ब्रह्मवैवर्तपुराण – ब्रह्मखण्ड – अध्याय 03
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः
तीसरा अध्याय
श्रीकृष्ण से सृष्टि का आरम्भ, नारायण, महादेव, ब्रह्मा, धर्म, सरस्वती, महालक्ष्मी और प्रकृति –का प्रादुर्भाव तथा इन सबके द्वारा पृथक-पृथक श्रीकृष्ण का स्तवन

सौति कहते हैं – भगवान ने देखा कि सम्पूर्ण विश्व शून्यमय है। कहीं कोई जीव-जन्तु नहीं है। जल का भी कहीं पता नहीं है। सारा आकाश वायु से रहित और अन्धकार से आवृत हो घोर प्रतीत होता है। वृक्ष, पर्वत और समुद्र आदि से शून्य होने के कारण विकृताकार जान पड़ता है। मूर्ति, धातु, शस्य और तृण का सर्वथा अभाव हो गया है। ब्रह्मन! जगत् को इस शून्यावस्था में देख मन-ही-मन सब बातों की आलोचना करके दूसरे किसी सहायक से रहित एकमात्र स्वेच्छामय प्रभु ने स्वेच्छा से ही सृष्टि-रचना आरम्भ की। सबसे पहले उन परम पुरुष श्रीकृष्ण के दक्षिणापार्श्व से जगत् के कारण रूप तीन मूर्तिमान गुण प्रकट हुए। उन गुणों से महत्तत्त्व, अहंकार, पाँच तन्मात्राएँ तथा रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द–ये पाँच विषय क्रमशः प्रकट हुए।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

तदनन्तर श्रीकृष्ण से साक्षात भगवान नारायण का प्रादुर्भाव हुआ, जिनकी अंगकान्ति श्याम थी, वे नित्य-तरुण, पीताम्बरधारी तथा वनमाला से विभूषित थे। उनके चार भुजाएँ थीं। उन्होंने अपने चार हाथों में क्रमशः – शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण कर रखे थे। उनके मुखारविन्द पर मन्द मुस्कान की छटा छा रही थी। वे रत्नमय आभूषणों से विभूषित थे, शांर्गधनुष धारण किये हुए थे। कौस्तुभमणि उनके वक्षःस्थल की शोभा बढ़ाती थी। श्रीवत्सभूषित वक्ष में साक्षात लक्ष्मी का निवास था। वे श्रीनिधि अपूर्व शोभा को प्रकट कर रहे थे; शरत्काल की पूर्णिमा के चन्द्रमा की प्रभा से सेवित मुख-चन्द्र के कारण वे बड़े मनोहर जान पड़ते थे। कामदेव की कान्ति से युक्त रूप-लावण्य उनका सौन्दर्य बढ़ा रहा था। वे श्रीकृष्ण के सामने खड़े हो दोनों हाथ जोड़कर उनकी स्तुति करने लगे।

॥ नारायण उवाच ॥
वरं वरेण्यं वरदं वरार्हं वरकारणम् ।
कारणं कारणानां च कर्म तत्कर्मकारणम् ॥ १० ॥
तपस्तत्फलदं शश्वत्तपस्वीशं च तापसम् ।
वन्दे नवघनश्यामं स्वात्मारामं मनोहरम् ॥ ११ ॥
निष्कामं कामरूपं च कामघ्नं कामकारणम् ।
सर्वं सर्वेश्वरं सर्वं बीजरूपमनुत्तमम् ॥ १२ ॥
वेदरूपं वेदभवं वेदोक्तफलदं फलम् ।
वेदज्ञं तद्विधानं च सर्ववेदविदांवरम् ॥ १३ ॥
इत्युक्त्वा भक्तियुक्तश्च स उवास तदाज्ञया ।
रत्नसिंहासने रम्ये पुरतः परमात्मनः ॥ १४ ॥
नारायणकृतं स्तोत्रं यः पठेत्सुसमाहितः ।
त्रिसंध्यं यः पठेन्नित्यं पापं तस्य न विद्यते ॥ १५ ॥
पुत्रार्थी लभते पुत्रं भार्य्यार्थी लभते प्रियाम् ।
भ्रष्टराज्यो लभेद्राज्यं धनं भ्रष्टधनो लभेत् ॥ १६ ॥
कारागारे विपद्ग्रस्तः स्तोत्रेणानेन मुच्यते ।
रोगात्प्रमुच्यते रोगी ध्रुवं श्रुत्वा च संयतः ॥ १७ ॥
(ब्रह्मखण्ड ३। १०-१७)

नारायण बोले– जो वर (श्रेष्ठ), वरेण्य (सत्पुरुषों द्वारा पूज्य), वरदायक (वर देने वाले) और वर की प्राप्ति के कारण हैं; जो कारणों के भी कारण, कर्मस्वरूप और उस कर्म के भी कारण हैं; तप जिनका स्वरूप है, जो नित्य-निरन्तर तपस्या का फल प्रदान करते हैं, तपस्वीजनों में सर्वोत्तम तपस्वी हैं, नूतन जलधर के समान श्याम, स्वात्माराम और मनोहर हैं, उन भगवान श्रीकृष्ण मैं वन्दना करता हूँ। जो निष्काम और कामरूप हैं, कामना के नाशक तथा कामदेव की उत्पत्ति के कारण हैं, जो सर्वरूप, सर्वबीज स्वरूप, सर्वोत्तम एवं सर्वेश्वर हैं, वेद जिनका स्वरूप है, जो वेदों के बीज, वेदोक्त फल के दाता और फलरूप हैं, वेदों के ज्ञाता, उसे विधान को जानने वाले तथा सम्पूर्ण वेदवेत्ताओं के शिरोमणि हैं, उन भगवान श्रीकृष्ण को मैं प्रणाम करता हूँ।

ऐसा कहकर वे नारायणदेव भक्तिभाव से युक्त हो उनकी आज्ञा से उन परमात्मा के सामने रमणीय रत्नमय सिंहासन पर विराज गये। जो पुरुष प्रतिदिन एकाग्रचित्त हो तीनों संध्याओं के समय नारायण द्वारा किये गये इस स्तोत्र को सुनता और पढ़ता है, वह निष्पाप हो जाता है। उसे यदि पुत्र की इच्छा हो तो पुत्र मिलता है और भार्या की इच्छा हो तो प्यारी भार्या प्राप्त होती है। जो अपने राज्य से भ्रष्ट हो गया है, वह इस स्तोत्र के पाठ से पुनः राज्य प्राप्त कर लेता है तथा धन से वंचित हुए पुरुष को धन की प्राप्ति हो जाती है। कारागार के भीतर विपत्ति में पड़ा हुआ मनुष्य यदि इस स्तोत्र का पाठ करे तो निश्चय ही संकट से मुक्त हो जाता है। एक वर्ष तक इसका संयमपूर्वक श्रवण करने से रोगी अपने रोग से छुटकारा पा जाता है।

सौति कहते हैं – शौनक जी! तत्पश्चात् परमात्मा श्रीकृष्ण के वामपार्श्व से भगवान शिव प्रकट हुए। उनकी अंग कान्ति शुद्ध स्फटिक मणि के समान निर्मल एवं उज्ज्वल थी। उनके पाँच मुख थे और दिशाएँ ही उनके लिये वस्त्र थीं। उन्होंने मस्तक पर तपाये हुए सुवर्ण के समान पीले रंग की जटाओं का भार धारण कर रखा था। उनका मुख मन्द-मन्द मुस्कान से प्रसन्न दिखायी देता था। उनके प्रत्येक मस्तक में तीन-तीन नेत्र थे। उनके सिर पर चन्द्राकार मुकुट शोभा पाता था। परमेश्वर शिव ने हाथों में त्रिशूल, पट्टिश और जपमाला ले रखी थी। वे सिद्ध तो हैं ही, सम्पूर्ण सिद्धों के ईश्वर भी हैं। योगियों के गुरु के भी गुरु हैं। मृत्यु की भी मृत्यु हैं, मृत्यु के ईश्वर हैं, मृत्यु स्वरूप हैं और मृत्यु पर विजय पाने वाले मृत्युंजय हैं। वे ज्ञानानन्दरूप, महाज्ञानी, महान ज्ञानदाता तथा सबसे श्रेष्ठ हैं। पूर्ण चन्द्रमा की प्रभा से धुले हुए–से गौरवर्ण शिव का दर्शन सुखपूर्वक होता है। उनकी आकृति मन को मोह लेती है। ब्रह्मतेज से जाज्वल्यमान भगवान शिव वैष्णवों के शिरोमणि हैं। प्रकट होने के पश्चात् श्रीकृष्ण के सामने खड़े हो भगवान शिव ने भी हाथ जोड़कर उनका स्तवन किया। उस समय उनके सम्पूर्ण अंगों में रोमांच हो आया था। नेत्रों से अश्रु झर रहे थे और उनकी वाणी अत्यन्त गद्गद हो रही थी।

॥ महादेव उवाच ॥
जयस्वरूपं जयदं जयेशं जयकारणम् ।
प्रवरं जयदानां च वन्दे तमपराजितम् ॥ २४ ॥
विश्वं विश्वेश्वरेशं च विश्वेशं विश्वकारणम् ।
विश्वाधारं च विश्वस्तं विश्वकारणकारणम् ॥ २५ ॥
विश्वरक्षाकारणं च विश्वघ्नं विश्वजं परम् ।
फलबीजं फलाधारं फलं च तत्फलप्रदम् ॥ २६ ॥
तेजःस्वरूपं तेजोदं सर्वतेजस्विनां वरम् ।
इत्येवमुक्त्वा तं नत्वा रत्नसिंहासने वरे ।
नारायणं च संभाष्य स उवास तदाज्ञया ॥ २७ ॥
इति शम्भुकृतं स्तोत्रं यो जनः संयतः पठेत् ।
सर्वसिद्धिर्भवेत्तस्य विजयं च पदे पदे ॥ २८ ॥
सन्ततं वर्द्धते मित्रं धनमैश्वर्य्यमेव च ।
शत्रुसैन्यं क्षयं याति दुःखानि दुरितानि च ॥ २९ ॥
(ब्रह्मखण्ड ३। २३-२६)

महादेव जी बोले– जो जय के मूर्तिमान रूप, जय देने वाले, जय देने में समर्थ, जय की प्राप्ति के कारण तथा विजयदाताओं में सर्वश्रेष्ठ हैं, उन अपराजित देवता भगवान श्रीकृष्ण की मैं वन्दना करता हूँ। सम्पूर्ण विश्व जिनका रूप है, जो विश्व के ईश्वरों के भी ईश्वर हैं, विश्वेश्वर, विश्वकारण, विश्वाधार, विश्व के विश्वासभाजन तथा विश्व के कारणों के भी कारण हैं, उन भगवान श्रीकृष्ण की मैं वन्दना करता हूँ। जो जगत् की रक्षा के कारण, जगत् के संहारक तथा जगत् की सृष्टि करने वाले परमेश्वर हैं; फल के बीज, फल के आधार, फलरूप और फलदाता हैं; उन भगवान श्रीकृष्ण को मैं प्रणाम करता हूँ। जो तेजःस्वरूप, तेज के दाता और सम्पूर्ण तेजस्वियों में श्रेष्ठ हैं, उन भगवान गोविन्द की मैं वन्दना करता हूँ।

ऐसा कहकर महादेव जी ने भगवान श्रीकृष्ण को मस्तक झुकाया और उनकी आज्ञा से श्रेष्ठ रत्नमय सिंहासन पर नारायण के साथ वार्तालाप करते हुए बैठ गये। जो मनुष्य भगवान शिव द्वारा किये गये इस स्तोत्र का संयतचित्त होकर पाठ करता है, उसे सम्पूर्ण सिद्धियाँ मिल जाती हैं और पग-पग पर विजय प्राप्त होती है। उसके मित्र, धन और ऐश्वर्य की सदा वृद्धि होती है तथा शत्रु समूह, दुःख और पाप नष्ट हो जाते हैं।

सौति कहते हैं – तत्पश्चात् श्रीकृष्ण के नाभि-कमल से बड़े-बूढ़े महातपस्वी ब्रह्मा जी प्रकट हुए। उन्होंने अपने हाथ में कमण्डलु ले रखा था। उनके वस्त्र, दाँत और केश सभी सफेद थे। चार मुख थे। वे ब्रह्मा जी योगियों के ईश्वर, शिल्पियों के स्वामी तथा सबके जन्मदाता गुरु हैं। तपस्या के फल देने वाले और सम्पूर्ण सम्पत्तियों के जन्मदाता हैं। वे ही स्रष्टा और विधाता हैं तथा समस्त कर्मों के कर्ता, धर्ता एवं संहर्ता हैं। चारों वेदों को वे ही धारण करते हैं। वे वेदों के ज्ञाता, वेदों को प्रकट करने वाले और उनके पति (पालक) हैं। उनका शील-स्वभाव सुन्दर है। वे सरस्वती के कान्त, शान्तचित्त और कृपा की निधि हैं। उन्होंने श्रीकृष्ण के सामने खड़े हो दोनों हाथ जोड़कर उनका स्तवन किया। उस समय उनके सम्पूर्ण अंगों में रोमांच हो आया था तथा उनकी ग्रीवा भगवान के सामने भक्तिभाव से झुकी हुई थी।

॥ ब्रह्मोवाच ॥
कृष्णं वन्दे गुणातीतं गोविन्दमेकमक्षरम् ।
अव्यक्तमव्ययं व्यक्तं गोपवेषविधायिनम् ॥ ३५ ॥
किशोरवयसं शान्तं गोपीकान्तं मनोहरम् ।
नवीननीरदश्यामं कोटिकन्दर्पसुन्दरम् ॥ ३६ ॥
वृन्दावनवनाभ्यर्णे रासमण्डलसंस्थितम् ।
रासेश्वरं रासवासं रासोल्लाससमुत्सुकम् ॥ ३७ ॥
इत्येवमुक्त्वा तं नत्वा रत्नसिंहासने वरम् ।
नारायणेशौ संभाष्य स उवास तदाज्ञया ॥ ३८ ॥
इति ब्रह्मकृतं स्तोत्रं प्रातरुत्थाय यः पठेत् ।
पापानि तस्य नश्यन्ति दुःस्वप्नः सुस्वप्नो भवेत् ॥ ३९ ॥
भक्तिर्भवति गोविन्दे श्रीपुत्रपौत्रवर्द्धिनी ।
अकीर्तिः क्षयमाप्नोति सत्कीर्त्तिर्वर्द्धते चिरम् ॥ ४० ॥
(ब्रह्मखण्ड ३। ३५-३७)

ब्रह्मा जी बोले – जो तीनों गुणों से अतीत और एकमात्र अविनाशी परमेश्वर हैं, जिनमें कभी कोई विकार नहीं होता, जो अव्यक्त और व्यक्तरूप हैं तथा गोप-वेष धारण करते हैं, उन गोविन्द श्रीकृष्ण की मैं वन्दना करता हूँ। जिनकी नित्य किशोरावस्था है, जो सदा शान्त रहते हैं, जिनका सौन्दर्य करोड़ों कामदेवों से भी अधिक है तथा जो नूतन जलधर के समान श्याम वर्ण हैं, उन परम मनोहर गोपी वल्लभ को मैं प्रणाम करता हूँ। जो वृन्दावन के भीतर रासमण्डल में विराजमान होते हैं, रासलीला में जिनका निवास है तथा जो रासजनित उल्लास के लिये सदा उत्सुक रहते हैं, उन रासेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ।

ऐसा कहकर ब्रह्मा जी ने भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में प्रणाम किया और उनकी आज्ञा से नारायण तथा महादेव जी के साथ सम्भाषण करते हुए श्रेष्ठ रत्नमय सिंहासन पर बैठे। जो प्रातःकाल उठकर ब्रह्मा जी के द्वारा किये गये इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं और बुरे सपने अच्छे सपनों में बदल जाते हैं। भगवान गोविन्द में भक्ति होती है, जो पुत्रों और पौत्रों की वृद्धि करने वाली है। इस स्तोत्र का पाठ करने से अपयश नष्ट होता है और चिरकाल तक सुयश बढ़ता रहता है।

सौति कहते हैं – तत्पश्चात् परमात्मा श्रीकृष्ण के वक्षःस्थल से कोई एक पुरुष प्रकट हुआ, जिसके मुख पर मन्द मुस्कान की छटा छा रही थी। उसकी अंगकान्ति श्वेत वर्ण की थी और उसने अपने मस्तक पर जटा धारण कर रखी थी। वह सबका साक्षी, सर्वज्ञ तथा सबके समस्त कर्मों का द्रष्टा था। उसका सर्वत्र समभाव था। उसके हृदय में सबके प्रति दया भरी थी। वह हिंसा और क्रोध से सर्वथा अछूता था। उसे धर्म का ज्ञान था। वह धर्म स्वरूप, धर्मिष्ठ तथा धर्म प्रदान करने वाला था। वही धर्मात्माओं में ‘धर्म’ नाम से विख्यात है। परमात्मा श्रीकृष्ण की कला से उसका प्रादुर्भाव हुआ है, श्रीकृष्ण के सामने खड़े हुए उस पुरुष ने पृथ्वी पर दण्ड की भाँति पड़कर प्रणाम किया और सम्पूर्ण कामनाओं के दाता उन सर्वेश्वर परमात्मा का स्तवन आरम्भ किया।

॥ श्रीधर्म उवाच ॥
कृष्णं विष्णुं वासुदेवं परमात्मानमीश्वरम् ।
गोविन्दं परमानन्दमेकमक्षरमच्युतम् ॥ ४५ ॥
गोपेश्वरं च गोपीशं गोपं गोरक्षकं विभुम् ।
गवामीशं च गोष्ठस्थं गोवत्सपुच्छधारिणम् ॥ ४६ ॥
गोगोपगोपीमध्यस्थं प्रधानं पुरुषोत्तमम् ॥ ४७ ॥
इत्युच्चार्य्य समुत्तिष्ठन्रत्नसिंहासने वरे ।
ब्रह्मविष्णुमहेशांस्तान्सम्भाष्य स उवास ह ॥ ४८ ॥
चतुर्विशतिनामानि धर्मवक्त्रोद्गतानि च ।
यः पठेत्प्रातरुत्थाय स सुखी सर्वतो जयी ॥ ४९ ॥
मृत्युकाले हरेर्नाम तस्य साध्यं लभेद् धुवम् ।
स यात्यन्ते हरेः स्थानं हरिदास्यं भवेद्ध्रुवम् ॥ ५० ॥
नित्यं धर्मस्तं घटते नाधर्मे तद्रतिर्भवेत् ।
चतुर्वर्ग फलं तस्य शश्वत्करगतं भवेत् ॥ ५१ ॥
तं दृष्ट्वा सर्वपापानि पलायन्ते भयेन च ।
भयानि चैव दुःखानि वैनतेयमिवोरगाः ॥ ५२ ॥ (ब्रह्मखण्ड ३। ४५-५२)

धर्म बोले – जो सबको अपनी ओर आकृष्ट करने वाले सच्चिदानन्द स्वरूप हैं, इसलिये ‘कृष्ण’ कहलाते हैं, सर्वव्यापी होने के कारण जिनकी ‘विष्णु’ संज्ञा है, सबके भीतर निवास करने से जिनका नाम ‘वासुदेव’ है, जो ‘परमात्मा’ एवं ‘ईश्वर’ हैं, ‘गोविन्द’, ‘परमानन्द’, ‘एक’, ‘अक्षर’, ‘अच्युत’, ‘गोपेश्वर’, ‘गोपीश्वर’, ‘गोप’, ‘गोरक्षक’, ‘विभु’, ‘गौओं के स्वामी’, ‘गोष्ठ निवासी’, ‘गोवत्स-पुच्छधारी’, ‘गोपों और गोपियों के मध्य विराजमान’, ‘प्रधान’, ‘पुरुषोत्तम’, ‘नवघनश्याम’, ‘रासवास’, और ‘मनोहर’, आदि नाम धारण करते हैं, उन भगवान श्रीकृष्ण की मैं वन्दना करता हूँ।

ऐसा कहकर धर्म उठकर खड़े हुए। फिर वे भगवान की आज्ञा से ब्रह्मा, विष्णु और महादेव जी के साथ वार्तालाप करके उस श्रेष्ठ रत्नमय सिंहासन पर बैठे। जो मनुष्य प्रातःकाल उठकर धर्म के मुख से निकले हुए इन चौबीस नामों का पाठ करता है, वह सर्वथा सुखी और सर्वत्र विजयी होता है। मृत्यु के समय उसके मुख से निश्चय ही हरि नाम का उच्चारण होता है। अतः वह अन्त में श्रीहरि के परम धाम में जाता है तथा उसे श्रीहरि की अविचल दास्य-भक्ति प्राप्त होती है। उसके द्वारा सदा धर्मविषयक ही चेष्टा होती है। अधर्म में उसका मन कभी नहीं लगता। धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूपी फल सदा के लिये उसके हाथ में आ जाता है। उसे देखते ही सारे पाप, सम्पूर्ण भय तथा समस्त दुःख उसी तरह भय से भाग जाते हैं, जैसे गरुड़ पर दृष्टि पड़ते ही सर्प पलायन कर जाते हैं।

सौति कहते हैं – तत्पश्चात् धर्म के वामपार्श्व से एक रूपवती कन्या प्रकट हुई, जो साक्षात दूसरी लक्ष्मी के समान सुन्दरी थी। वह ‘मूर्ति’ नाम से विख्यात हुई। तदनन्तर परमात्मा श्रीकृष्ण के मुख से एक शुक्ल वर्ण वाली देवी प्रकट हुई, जो वीणा और पुस्तक धारण करने वाली थी। वह करोड़ों पूर्ण चन्द्रमाओं की शोभा से सम्पन्न थी। उसके नेत्र शरत्काल के प्रफुल्ल कमलों का सौन्दर्य धारण करते थे। उसने अग्नि में शुद्ध किये गये उज्ज्वल वस्त्र धारण कर रखे थे और वह रत्नमय आभूषणों से विभूषित थी। उसके मुख पर मन्द-मन्द मुस्कराहट छा रही थी। दन्तपंक्ति बड़ी सुन्दर दिखायी देती थी। अवस्था सोलह वर्ष की थी। वह सुन्दरियों में भी श्रेष्ठ सुन्दरी थी। श्रुतियों, शास्त्रों और विद्वानों की परम जननी थी। वह वाणी की अधिष्ठात्री, कवियों की इष्टदेवी, शुद्ध सत्त्वस्वरूपा और शान्तरूपिणी सरस्वती थी। गोविन्द के सामने खड़ी होकर पहले तो उसने वीणा वादन के साथ उनके नाम और गुणों का सुन्दर कीर्तन किया, फिर वह नृत्य करने लगी। श्रीहरि ने प्रत्येक कल्प के युग-युग में जो-जो लीलाएँ की हैं, उन सबका गान करते हुए सरस्वती ने हाथ जोड़कर उनकी स्तुति की।

॥ सरस्वत्युवाच ॥
रासमण्डलमध्यस्थं रासोल्लाससमुत्सुकम् ।
रत्नसिंहासनस्थं च रत्नभूषणभूषितम् ॥ ६० ॥
रासेश्वरं रासकरं वरं रासेश्वरीश्वरम् ।
रासाधिष्ठातृदैवं च वन्दे रासविनोदिनम् ॥ ६१ ॥
रासायासपरिश्रान्तं रासरासविहारिणम् ।
रासोत्सुकानां गोपीनां कान्तं शान्तं मनोहरम्॥ ६२ ॥
प्रणम्य च तमित्युक्त्वा प्रहृष्टवदना सती ।
उवास सा सकामा च रत्नसिंहासने वरे ॥ ६३ ॥
इति वाणीकृतं स्तोत्रं प्रातरुत्थाय यः पठेत ।
बुद्धिमान्धनवान्सोऽपि विद्यावान्पुत्रवान्सदा ॥ ६४ ॥
इति ब्रह्मवैवर्ते सरस्वतीकृतं श्रीकृष्णस्तोत्रम् ॥
(ब्रह्मखण्ड ३। ६०-६४)

सरस्वती बोलीं – ‘जो रासमण्डल के मध्यभाग में विराजमान हैं, रासोल्लास के लिये सदा उत्सुक रहने वाले हैं, रत्नसिंहासन पर आसीन हैं, रत्नमय आभूषणों से विभूषित हैं, रासेश्वर एवं श्रेष्ठ रासकर्ता हैं, रासेश्वर राधा के प्राणवल्लभ हैं, रास के अधिष्ठाता देवता हैं तथा रासलीला द्वारा मनोविनोद करने वाले हैं, उन भगवान गोविन्द की मैं वन्दना करती हूँ। जो रासलीला जनित श्रम से थक गये हैं, प्रत्येक रास में विहार करने वाले हैं तथा रास के लिये उत्कण्ठित हुई गोपियों के प्राणवल्लभ हैं, उन शान्त मनोहर श्रीकृष्ण को मैं प्रणाम करती हूँ।’

यों कहकर प्रसन्न मुखवाली सती सरस्वती ने भगवान को प्रणाम किया और सफलमनोरथ हो उनकी आज्ञा से वे श्रेष्ठ रत्नमय सिंहासन पर बैठीं। जो प्रातःकाल उठकर वाणी द्वारा किये गये इस स्तोत्र का पाठ करता है, वह सदा बुद्धिमान, धनवान, विद्वान और पुत्रवान होता है।

सौति कहते हैं – तत्पश्चात् परमात्मा श्रीकृष्ण के मन से एक गौरवर्णा देवी प्रकट हुईं, जो रत्नमय अलंकारों से अलंकृत थीं। उनके श्रीअंगों पर पीताम्बर की साड़ी शोभा पा रही थी। मुख पर मन्द हास्य की छटा छा रही थी। वे नवयौवना देवी सम्पूर्ण ऐश्वर्यों की अधिष्ठात्री थीं। वे ही फलरूप से सम्पूर्ण सम्पत्तियाँ प्रदान करती हैं। स्वर्गलोक में उन्हीं को स्वर्ग लक्ष्मी कहते हैं तथा राजाओं के यहाँ वे ही राजलक्ष्मी कहलाती हैं। श्रीहरि के सामने खड़ी होकर उन साध्वी लक्ष्मी ने उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम किया। उनकी ग्रीवा भक्ति भाव से झुक गयी और उन्होंने उन परमात्मा भगवान श्रीकृष्ण का स्तवन किया।

॥ महालक्ष्मीरुवाच ॥
सत्यस्वरूपं सत्येशं सत्यबीजं सनातनम् ॥
सत्याधारं च सत्यज्ञं सत्यमूलं नमाम्यहम् ॥ ६८ ॥

महालक्ष्मी बोलीं – ‘जो सत्यस्वरूप, सत्य के स्वामी और सत्य के बीज हैं, सत्य के आधार, सत्य के ज्ञाता तथा सत्य के मूल हैं, उन सनातन देव श्रीकृष्ण को मैं प्रणाम करती हूँ।

यों कह श्रीहरि को मस्तक नवाकर तपाये हुए सुवर्ण की-सी कान्तिवाली लक्ष्मी-देवी दसों दिशाओं को प्रकाशित करती हुई सुखासन पर बैठ गयीं। तदनन्तर परमात्मा श्रीकृष्ण की बुद्धि से सबकी अधिष्ठात्री देवी ईश्वरी मूल प्रकृति का प्रादुर्भाव हुआ। सुतप्त कांचन की सी कान्ति वाली वे देवी अपनी प्रभा से करोड़ों सूर्यों का तिरस्कार कर रही थीं। उनका मुख मन्द-मन्द मुस्कराहट से प्रसन्न दिखायी देता था। नेत्र शरत्काल के प्रफुल्ल कमलों की शोभा को मानो छीन लेते थे। उनके श्रीअंगों पर लाल रंग की साड़ी शोभा पाती थी। वे रत्नमय आभरणों से विभूषित थीं। निद्रा, तृष्णा, क्षुधा, पिपासा, दया, श्रद्धा और क्षमा आदि जो देवियाँ हैं, उन सबकी तथा समस्त शक्तियों की वे ईश्वरी और अधिष्ठात्री देवी हैं। उनके सौ भुजाएँ हैं। वे दर्शन मात्र से भय उत्पन्न करती हैं। उन्हीं को दुर्गतिनाशिनी दुर्गा कहा गया है। वे परमात्मा श्रीकृष्ण की शक्तिरूपा तथा तीनों लोकों की परा जननी हैं। त्रिशूल, शक्ति, शांर्गधनुष, खडग, बाण, शंख, चक्र, गदा, पद्म, अक्षमाला, कमण्डलु, वज्र, अंकुश, पाश, भुशुण्डि, दण्ड, तोमर, नारायणास्त्र, ब्रह्मास्त्र, रौद्रास्त्र, पाशुपतास्त्र, पार्जन्यास्त्र, वारुणास्त्र, आग्नेयास्त्र तथा गान्धर्वास्त्र – इन सबको हाथों में धारण किये श्रीकृष्ण के सामने खड़ी हो, प्रकृति देवी ने प्रसन्नतापूर्वक उनका स्तवन किया।

॥ प्रकृतिरुवाच ॥
अहं प्रकृतिरीशाना सर्वेशा सर्वरूपिणी ।
सर्वशक्तिस्वरूपा च मया च शक्तिमज्जगत् ॥ ७७ ॥
त्वया सृष्टा न स्वतन्त्रा त्वमेव जगतां पतिः ।
गतिश्च पाता स्रष्टा च संहर्त्ता च पुनर्विधिः ॥ ७८ ॥
स्रष्टुं स्रष्टा च संहर्तुं संहर्ता वेधसा विधिः ।
परमानन्दरूपं त्वां वन्दे चानन्दपूर्वकम् ।
चक्षुर्निमेषकाले च ब्रह्मणः पतनं भवेत् ॥ ७९ ॥
तस्य प्रभावमतुलं वर्णितुं कः क्षमो विभो ।
भ्रूभङ्गलीलामात्रेण विष्णुकोटिं सृजेत्तु यः ॥ ८० ॥
चराचरांश्च विश्वेषु देवान्ब्रह्मपुरोगमान् ।
मद्विधाः कति वा देवीः स्रष्टुं शक्तश्च लीलया ॥ ८१ ॥
परिपूर्णतमं स्वीड्यं वन्दे चानन्दपूर्वकम् ।
महान्विराड् यत्कलांशो विश्वसंख्याश्रयो विभो ।
वन्दे चानन्दपूर्वं तं परमात्मानमीश्वरम् ॥ ८२ ॥
यं च स्तोतुमशक्ताश्च ब्रह्मविष्णुशिवादयः ।
वेदा अहं च वाणी च वन्दे तं प्रकृतेः परम् ॥ ८३ ॥
वेदाश्च विदुषां श्रेष्ठाः स्तोतुं शक्ताश्च न क्षमाः ।
निर्लक्ष्यं कः क्षमः स्तोतुं तं निरीहं नमाम्यहम् ॥ ८४ ॥
इत्येवमुक्त्वा सा दुर्गा रत्नसिंहासने वरे ।
उवास नत्वा श्रीकृष्णं तुष्टुवुस्तां सुरेश्वराः ॥ ८५॥
इति दुर्गाकृतं स्तोत्रं कृष्णस्य परमात्मनः ।
यः पठेदर्च्चनाकाले स जयी सर्वतः सुखी ॥ ८६ ॥
दुर्गा तस्य गृहं त्यक्त्वा नैव याति कदाचन ।
भवाब्धौ यशसा भाति यात्यन्ते श्रीहरेः पुरम् ॥ ८७ ॥
(ब्रह्मखण्ड ३। ७७-८७)

प्रकृति बोलीं– प्रभो! मैं प्रकृति, ईश्वरी, सर्वेश्वरी, सर्वरूपिणी और सर्वशक्तिस्वरूपा कहलाती हूँ। मेरी शक्ति से ही यह जगत् शक्तिमान है तथापि मैं स्वतन्त्र नहीं हूँ; क्योंकि आपने मेरी सृष्टि की है, अतः आप ही तीनों लोकों के पति, गति, पालक, स्रष्टा, संहारक तथा पुनः सृष्टि करने वाले हैं। परमानन्द ही आपका स्वरूप है। मैं सानन्द आपकी वन्दना करती हूँ। प्रभो! आप चाहें तो पलक मारते-मारते ब्रह्मा का भी पतन हो सकता है। जो भ्रूभंग की लीला मात्र से करोड़ों विष्णुओं की सृष्टि कर सकता है, ऐसे आपके अनुपम प्रभाव का वर्णन करने में कौन समर्थ है? आप तीनों लोकों के चराचर प्राणियों, ब्रह्मा आदि देवताओं तथा मुझ-जैसी कितनी ही देवियों की खेल-खेल में ही सृष्टि कर सकते हैं। आप परिपूर्णतम परमात्मा हैं। भलीभाँति स्तुति के योग्य हैं।

विभो! मैं आपकी सानन्द वन्दना करती हूँ। असंख्य विश्व का आश्रयभूत महान विराट पुरुष जिनकी कला का अंशमात्र है, उन परमात्मा भगवान श्रीकृष्ण को मैं आनन्द पूर्वक प्रणाम करती हूँ। ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि देवता, सम्पूर्ण वेद, मैं और सरस्वती- ये सब जिनकी स्तुति करने में असमर्थ हैं तथा जो प्रकृति से परे हैं, उन आप परमेश्वर को मैं नमस्कार करती हूँ। वेद तथा श्रेष्ठ विद्वान लक्षण बताते हुए आपकी स्तुति करने में समर्थ नहीं हैं। भला जो निर्लक्ष्य हैं उनकी स्तुति कौन कर सकता है? ऐसे आप निरीह परमात्मा को मैं प्रणाम करती हूँ।

ऐसा कहकर दुर्गा देवी श्रीकृष्ण को प्रणाम करके उनकी आज्ञा से श्रेष्ठ रत्नमय सिंहासन पर बैठ गयीं। जो पूजाकाल में दुर्गा द्वारा किये गये परमात्मा श्रीकृष्ण के इस स्तोत्र का पाठ करता है, वह सर्वत्र विजयी और सुखी होता है। दुर्गा देवी उसका घर छोड़कर कभी नहीं जाती हैं। वह भवसागर में रहकर भी अपने सुयश से प्रकाशित होता रहता है और अन्त में श्रीहरि के परम धाम को जाता है।

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे ब्रह्मखण्डे सौतिशौनकसंवादे सृष्टिनिरूपणे दुर्गास्तोत्रं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

॥ सौतिरुवाच ॥
दृष्ट्वा शून्यमयं विश्वं गोलोकं च भयङ्करम् ।
निर्जन्तु निर्जलं घोरं निर्वातं तमसा वृतम् ॥ १ ॥
वृक्षशैलसमुद्रादिविहीनं विकृताकृतम् ।
निर्मुक्तिकं च निर्धातु निःसस्यं निस्तृणं द्विज ॥ २ ॥
आलोच्य मनसा सर्वमेक एवासहायवान् ।
स्वेच्छया स्रष्टुमारेभे सृष्टिं स्वेच्छामयः प्रभुः ॥ ३ ॥
आविर्बभूवुः सर्गादौ पुंसो दक्षिणपार्श्वतः ।
भवकारणरूपाश्च मूर्तिमन्तस्त्रयो गुणाः ॥ ४ ॥
ततो महानहङ्कारः पञ्चतन्मात्र एव च ।
रूपरसगन्धस्पर्शशब्दाश्चैवेतिसंज्ञकाः ॥ ५ ॥
आविर्बभूव पश्चात्स्वयं नारायणः प्रभुः ।
श्यामो युवा पीतवासा वनमाली चतुर्भुजः ॥ ६ ॥
शंखचक्रगदापद्मधरः स्मेरमुखाम्बुजः ।
रत्नभूषणभूषाढ्यः शार्ङ्गी कौस्तुभभूषणः ॥ ७ ॥
श्रीवत्सवक्षाः श्रीवासः श्रीविधिः श्रीविभावनः ।
शारदेन्दुप्रभामृष्टसुखेन्दुसुमनो हरः ॥ ८ ॥
कामदेवप्रभामृष्टरूपलावण्यसुन्दरः ।
श्रीकृष्णपुरतः स्थित्वा तुष्टाव तं पुटाञ्जलिः ॥ ९ ॥
॥ नारायण उवाच ॥
वरं वरेण्यं वरदं वरार्हं वरकारणम् ।
कारणं कारणानां च कर्म तत्कर्मकारणम् ॥ १० ॥
तपस्तत्फलदं शश्वत्तपस्वीशं च तापसम् ।
वन्दे नवघनश्यामं स्वात्मारामं मनोहरम् ॥ ११ ॥
निष्कामं कामरूपं च कामघ्नं कामकारणम् ।
सर्वं सर्वेश्वरं सर्वं बीजरूपमनुत्तमम् ॥ १२ ॥
वेदरूपं वेदभवं वेदोक्तफलदं फलम् ।
वेदज्ञं तद्विधानं च सर्ववेदविदां वरम् ॥ १३ ॥
इत्युक्त्वा भक्तियुक्तश्च स उवास तदाज्ञया ।
रत्नसिंहासने रम्ये पुरतः परमात्मनः ॥ १४ ॥
नारायणकृतं स्तोत्रं यः पठेत्सुसमाहितः ।
त्रिसंध्यं यः पठेन्नित्यं पापं तस्य न विद्यते ॥ १५ ॥
पुत्रार्थी लभते पुत्रं भार्य्यार्थी लभते प्रियाम् ।
भ्रष्टराज्यो लभेद्राज्यं धनं भ्रष्टधनो लभेत् ॥ १६ ॥
कारागारे विपद्ग्रस्तः स्तोत्रेणानेन मुच्यते ।
रोगात्प्रमुच्यते रोगी ध्रुवं श्रुत्वा च संयतः ॥ १७ ॥
॥ सौतिरुवाच ॥
आविर्बभूव तत्पश्चादात्मनो वामपार्श्वतः ।
शुद्धस्फटिकसङ्काशः पञ्चवक्त्रो दिगम्बरः ॥ १८ ॥
तप्तकाञ्चनवर्णाभ जटाभारधरो वरः ।
ईषद्धास्यप्रसन्नास्यस्त्रिनेत्रश्चन्द्रशेखरः ॥ १९ ॥
त्रिशूलपट्टिशधरो जपमालाकरः परः ।
सर्वसिद्धेश्वरः सिद्धो योगीन्द्राणां गुरोर्गुरुः ॥ २० ॥
मृत्योर्मृत्युरीश्वरश्च मृत्युर्मृत्युञ्जयः शिवः ।
ज्ञानानन्दो महाज्ञानी महाज्ञानप्रदः परः ॥ २१ ॥
पूर्णचन्द्रप्रभामृष्टमुखदृश्यो मनोहरः ।
वैष्णवानां च प्रवरः प्रज्वलन्ब्रह्मतेजसा ॥ २२ ॥
श्रीकृष्पुरतः स्थित्वा तुष्टाव तं पुटाञ्जलिः ।
पुलकाङ्कितसर्वाङ्गः साश्रुनेत्रोऽतिगद्गदः ॥ २३ ॥
॥ महादेव उवाच ॥
जयस्वरूपं जयदं जयेशं जयकारणम् ।
प्रवरं जयदानां च वन्दे तमपराजितम् ॥ २४ ॥
विश्वं विश्वेश्वरेशं च विश्वेशं विश्वकारणम् ।
विश्वाधारं च विश्वस्तं विश्वकारणकारणम् ॥ २५ ॥
विश्वरक्षाकारणं च विश्वघ्नं विश्वजं परम् ।
फलबीजं फलाधारं फलं च तत्फलप्रदम् ॥ २६ ॥
तेजःस्वरूपं तेजोदं सर्वतेजस्विनां वरम् ।
इत्येवमुक्त्वा तं नत्वा रत्नसिंहासने वरे ।
नारायणं च संभाष्य स उवास तदाज्ञया ॥ २७ ॥
इति शम्भुकृतं स्तोत्रं यो जनः संयतः पठेत् ।
सर्वसिद्धिर्भवेत्तस्य विजयं च पदे पदे ॥ २८ ॥
सन्ततं वर्द्धते मित्रं धनमैश्वर्य्यमेव च ।
शत्रुसैन्यं क्षयं याति दुःखानि दुरितानि च ॥ २९ ॥
॥ इति ब्रह्मवैवर्ते शम्भुकृतं श्रीकृष्णस्तोत्रम् ॥
॥ सौतिरुवाच ॥
आविर्वभूव तत्पश्चात्कृष्णस्य नाभिपङ्कजात् ।
महातपस्वी वृद्धश्च कमण्डलुकरो वरः ॥ ३० ॥
शुक्लवासाः शुक्लदन्तः शुक्लकेशश्चतुर्मुखः ।
योगीशः शिल्पिनामीशः सर्वेषां जनको गुरुः ॥ ३१ ॥
तपसां फलदाता च प्रदाता सर्वसम्पदाम् ।
स्रष्टा विधाता कर्त्ता च हर्त्ता च सर्वकर्मणाम् ॥ ३२ ॥
धाता चतुर्णां वेदानां ज्ञाता वेदप्रसूपतिः ।
शान्तः सरस्वतीकान्तः सुशीलश्च कृपानिधिः ॥ ३३ ॥
श्रीकृष्णपुरतः स्थित्वा तुष्टाव तं पुटाञ्जलिः ।
पुलकांकितसर्वांगो भक्तिनम्रात्मकन्धरः ॥ ३४ ॥
॥ ब्रह्मोवाच ॥
कृष्णं वन्दे गुणातीतं गोविन्दमेकमक्षरम् ।
अव्यक्तमव्ययं व्यक्तं गोपवेषविधायिनम् ॥ ३५ ॥
किशोरवयसं शान्तं गोपीकान्तं मनोहरम् ।
नवीननीरदश्यामं कोटिकन्दर्पसुन्दरम् ॥ ३६ ॥
वृन्दावनवनाभ्यर्णे रासमण्डलसंस्थितम् ।
रासेश्वरं रासवासं रासोल्लाससमुत्सुकम् ॥ ३७ ॥
इत्येवमुक्त्वा तं नत्वा रत्नसिंहासने वरम् ।
नारायणेशौ संभाष्य स उवास तदाज्ञया ॥ ३८ ॥
इति ब्रह्मकृतं स्तोत्रं प्रातरुत्थाय यः पठेत् ।
पापानि तस्य नश्यन्ति दुःस्वप्नः सुस्वप्नो भवेत् ॥ ३९ ॥
भक्तिर्भवति गोविन्दे श्रीपुत्रपौत्रवर्द्धिनी ।
अकीर्तिः क्षयमाप्नोति सत्कीर्त्तिर्वर्द्धते चिरम् ॥ ४० ॥
॥ इति ब्रह्मवैवर्त्ते ब्रह्मकृतं श्रीकृष्णस्तोत्रम् ॥
॥ सौतिरुवाच ॥
आविर्बभूव तत्पश्चाद्वक्षसः परमात्मनः ।
सस्मितः पुरुषः कश्चिच्छुक्लवर्णो जटाधरः ॥ ४१ ॥
सर्वसाक्षी च सर्वज्ञः सर्वेषां सर्वकर्मणाम् ।
समः सर्वत्र सदयो हिंसाकोपविवर्जितः ॥ ४२ ॥
धर्मज्ञानयुतो धर्मो धर्मिष्ठो धर्मदो भवेत् ।
स एव धर्मिणां धर्मः परमात्मा फलोद्भवः ॥ ४३ ॥
श्रीकृष्णपुरतः स्थित्वा प्रणम्य दण्डवद्भुवि ।
तुष्टाव परमात्मानं सर्वेशं सर्वकामदम् ॥ ४४ ॥
॥ श्रीधर्म उवाच ॥
कृष्णं विष्णुं वासुदेवं परमात्मानमीश्वरम् ।
गोविन्दं परमानन्दमेकमक्षरमच्युतम् ॥ ४५ ॥
गोपेश्वरं च गोपीशं गोपं गोरक्षकं विभुम् ।
गवामीशं च गोष्ठस्थं गोवत्सपुच्छधारिणम् ॥ ४६ ॥
गोगोपगोपीमध्यस्थं प्रधानं पुरुषोत्तमम् ॥ ४७ ॥
इत्युच्चार्य्य समुत्तिष्ठन्रत्नसिंहासने वरे ।
ब्रह्मविष्णुमहेशांस्तान्सम्भाष्य स उवास ह ॥ ४८ ॥
चतुर्विशतिनामानि धर्मवक्त्रोद्गतानि च ।
यः पठेत्प्रातरुत्थाय स सुखी सर्वतो जयी ॥ ४९ ॥
मृत्युकाले हरेर्नाम तस्य साध्यं लभेद् धुवम् ।
स यात्यन्ते हरेः स्थानं हरिदास्यं भवेद्ध्रुवम् ॥ ५० ॥
नित्यं धर्मस्तं घटते नाधर्मे तद्रतिर्भवेत् ।
चतुर्वर्ग फलं तस्य शश्वत्करगतं भवेत् ॥ ५१ ॥
तं दृष्ट्वा सर्वपापानि पलायन्ते भयेन च ।
भयानि चैव दुःखानि वैनतेयमिवोरगाः ॥ ५२ ॥
॥ इति ब्रह्मवैवर्त्ते धर्मकृतं श्रीकृष्णस्तोत्रम् ॥
॥ सौतिरुवाच ॥
आविर्बभूव कन्यैका धर्मस्य वामपार्श्वतः ।
मूर्त्तिर्मूर्तिमती साक्षाद्द्वितीया कमलालया ॥ ५३ ॥
आविर्बभूव तत्पश्चान्मुखतः परमात्मनः ।
एका देवी शुक्लवर्णा वीणापुस्तकधारिणी ॥ ५४ ॥
कोटिपूर्णेन्दुशोभा ढ्या शरत्पङ्कजलोचना ।
वह्निशुद्धांशुकाधाना रत्नभूषणभूषिता ॥ ५५ ॥
सस्मिता सुदती श्यामा सुन्दरीणां च सुन्दरी ।
श्रेष्ठा श्रुतीनां शास्त्राणां विदुषां जननी परा ॥ ५६ ॥
वागधिष्ठातृदेवी सा कवीनामिष्टदेवता ।
शुद्धसत्त्वस्वरूपा च शान्तरूपा सरस्वती ॥ ५७ ॥
गोविन्दपुरतः स्थित्वा जगौ प्रथमतः सुखम् ।
तन्नामगुणकीर्तिं च वीणया सा ननर्त्त च ॥ ५८ ॥
कृतानि यानि कर्माणि कल्पेकल्पे युगेयुगे ।
तानि सर्वाणि हरिणा तुष्टाव संपुटांजलिः ॥ ५९ ॥
॥ सरस्वत्युवाच ॥
रासमण्डलमध्यस्थं रासोल्लाससमुत्सुकम् ।
रत्नसिंहासनस्थं च रत्नभूषणभूषितम् ॥ ६० ॥
रासेश्वरं रासकरं वरं रासेश्वरीश्वरम् ।
रासाधिष्ठातृदैवं च वन्दे रासविनोदिनम् ॥ ६१ ॥
रासायासपरिश्रान्तं रासरासविहारिणम् ।
रासोत्सुकानां गोपीनां कान्तं शान्तं मनोहरम् ॥ ६२ ॥
प्रणम्य च तमित्युक्त्वा प्रहृष्टवदना सती ।
उवास सा सकामा च रत्नसिंहासने वरे ॥ ६३ ॥
इति वाणीकृतं स्तोत्रं प्रातरुत्थाय यः पठेत ।
बुद्धिमान्धनवान्सोऽपि विद्यावान्पुत्रवान्सदा ॥ ६४ ॥
॥ इति ब्रह्मवैवर्ते सरस्वतीकृतं श्रीकृष्णस्तोत्रम् ॥
॥ सौतिरुवाच ॥
आविर्बभूव मनसः कृष्णस्य परमात्मनः ।
एका देवी गौरवर्णा रत्नालंकारभूषिता ॥ ६५ ॥
पीतवस्त्रपरीधाना सस्मिता नवयौवना ।
सर्वैश्वर्य्याधिदेवी सा सर्वसम्पत्फलप्रदा ।
स्वर्गे च स्वर्गलक्ष्मीश्च राजलक्ष्मीश्च राजसु ॥ ६६ ॥
सा हरेः पुरतः स्थित्वा परमात्मानमीश्वरम् ।
तुष्टाव प्रणता साध्वी भक्तिनम्रात्मकन्धरा ॥ ६७ ॥
॥ महालक्ष्मीरुवाच ॥
सत्यस्वरूपं सत्येशं सत्यबीजं सनातनम् ।
सत्याधारं च सत्यज्ञं सत्यमूलं नमाम्यहम् ॥ ६८ ॥
इत्युक्त्वा श्रीहरिं नत्वा सा चोवास सुखासने ।
तप्तकांचनवर्णाभा भासयन्ती दिशस्त्विषा ॥ ६९ ॥
आविर्बभूव तत्पश्चाद् बुद्धेश्च परमात्मनः ।
सर्वाधिष्ठातृदेवी सा मूलप्रकृतिरीश्वरी ॥ ७० ॥
तप्तकाञ्चनवर्णाभा सूर्य्यकोटिसमप्रभा ।
ईषद्धास्यप्रसन्नास्या शरत्पङ्कजलोचना ॥ ७१ ॥
रक्तवस्त्रपरीधाना रत्नाभरणभूषिता ।
निद्रातृष्णा क्षुत्पिपासा दया श्रद्धा क्षमादिकाः ॥ ७२ ॥
तासां च सर्वशक्तीनामीशाधिष्ठातृदेवता ।
भयङ्करी शतभुजा दुर्गा दुर्गार्तिनाशिनी ॥ ७३ ॥
आत्मनः शक्तिरूपा सा जगतां जननी परा ।
त्रिशूलशक्तिशार्ङ्गं च धनुःखड्गशराणि च ॥ ७४ ॥
शंख चक्रगदापद्ममक्षमालां कमण्डलुम् ।
वज्रमङ्कुशपाशं च भुशुण्डीदण्डतोमरम् ॥ ७५ ॥
नारायणास्त्रं ब्रह्मास्त्रं रौद्रं पाशुपतं तथा ।
पार्ज्जन्यं वारुणं वाह्नं गान्धर्वं बिभ्रती सती ।
कृष्णस्य पुरतः स्थित्वा तुष्टाव तं मुदाऽन्विता ॥ ७६ ॥
॥ प्रकृतिरुवाच ॥
अहं प्रकृतिरीशाना सर्वेशा सर्वरूपिणी ।
सर्वशक्तिस्वरूपा च मया च शक्तिमज्जगत् ॥ ७७ ॥
त्वया सृष्टा न स्वतन्त्रा त्वमेव जगतां पतिः ।
गतिश्च पाता स्रष्टा च संहर्त्ता च पुनर्विधिः ॥ ७८ ॥
स्रष्टुं स्रष्टा च संहर्तुं संहर्ता वेधसा विधिः ।
परमानन्दरूपं त्वां वन्दे चानन्दपूर्वकम् ।
चक्षुर्निमेषकाले च ब्रह्मणः पतनं भवेत् ॥ ७९ ॥
तस्य प्रभावमतुलं वर्णितुं कः क्षमो विभो ।
भ्रूभङ्गलीलामात्रेण विष्णुकोटिं सृजेत्तु यः ॥ ८० ॥
चराचरांश्च विश्वेषु देवान्ब्रह्मपुरोगमान् ।
मद्विधाः कति वा देवीः स्रष्टुं शक्तश्च लीलया ॥ ८१ ॥
परिपूर्णतमं स्वीड्यं वन्दे चानन्दपूर्वकम् ।
महान्विराड् यत्कलांशो विश्वसंख्याश्रयो विभो ।
वन्दे चानन्दपूर्वं तं परमात्मानमीश्वरम् ॥ ८२ ॥
यं च स्तोतुमशक्ताश्च ब्रह्मविष्णुशिवादयः ।
वेदा अहं च वाणी च वन्दे तं प्रकृतेः परम् ॥ ८३ ॥
वेदाश्च विदुषां श्रेष्ठाः स्तोतुं शक्ताश्च न क्षमाः ।
निर्लक्ष्यं कः क्षमः स्तोतुं तं निरीहं नमाम्यहम् ॥ ८४ ॥
इत्येवमुक्त्वा सा दुर्गा रत्नसिंहासने वरे ।
उवास नत्वा श्रीकृष्णं तुष्टुवुस्तां सुरेश्वराः ॥ ८५ ॥
इति दुर्गाकृतं स्तोत्रं कृष्णस्य परमात्मनः ।
यः पठेदर्च्चनाकाले स जयी सर्वतः सुखी ॥ ८६ ॥
दुर्गा तस्य गृहं त्यक्त्वा नैव याति कदाचन ।
भवाब्धौ यशसा भाति यात्यन्ते श्रीहरेः पुरम् ॥ ८७ ॥
॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे ब्रह्मखण्डे सौतिशौनकसंवादे सृष्टिनिरूपणे दुर्गास्तोत्रं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥

अध्याय ३
श्रीकृष्ण से सृष्टि का आरंभ तथा नारायण द्वारा श्रीकृष्ण की स्तुति

सौति बोले- द्विज ! स्वेच्छामय प्रभु ने देखा कि गोलोक भयंकर लग रहा है और विश्व शून्यमय, भयंकर, जीव-जन्तुओं से रहित, जल-विहीन, दारुण, वायुशून्य, अंधकार से आवृत, वृक्ष, पर्वत एवं समुद्र आदि से विहीन, विकृताकार, मृत्तिका, धातु, सस्य और तृण से रहित हो गया है। मन ही मन सब बातों की आलोचना करके सहायक रहित, एकमात्र प्रभु ने स्वेच्छा से सृष्टि रचना आरंभ की ॥ १-३ ॥

सृष्टि के आदि में (उस परम ) पुरुष के दक्षिण पार्श्व से संसार के कारण रूप तीन मूर्तिमान् गुण प्रकट हुए। उन ( गुणों) से महत्तत्त्व, अहंकार, पंचतन्मात्राएं और रूप, रस, गन्ध स्पर्श और शब्द ( क्रमशः ) उत्पन्न हुए। तत्पश्चात् स्वयं नारायण प्रभु प्रकट हुए जो श्यामवर्ण, तरुण, पीताम्बर, चतुर्भुज, शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किए हुए, मुखारविन्द पर मन्द मुसकान से युक्त, रत्नों के आभूषणों से सम्पन्न, शार्ङ्गधनुष धारण किए हुए, कौस्तुभ मणि से विभूषित, वक्षःस्थल पर श्रीवत्स चिह्न से युक्त, लक्ष्मी के निवास, शोभा के निधान, श्री के चिन्तक, शरत्काल की पूर्णिमा के चन्द्रमा की प्रभा से सेवित मुखचन्द्र के कारण अत्यन्त मनोहर और कामदेव की कान्ति से युक्त रूप लावण्य के कारण सुन्दर थे। वे श्रीकृष्ण के सामने खड़े होकर दोनों हाथ जोड़ कर उनकी स्तुति करने लगे ॥ ४-९ ॥

नारायण बोले- जो वर (श्रेष्ठ), वन्दनीय, वरदायक, वर देने में समर्थ, वर ( की प्राप्ति) के कारण, कारणों के भी कारण, कर्मस्वरूप, उस कर्म के भी कारण, तपः स्वरूप, निरन्तर उस तप के फल देने वाले, तपस्वी, तपस्वियों के प्रभु, नवीन मेघ के समान श्याम, स्वात्माराम, मनोहर, निष्काम, कामरूप, कामना के नाशक, कामदेव की उत्पत्ति के कारण, सब, सब के ईश्वर, सर्वबीजस्वरूप, सर्वोत्तम, वेदस्वरूप, वेदों के बीज, वेदोक्त फल के दाता फलरूप, वेदों के ज्ञाता, उसके विधान को जानने वाले तथा सम्पूर्ण वेदवेत्ताओं के शिरोमणि हैं, उनकी मैं वन्दना करता हूँ ॥ १०-१३ ॥

ऐसा कह कर भक्ति से युक्त वे (नारायण) उनकी आज्ञा से परमात्मा (कृष्ण) के सामने रत्न-निर्मित रमणीय सिंहासन पर आसीन हो गये। जो एकाग्रचित्त होकर नारायण द्वारा किये गये इस स्तोत्र का पाठ करता है और जो नित्य, तीनों संध्याओं के समय ( इसको) पढ़ता है, वह निष्पाप हो जाता है। इसके पाठ से पुत्र चाहने वाले को पुत्र मिलता है, पत्नी की कामना करने वाले को पत्नी मिलती है, राज्य से भ्रष्ट हुए को राज्य मिलता है और धन से वंचित हुए को धन की प्राप्ति होती है। कारागार के भीतर विपत्ति में पड़ा हुआ व्यक्ति इस स्तोत्र के प्रभाव से ( कारागार से ) छूट जाता है। एक वर्ष तक संयमपूर्वक इस स्तोत्र को सुन कर रोगी रोग से मुक्त हो जाता है ॥ १४-१७ ॥

श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण में नारायणकृत श्रीकृष्णस्तोत्र समाप्त ।

सौति बोले – अनन्तर उनके बायें पार्श्व से शुद्ध स्फटिक मणि के समान धवल, पाँच मुख वाले, दिगम्बर (नग्न), तपाये हुए सुवर्ण की कान्ति के समान जटाओं को धारण किये हुए, श्रेष्ठ, मन्द मुसकान करते हुए प्रसन्न – मुख, त्रिनेत्र, भाल पर चन्द्रमा को धारण किये हुए, हाथों में त्रिशूल, पट्टिश और जपमाला लिए हुए, सर्वसिद्धेश्वर, सिद्ध योगीन्द्रों के गुरु के गुरु हैं, मृत्यु के मृत्यु, ईश्वर, मृत्यु रूप, मृत्यु को जीतने वाले, कल्याणकारक, ज्ञानानन्द, महाज्ञानी, श्रेष्ठ, महाज्ञानदाता, पूर्ण चन्द्रमा की प्रभा से भूषित मुख वाले, मनोहर, वैष्णवों के शिरोमणि और ब्रह्म तेज से देदीप्यमान शंकर प्रकट हुए। उन्होंने भगवान् श्रीकृष्ण के सामने खड़े होकर हाथ जोड़कर उनकी स्तुति करना आरम्भ किया। उस समय उनके शरीर में रोमांच रहा था, आँखें आसुओं से भरी थीं और वाणी अत्यन्त गद्गद हो रही थी ॥ १८-२३ ॥

महादेव बोले- जयस्वरूप, जय देने वाले, जय के कारण, जय देने वालों में सर्वश्रेठ और अपराजित उस देव की मैं वन्दना कर रहा हूँ जो विश्वरूप, विश्वेश्वराधिपति, विश्व के ईश, विश्व के कारण, विश्व के आधार, विश्व में स्थित, विश्वकारण के कारण, विश्व की रक्षा के कारण, विश्वहन्ता, विश्व की सृष्टि में सर्वोत्तम, फल के बीज, फल के आधार, फलस्वरूप, फल के भी फलदाता, तेज: स्वरूप, तेजोदायक और समस्त तेजस्वियों में श्रेष्ठ हैं ॥ २४-२६ ॥

ऐसा कह कर नमस्कार करके उनकी आज्ञा से श्रेष्ठ रत्नमय सिंहासन पर नारायण के साथ वार्तालाप करते हुए वे बैठ गए। जो मनुष्य संयतचित्त होकर इस शम्भु रचित स्तोत्र का पाठ करता है उसके सभी कार्यों की सिद्धि और पग-पग पर विजय प्राप्त होती है। उसके मित्र, धन, ऐश्वर्य की सदा वृद्धि होती है और शत्रुओं की सेनाएं, दुःख एवं पाप नष्ट होते हैं ॥ २७ – २९ ॥

श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण में शम्भुकृत श्रीकृष्ण स्तोत्र समाप्त ।

सौति बोले – तदनन्तर भगवान् कृष्ण के नाभि-कमल से महातपस्वी, श्रेष्ठ और हाथ में कमण्डलु लिए वृद्ध ब्रह्मा प्रकट हुए। उनके वस्त्र, दाँत और केश धवल थे। चार मुख थे । वे योगिराज, शिल्पियों के अधीश्वर, सबके उत्पादक, गुरु, तपस्याओं के फलदाता, समस्त सम्पत्तियों के प्रदायक, स्रष्टा, विधाता, समस्त कर्मों के कर्ता, हर्ता, धाता ( धारण करने वाले), चारों वेदों के ज्ञाता, वेदों के प्रकट करने वाले और उनके पति, शान्त, सरस्वती के कान्त, सुशील तथा कृपानिधान हैं। उन्होंने भगवान् श्रीकृष्ण के सामने हाथ जोड़ कर उनका स्तवन किया । उस समय उनके सम्पूर्ण अंगों में रोमांच हो आया तथा उनकी ग्रीवा भगवान् के सामने भक्तिभाव से झुक गई थी ॥ ३०-३४ ॥

ब्रह्मा बोले- मैं भगवान् कृष्ण की वन्दना करता हूँ, जो गुणों से परे, एकमात्र गोविन्द, अविनाशी, अव्यय ( नित्य एक रस रहने वाले), व्यक्त, गोपवेषधारी, किशोर अवस्था वाले, शान्त, गोपियों के कान्त, मनोहर, नवीनघन की भाँति श्यामल, करोड़ों काम से सुन्दर, वृन्दावन के भीतर रास-मण्डल में विराजमान, रामेश्वर, रास में सदैव रहने वाले और रासजनित उल्लास के लिए सदा उत्सुक रहने वाले हैं ॥ ३५-३७ ॥

ऐसा कहकर श्रीकृष्ण को नमस्कार करके उनकी आज्ञा से नारायण और शिव के साथ संभाषण करते हुए ब्रह्मा श्रेष्ठ रत्नसिंहासन पर बैठ गये। जो प्रातःकाल उठकर ब्रह्मा द्वारा किए गए इस स्तोत्र का पाठ करता है। उसके पाप नष्ट हो जाते हैं और दुःस्वप्न सुस्वप्न हो जाता है। उसे श्री, पुत्र एवं पौत्र बढ़ाने वाली गोविन्द की भक्ति प्राप्त होती है । उसकी अपकीर्तित नष्ट हो जाती है और सत्कीर्ति चिरकाल तक बढ़ती रहती है ॥ ३८-४० ॥

श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण में ब्रह्मकृत श्रीकृष्णस्तोत्र समाप्त ।

सौति बोले- तत्पश्चात् उस परमात्मा के वक्षःस्थल से शुक्ल वर्णं का कोई एक जटाधारी पुरुष प्रकट हुआ, जो मन्द मुसकान कर रहा था और सभी जीवों के समस्त कर्मों का साक्षी, सर्वज्ञाता, सर्वत्र समभाव से रहने वाला, सहृदय, हिंसा और क्रोध से हीन, धर्म ज्ञान से युक्त, धर्ममूर्ति, धर्मिष्ठ, धर्मियों का धर्म, परमात्मा तथा फल- बाता था। उन्होंने भगवान् श्री कृष्ण के सामने खड़े होकर भूमि में दण्डवत् प्रणाम किया और सबके प्रभु एवं समस्त कामनाओं के देने वाले उन परमात्मा की स्तुति करना आरम्भ किया ॥ ४१-४४ ॥

धर्म बोले- –कृष्ण, विष्णु, वासुदेव, परमात्मा, ईश्वर, गोविन्द, परमानन्दरूप, एक, अविनाशी, अच्युत, गोपेश्वर, गोपीश, गोप, गोरक्षक, व्यापक, गौओं के ईश, गोष्ठ ( गोशाला ) में रहने वाले, गौओं के बछड़ों की पूंछ धारण करने वाले तथा गो, गोप और गोपियों के मध्य रहने वाले, प्रधान, पुरुषोत्तम, अनवद्य, अनघ, श्याम, शान्त और मनोहर (परमात्मा) की मैं वन्दना करता हूँ ॥ ४५-४७ ॥

ऐसा कह कर धर्म उठकर खड़े हुए। फिर वे भगवान् की आज्ञा से ब्रह्मा, विष्णु और महादेव के साथ वार्तालाप करते हुए उस श्रेष्ठ रत्नमय सिंहासन पर बैठे ॥ ४८ ॥ जो प्रातः काल उठकर धर्म के मुख से निकले हुए इन चौबीस नामों का पाठ करता है वह सर्वत्र सुखी और विजयी होता है ॥ ४९ ॥ मृत्यु के समय उसके मुख से हरिनाम का उच्चारण निश्चित रूप से होता है और अन्त काल में भगवान् के स्थान में जाकर वह भगवान् की दास्य-भक्ति अवश्य प्राप्त करता है ॥ ५० ॥ नित्य उसे धर्म की ही प्राप्ति होती है और अधर्म में उसकी रुचि कभी नहीं होती है। चारों वर्गों (धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष) का फल सदा के लिए उसके हाथ में आ जाता है ॥ ५१ ॥ उसे देखते ही समस्त पाप, भय तथा दुःख भयमीत होकर उसी तरह भाग खड़े होते हैं जैसे गरुड़ को देख कर साँप ( भाग जाते हैं ) ॥ ५२ ॥

श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण में धर्मकृत श्रीकृष्णस्तोत्र समाप्त ।

सौति बोले — तत्पश्चात् धर्म के वाम पार्श्व से एक रूपवती कन्या प्रकट हुई, जो साक्षात् दूसरी लक्ष्मी के समान थी। वह मूर्ति नाम से विख्यात हुई ॥ ५३ ॥ उसके अनन्तर परमात्मा के मुख से वीणा और पुस्तक लिए हुए एक शुक्ल वर्ण की देवी प्रकट हुई, जो करोड़ों पूर्णचन्द्रमा की शोभा से सम्पन्न थी । उसके नेत्र शरत्कालीन कमल के समान थे । वह अग्नि में तपाये हुए सुवर्ण की भाँति वस्त्र और रत्नों के भूषणों से विभूषित थी ॥ ५४-५५ ॥ वह मन्द मुसकान करती थी एवं उसके दाँत बड़े सुन्दर थे । वह श्यामा ( सोलह वर्ष की युवती ) सुन्दरियोंमें भी श्रेष्ठ सुन्दरी, श्रुतियों, शास्त्रों और विद्वानों की परमोत्तम जननी, वाणी की अधिष्ठात्री देवी, कवियों की इष्ट देवी, शुद्ध सत्त्व स्वरूप वाली और शान्तरूपिणी सरस्वती थी। उसने भगवान् कृष्ण के सामने स्थित होकर सर्वप्रथम वीणावादन साथ उनके नाम और गुणों का सुन्दर कीर्तन किया। फिर वह नृत्य करने लगी। उसने हाथ जोड़ कर प्रत्येक कल्प और युगों में किए हुए भगवान् के सभी कार्यों का गान करते हुए उनकी स्तुति की ॥ ५६-५९ ॥

सरस्वती बोली- रास – मण्डल के मध्य में स्थित, रासोल्लास के लिए अत्यन्त उत्सुक, रत्नजटित सिंहासन पर सुशोभित, रत्नों के भूषणों से विभूषित, रासेश्वर, श्रेष्ठ रास करने वाले, रासेश्वरी (श्री राधिका जी ) के प्राण- वल्लभ, रास के अधिष्ठाता देव और रासविनोदी (आप) की मैं वन्दना करती हूँ। जो रास-क्रीडा से श्रान्त हैं, प्रत्येक रास में विहार करने वाले हैं तथा रास से उत्कण्ठित हुई गोपियों के प्राणवल्लभ हैं, उन शान्त मनोहर श्रीकृष्ण को मैं प्रणाम करती हूँ । इस प्रकार उन्हें प्रणाम करके वह सती सरस्वती प्रसन्नचित्त एवं सफलमनोरथ होकर उस उत्तम रत्न सिंहासन पर समासीन हो गई ॥ ६०-६३ ॥ प्रातःकाल उठ कर जो इस सरस्वती कृत स्तोत्र का पाठ करेगा वह सदा बुद्धिमान्, धनवान्, विद्वान् और पुत्रवान् होगा ॥ ६४ ॥

श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण में सरस्वती कृत श्रीकृष्णस्तोत्र समाप्त ।

सौति बोले- भगवान् कृष्ण के मन से एक गौर वर्णा देवी प्रकट हुई, जो रत्नों के अलंकारों से भूषित पीताम्बर धारण किये हुए तथा मंदमुसकान से युक्त नवयुवती थी। वह समस्त ऐश्वर्यों की अधिष्ठात्री देवी और समस्त सम्पत्ति का फल प्रदान करने वाली है। वही स्वर्ग में स्वर्ग की लक्ष्मी एवं राजाओं के यहाँ राजलक्ष्मी कही जाती है। उसने भगवान् के सामने खड़ी होकर उन्हें प्रणाम किया और भक्तिभावसे ग्रीवा को झुका कर परमात्मा की स्तुति की ॥ ६५-६७ ॥

महालक्ष्मी बोली — सत्य स्वरूप, सत्य के स्वामी, सत्य के बीज, सनातन, सत्य के आधार, सत्य के ज्ञाता और उस सत्य के कारण को मैं नमस्कार कर रही हूँ ॥ ६८ ॥

तपाये हुए सुवर्ण की भाँति प्रभा से पूर्ण और दिशाओं को अपनी कान्ति से प्रकाशित करती हुई वह (महालक्ष्मी) भी हरि को नमस्कार कर के उस सुखमय सिंहासन पर बैठ गयी ॥ ६९ ॥ अनन्तर उस परमात्मा की बुद्धि से मूल प्रकृति प्रकट हुई, जो सब की अधिष्ठात्री देवी और ईश्वरी है ॥ ७० ॥ वह तपाये हुए सुवर्ण के समान कान्ति वाली वह देवी करोड़ों सूर्यो का तिरस्कार कर रही थी। उसका मुख मंद मुसकान से प्रसन्न दीख रहा था। उसके नेत्र शारदीय कमल के समान थे। वह लाल रंग के वस्त्र पहने हुये थी तथा रत्नों के आभूषणों से भूषित थी । निद्रा, तृष्णा, क्षुधा, पिपासा, दया, श्रद्धा, क्षमा आदि जो देवियाँ हैं, उन सब की तथा समस्त शक्तियों की वह अधिष्ठात्री देवी है। वह भयंकरी, सौ भुजाएँ धारण करने वाली और दुर्ग के समान दुःखों का नाश करने वाली दुर्गा है। वह आत्मा की शक्तिरूपा और समस्त जगत की श्रेष्ठ जननी है । त्रिशूल, शक्ति, धनुष, खङ्ग, बाण, शंख, चक्र, गदा, पद्म, अक्षमाला, कमण्डलु, वज्र, अंकुश, पारा, भुशुण्डी, दण्ड, तोमर, नारायणास्त्र, ब्रह्मास्त्र, रौद्रास्त्र, पाशुपतास्त्र, पार्जन्यास्त्र, वारुणास्त्र, आग्नेयास्त्र तथा गान्धर्वास्त्र – इन सब को हाथों में धारण किये वह सती भगवान् कृष्ण के सामने खड़ी होकर प्रसन्न चित्त से उनकी स्तुति करने लगी ॥ ७१-७६ ॥

प्रकृति बोली- मैं प्रकृति, ईश्वरी, सर्वेश्वरी, सर्वरूपिणी और सर्वशक्तिस्वरूपा कहलाती हूँ । मुझसे यह जगत् शक्तिमान् है ॥ ७७ ॥ आप इस जगत् के स्वतन्त्र स्रष्टा नहीं हैं, किन्तु इसके पति, गति, रक्षक, स्रष्टा, संहारक एवं पुनः सृष्टि करने वाले हैं ॥ ७८ ॥ आप सर्जन करने के लिए स्रष्टा, संहार करने के लिए संहर्ता एवं ब्रह्मा के भी उत्पादक हैं। ऐसे परमानन्द रूप आपकी मैं सहर्ष वन्दना करती हूँ । हे विभो ! आपके पलक भाँजते ही ब्रह्मा का पतन हो जाता है। जो अपनी भ्रूभङ्ग की लीला मात्र से करोड़ों विष्णु को उत्पन्न कर सकता है ऐसे आपके अनुपम प्रभाव का वर्णन करने में कौन समर्थ हो सकता है ? ॥ ७९-८० ॥ उसी प्रकार आप सारे ब्रह्माण्ड में चर-अचर प्राणियों, ब्रह्मा आदि देवगणों और मेरे समान कितनी देवियों को लीला मात्र से उत्पन्न करने में समर्थ हैं ॥ ८१ ॥ अतः परिपूर्णतम एवं अपने से स्तुति के योग्य आपकी में सानन्द वन्दना करती हूँ। असंख्य विश्व का आश्रयभूत महान् विराट् पुरुष जिनकी कालामात्र का अंश है, उन परमात्मा (श्रीकृष्ण) की मैं सहर्ष वन्दना करती हूँ ॥ ८२ ॥ जिसकी स्तुति करने में ब्रह्मा, विष्णु, शिव, वेद, मैं और वाणी (सरस्वती) असमर्थ हैं तथा जो प्रकृति से परे हैं उन ( ईश) की मैं वन्दना करती हूँ ॥ ८३ ॥ श्रेष्ठ विद्वान् तथा वेद भी जिनकी स्तुति करने में समर्थ नहीं हैं और जो लक्ष्यहीन एवम् निरीह हैं, उनकी स्तुति करने में कौन समर्थ हो सकता है ? अतः मैं उन परमात्मा को प्रणाम कर रही हूँ ॥ ८४ ॥

इस प्रकार कह कर और भगवान् श्रीकृष्ण को प्रणाम करके वह दुर्गा देवी रत्न-सिंहासन पर बैठ गई । उपरान्त देवनायकों ने दुर्गा की स्तुति की ॥ ८५ ॥ इस प्रकार जो पूजाकाल में दुर्गा रचित परमात्मा श्रीकृष्ण के इस स्तोत्र का पाठ करता है वह सभी स्थानों में विजयी और सुखी होता है ॥ ८६ ॥ दुर्गा उसका गृह छोड़ कर कभी नहीं जाती हैं। इस संसार सागर में उसका यश सुशोभित रहता है और अन्त काल में वह भगवान् श्री हरि की पुरी में जाता है ॥ ८७ ॥

॥ श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराण के ब्रह्मखण्ड में सौति-शौनक- संवाद के द्वारा सृष्टि-निरूपण के प्रसंग में दुर्गास्तोत्र नामक तीसरा अध्याय समाप्त ॥ ३ ॥

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