March 15, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 125 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ (उत्तरार्द्ध) एक सौ पच्चीसवाँ अध्याय वसुदेवजी का शंकरजी से भव-तरण का उपाय पूछना, शंकरजी का उन्हें ज्ञानोपदेश देकर राजसूय-यज्ञ करने का आदेश देना, वसुदेवजी द्वारा राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान और यज्ञान्त में सर्वस्व दक्षिणा में देकर उनका द्वारका को लौटना नारदजी ने पूछा — विभो ! गणेशपूजन और राधास्तोत्र से बढ़कर वहाँ कौन-सी रहस्यमयी घटना घटित हुई; उसका मुझसे विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये । श्रीभगवान् बोले — नारद! गणेशपूजन-तीर्थ में जितने देवता, मुनि और योगीन्द्र पधारे हुए थे; वे सभी वटवृक्ष के नीचे समासीन थे । उनमें से शम्भु, ब्रह्मा, शेषनाग और श्रेष्ठ मुनियों से वसुदेव और देवकी ने परमादरपूर्वक यों प्रश्न किया —‘ हे महाभाग ! आप लोग दीनों के बन्धु हैं; अतः शीघ्र ही बताइये कि हम दीनों के लिये इस भवसागर से पार करने वाला कौन-सा उत्तम साधन है ? आप लोग भवसागर से पार करने वाली नौका के नाविक हैं; क्योंकि न तो तीर्थ ही केवल जलमय हैं और न देवगण ही केवल मिट्टी और पत्थर की मूर्तिमात्र होते हैं। जितने यज्ञ, पुण्य, व्रत-उपवास, तप, अनेकविध दान, विप्रों और देवताओं की अर्चनाएँ हैं; ये सभी चिरकाल में कर्ता को पावन बनाती हैं; परंतु वैष्णवजन दर्शन से ही पवित्र कर देते हैं । विष्णुभक्त संतों के पावन चरणकमलों की रज के स्पर्शमात्र से वसुन्धरा तत्काल ही पावन हो जाती है और तीर्थ, समुद्र तथा पर्वत भी पवित्र हो जाते हैं। देवगण भी उन वैष्णवों के पातकरूपी ईंधन का विनाश कर देने वाले दर्शन की अभिलाषा करते हैं । जैसे दूध, दही और रस परम स्वादिष्ट होते हैं; उसी प्रकार ज्ञान परमानन्ददायक होता है। उस ज्ञान को जो ज्ञानी के साहचर्य से नहीं समझ पाता, वह अज्ञानी है । ज्ञानियों के गुरु के भी गुरु भगवन्! जैसे मैं श्रीकृष्ण का पिता और चिरकाल का सङ्गी हूँ; उसी तरह देवकी भी उनकी माता है। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय वसुदेवजी की बात सुनकर स्वयं भगवान् शंकर, जो चारों वेदों भी जनक एवं गुरु हैं, हँस पड़े और इस प्रकार बोले ।’ श्रीमहादेवजी ने कहा — अहो ! ज्ञानियों के संनिकट रहना भी उनके अनादर का ही कारण होता है; जैसे गङ्गा के जल से पवित्र हुए लोग भी (गङ्गा का अनादर करके) सिद्धि के लिये अन्य तीर्थों में जाते हैं। वासुदेव के पिता ये वसुदेव स्वयं पण्डित हैं और अपने पिता वसुस्वरूप ज्ञानी कश्यप के अंश से उत्पन्न हुए हैं । इनकी श्रीकृष्ण में पुत्र – बुद्धि है; इसीलिये ये श्रीकृष्ण के अङ्गभूत हम लोगों से ज्ञान पूछ रहे हैं । तदनन्तर श्रीमहादेवजी ने सर्वकारणकारण भगवान् श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन करके कहा — ‘यदुवंशी वसुदेव ! सर्वेश्वर श्रीकृष्ण ही सबके मूलरूप हैं; अतः राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान करके उसमें अपने पुत्र श्रीकृष्ण की, जो यज्ञ के कारण एवं यज्ञेश हैं, समर्चना करो; फिर विधिपूर्वक दक्षिणा देकर भवसागर से पार हो जाओ ।’ मुने! शिवजी का कथन सुनकर जितेन्द्रिय वसुदेवजी ने सामग्री जुटाकर शुभ मुहूर्त में राजसूय- यज्ञ का अनुष्ठान किया । उस यज्ञ में साक्षात् यज्ञेश और दक्षिणासहित ये यज्ञ वर्तमान थे; अतः देवताओं ने साक्षात् प्रकट होकर वसुदेवजी के हव्य को ग्रहण किया । तदनन्तर जब वसुदेवजी पूर्णाहुति दे चुके; तब श्रीकृष्ण की आज्ञा से भगवान् सनत्कुमार ने उनसे सर्वस्व दक्षिणा में देने के लिये कहा। तब जिनके नेत्र और मुख प्रफुल्लित थे; उन वसुदेवजी ने श्रीसनत्कुमारजी के आदेशानुसार ब्राह्मणों को सर्वस्व दक्षिणारूप में प्रदान कर दिया और ब्राह्मणों के शुभ मुखों द्वारा देवताओं को तृप्त किया। तत्पश्चात् देवगण और मुनिसमुदाय उस रात में अपनी पत्नियों के साथ वहाँ सुखपूर्वक रहे और प्रातः काल होने पर वे सभी श्रीकृष्ण की अनुमति से अपने-अपने स्थान को चले गये । तब सभी यदुवंशी भी रुक्मिणी की दृष्टि पड़ने से अमूल्य रत्नों से परिपूर्ण एवं श्रीकृष्ण द्वारा सुरक्षित द्वारका को प्रस्थान कर गये । (अध्याय १२५) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद पञ्चविंशत्यधिकशततमोऽऽध्यायः ॥ १२५ ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe