March 14, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 116 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ (उत्तरार्द्ध) एक सौ सोलहवाँ अध्याय बाण और अनिरुद्ध के संवाद – प्रसङ्ग में अनिरुद्ध द्वारा द्रौपदी के पाँच पति होने का वर्णन, बाणसेनापति सुभद्र का अनिरुद्ध के साथ युद्ध और अनिरुद्ध द्वारा उसका वध बाण ने कहा — अनिरुद्ध ! तुम बड़े बुद्धिमान् हो। तुम्हारा कथन सत्य ही है। शम्भु ने भी ऐसा ही बतलाया था। अब तुमने जो यह कहा है कि महाभागा द्रौपदी शंकरजी के वरदान से पाँच पतियों की प्रिया थीं, वह वृत्तान्त विस्तारपूर्वक मुझसे वर्णन करो। साथ ही यह भी बतलाओ कि पहले शम्बर ने तुम्हारी माता रति का किस प्रकार अपहरण किया था ? उसने देवताओं को पराजित कैसे किया था? और देवगणों ने किस तरह रति को उसे प्रदान किया था ? ॐ नमो भगवते वासुदेवाय अनिरुद्ध बोले — बाण! एक समय की बात है । पञ्चवटी में श्रीरघुनाथजी सीता और लक्ष्मण के साथ सरोवर में स्नान करके उसके रमणीय तट पर बैठे हुए थे। उस समय हेमन्त का समय था; अतः उन्होंने सीता से कहा — ‘प्रिये ! इस समय अत्यन्त स्वादिष्ट निर्मल जल, अन्न, मनोहर व्यञ्जल तथा सारी वस्तुएँ अत्यन्त शीतल हैं।’ यों कहकर उन्होंने फल-संग्रह किया और हर्षपूर्वक उन्हें सीता को प्रदान किया । तत्पश्चात् लक्ष्मण को देकर पीछे स्वयं प्रभु ने भोग लगाया। लक्ष्मण ने वह फल और जल ले तो लिया, परंतु खाया नहीं; क्योंकि वे सीता का उद्धार करने के लिये मेघनाद का वध करना चाहते थे । (उनको यह पता था कि ) जो चौदह वर्ष तक न तो नींद लेगा और न भोजन करेगा; वही योगी पुरुष उस रावणकुमार मेघनाद को मार सकेगा। इसी बीच कमललोचन राम का दर्शन करने के लिये कृपानिधि अग्नि ब्राह्मण का वेष धारण करके वहाँ आये और कर्णकटु भविष्य-वचन कहने लगे । अग्निदेव बोले — महाभाग राम ! मेरी बात सुनो और सीता की भली-भाँति रक्षा करो; क्योंकि प्राक्तन कर्मवश दुर्निवार्य एवं दुष्ट राक्षस रावण सात दिन के भीतर ही जानकी को हर ले जायगा । भला, विधाता ने जिस प्राक्तन कर्म को लिख दिया है; उसे कौन मिटा सकता है ? चारों देवताओं ने भी यही कहा है कि दैव से बढ़कर श्रेष्ठ दूसरा कोई नहीं है। तब श्रीरामजी ने कहा — अग्निदेव ! तब तो सीता को आप अपने साथ लेते जाइये और उसकी छाया यहीं रहेगी; क्योंकि पत्नी के बिना किया हुआ कर्म सभी के लिये निन्दित होता है । तब अग्निदेव रोती हुई सीता को साथ लेकर चले गये और सीता के सदृश जो छाया थी; वह राम के संनिकट रहने लगी । पूर्वकाल में रावण ने खेल-ही-खेल में उसी छाया का हरण किया था और श्रीराम ने भाई-बन्धुओंसहित उस रावण का वध करके उस छाया का ही उद्धार किया था। अग्नि-परीक्षा के अवसरपर जो छाया अग्नि में प्रविष्ट हुई थी; उस छाया को अपने संरक्षण में रखकर अग्नि ने राम को असली जानकी लौटा दी । तब श्रीराम जानकी को लेकर हर्षपूर्वक अपने आश्रम को चले गये और छाया दुःखित हृदय से अग्नि के पास रहने लगी। वही छाया नारायण सरोवर में जाकर तप करने लगी। उसने सौ दिव्य वर्षों तक शंकरजी के लिये घोर तपस्या की; तब शंकरजी प्रकट होकर उससे बोले—’ भद्रे ! वर माँगो । ‘ वह पति के दुःख से दुःखी थी; अतः व्यग्रतापूर्वक शिवजी से उसने उस व्यग्रता में ही त्रिनेत्रधारी शिवजी से बोली । ‘पतिं देहि’ – पति दीजिये यों पाँच बार वर माँगा । तब सम्पूर्ण सम्पत्तियों के प्रदाता शिव प्रसन्न होकर उसे वर देते हुए बोले । श्रीमहादेवजी ने कहा — साध्वि ! तुमने व्याकुल होकर ‘पतिं देहि’ – पति दीजिये यों पाँच बार कहा है; अतः श्रीहरि के अंशभूत पाँच इन्द्र तुम्हारे पति होंगे। वे ही सभी पाँचों इन्द्र इस समय पाँच पाण्डव हुए हैं और वह छाया द्रौपदीरूप में यज्ञकुण्ड से उत्पन्न हुई है । यही छाया कृतयुग में वेदवती, त्रेता में जनकनन्दिनी और द्वापर में द्रौपदी हुई है; इसी कारण यह त्रिहायणी कृष्णा कहलाती है । यह वैष्णवी तथा श्रीकृष्ण की भक्त है; इसलिये भी कृष्णा कही जाती है। वही पीछे चलकर महेन्द्रों की स्वर्गलक्ष्मी होगी। राजा द्रुपद ने कन्या के स्वयंवर में उसे अर्जुन को दिया। वीरवर अर्जुन ने माता से पूछा — ‘माँ ! इस समय मुझे एक वस्तु मिली है ।’ तब माता ने अर्जुन से कहा — ‘उसे सभी भाइयों के साथ बाँटकर ग्रहण करो।’ इस प्रकार पहले शम्भु का वरदान था ही, पीछे माता कुन्ती की भी आज्ञा हो गयी – इसी कारण पाँचों पाण्डव द्रौपदी के पति हुए। ये पाँचों पाण्डव चौदह इन्द्रों में से पाँच इन्द्र हैं। माता द्वारा भर्त्सना किये जाने पर शंकरजी ने मेरी माता रति को शाप देते हुए कहा — ‘ रति ! तुम्हारा पति शंकर की क्रोधाग्नि से जलकर भस्म हो जायगा । इस समय तुम शापित होकर दैत्य के अधीन होओगी। शम्बरासुर इन्द्रसहित देवताओं को जीतकर तुम्हें हर ले जायगा ।’ यों कहकर उन्हेंने पुनः वरदान भी दिया — ‘तुम्हारा सतीत्व नष्ट नहीं होगा। जब तक तुम्हारा पति जीवित नहीं हो जाता, तबतक तुम शम्बरासुर को अपनी छाया देकर उसके घर में वास करो।’ दैत्येन्द्र ! इस प्रकार मैंने तुमसे वह सारा पुरातन इतिहास कह सुनाया; अब देवों के गुप्त चरित्र को श्रवण करो । इसी समय बाण का प्रधान सेनापति महाबली सुभद्र ने, जो कुम्भाण्ड का भाई, बलसम्पन्न और महारथी था, शस्त्रों से लैस होकर समरभूमि में बाण की निर्भर्त्सना करके श्रीकृष्णपौत्र अनिरुद्ध पर प्रलयाग्नि की भाँति चमकीला त्रिशूल चलाया; परंतु प्रद्युम्नकुमार ने एक अर्धचन्द्र द्वारा उस शूल के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। तब सुभद्र ने सैकड़ों सूर्यों के समान प्रभावाली शक्ति फेंकी। अनिरुद्ध ने वैष्णवास्त्र द्वारा उस शक्ति को भी काट गिराया। फिर तो घोर संग्राम आरम्भ हो गया । अनिरुद्ध ने सुभद्र को मार गिराया । तदनन्तर बाण के साथ भयंकर युद्ध हुआ। जब अनिरुद्ध बाणासुर का वध करने को उद्यत हुए, तब कार्तिकेय ने उसे बचा लिया। फिर कार्तिकेय के साथ उनका महान् संग्राम हुआ । (अध्याय ११६ ) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद बाणयुद्ध षोडशाधिकशततमोऽध्यायः ॥ ११६ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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