ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 108
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
(उत्तरार्द्ध)
एक सौ आठवाँ अध्याय
रुक्मिणी और श्रीकृष्ण का विवाह

श्रीनारायण कहते हैं— नारद! इसी समय महालक्ष्मी स्वरूपा रुक्मिणीदेवी मुनियों और देवताओं के साथ सभा में आयीं और रत्नसिंहासन पर विराजमान हुईं। वे रत्नाभरणों से विभूषित थीं और उनके शरीर पर अग्निशुद्ध साड़ी शोभा पा रही थी । उनकी वेणी सुन्दररूप से गुँथी गयी थी। वे मुस्कराती हुई अमूल्य रत्नजटित दर्पण में अपना मुख निहार रही थीं, कस्तूरी के बिन्दुओं से युक्त एवं सुकोमल चन्दन से चर्चित थीं तथा उनके ललाट का मध्य भाग सिन्दूर की बेंदी से उद्भासित हो रहा था । उनकी कान्ति तपाये हुए सुवर्णकी-सी और प्रभा सैकड़ों चन्द्रमाओं के समान थी, उनके सर्वाङ्ग में चन्दन का अनुलेप हुआ था, मालती की माला उनकी शोभा बढ़ा रही थी और सात बालक राजकुमारों द्वारा वे वहाँ लायी गयी थीं। ऐसी महालक्ष्मीस्वरूपा पतिव्रता रुक्मिणीदेवी को देवेन्द्रों, मुनीन्द्रों, सिद्धेन्द्रों तथा नृपश्रेष्ठों ने देखा ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

तदनन्तर सती रुक्मिणी ने अपने पति श्रीकृष्ण की सात प्रदक्षिणा करके उन्हें नमस्कार किया और चन्दन के सुकोमल पल्लवों द्वारा शीतल जल से सींचा। तत्पश्चात् जगत्पति श्रीकृष्ण ने शान्तरूपिणी एवं मन्द मुस्कानयुक्त अपनी प्रियतमा रुक्मिणी पर जल छिड़का। फिर शुभ मुहूर्त में पति ने पत्नी का और पत्नी ने पति का अवलोकन किया। इसके बाद सुमुखी रुक्मिणीदेवी पिता की गोद में जा बैठीं; उस समय वे अपने तेज से उद्दीप्त हो रही थीं और उनका मुख लज्जावश झुक गया था।

नारद ! तब राजा भीष्मक ने वेदमन्त्रोच्चारणपूर्वक दान की विधि देवेश्वरी रुक्मिणी को परिपूर्णतम श्रीकृष्ण के हाथों सौंप दिया। उस समय हर्षपूर्वक बैठे हुए श्रीकृष्ण ने वसुदेवजी की आज्ञा से ‘स्वस्ति’ ऐसा कहकर रुक्मिणीदेवी को उसी प्रकार ग्रहण कर लिया, जैसे भगवान् शंकर ने भवानी को ग्रहण किया था। इसके बाद राजा ने परिपूर्णतम परमात्मा श्रीकृष्ण को पाँच लाख अशर्फियाँ दक्षिणा में दीं। इस प्रकार मुनियों और देवेन्द्रों की सभा में उस शुभ कर्म के समाप्त होने पर राजा मोहवश कन्या को हृदय से चिपटाकर रोने लगे और अपने दोनों नेत्रों के जल से उन्होंने उस श्रेष्ठ कन्या को भिगो दिया। फिर वचन द्वारा उसका परिहार करके उन्होंने उसे श्रीकृष्ण को समर्पित कर दिया ।    ( अध्याय १०८ )

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद रुक्मिण्यु-द्वाहेऽष्टाधिकशाततमोऽध्यायः ॥ १०८ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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