ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 120
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
(उत्तरार्द्ध)
एक सौ बीसवाँ अध्याय
बाण का यादवी सेना के साथ युद्ध, बाण का धराशायी होना, शंकरजी का बाण को उठाकर श्रीकृष्ण के चरणों में डाल देना, श्रीकृष्ण द्वारा बाण को जीवन-दान, बाण का श्रीकृष्ण को बहुत-से दहेज के साथ अपनी कन्या समर्पित करना, श्रीकृष्ण का पौत्र और पौत्रवधू के साथ द्वारका को लौट जाना और द्वारका में महोत्सव

श्रीनारायण कहते हैं — नारद! तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण ने उद्धव और बलदेव के साथ शुभ मन्त्रणा करके बाण के पास दूत भेजा । तब उस दूत ने – जहाँ शिव, गणपति, दुर्गतिनाशिनी दुर्गा, कार्तिकेय, भद्रकाली, उग्रचण्डा और कोटरी – ये सब विद्यमान थे, वहाँ आकर शिव, शिवा, गणेश और पूजनीय मानवों को नमस्कार किया और यथोचित वचन कहा।

दूत बोला — महेश्वर ! भगवान् श्रीकृष्ण बाण को युद्ध के लिये ललकार रहे हैं; अतः वह या तो युद्ध करे अथवा अनिरुद्ध और उषा को लेकर उनके शरणापन्न हो जाय; क्योंकि रण के लिये बुलाये जाने पर जो पुरुष भयभीत होकर सम्मुख युद्धार्थ नहीं जाता है, वह परलोक में अपने पूर्वजों के साथ-साथ नरकगामी होता है ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

दूत की बात सुनकर स्वयं पार्वतीदेवी सभा के मध्य में शंकरजी के संनिकट ही यथोचित वचन बोलीं ।

पार्वती ने कहा — महाभाग बाण! तुम अपनी कन्या को लेकर उनके पास जाओ और प्रार्थना करो। फिर अपना सर्वस्व दहेज में देकर श्रीकृष्ण की शरण ग्रहण करो; क्योंकि वे सबके ईश्वर तथा कारण, समस्त सम्पत्तियों के दाता श्रेष्ठ, वरेण्य, आश्रयस्थान, कृपालु और भक्तवत्सल हैं।

पार्वती का वचन सुनकर सभा में उपस्थित सभी सुरेश्वरों ने धन्य-धन्य कहते हुए उनकी प्रशंसा की और बाण से वैसा करने के लिये कहा; परंतु बाण क्रोध से आगबबूला हो उठा, उसका शरीर काँपने लगा और नेत्र लाल हो गये। फिर तो वह असुर सहसा उठ खड़ा हुआ और सबके मना करने पर भी कवच से सुसज्जित हो हाथ में धनुष ले शंकरजी को प्रणाम करके करोड़ों कवचधारी महाबली दैत्यों के साथ चल पड़ा। तब कुम्भाण्ड, कूपकर्ण, निकुम्भ और कुम्भ – इन प्रधान सेनापतियों ने भी कवच धारण करके उसका अनुगमन किया। फिर उन्मत्तभैरव, संहारभैरव, असिताङ्गभैरव, रुरुभैरव, महाभैरव, कालभैरव, प्रचण्डभैरव और क्रोधभैरव – ये सभी भी कवच धारण करके शक्तियों के साथ गये। कवचधारी भगवान् कालाग्निरुद्र ने भी रुद्रों के साथ गमन किया। उग्रचण्डा, प्रचण्डा, चण्डिका, चण्डनायिका, चण्डेश्वरी, चामुण्डा, चण्डी और चण्डक पालिका – ये सभी आठों नायिकाएँ हाथ में खप्पर ले उसके पीछे-पीछे चलीं । शोणितपुर की ग्रामदेवता कोटरी ने भी रत्ननिर्मित रथ पर सवार हो प्रस्थान किया । उस समय उसका मुख प्रफुल्लित था और वह खड्ग तथा खप्पर लिये हुए थी । चन्द्राणी, शान्तस्वरूपा वैष्णवी, ब्रह्मवादिनी ब्रह्माणी, कौमारी, नारसिंही, विकट आकारवाली वाराही, महामाया माहेश्वरी और भीमरूपिणी भैरवी – ये सभी आठों शक्तियाँ हर्षपूर्वक रथ पर सवार हो नगर से बाहर निकलीं। जो रक्तवर्णवाली और त्रिनेत्रधारिणी हैं तथा जीभ लपलपाने के कारण जो भयंकर प्रतीत होती हैं, वे भद्रकालिका हाथों में शूल, शक्ति, गदा, खड्ग और खप्पर धारण करके बहुमूल्य रत्नों के सारभाग से बने हुए रथ पर सवार होकर चलीं।

फिर महेश्वर हाथ में त्रिशूल ले नन्दीश्वर पर चढ़कर तथा धनुर्धर स्कन्द हाथ में शस्त्र ले अपने वाहन मयूर पर सवार होकर चले । इस प्रकार गणेश और पार्वती को छोड़कर शेष सभी लोगों ने बाण का अनुगमन किया। इन सबसे युक्त महादेव और भद्रकालिका को देखकर चक्रपाणि श्रीकृष्ण ने यथोचितरूप से सम्भाषण किया । तदनन्तर बाण ने शङ्खध्वनि करके पार्वतीश्वर शिव को प्रणाम किया और धनुष की प्रत्यञ्चा चढ़ाकर उस पर दिव्यास्त्र का संधान किया । इस प्रकार बाण को युद्ध के लिये उद्यत देखकर शत्रु – वीरों का संहार करने वाले सात्यकि उपस्थित सभी लोगों के द्वारा मना किये जाने पर भी कवच धारण करके हर्षपूर्वक आगे बढ़े।

नारद! तब बाण ने उन पर मञ्छन नामक दिव्यास्त्र का प्रयोग किया। वह अस्त्र अमोघ, ग्रीष्म ऋतु के मध्याह्नकालिक सूर्य के समान प्रकाशमान तथा अत्यन्त तीखा था । फिर तो घोर युद्ध होने लगा । परस्पर बड़े-बड़े घोर दिव्यास्त्रों का प्रयोग किया गया। भयानक समर होते-होते जब भगवान् कालाग्नि नामक रुद्र के महाबली हलधर बलदेवजी को बाणासुर का वध करने के लिये तैयार देखा, तब उन्होंने उनको रोक दिया। इस पर बलदेवजी ने क्रुद्ध होकर कालाग्निरुद्र के रथ, घोड़े और सारथि का नाश कर दिया। तब कालाग्निरुद्र ने कोप में भरकर भयंकर ज्वर छोड़ा। इससे श्रीहरि के अतिरिक्त अन्य सभी यादव ज्वर से आक्रान्त हो गये । उस ज्वर को देखकर भगवान् श्रीकृष्ण ने वैष्णव- ज्वर की सृष्टि की और उस रण के मुहाने पर माहेश्वर- ज्वर का विनाश करने के लिये उसे चला दिया। फिर तो दो घड़ी तक उन दोनों ज्वरों में बड़ा भयंकर युद्ध हुआ । अन्त में उस रणाङ्गण में वैष्णव-ज्वर से आक्रान्त होकर माहेश्वर- ज्वर धराशायी हो गया, उसकी सारी चेष्टाएँ शान्त हो गयीं। पुनः चेतना में आकर वह माधव की स्तुति करने लगा ।

ज्वर बोला — भक्तानुग्रहमूर्तिधारी भगवन् ! आप सबके आत्मा और पूर्णपुरुष हैं; सबपर आपका समान प्रेम है, अतः जगन्नाथ ! मेरे प्राणों की रक्षा कीजिये ।

उस ज्वर के विनीत वचन को सुनकर श्रीकृष्ण ने अपने वैष्णव- ज्वर को लौटा लिया। तब माहेश्वर- ज्वर भयभीत होकर रणभूमि से भाग खड़ा हुआ । तत्पश्चात् बाण ने पुनः आकर ऐसे हजारों बाण चलाये, जो प्रलयकालीन अग्नि की ज्वाला के समान प्रकाशमान तथा मन्त्रों द्वारा पावन किये गये थे; परंतु अर्जुन ने खेल-ही-खेल में अपने बाणसमूहों द्वारा उन्हें रोक दिया। तब बाण ने ग्रीष्मकालीन सूर्य के समान चमकीली शक्ति चलायी, किंतु महाबली अर्जुन ने उसे भी अनायास ही काट गिराया। यह देखकर बाण ने पाशुपतास्त्र को, जिसकी प्रभा सैकड़ों सूर्यों के समान थी और जो अत्यन्त भयंकर, अमोघ तथा विश्व का संहार करने वाला था, हाथ में लिया। उसे देखकर चक्रपाणि ने अपने भयंकर सुदर्शनचक्र को चला दिया । उस चक्र ने रणभूमि में बाण के हजारों हाथों को काट डाला और वह भयंकर पाशुपतास्त्र पहाड़ी सिंह की तरह भूमि पर गिर पड़ा । तदनन्तर जो प्रलयकालीन अग्नि की शिखा के समान प्रकाशमान, लोक में दारुण तथा अमोघ है; वह पाशुपतास्त्र पशुपति शिव के हाथ में लौट गया।

बाण के शरीर- रक्त से वहाँ भयंकर नदी बह चली और बाण चेष्टारहित होकर भूमि पर गिर पड़ा। उस समय व्यथा के कारण उसकी चेतना नष्ट हो गयी थी । तब जगद्गुरु भगवान् महादेव वहाँ आये और बाण को उठाकर उन्होंने अपनी छाती से लगा लिया। फिर बाण को लेकर वे वहाँ चले, जहाँ भगवान् जनार्दन विराजमान थे । वहाँ पहुँचकर उन्होंने पद्मा द्वारा समर्चित श्रीकृष्ण के चरणकमलों में बाण को समर्पित कर दिया। तत्पश्चात् बलि ने जिस वेदोक्त स्तोत्र द्वारा उनकी स्तुति की थी, उसी स्तोत्र द्वारा चन्द्रशेखर ने शक्तियों के स्वामी जगदीश्वर श्रीकृष्ण का स्तवन किया । तब श्रीहरि ने बुद्धिमान् बाण को ‘मृत्युञ्जय’ नामक ज्ञान प्रदान किया और उसके शरीर पर अपना कर-कमल फिराकर उसे अजर-अमर बना दिया ।

तदनन्तर बाण ने बलिकृत स्तोत्र द्वारा भक्तिपूर्वक श्रीहरि का स्तवन किया और उसी देवसमाज में रत्ननिर्मित आभूषणों से विभूषित अपनी श्रेष्ठ कन्या उषा को लाकर भक्तिसहित श्रीकृष्ण को प्रदान कर दिया । फिर उसने भक्तिपूर्वक कंधे झुकाकर पाँच लाख गजराज, बीस लाख घोड़े, रत्नाभरणों से विभूषित एक हजार दासियाँ, सब कुछ प्रदान करने वाली बछड़ोंसहित एक सहस्र गौएँ, करोड़ों- करोड़ों मनोहर माणिक्य, मोती, रत्न, श्रेष्ठ मणियाँ और हीरे तथा हजारों सुवर्णनिर्मित जलपात्र एवं भोजनपात्र श्रीकृष्ण को दहेज में दिये।

नारद ! फिर बाण ने शंकरजी की आज्ञा से सभी तरह के अग्निशुद्ध श्रेष्ठ महीन वस्त्र तथा ताम्बूल और उसकी सामग्रियों के विविध प्रकार के हजारों श्रेष्ठ पूर्णपात्र भक्तिपूर्ण हृदय से दहेज में दिये । तत्पश्चात् कन्या को भी श्रीहरि के चरणकमलों में समर्पित करके वह ढाह मारकर रो पड़ा। इस प्रकार उसने वह कार्य सम्पन्न किया। तब श्रीकृष्ण बाण को वेदोक्त मधुर वचनों द्वारा वरदान देकर शंकरजी की अनुमति से द्वारकापुरी को प्रस्थित हुए। वहाँ पहुँचकर स्वयं श्रीहरि ने महात्मा बाण की उस कन्या को नवोढ़ा ( नवविवाहिता वधू) समझकर शीघ्र ही देवकी और रुक्मिणी के हाथों सौंप दिया; फिर यत्नपूर्वक मङ्गल-महोत्सव कराया, ब्राह्मणों को भोजन कराया और उन्हें बहुत सा धन-दान किया ।  (अध्याय १२० )

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद बाणयुद्धं नाम विंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १२० ॥

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