March 16, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 126 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ (उत्तरार्द्ध) एक सौ छब्बीसवाँ अध्याय राधा और श्रीकृष्ण का पुनः मिलाप, राधा के पूछने पर श्रीकृष्ण द्वारा अपना तथा राधा का रहस्योद्घाटन श्रीनारायण कहते हैं — नारद! इस प्रकार माधव ने यादवों, देवों, मुनियों तथा अन्यान्य व्यक्तियों और देवियों के साथ गणेश-पूजन का कार्य सम्पन्न किया। तत्पश्चात् वे अपने एक अंश से रुक्मिणी आदि देवियों के साथ रमणीय द्वारकापुरी को चले गये; किंतु स्वयं साक्षात् रूप से सिद्धाश्रम में ही ठहर गये। वहाँ वे गोलोकवासी गोप- सखाओं, नन्द तथा माता यशोदा – गोपी के साथ प्रेमपूर्वक वार्तालाप करके पुनः माता, पिता, गोकुलवासी गोपों तथा बन्धुवर्गों से नीतियुक्त यथोचित वचन बोले । श्रीभगवान् ने कहा — पिताजी ! अब अपने व्रज को लौट जाओ । परम श्रेष्ठ यशस्विनी माता यशोदे ! तुम भी उत्तम गोकुल को जाओ और वहाँ आयु के शेष कालपर्यन्त भोगों का उपभोग करो । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय इतना कहकर भगवान् श्रीकृष्ण माता-पिता की आज्ञा ले राधिका के स्थान को चले गये तथा नन्दजी गोकुल को प्रस्थित हुए। वहाँ पहुँचकर श्रीकृष्ण ने मुस्कराती हुई सुन्दरी राधा को देखा । उनकी तरुणता नित्य स्थिर रहने वाली थी, जिससे उनकी अवस्था द्वादश वर्ष की थी। मोतियों का हार उनकी शोभा बढ़ा रहा था; वे रत्ननिर्मित ऊँचे आसन पर विराजमान थीं। उस समय मुस्कराती हुई असंख्य गोपियाँ हाथों में बेंत लिये उन्हें घेरे हुए थीं। उधर प्राणवल्लभा राधा ने भी दूर से ही श्रीकृष्ण को आते देखा । उनका परम सौन्दर्यशाली सुन्दर बालक-वेष था। वे मन्द मन्द मुस्करा रहे थे। उनके शरीर की कान्ति नवीन मेघ के समान श्याम थी; वे रेशमी पीताम्बर धारण किये हुए थे; उनका सर्वाङ्ग चन्दन से अनुलिप्त था; रत्नों के आभूषण उन्हें सुशोभित कर रहे थे; उनकी शिखा में मयूर – पिच्छ शोभा दे रहा था; वे मालती की माला से विभूषित थे; उनका प्रसन्नमुख मन्द हास्य की छटा बिखेर रहा था; वे साक्षात् भक्तानुग्रहमूर्ति थे तथा मनोहर प्रफुल्ल क्रीडाकमल लिये हुए थे; उनके एक हाथ में मुरली और दूसरे हाथ में सुप्रशस्त दर्पण शोभा पा रहा था। उन्हें देखकर राधा तुरंत ही गोपियों के साथ उठ खड़ी हुईं और परम भक्तिपूर्वक उन परमेश्वर को सादर प्रणाम करके उनकी स्तुति करने लगीं। राधिका बोलीं — नाथ! तुम्हारे मुखचन्द्रको देखकर आज मेरा जन्म लेना सार्थक और जीवन धन्य हो गया तथा मेरे नेत्र और मन परम प्रसन्न हो गये । पाँचों प्राण स्नेहार्द्र और आत्मा हर्षविभोर हो गया; दुर्लभ बन्धुदर्शन दोनों (द्रष्टा और दृश्य ) – के हर्ष का कारण होता है । विरहाग्नि से जली हुई मैं शोकसागर में डूब रही थी । तुमने अपनी पीयूषवर्षिणी दृष्टि से मेरी ओर निहारकर मुझे भली-भाँति अभिषिक्त कर दिया; जिससे मेरा ताप जाता रहा। तुम्हारे साथ रहने पर मैं शिवा, शिवप्रदा, शिवबीजा और शिवस्वरूपा हूँ; किंतु तुमसे वियुक्त हो जाने पर मैं अदृष्ट हो जाती हूँ और मेरी सारी चेष्टाएँ नष्ट हो जाती हैं । तुम्हारे समीप स्थित रहने पर देह शोभासम्पन्न, पवित्र और सर्वशक्तिस्वरूप दीखता है; परंतु तुम्हारे चले जाने पर वह शवरूप हो जाता है। नाथ ! स्त्री – पुरुष का सामान्य वियोग भी अत्यन्त दारुण होता है । यहाँ तो परमात्मा वियोग से पाँचों प्राण शक्तियों के सहित ही निकल जाते हैं । यों कहकर देवी राधिका ने परमात्मा श्रीकृष्ण को अपने आसन पर बैठाया और हर्षपूर्वक उनके चरणों की पूजा की। तत्पश्चात् शोभाशाली श्रीकृष्ण राधा के साथ रत्नसिंहासन पर विराजमान हुए। उस समय गोपियाँ निरन्तर श्वेत चँवर डुलाकर उनकी सेवा कर रही थीं । चन्दना ने श्रीहरि के शरीर में सुगन्धित चन्दन का अनुलेप किया। मुस्कराती हुई रत्नमाला ने श्रीहरि के गले में रत्नमाला पहनायी। सती पद्मावती ने पद्मा द्वारा कमल-पुष्पों से समर्चित चरणकमल में जल, दूब, पुष्प और चन्दनयुक्त अर्घ्य प्रदान किया । मालती ने श्रीहरि की चूड़ा को मालती की माला से सुशोभित किया। सती पार्वती ने चम्पा के पुष्प का पुटक समर्पित किया । पारिजाता ने हर्षमग्न हो श्रीहरि को पारिजात – पुष्प, कपूरयुक्त ताम्बूल और सुवासित शीतल जल निवेदित किया। कदम्बमाला ने कदम्ब – पुष्पों की शुभ माला, प्रफुल्लित क्रीड़ा-कमल और अमूल्य रत्नदर्पण समर्पित किया । सुकोमला कमला ने पूर्वकाल में वरुण द्वारा दिये हुए दोनों सुन्दर वस्त्रों को श्रीहरि के हाथ में ही रख दिया। सुन्दरी वधू ने साक्षात् श्रीहरि को गोरोचनकी-सी आभा वाले एवं मधुर मधु से परिपूर्ण मधुपात्र दिया । सुधामुखी ने भक्तिपूर्वक अमृत से लबालब भरा हुआ अमृतपात्र प्रदान किया। किसी दूसरी गोपी ने प्रफुल्लित मालती- पुष्पों के मालाजाल से विभूषित एवं चन्दनचर्चित पुष्पशय्या तैयार की। वह शय्या एक ऐसे परम मनोहर भवन में सजायी गयी थी, जिसका निर्माण बहुमूल्य रत्नों के सारभाग से हुआ था; श्रेष्ठ मणि, मोती, माणिक्य और हीरों के हार जिसकी विशेष शोभा बढ़ा रहे थे; कस्तूरी और कुंकुमयुक्त वायु जिसे सुगन्धित बना रही थी; जलते हुए सैकड़ों रत्नदीपों से जो उद्दीप्त हो रहा था और नाना प्रकार की वस्तुओं से समन्वित धूपों द्वारा जो निरन्तर धूपित रहता था । वहाँ रतिकरी शय्या का निर्माण करके गोपियाँ हँसती हुई चली गयीं। तब एकान्त में मन को आकर्षित करने वाली उस परम रमणीय शय्या को देखकर राधा-माधव उस पर विराजमान हुए। उस समय सती राधा ने माधव के गले में माला पहनायी, मुख में सुवासित ताम्बूल का बीड़ा दिया; फिर श्यामसुन्दर के वक्षःस्थल पर कस्तूरी-कुंकुमयुक्त चन्दन का अनुलेप किया, उनकी शिखा में चम्पा का सुन्दर पुष्प लगाया, हाथ में सहस्रदलयुक्त क्रीड़ा-कमल दिया और उनके हाथ से मुरली छीनकर उसमें रत्नदर्पण पकड़ा दिया तथा उनके आगे पारिजात का खिला हुआ रुचिर पुष्प रख दिया। तत्पश्चात् जो शान्तिमूर्ति, कमनीय और नायिका के मन को हर लेने वाले हैं तथा मन्द मन्द मुस्करा रहे थे; उन प्रियतम श्रीकृष्ण से राधा एकान्त में मुस्कराती हुई मधुर वचन बोलीं । श्रीराधिका ने कहा — नाथ! जो स्वयं मङ्गलों का भण्डार, सम्पूर्ण मङ्गलों का कारण, मङ्गलरूप तथा मङ्गलों का प्रदाता है, उसके विषय में कुशल- मङ्गल का प्रश्न करना तो निष्फल ही है; तथापि इस समय कुशल पूछना समयानुसार उचित है; क्योंकि लौकिक व्यवहार वेदों से भी बली माना जाता है। इसलिये रुक्मिणीकान्त ! सत्यभामा के प्राणपति ! इस समय कुशल तो है न ? तदनन्तर श्रीराधा ने भगवान् श्रीकृष्ण से उनके स्वरूप तथा अवतार-लीला के सम्बन्ध में प्रश्न किया । तब श्रीकृष्ण बोले — राधे ! जिसे सुनकर मूर्ख हलवाहा भी तत्काल ही पण्डित हो जाता है, उस सर्वश्रेष्ठ आध्यात्मिक ज्ञान का मैं वर्णन करता हूँ, सुनो। राधे ! मैं स्वभाव से ही सब लोकों का स्वामी हूँ, फिर रुक्मिणी आदि महिलाओं की तो बात ही क्या है। मैं कार्य- कारणरूप से पृथक्-पृथक् व्यक्त होता हूँ। मैं स्वयं ज्योतिर्मय हूँ, समस्त विश्वों का एकमात्र आत्मा हूँ और तृण से लेकर ब्रह्मापर्यन्त सम्पूर्ण प्राणियों में व्याप्त हूँ । गोलोक में मैं स्वयं परिपूर्णतम श्रीकृष्णरूप से वर्तमान रहता हूँ और रमणीय क्षेत्र गोकुल के ‘वृन्दावन’ नामक वन में मैं ही राधापति हूँ। उस समय मैं द्विभुज होकर गोपवेष में शिशुरूप से क्रीड़ा करता हूँ; ग्वाले, गोपियाँ और गौएँ ही मेरी सहायक होती हैं। वैकुण्ठ में मैं चतुर्भुजरूप से रहता हूँ; वहाँ मैं ही लक्ष्मी और सरस्वती का प्रियतम हूँ और सदा शान्तरूप से वास करता हूँ । इस प्रकार मैं सनातन परमेश्वर ही दो रूपों में विभक्त हूँ । भूतल पर, श्वेतद्वीप और क्षीरसागर में मानसी, सिन्धुकन्या और मर्त्यलक्ष्मी के जो पति हैं, वह भी मैं ही हूँ और वहाँ भी मैं चतुर्भुजरूप से ही रहता हूँ। मैं स्वयं नारायण ऋषि हूँ और धर्मवक्ता, धर्मिष्ठ तथा धर्म-मार्ग प्रवर्तक सनातन धर्म नर हैं । धर्मिष्ठा तथा पतिव्रता शान्ति लक्ष्मीस्वरूपा है और इस पुण्यक्षेत्र भारतवर्ष में मैं उसका पति हूँ। मैं ही सिद्धेश्वर, सिद्धियों के दाता और साक्षात् कपिल हूँ । सुन्दरि ! इस प्रकार व्यक्तिभेद से मैं नाना रूप धारण करता हूँ। चतुर्भुजरूपधारी मैं ही सदा द्वारका में रुक्मिणी का स्वामी होता हूँ, क्षीरसागर में शयन करने वाला मैं ही सत्यभामा के शुभ भवन में वास करता हूँ तथा अन्यान्य रानियों के महलों में मैं ही पृथक्-पृथक् शरीर धारण करके क्रीड़ा करता हूँ। मैं नारायण ऋषि ही इस अर्जुन का सारथि हूँ। अर्जुन नर- ऋषि है, धर्म का पुत्र है, बलवान् है और मेरे अंश से भूतल पर उत्पन्न हुआ है। उसने पुष्करक्षेत्र में सारथि-कार्य के लिये तपस्या द्वारा मेरी आराधना की है । राधे ! जैसे तुम गोलोक में राधिकादेवी हो, उसी तरह गोकुल में भी हो। तुम्हीं वैकुण्ठ में महालक्ष्मी और सरस्वती हो । क्षीरोदशायी की प्रियतमा मर्त्यलक्ष्मी तुम्हीं हो। धर्म की पुत्रवधू लक्ष्मी-स्वरूपिणी शान्ति के रूप में तुम्हीं वर्तमान हो । भारतवर्ष में कपिल की प्यारी पत्नी सती नाम से भारती तुम्हारा ही नाम है । तुम्हीं मिथिला में सीता विख्यात हो । सती द्रौपदी तुम्हारी ही छाया है। द्वारका में महालक्ष्मी के अंश से प्रकट हुई सती रुक्मिणी के रूप में तुम्हीं वास करती हो । पाँचों पाण्डवों की पत्नी द्रौपदी तुम्हारी कला है। तुम्हीं राम की पत्नी सीता हो; रावण ने तुम्हारा ही अपहरण किया था । सति ! जैसे तुम अपनी छाया और कला से नाना रूपों में प्रकट हो, वैसे ही मैं भी अपने अंश और कला से अनेक रूपों में व्यक्त हूँ। मैं ही परिपूर्णतम परात्पर परमात्मा हूँ। सती राधे ! इस प्रकार मैंने तुम्हें यह सारा अब आध्यात्मिक ज्ञान बता दिया। परमेश्वरि ! तुम मेरे सारे अपराधों को क्षमा कर दो। श्रीकृष्ण का कथन सुनकर राधिका तथा सभी गोपिकाओं को महान् हर्ष हुआ। वे सभी परमेश्वर श्रीकृष्ण को प्रणाम करने लगीं । (अध्याय १२६ ) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद षड्विंशत्यधिकशततमोध्यायः ॥ १२६ ॥ Content is available only for registered users. 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