय युगल कुण्डल से अत्यन्त शोभा पाते हैं। उनकी दन्त-पंक्ति मोतियों की पाँति का तिरस्कार करने वाली है । वे बड़े ही मनोहर हैं। उनके ओठ पके हुए बिम्बफल के समान लाल हैं । उन्नत नासिका उनकी शोभा बढ़ाती है ।

सब ओर से घेरकर खड़ी हुई गोपाङ्गनाएँ उन्हें सदा सादर निहारती रहती हैं। वे गोपाङ्गनाएँ भी सुस्थिर यौवन से युक्त, मन्द मुस्कान से सुशोभित तथा उत्तम रत्नों के बने हुए आभूषणों से विभूषित हैं । देवेन्द्र, मुनीन्द्र, मुनिगण तथा नरेशों के समुदाय और ब्रह्मा, विष्णु, शिव, अनन्त तथा धर्म आदि उनकी सानन्द वन्दना किया करते हैं । वे भक्तों के प्रियतम, भक्तों के नाथ तथा भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये कातर रहने वाले हैं। राधा के वक्षःस्थल पर विराजमान परम रसिक रासेश्वर हैं। मुने! वैष्णवजन उन निराकार परमात्मा का इस रूप में ध्यान किया करते हैं । वे परमात्मा ईश्वर हम सब लोगों के सदा ही ध्येय हैं। उन्हीं को अविनाशी परब्रह्म कहा गया है । वे ही दिव्य स्वेच्छामय शरीरधारी सनातन भगवान् हैं। वे निर्गुण, निरीह और प्रकृति से परे हैं। सर्वाधार, सर्वबीज, सर्वज्ञ, सर्वरूप, सर्वेश्वर, सर्वपूज्य तथा सम्पूर्ण सिद्धियों को हाथ में देनेवाले हैं।

वे आदिपुरुष भगवान् स्वयं ही द्विभुज रूप धारण करके गोलोक में निवास करते हैं। उनकी वेश-भूषा भी ग्वालों के समान होती है और वे अपने पार्षद गोपालों से घिरे रहते हैं । उन परिपूर्णतम भगवान्‌ को श्रीकृष्ण कहते हैं । वे सदा श्रीजी के साथ रहने वाले और श्रीराधिका के प्राणेश्वर हैं। सबके अन्तरात्मा, सर्वत्र प्रत्यक्ष दर्शन देने के योग्य और सर्वव्यापी हैं ।

‘कृष्’ का अर्थ है सब और ‘ण’ का अर्थ है आत्मा । वे परब्रह्म परमात्मा सबके आत्मा हैं। इसलिये उनका नाम ‘कृष्ण’ है। ‘कृष्’ शब्द सर्व का वाचक है और ‘ण’ कार आदिवाचक है । वे सर्वव्यापी परमेश्वर सबके आदिपुरुष हैं, इसलिये ‘कृष्ण’ कहे गये हैं । वे ही भगवान् अपने एक अंश से वैकुण्ठधाम में चार भुजाधारी लक्ष्मीपति के रूप में निवास करते हैं, चार भुजाधारी पार्षद उन्हें घेरे रहते हैं। वे ही जगत्पालक भगवान् विष्णु अपनी एक कला से श्वेतद्वीप में चार भुजाधारी रमापति-रूप से निवास करते हैं । समुद्रतनया रमा उनकी पत्नी हैं।

इस प्रकार मैंने तुमसे परब्रह्म-निरूपणविषयक सब बातें बतायीं। वे परमात्मा हम सबके प्रिय, वन्दनीय, सेव्य तथा सर्वदा स्मरणीय हैं ।

शौनक ! ऐसा कहकर भगवान् शंकर वहाँ चुप हो गये। तब नारद ने गन्धर्वराज उपबर्हण द्वारा रचे गये स्तोत्र से उनकी स्तुति की। मुनि के उस स्तोत्र से संतुष्ट हो अपनी महिमा से कभी च्युत न होने वाले आदि भगवान् मृत्युञ्जय ने उन्हें अभीष्ट वरदान – ज्ञान प्रदान किया। उस समय मुनिवर नारद के मुख और नेत्र प्रसन्नता से खिल उठे। वे भगवान् शिव को प्रणाम करके उनकी आज्ञा ले पुण्यमय नारायणाश्रम को चले गये । (अध्याय २८)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे ब्रह्मखण्डे सौतिशौनकसंवादे ब्रह्मस्वरूपवैकुण्ठादिवर्णनं नारदप्रस्थानं नामाष्टाविंशतितमोऽध्यायः ॥ २८ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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