ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 10
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
दसवाँ अध्याय
आकाशवाणी सुनकर कंस का पूतना को गोकुल में भेजना, पूतना का श्रीकृष्ण के मुख में विषमिश्रित स्तन देना और प्राणों से हाथ धोकर श्रीकृष्ण की कृपा से माता की गति को प्राप्त हो गोलोक में जाना

भगवान् नारायण कहते हैं — नारद! एक दिन राजसभा में स्वर्ण-सिंहासन पर बैठे हुए कंस को बड़ी मधुर आकाशवाणी सुनायी दी —’ओ महामूढ़ नरेश ! क्या कर रहा है ? अपने कल्याण का उपाय सोच । तेरा काल धरती पर उत्पन्न हो चुका है। वसुदेव ने माया से तेरे शत्रु-भूत बालक को नन्द के हाथ में दे दिया और उनकी कन्या लाकर तुझे सौंप दी। यह कन्या माया का अंश है और वसुदेव के पुत्र के रूप में साक्षात् श्रीहरि अवतीर्ण हुए हैं। वे ही तेरे प्राणहन्ता हैं । इस समय गोकुल के नन्द-मन्दिर में उनका पालन-पोषण हो रहा है। देवकी का सातवाँ गर्भ भी स्खलित या मृत नहीं हुआ है। योगमाया ने उस गर्भ को रोहिणी के उदर में स्थापित कर दिया था । उस गर्भ से शेष के अंशभूत महाबली बलदेवजी प्रकट हुए हैं । श्रीकृष्ण और बलभद्र — दोनों तेरे काल हैं और इस समय गोकुल के नन्दभवन में पल रहे हैं । ‘

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

वह आकाशवाणी सुनकर राजा कंसका मस्तक झुक गया। उसे सहसा बड़ी भारी चिन्ता प्राप्त हुई। उसने अनमने होकर आहार को भी त्याग दिया और प्राणों से भी बढ़कर प्रेयसी बहिन सती-साध्वी पूतना को बुलाकर उस नीतिज्ञ नरेश ने भरी सभा में इस प्रकार कहा।

कंस बोला — पूतने! मेरे कार्य की सिद्धि के लिये गोकुल के नन्द-मन्दिर में जाओ और अपने एक स्तन को विष से ओतप्रोत करके शीघ्र ही नन्द के नवजात शिशु के मुख में दे दो। वत्से ! तुम मन के समान वेग से चलने वाली मायाशास्त्र में निपुण और योगिनी हो । अतः माया से मानवी रूप धारण करके तुम वहाँ जाओ। सुप्रतिष्ठे ! तुम दुर्वासा से महामन्त्र की दीक्षा लेकर सर्वत्र जाने और सब प्रकार का रूप धारण करने में समर्थ हो ।

नारद! ऐसा कहकर महाराज कंस उस राजसभा में चुप हो रहा। इधर स्वेच्छाचारिणी पूतना कंस को प्रणाम करके वहाँ से चल दी। उसने परम सुन्दरी नारी का रूप धारण कर लिया । उसकी अङ्गकान्ति तपाये हुए सुवर्ण के समान प्रकाशित हो रही थी। वह अनेक प्रकार के आभूषणों से विभूषित थी और मस्तक पर मालती की माला से अलंकृत केशपाश धारण किये हुए थी । उसके ललाट में कस्तूरी की बेंदी से युक्त सिन्दूर की रेखा शोभा पा रही थी। पैरों में मञ्जीर और कटिभाग में करधनी की मधुर झनकार फैल रही थी । व्रज में पहुँचकर पूतना ने मनोहर नन्द-भवन पर दृष्टिपात किया । वह दुर्लङ्घय एवं गहरी खाइयों से घिरा हुआ था । साक्षात् विश्वकर्मा ने दिव्य प्रस्तरों द्वारा उसका निर्माण किया था । इन्द्रनील, मरकत और पद्मराग मणियों से उस भव्य भवन की बड़ी शोभा हो रही थी। सोने के दिव्य कलश और चित्रित शुभ्र शिखर उस नन्द-मन्दिर की शोभा बढ़ाते थे । चार द्वा रोंसे समलंकृत गगनचुम्बी परकोटे उस भवन के आभूषण थे। उसमें लोहे के किवाड़ लगे हुए थे । द्वारों पर द्वारपाल पहरा दे रहे थे। वह परम सुन्दर एवं रमणीय भवन सुन्दरी गोपाङ्गनाओं से आवेष्टित था । मोती, माणिक्य, पारसमणि तथा रत्नादि वैभवों से भरे हुए उस भव्य भवन में सुवर्णमय पात्र और घट भारी संख्या में दिखायी दे रहे थे। करोड़ों गौएँ उस भवन के द्वार की शोभा बढ़ा रही थीं। लाखों ऐसे गोपकिङ्कर वहाँ विद्यमान थे, जिनका भरण-पोषण नन्दभवन से ही होता था । विभिन्न कार्यों में लगी हुई सहस्रों दासियाँ उस भवन की शोभा बढ़ा रही थीं।

सुन्दरी पूतना ने अत्यन्त मनोहर वेष धारण करके मन्द मुस्कान की छटा बिखेरते हुए नन्द-मन्दिर में प्रवेश किया। उसे महल में प्रवेश करती देख वहाँ की गोपियों ने उसका बहुत आदर किया। वे सोचने लगीं — ‘ये कमलालया लक्ष्मी अथवा साक्षात् दुर्गा ही तो नहीं हैं, जो साक्षात् श्रीकृष्ण का दर्शन करने के लिये यहाँ पधारी हैं।’ गोपियों और गोपों ने उसे प्रणाम किया और कुशल- समाचार पूछा। उसे बैठने के लिये सिंहासन दिया और पैर धोने के लिये जल अर्पित किया। पूतना ने भी गोप-बालकों का कुशल-मङ्गल पूछा । वह सुन्दरी वहाँ मुस्कराती हुई सिंहासन पर बैठ गयी। उसने बड़े आदर के साथ गोपियों का दिया हुआ पाद्य- जल ग्रहण किया।

तब सब गोपियों ने पूछा-‘स्वामिनि ! तुम कौन हो ? इस समय तुम्हारा निवास कहाँ है ? तुम्हारा नाम क्या है ? और यहाँ पधारने का प्रयोजन क्या है ? यह बताओ ।’

उन गोपियों का यह वचन सुनकर वह भी मनोहर वाणी में बोली — ” मैं मथुरा की रहने वाली गोपी हूँ । इस समय एक ब्राह्मण की भार्या हूँ। मैंने संदेशवाहक के मुख से यह मङ्गल-सूचक संवाद सुना है कि ‘वृद्धावस्था में नन्दरायजी के यहाँ महान् पुत्र का जन्म हुआ है।’ यह सुनकर मैं उस पुत्र को देखने और उसे अभीष्ट आशीर्वाद देने के लिये यहाँ आयी हूँ । अब तुम लोग नन्द-नन्दन को यहाँ ले आओ। मैं उसे देखूँगी और आशीर्वाद देकर चली जाऊँगी ?”

ब्राह्मणी का यह वचन सुनकर यशोदाजी का हृदय हर्ष से खिल उठा। उन्होंने बेटे से प्रणाम करवाकर उसे उस ब्राह्मणी की गोद में दे दिया। बालक को गोद में लेकर उस सतीसाध्वी पुण्यवती पूतना ने बारंबार उसका मुँह चूमा और सुखपूर्वक बैठकर श्रीहरि के मुख में उसने अपना स्तन दे दिया। साथ ही वह बोली- ‘गोपसुन्दरि ! तुम्हारा यह सुन्दर बालक अत्यन्त अद्भुत है । यह गुणों में साक्षात् भगवान् नारायण के समान है ।’

श्रीकृष्ण उस विषैले स्तन को पीकर उसकी छाती पर बैठे-बैठे हँसने लगे। उन्होंने उस विषमिश्रित दूध को सुधा के समान मानकर पूतना के प्राणों के साथ ही पी लिया । साध्वी पूतना ने अपने प्राणों के साथ ही बालक को त्याग दिया । मुने! वह प्राणों का त्याग करके पृथ्वी पर गिर पड़ी। उसका आकार और मुख विकराल दिखायी देने लगे। वह उत्तान मुँह होकर पड़ी थी । उसने स्थूल शरीर को त्यागकर सूक्ष्म शरीर में प्रवेश किया। फिर वह शीघ्र ही रत्नसार-निर्मित दिव्य रथ पर आरूढ़ हो गयी। उस विमान को लाखों मनोहर दिव्य एवं श्रेष्ठ पार्षद सब ओर से घेरकर बैठे थे। उनके हाथों में लाखों चँवर डुल रहे थे । लाखों दिव्य दर्पण उस दिव्य रथ की शोभा बढ़ा रहे थे। अग्निशुद्ध सूक्ष्म दिव्य वस्त्र से उस श्रेष्ठ विमान को सजाया गया था । उसमें नाना प्रकार के चित्र-विचित्र मनोहर रत्नमय कलश शोभा दे रहे थे । उस रथ में सौ पहिये लगे थे। वह सुन्दर विमान रत्नों के तेज से प्रकाशित हो रहा था। पूर्वोक्त पार्षद पूतना को उस रथ पर बिठाकर उसे उत्तम गोलोकधाम में ले गये। उस अद्भुत दृश्य को देखकर गोप और गोपिकाएँ चकित हो गयीं। कंस भी वह सारा समाचार सुनकर बड़ा विस्मित हुआ ।

मुने! यशोदा मैया बालक को गोद में उठाकर उसे स्तन पिलाने लगीं। उन्होंने ब्राह्मणों के द्वारा बालक के कल्याण के लिये मङ्गल-पाठ करवाया । नन्दराय ने बड़े आनन्द से पूतना के देह का दाह-संस्कार किया । उस समय उसकी चिता से चन्दन, अगुरु और कस्तूरी के समान सुगन्ध निकल रही थी ।

नारदजी ने पूछा भगवन् ! राक्षसी पूतना के रूप में वह कौन ऐसी पुण्यवती सती थी, जिसने श्रीहरि को अपना स्तन पिलाया ? किस पुण्य से भगवान्‌ के दर्शन करके वह उनके परम धाम में गयी ?

नारायण बोले — देवर्षे ! बलि के यज्ञ में वामन का मनोहर रूप देखकर बलि की कन्या रत्नमाला ने उनके प्रति पुत्र स्नेह प्रकट किया था । उसने मन-ही-मन यह संकल्प किया कि यदि इस पुत्र के समान मेरे पुत्र होता तो मैं उसके मुख में अपना स्तन देकर उसे वक्षःस्थल पर बिठाती। भगवान् से उसका यह मनोरथ छिपा न रहा। उन्होंने इस प्रकार जन्मान्तर में उसका स्तन-पान किया। भक्तों की वाञ्छा पूर्ण करने वाले उन कृपानिधान ने पूतना को माता की गति प्रदान की । मुने! राक्षसी पूतना ने श्रीकृष्ण को विष लिपटा हुआ स्तन देकर उस द्वेष-भक्ति के द्वारा भी माता के समान गति प्राप्त कर ली। ऐसे परम दयालु भगवान् श्रीकृष्ण को छोड़कर मैं और किसका भजन करूँ ?

दत्त्वा विपस्तनं कृष्णं पूतना राक्षसी मुने ।
भक्त्या मातृगतिं प्राप कं भजामि विना हरिम् ॥
( श्रीकृष्णजन्मखण्ड १० । ४४)

विप्रवर! इस प्रकार मैंने तुमसे श्रीकृष्णके गुणोंका वर्णन किया, जो पद-पदपर अत्यन्त मधुर हैं। इसके अतिरिक्त भी जो श्रीकृष्णकी मधुर लीलाएँ हैं, उनका तुम्हारे समक्ष वर्णन आरम्भ करता हूँ ।   ( अध्याय १० )

श्रीमद्भागवतमहापुराण – दशम स्कन्ध पूर्वार्ध – अध्याय ६

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखंडे नारायणनारदसंवादे पूतनामोक्षो नाम दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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