March 16, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 129 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ (उत्तरार्द्ध) एक सौ उनतीसवाँ अध्याय श्रीकृष्ण के गोलोक-गमन का वर्णन श्रीनारायण कहते हैं — नारद! परिपूर्णतम प्रभु भगवान् श्रीकृष्ण वहाँ तत्काल ही गोकुलवासियों के सालोक्य मोक्ष को देखकर भाण्डीरवन में वटवृक्ष के नीचे पाँच गोपों के साथ ठहर गये। वहाँ उन्होंने देखा कि सारा गोकुल तथा गो-समुदाय व्याकुल है । रक्षकों के न रहने से वृन्दावन शून्य तथा अस्त- व्यस्त हो गया है। तब उन कृपासागर को दया आ गयी। फिर तो, उन्होंने योगधारणा द्वारा अमृत की वर्षा करके वृन्दावन को मनोहर, सुरम्य और गोपों तथा गोपियों से परिपूर्ण कर दिया। साथ ही गोकुलवासी गोपों को ढाढस भी बँधाया । तत्पश्चात् वे हितकर नीतियुक्त दुर्लभ मधुर वचन बोले । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय श्रीभगवान् ने कहा — हे गोपगण ! हे बन्धो ! तुम लोग सुख का उपभोग करते हुए शान्तिपूर्वक यहाँ वास करो; क्योंकि प्रिया के साथ विहार, सुरम्य रासमण्डल और वृन्दावन नामक पुण्यवन में श्रीकृष्ण का निरन्तर निवास तब तक रहेगा, जब तक सूर्य और चन्द्रमा की स्थिति रहेगी। तत्पश्चात् लोकों के विधाता ब्रह्मा भी भाण्डीरवन में आये । उनके पीछे स्वयं शेष, धर्म, भवानी के साथ स्वयं शंकर, सूर्य, महेन्द्र, चन्द्र, अग्नि, कुबेर, वरुण, पवन, यम, ईशान आदि देव, आठों वसु, सभी ग्रह, रुद्र, मुनि तथा मनु — ये सभी शीघ्रतापूर्वक वहाँ आ पहुँचे, जहाँ सामर्थ्यशाली भगवान् श्रीकृष्ण विराजमान थे। तब स्वयं ब्रह्मा ने दण्ड की भाँति भूमि पर लेटकर उन्हें प्रणाम किया और यों कहा । ॥ ब्रह्मवाच ॥ परिपूर्णतम् ब्रह्मस्वरूप नित्यविग्रह । ज्योतिःस्वरूप परम नमोऽस्तु प्रकृतेः पर ॥ १२ ॥ सुनिर्लिप्त निराकार साकार ध्यानहेतुना । स्वेच्छामय परं धाम परमात्मन्नमोऽस्तु ते ॥ १३ ॥ सर्वकार्यस्वरूपेश कारणानां च कारण । ब्रह्मेशशेषदेवेश सर्वेश ते नo ॥ १४ ॥ सरस्वतीश पद्मेश पार्वतीश परात्पर । हे सावित्रीश राधेश रासेश्वर नo ॥ १५ ॥ सर्वेषामादिभूतर्स्त्वं सर्वः सर्वेश्वरस्तथा । सर्वपाता च संहर्ता सृष्टिरूप नo ॥ १६ ॥ त्वत्पादपद्मरजसा धन्या पूता वसुंधरा । शून्यरूपा त्वयि गते हे नाथ परमं पदम् ॥ १७ ॥ यत्पञ्चविंशत्यधिकं वर्षाणां शतकं गतम् । त्यक्त्वेमां स्वपदं यासि रुदतीं विरहातुराम् ॥ १८ ॥ ब्रह्मा बोले — भगवन्! आप परिपूर्णतम ब्रह्मस्वरूप, नित्य विग्रहधारी, ज्योतिः स्वरूप, परमब्रह्म और प्रकृति से परे हैं, आपको मेरा नमस्कार प्राप्त हो । परमात्मन्! आप परम निर्लिप्त, निराकार, ध्यान के लिये साकार, स्वेच्छामय और परमधाम हैं; आपको प्रणाम है। सर्वेश ! आप सम्पूर्ण कार्यस्वरूपों के स्वामी, कारणों के कारण और ब्रह्मा, शिव, शेष आदि देवों के अधिपति हैं, आपको बारंबार अभिवादन है। परात्पर ! आप सरस्वती, पद्मा, पार्वती, सावित्री और राधा के स्वामी हैं; रासेश्वर ! आपको मेरा प्रणाम स्वीकार हो । सृष्टिरूप! आप सबके आदिभूत, सर्वरूप, सर्वेश्वर, सबके पालक और संहारक हैं; आपको नमस्कार प्राप्त हो । हे नाथ! आपके चरणकमल की रज से वसुन्धरा पावन तथा धन्य हुई हैं; आपके परमपद चले जाने पर यह शून्य हो जायगी । इस पर क्रीड़ा करते आपके एक सौ पचीस वर्ष बीत गये। अब आप इस विरहातुरा रोती हुई पृथ्वी को छोड़कर अपने धाम को पधार रहे हैं । ॥ महादेव उवाच ॥ ब्रह्मणा प्रार्थितस्त्वं च समागत्य वसुंधराम् । भूभारहरणं कृत्वा प्रयासि स्वपदं विभो ॥ १९ ॥ त्रैलोक्ये पृथिवी धन्या सद्यः पूता पदाङ्किता । वयं च मुनयो धन्याः साक्षाद्दृष्ट्वा पदाम्बुजम् ॥ २० ॥ ध्यानासाध्यो दुराराध्यो मुनीनामूर्ध्वरेतसाम् । अस्माकमपि यश्चेशः सोऽधुना चाक्षुषो भुवि ॥ २१ ॥ वासुः सर्वनिवासश्च विश्वनि यस्य लोमसु । देवस्तस्य महाविष्णुर्वासुदेवो महीतले ॥ २२ । सुचिरं तपसा लब्धं सिद्धेन्द्राणां सुदुर्लभम् । यत्पादपद्ममतुलं चाक्षुषं सर्वजीविनाम् ॥ २३ ॥ श्रीमहादेवजी ने कहा — विभो ! आप ब्रह्मा की प्रार्थना से भूतल पर अवतीर्ण हो पृथ्वी का भार हरण करके अपने पद को जा रहे हैं। आपके चरणों से अङ्कित हुई भूमि तुरंत ही पावन और तीनों लोकों में धन्य हो गयी। आपके चरणकमल का साक्षात् दर्शन करके हम लोग और मुनिगण धन्य हो गये। जो ऊर्ध्वरेता मुनियों के लिये ध्यान द्वारा असाध्य, दुराराध्य और निष्पाप हैं; वे ही परमेश्वर इस समय भूतल पर हमलोगों के दृष्टिगोचर हुए हैं। जिनके रोमकूपों में विश्वों का निवास है, उन सर्वनिवास प्रभु को वासु कहते हैं, उन वासु-स्वरूप महाविष्णु के जो देव हैं, वे भूतल पर ‘वासुदेव’ नाम से विख्यात हैं। जिनके अनुपम एवं परम दुर्लभ पादपद्म सिद्धेन्द्रों के चिरकाल तक तपस्या करने पर उपलब्ध होते हैं; वे ही आज सब लोगों के नेत्रों के विषय हुए हैं। अनन्त बोले — नाथ! ऐश्वर्यशाली अनन्त तो आप ही हैं, मैं नहीं हूँ । तो आपका कलांश हूँ । विश्व के एकमात्र आधार उस क्षुद्र कूर्म की पीठ पर मैं उसी तरह दिखायी देता हूँ, जैसे हाथी के ऊपर मच्छर । ब्रह्मा, विष्णु और शिवात्मक असंख्यों शेष और कूर्म हैं तथा विश्व भी असंख्य हैं। उन सबके स्वामी स्वयं आप हैं । नाथ ! हम- लोगों का ऐसा सुदिन कहाँ होगा कि स्वप्न में भी जिनका दर्शन दुर्लभ है, वे ही ईश्वर समस्त जीवों के दृष्टिगोचर हो रहे हैं। नाथ! आपने ही वसुन्धरा को पावन बनाया है। अब शोकसागर में डूबती एवं रोती हुई उस पृथ्वी को अनाथ करके आप गोलोक पधार रहे हैं । देवताओं ने कहा — भगवन्! देवगण तथा ब्रह्मा और ईशान आदि देवता जिनकी स्तुति करने में समर्थ नहीं हैं; उनका स्तवन भला, हमलोग क्या कर सकते हैं; अतः आपको नमस्कार है । मुने ! इतना कहकर वे सभी देवता हर्षमग्न हो द्वारकावासी भगवान् का दर्शन करने के लिये शीघ्र ही द्वारकापुरी को प्रयाण कर गये। उनमें जितने ग्वाले थे, वे सभी उत्तम गोलोक को चले गये। पृथ्वी भयभीत हो काँपने लगी । सातों समुद्र मर्यादारहित हो गये । ब्रह्मशाप से द्वारका की शोभा नष्ट हो गयी। तब राधिकापति श्रीकृष्ण उसे त्यागकर कदम्बमूलस्थित मूर्ति में समा गये । उन सभी यदुवंशियों का एरकायुद्ध में विनाश हो गया तथा उनकी पत्नियाँ चिता में जलकर अपने-अपने पतियों की अनुगामिनी बन गयीं । अर्जुन ने हस्तिनापुर जाकर यह समाचार युधिष्ठिर से कह सुनाया। तब राजा युधिष्ठिर भी पत्नी तथा भाइयों के साथ स्वर्ग को चले गये । तदनन्तर जो परम आत्मबल से सम्पन्न, देवाधिदेव, नारायण, प्रभु, श्यामसुन्दर, किशोर अवस्था वाले और रत्ननिर्मित आभूषणों से सुशोभित थे; अग्निशुद्ध वस्त्र जिनका परिधान था; वनमाला जिनकी शोभा बढ़ा रही थी; जो अत्यन्त सुन्दर, शान्त और मनोहर थे; जिनके पद्मा आदि द्वारा वन्दित चरणकमल में व्याध द्वारा छोड़ा हुआ अस्त्र चुभा हुआ था; उन लक्ष्मीकान्त परमेश्वर को कदम्ब के नीचे स्थित देखकर ब्रह्मा आदि सभी देवताओं ने भक्तिपूर्वक उन्हें प्रणाम किया और फिर उनकी स्तुति की। तब श्रीकृष्ण ने उन ब्रह्मा आदि देवों की ओर मुस्कराते हुए देखकर उन्हें अभयदान दिया। पृथ्वी प्रेमविह्वल हो रो रही थी; उसे पूर्णरूप से आश्वासन दिया और व्याध को अपने उत्तम परम पद को भेज दिया। तत्पश्चात् बलदेवजी का परम अद्भुत तेज शेषनाग में, प्रद्युम्न का कामदेव में और अनिरुद्ध का ब्रह्मा में प्रविष्ट हो गया। नारद! देवी रुक्मिणी, जो अयोनिजा तथा साक्षात् महालक्ष्मी थीं; अपने उसी शरीर से वैकुण्ठ को चली गयीं । कमलालया सत्यभामा पृथ्वी में तथा स्वयं जाम्बवतीदेवी जगज्जननी पार्वती में प्रवेश कर गयीं। इस प्रकार भूतल पर जो-जो देवियाँ जिन-जिनके अंश से प्रकट हुई थीं; वे सभी पृथक्-पृथक् अपने अंशी में विलीन हो गयीं। साम्ब का अत्यन्त निराला तेज स्कन्द में, वसुदेव कश्यप में और देवकी अदिति में समा गयीं । विकसित मुख और नेत्रों वाले समुद्र ने रुक्मिणी महल को छोड़कर शेष सारी द्वारकापुरी को अपने अंदर समेट लिया। इसके बाद क्षीरसागर ने आकर पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण का स्तवन किया। उस समय उनके वियोग के कारण उसके नेत्र अश्रुपूर्ण हो गये और वह व्याकुल होकर रोने लगा। मुने ! तत्पश्चात् गङ्गा, सरस्वती, पद्मावती, यमुना, गोदावरी, स्वर्णरेखा, कावेरी, नर्मदा, शरावती, बाहुदा और पुण्यदायिनी कृतमाला — ये सभी सरिताएँ भी वहाँ आ पहुँचीं और सभी ने परमेश्वर श्रीकृष्ण को नमस्कार किया। उनमें जह्नु-तनया गङ्गादेवी विरह-वेदना से कातर तथा अत्यन्त दीन हो रही थीं। उनके नेत्रों में आँसू उमड़ आये थे। वे रोती हुई परमेश्वर श्रीकृष्ण से बोलीं । भागीरथी ने कहा — नाथ! रमण श्रेष्ठ ! आप तो उत्तम गोलोक को पधार रहे हैं; किंतु इस कलियुग में हमलोगों की क्या गति होगी ? तब श्रीभगवान् बोले — जाह्नवि ! पापी लोग तुम्हारे जल में स्नान करने से तुम्हें जिन पापों को देंगे; वे सभी मेरे मन्त्र की उपासना करने वाले वैष्णव के स्पर्श, दर्शन और स्नान से तत्काल ही भस्म हो जायँगे । जहाँ हरि नाम संकीर्तन और पुराणों की कथा होगी; वहाँ तुम इन सरिताओं के साथ जाकर सावधानतया श्रवण करोगी। उस पुराण-श्रवण तथा हरि नाम संकीर्तन से ब्रह्महत्या आदि महापातक जलकर राख हो जाते हैं । वे ही पाप वैष्णव के आलिङ्गन से भी दग्ध हो जाते हैं । जैसे अग्नि सूखी लकड़ी और घास-फूस को जला डालती है; उसी प्रकार जगत् में वैष्णव लोग पापियों के पापों को भी नष्ट कर देते हैं। गङ्गे ! भूतल पर जितने पुण्यमय तीर्थ हैं; वे सभी मेरे भक्तों के पावन शरीरों में सदा निवास करते हैं । मेरे भक्तों की चरण-रज से वसुन्धरा तत्काल पावन हो जाती है, तीर्थ पवित्र हो जाते हैं तथा जगत् शुद्ध हो जाता है। जो ब्राह्मण मेरे मन्त्र के उपासक हैं, मुझे अर्पित करने के बाद मेरा प्रसाद भोजन करते हैं और नित्य मेरे ही ध्यान में तल्लीन रहते हैं; वे मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं। उनके स्पर्शमात्र से वायु और अग्नि पवित्र हो जाते हैं । मेरे भक्तों के चले जाने पर सभी वर्ण एक हो जायँगे और मेरे भक्तों से शून्य हुई पृथ्वी पर कलियुग का पूरा साम्राज्य हो जायगा । इसी अवसर पर वहाँ श्रीकृष्ण के शरीर से एक चार-भुजाधारी पुरुष प्रकट हुआ। उसकी प्रभा सैकड़ों चन्द्रमाओं को लज्जित कर रही थी । वह श्रीवत्स-चिह्न से विभूषित था और उसके हाथों में शङ्ख, चक्र, गदा और पद्म शोभा पा रहे थे । वह एक सुन्दर रथ पर सवार होकर क्षीरसागर को चला गया। तब स्वयं मूर्तिमती सिन्धुकन्या भी उनके पीछे चली गयीं । जगत् के पालनकर्ता विष्णु के श्वेतद्वीप चले जाने पर श्रीकृष्ण के मन से उत्पन्न हुई मनोहरा मर्त्यलक्ष्मी ने भी उनका अनुगमन किया। इस प्रकार उस शुद्ध सत्त्वस्वरूप के दो रूप हो गये। उनमें दक्षिणाङ्ग हो भुजाधारी गोप-बालक के रूप में प्रकट हुआ। वह नूतन जलधर के समान श्याम और पीताम्बर से शोभित था; उसके मुख से सुन्दर वंशी लगी हुई थी; नेत्र कमल के समान विशाल थे; वह शोभा-सम्पन्न तथा मन्द मुस्कान से युक्त था । वह सौ करोड़ चन्द्रमाओं के समान सौन्दर्यशाली, सौ करोड़ कामदेवोंकी-सी प्रभावाला, परमानन्दस्वरूप, परिपूर्णतम, प्रभु, परमधाम, परब्रह्मस्वरूप, निर्गुण, सबका परमात्मा, भक्तानुग्रहमूर्ति, अविनाशी शरीरवाला, प्रकृति से परे और ऐश्वर्यशाली ईश्वर था। योगीलोग जिसे सनातन ज्योतिरूप जानते हैं और उस ज्योति भीतर जिसके नित्य रूप को भक्ति के सहारे समझ पाते हैं । विचक्षण वेद जिसे सत्य, नित्य और आद्य बतलाते हैं, सभी देवता जिसे स्वेच्छामय परम प्रभु कहते हैं, सारे सिद्धशिरोमणि तथा मुनिवर जिसे सर्वरूप कहकर पुकारते हैं, योगिराज शंकर जिसका नाम अनिर्वचनीय रखते हैं, स्वयं ब्रह्मा जिसे कारण के कारणरूप से प्रख्यात करते हैं और शेषनाग जिस नौ प्रकार के रूप धारण करने वाले ईश्वर को अनन्त कहते हैं; छः प्रकार के धर्म ही उनके छः रूप हैं, फिर एक रूप वैष्णवों का, एक रूप वेदों का और एक रूप पुराणों का है; इसीलिये वे नौ प्रकार के कहे जाते हैं। जो मत शंकरका है, उसी मत का आश्रय ले न्यायशास्त्र जिसे अनिर्वचनीय रूप से निरूपण करता है, दीर्घदर्शी वैशेषिक जिसे नित्य बतलाते हैं; सांख्य उन देव को सनातन ज्योतिरूप, मेरा अंशभूत वेदान्त सर्वरूप और सर्वकारण, पतञ्जलिमतानुयायी अनन्त, वेदगण सत्यस्वरूप, पुराण स्वेच्छामय और भक्तगण नित्यविग्रह कहते हैं; वे ही ये गोलोकनाथ श्रीकृष्ण गोकुल में वृन्दावन नामक पुण्यवन में गोपवेष धारण करके नन्द के पुत्ररूप से अवतीर्ण हुए हैं। ये राधा के प्राणपति हैं। ये ही वैकुण्ठ में चार-भुजाधारी महालक्ष्मीपति स्वयं भगवान् नारायण हैं; जिनका नाम मुक्ति-प्राप्ति का कारण है। नारद! जो मनुष्य एक बार भी ‘नारायण’ नाम का उच्चारण कर लेता है; वह तीन सौ कल्पों तक गङ्गा आदि सभी तीर्थों में स्नान करने का फल पा लेता है । तदनन्तर जो शङ्ख, चक्र, गदा और पद्म धारण करते हैं; जिनके वक्ष:स्थल में श्रीवत्स का चिह्न शोभा देता है; मणिश्रेष्ठ कौस्तुभ और वनमाला से जो सुशोभित होते हैं; वेद जिनकी स्तुति करते हैं; वे भगवान् नारायण सुनन्द, नन्द और कुमुद आदि पार्षदों के साथ विमान द्वारा अपने स्थान वैकुण्ठ को चले गये । उन वैकुण्ठनाथ के चले जाने पर राधा के स्वामी स्वयं श्रीकृष्ण ने अपनी वंशी बजायी, जिसका सुरीला शब्द त्रिलोकी को मोह में डालने वाला था । नारद! उस शब्द को सुनते ही पार्वती के अतिरिक्त सभी देवतागण और मुनिगण मूर्च्छित हो गये और उनकी चेतना लुप्त हो गयी । तब जो भगवती विष्णुमाया, सर्वरूपा, सनातनी, परब्रह्मस्वरूपा, परमात्मस्वरूपिणी सगुणा, निर्गुणा, परा और स्वेच्छामयी हैं; वे सती-साध्वी देवी पार्वती सनातन भगवन् श्रीकृष्ण से बोलीं । पार्वती ने कहा — प्रभो ! गोलोकस्थित रासमण्डल में मैं ही अपने एक राधिकारूप से रहती हूँ। इस समय गोलोक रासशून्य हो गया है; अतः आप मुक्ता और माणिक्य से विभूषित रथ पर आरूढ़ हो वहाँ जाइये और उसे परिपूर्ण कीजिये । आपके वक्षःस्थल पर वास करने वाली परिपूर्णतमा देवी मैं ही हूँ । आपकी आज्ञा से वैकुण्ठ में वास करने वाली महालक्ष्मी मैं ही हूँ । वहीं श्रीहरि के वामभाग में स्थित रहने वाली सरस्वती भी मैं ही हूँ। मैं आपकी आज्ञा से आपके मन से उत्पन्न हुई सिन्धुकन्या हूँ । ब्रह्मा के संनिकट रहने वाली अपनी कला से प्रकट हुई वेदमाता सावित्री मेरा ही नाम है। पहले सत्ययुग में आपकी आज्ञा से मैंने समस्त देवताओं के तेजों में अपना वासस्थान बनाया और उससे प्रकट होकर देवी का शरीर धारण किया। उसी शरीर से मेरे द्वारा लीलापूर्वक शुम्भ आदि दैत्य मारे गये। मैं ही दुर्गासुर का वध करके ‘दुर्गा‘, त्रिपुर का संहार करने पर ‘त्रिपुरा’ और रक्तबीज को मारकर ‘रक्तबीजविनाशिनी’ कहलाती हूँ । आपकी आज्ञा से मैं सत्यस्वरूपिणी दक्षकन्या ‘सती’ हुई। वहाँ योगधारण द्वारा शरीर का त्याग करके आपके ही आदेश से पुनः गिरिराजनन्दिनी ‘पार्वती’ हुई; जिसे आपने गोलोकस्थित रासमण्डल में शंकर को दे दिया था । मैं सदा विष्णुभक्ति में रत रहती हूँ; इसी कारण मुझे वैष्णवी और विष्णुमाया कहा जाता है। नारायण की माया होने के कारण मुझे लोग नारायणी कहते हैं । मैं श्रीकृष्ण की प्राणप्रिया, उनके प्राणों की अधिष्ठात्री देवी और वासुस्वरूप महाविष्णु की जननी स्वयं राधिका हूँ । आपके आदेश से मैंने अपने को पाँच रूपों में विभक्त कर दिया; जिससे पाँचों प्रकृति मेरा ही रूप हैं। मैं ही घर-घर में कला और कलांश से प्रकट हुई वेदपत्नियों के रूप में वर्तमान हूँ । महाभाग ! वहाँ गोलोक में मैं विरह से आतुर हो गोपियों के साथ सदा अपने आवास-स्थान में चारों ओर चक्कर काटती रहती हूँ; अतः आप शीघ्र ही वहाँ पधारिये । नारद! पार्वती के वचन सुनकर रसिकेश्वर श्रीकृष्ण हँसे और रत्ननिर्मित विमान पर सवार हो उत्तम गोलोक को चले गये। तब सनातनी विष्णुमाया स्वयं पार्वती ने मायारूपिणी वंशी के नाद से आच्छन्न हुए देवगण को जगाया। वे सभी हरिनामोच्चारण करके विस्मयाविष्ट हो अपने-अपने स्थान को चले गये। श्रीदुर्गा भी हर्षमग्न हो शिव के साथ अपने नगर को चली गयीं । तदनन्तर सर्वज्ञा राधा हर्षविभोर हो आते हुए प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण के स्वागतार्थ गोपियों के साथ आगे आयीं। श्रीकृष्ण को समीप आते देखकर सती राधिका रथ से उतर पड़ीं और सखियों के साथ आगे बढ़कर उन्होंने उन जगदीश्वर के चरणों में सिर झुकाकर प्रणाम किया। ग्वालों और गोपियों के मन में सदा श्रीकृष्ण के आगमन की लालसा बनी रहती थी; अतः उन्हें आया देखकर वे आनन्दमग्न हो गये । उनके नेत्र और मुख हर्ष से खिल उठे । फिर तो वे दुन्दुभियाँ बजाने लगे । उधर विरजा नदीको पार करके जगत्पति श्रीकृष्ण की दृष्टि ज्यों ही राधा पर पड़ी, त्यों ही वे रथ से उतर पड़े और राधिका के हाथ को अपने हाथ में लेकर शतशृङ्ग पर्वत पर घूमने चले गये । वहाँ सुरम्य रासमण्डल, अक्षयवट और पुण्यमय वृन्दावन को देखते हुए तुलसी-कानन में जा पहुँचे । वहाँ से मालतीवन को चले गये। फिर श्रीकृष्ण ने कुन्दवन तथा माधवी-कानन को बायें करके मनोरम चम्पकारण्य को दाहिने छोड़ा। पुनः सुरुचिर चन्दनकानन को पीछे करके आगे बढ़े तो सामने राधिका का परम रमणीय भवन दीख पड़ा। वहाँ जाकर वे राधा के साथ श्रेष्ठ रत्नसिंहासन पर विराजमान हुए। फिर उन्होंने सुवासित जल पिया तथा कपूरयुक्त पान का बीड़ा ग्रहण किया। तत्पश्चात् वे सुगन्धित चन्दन से चर्चित पुष्पशय्या पर सोये और रस-सागर में निमग्न हो सुन्दरी राधा के साथ विहार करने लगे । नारद! इस प्रकार मैंने रमणीय गोलोकारोहण के विषय में अपने पिता धर्म के मुख से जो कुछ सुना था, वह सब तुम्हें बता दिया। अब पुनः और क्या सुनना चाहते हो ? (अध्याय १२९ ) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद गोलोकारोहणं नामैकोनत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १२९ ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe