ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 123
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
(उत्तरार्द्ध)
एक सौ तेईसवाँ अध्याय
गणेश के अग्रपूज्यत्व-वर्णन के प्रसङ्ग में राधा द्वारा गणेश की अग्रपूजा का कथन

नारदजी ने पूछा — मुने ! पुराणों में जो गणेश-पूजन का दुर्लभ आख्यान वर्णित है, उसे मैंने सामान्यतया ब्रह्मा के मुख से संक्षेप में सुना है। अब आपसे समस्त पूजनीयों में प्रधान गणपति की महिमा विस्तारपूर्वक सुनने की मेरी अभिलाषा है; क्योंकि आप योगीन्द्रों के गुरु के भी गुरु हैं । पूर्वकाल में स्वर्गवासियों ने सिद्धाश्रम में राधा-माधव की महापूजा की थी; उसी राधा ने सौ वर्ष के बीतने पर जब श्रीदामा का शाप निवृत्त हुआ; तब ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि सुरेन्द्रों, नागराज शेष और अन्यान्य बड़े-बड़े नागों, भूतलपर बहुत-से बलशाली नरेशों और असुरों, अन्यान्य महाबली गन्धर्वों तथा राक्षसों के रहते हुए सर्वप्रथम गणेश की पूजा कैसे की ? महाभाग ! यह वृत्तान्त मुझसे विस्तारपूर्वक वर्णन करने की कृपा करें।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

श्रीनारायण बोले — नारद! तीनों लोकों में पुण्यवती होने के कारण पृथ्वी धन्य एवं मान्य है । उस पृथ्वी पर भारतवर्ष कर्मों का शुभ फल देने वाला है । उस पुण्यक्षेत्र भारत में सिद्धाश्रम नामक एक महान् पुण्यमय शुभ क्षेत्र है; जो धन्य, यशस्य, पूज्य और मोक्ष प्रदाता है। भगवान् सनत्कुमार वहीं सिद्ध हुए थे। स्वयं ब्रह्मा ने भी वहीं तपस्या करके सिद्धि प्राप्त की थी। योगीन्द्र, मुनीन्द्र, कपिल आदि सिद्धेन्द्र और शतक्रतु महेन्द्र वहीं तप करके सिद्धि के भागी हुए हैं। इसी कारण उसे सिद्धाश्रम कहते हैं । वह सभी के लिये दुर्लभ है। मुने ! वहाँ गणेश नित्य निवास करते हैं। वहाँ गणेश की अमूल्य रत्नों की बनी हुई एक सुन्दर प्रतिमा है; जिसकी वैशाखी पूर्णिमा के दिन सभी देवता, नाग, मनुष्य, दैत्य, गन्धर्व, राक्षस, सिद्धेन्द्र, मुनीन्द्र, योगीन्द्र और सनकादि महर्षि पूजा करते हैं । उस अवसर पर वहाँ पार्वती के साथ कल्याणकारी शम्भु, गणों सहित कार्तिकेय और स्वयं प्रजापति ब्रह्मा पधारे। प्रधान-प्रधान नागों के साथ शेषनाग भी तुरंत ही वहाँ आ पहुँचे। फिर सभी देवता, मनु और मुनिगण भी वहाँ आये ।

सभी नरेश प्रसन्नमन से गणेश की पूजा करने के लिये वहाँ उपस्थित हुए। द्वारकावासियों के साथ भगवान् श्रीकृष्ण का भी वहाँ शुभागमन हुआ तथा गोकुलवासियों के साथ नन्द भी पधारे। तदनन्तर सुरसिका, रासेश्वरी और श्रीकृष्ण के प्राणों की अधिदेवता सुन्दरी राधा भी सौ वर्ष व्यतीत हो जाने पर गोलोकवासिनी गोपी-सखियों के साथ पधारीं। वहाँ सुन्दर दाँतोंवाली राधा ने भली-भाँति स्नान करके शुद्ध हो धुली हुई साड़ी और कंचुकी धारण की। फिर भुवनपावनी कान्ता राधा ने अपने चरणकमलों का अच्छी तरह प्रक्षालन किया । तत्पश्चात् वे निराहार रहकर इन्द्रियों को संयमित में करके मणिमण्डप में गयीं। वहाँ उन्होंने श्रीकृष्ण-प्राप्ति की कामना से उत्तम संकल्प का विधान करके भक्तिपूर्वक गङ्गाजल से गणेश को स्नान कराया । इसके बाद जो चारों वेदों, वसु और लोकोंकी माता, ज्ञानियोंकी परा जननी एवं बुद्धिरूपा हैं; भगवती राधा श्वेत पुष्प लेकर सामवेदोक्त प्रकार से अपने पुत्रभूत गणेश का यों ध्यान करने लगीं।

शर्वं लम्बोदरं स्थूलं ज्वलन्तं ब्रह्मतेजसा ।
गजवक्त्रं वह्निवर्णमेकदन्तमनन्तकम् ॥ २५ ॥
सिद्धानां योगिनामेव ज्ञानिनां च गुरोर्गुरुम् ।
ध्यातं मुनीन्द्रैर्देवेन्द्रैर्ब्रह्मेशशेषसंज्ञकैः ॥ २६ ॥
सिद्धेन्द्रैर्मुनिभिः सद्भिर्भगवन्तं सनातनम् ।
ब्रह्मस्वरूपं परमं मङ्गलं मङ्गलालयम् ॥ २७ ॥
सर्वविघ्नहरं शान्तं दातारं सर्वसंपदाम् ।
भवाब्धिमायापोतेन कर्णधारं च कर्मिणाम् ॥ २८ ॥
शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणम् ।
ध्यायेद्ध्यानात्मकं साध्यं भक्तेशं भक्तवत्सलम् ॥ २९ ॥

‘जो खर्व (छोटे कदवाले), लम्बोदर ( तोंदवाले), स्थूलकाय, ब्रह्मतेजसे उद्भासित, हाथी से मुखवाले, अग्निसरीखे कान्तिमान्, एकदन्त और असीम हैं; जो सिद्धों, योगियों और ज्ञानियोंके गुरु-के-गुरु हैं; ब्रह्मा, शिव और शेष आदि देवेन्द्र, मुनीन्द्र, सिद्धेन्द्र, मुनिगण तथा संतलोग जिनका ध्यान करते हैं; जो ऐश्वर्यशाली, सनातन, ब्रह्मस्वरूप, परम मङ्गल, मङ्गलके स्थान, सम्पूर्ण विघ्नोंको हरनेवाले, शान्त, सम्पूर्ण सम्पत्तियोंके दाता, कर्मयोगियोंके लिये भवसागरमें मायारूपी जहाजके कर्णधारस्वरूप शरणागत- दीन-दुःखीकी रक्षामें तत्पर, ध्यानरूप साधना करनेयोग्य, भक्तोंके स्वामी और भक्तवत्सल हैं; उन गणेशका ध्यान करना चाहिये ।’

इस प्रकार ध्यान करके सती राधा ने उस पुष्प को अपने मस्तक पर रखकर पुनः सर्वाङ्गों को शुद्ध करने वाला वेदोक्त न्यास किया। तत्पश्चात् उसी शुभदायक ध्यान द्वारा पुनः ध्यान करके राधा ने उन लम्बोदर के चरणकमल में पुष्पाञ्जलि समर्पित की। फिर गोलोकवासिनी स्वयं श्रीराधिकाजी ने सुगन्धित सुशीतल तीर्थजल, दूर्वा, चावल, श्वेत पुष्प, सुगन्धित चन्दनयुक्त अर्घ्य, पारिजात-पुष्पों की माला, कस्तूरी – केसरयुक्त चन्दन, सुगन्धित शुक्ल पुष्प, सुगन्धयुक्त उत्तम धूप, घृत-दीपक, सुस्वादु रमणीय नैवेद्य, चतुर्विध अन्न, सुपक्व, फल, भाँति-भाँति के लड्डू, रमणीय सुस्वादु पिष्टक, विविध प्रकारके व्यञ्जन, अमूल्य रत्ननिर्मित सिंहासन, सुन्दर दो वस्त्र, मधुपर्क, सुवासित सुशीतल पवित्र तीर्थजल, ताम्बूल, अमूल्य श्वेत चँवर, मणि-मुक्ता-हीरा से सुसज्जित सुन्दर सूक्ष्मवस्त्र द्वारा सुशोभित शय्या, सवत्सा कामधेनु गौ और पुष्पाञ्जलि अर्पण करके अत्यन्त श्रद्धा के साथ षोडशोपचार समर्पित किया। फिर कालिन्दीकुलवासिनी राधा ने ‘ॐ गं गौं गणपतये विघ्नविनाशिने स्वाहा’ गणेश के इस षोडशाक्षर-मन्त्र का, जो श्रेष्ठ कल्पतरु के समान है, एक हजार जप किया। इसके बाद वे भक्तिवश कंधा नीचा करके नेत्रों में आँसू भरकर पुलकित शरीर से परम भक्ति के साथ इस स्तोत्र द्वारा स्तवन करने लगीं।

॥ श्रीराधाकृतं गणेशस्तोत्रम् ॥

॥ राधिकोवाच ॥
परं धाम परं ब्रह्म परेशं परमेश्वरम् ।
विघ्ननिघ्नकरं शान्तं पुष्टं कान्तमनन्तकम् ॥ ५९ ॥
सुरासुरेन्द्रैः सिद्धेन्द्रैः स्तुतं स्तौमि परात्परम् ।
सुरपद्मदिनेशं च गणेशं मङ्गलायनम् ॥ ६० ॥
इदं स्तोत्रं महापुण्यं विघ्नशोकहरं परम् ।
यः पठेत्प्रातरुत्थाय सर्वविघ्नात्प्रमुच्यते ॥ ६१ ॥

श्रीराधिका ने कहा — जो परम धाम, परब्रह्म, परेश, परमेश्वर, विघ्नोंके विनाशक, शान्त, पुष्ट, मनोहर और अनन्त हैं; प्रधान-प्रधान सुर और असुर जिनका स्तवन करते हैं; जो देवरूपी कमल के लिये सूर्य और मङ्गलों के आश्रय स्थान हैं; उन परात्पर गणेश की मैं स्तुति करती हूँ ।

यह उत्तम स्तोत्र महान् पुण्यमय तथा विघ्न और शोक को हरनेवाला है । जो प्रातः काल उठकर इसका पाठ करता है, वह सम्पूर्ण विघ्नों से विमुक्त हो जाता है। (अध्याय १२३)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद त्रयोविंशत्य-धिकशततमोऽध्योयः ॥ १२३ ॥

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