February 22, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 20 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ बीसवाँ अध्याय मोहवश श्रीहरि के प्रभाव को जानने के लिये ब्रह्माजी के द्वारा गौओं, बछड़ों और बालकों का अपहरण, श्रीकृष्ण द्वारा उन सबकी नूतन सृष्टि, ब्रह्माजी का श्रीहरि के पास आना, सबको श्रीकृष्णमय देख उनकी स्तुति करके पहले के गौओं आदि को वापस देकर अपने लोक को जाना तथा श्रीकृष्ण का घर को पधारना भगवान् श्रीनारायण कहते हैं — नारद! एक दिन बलरामसहित माधव खा-पीकर चन्दन आदि से चर्चित हो ग्वालबालों के साथ वृन्दावन में गये। वहाँ भगवान् कौतूहलवश उन ग्वाल-बालों के साथ क्रीडा करने लगे। इधर ग्वाल-बालों का मन खेल में लगा हुआ था, उधर उन सबकी गौएँ बहुत दूर निकल गयीं। उस समय लोकनाथ ब्रह्मा श्रीकृष्ण का प्रभाव जानने के लिये समस्त गौओं, बछड़ों और ग्वालबालों को भी चुरा ले गये । उनका अभिप्राय जान सर्वज्ञ एवं सर्वस्रष्टा योगीन्द्र श्रीहरि ने योगमाया से पुनः उन सबकी सृष्टि कर ली । दिन भर गौएँ चराकर क्रीडा-कौतुक में मन लगाने वाले श्रीहरि संध्या को बलराम और ग्वालबालों के साथ घर गये। इस प्रकार एक वर्ष तक भगवान् ने ऐसा ही किया । वे प्रतिदिन गौओं, ग्वालबालों तथा बलरामजी के साथ यमुनातट पर आते और संध्या के समय घर को लौट जाते थे। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भगवान् के इस प्रभाव को जानकर ब्रह्माजी का मस्तक लज्जा से झुक गया। वे भाण्डीर वट के नीचे जहाँ श्रीहरि बैठे हुए थे, आये । उन्होंने ग्वालबालों से घिरे हुए श्रीकृष्ण को वहीं देखा, मानो नक्षत्रों के साथ पूर्णिमा के चन्द्रदेव प्रकाशित हो रहे हों । गोविन्द रत्नमय सिंहासन पर बैठे थे और सानन्द मन्द मन्द हँस रहे थे। उनके श्रीअङ्गों में पीताम्बर का परिधान शोभा पा रहा था। वे ब्रह्मतेज से प्रकाशमान थे। उनकी बाँहों में रत्नों के बने हुए बाजूबंद, कलाई में रत्नों के कंगन तथा पैरों में रत्नमय मञ्जीर शोभा दे रहे थे। दो रत्ननिर्मित कुण्डलों की प्रभा से उनके गण्ड-स्थल अत्यन्त उद्दीप्त हो रहे थे । श्यामसुन्द रका श्रीविग्रह करोड़ों कन्दर्पो की लावण्यलीला का धाम था । वे मन को मोहे लेते थे। उनके श्रीअङ्ग चन्दन, अगुरु, कस्तूरी और कुङ्कुम से चर्चित थे। वे पारिजात-पुष्पों की मालाओं से विभूषित थे। उनकी अङ्गकान्ति नूतन जलधर की श्याम शोभा को लज्जित कर रही थी । शरीर में नूतन यौवन का अङ्कुर प्रस्फुटित हो रहा था। मस्तक पर मोरपंख का मुकुट और उसमें मालती की मालाओं का संयोग बड़ा मनोहर जान पड़ता था। अपने अङ्गों की सौन्दर्यमयी दीप्ति से आभूषणों को भी भूषित कर रहे थे । शरत्काल की पूर्णिमा के चन्द्रमा की प्रभा को लूट लेने वाले मुख की कान्ति से वे परम सुन्दर प्रतीत होते थे । ओठ पके बिम्बाफल की लाली को लजा रहे थे । नुकीली नासिका पक्षिराज गरुड़ की चोंच को तिरस्कृत करती थी । नेत्र शरत्काल के मध्याह्न में खिले हुए कमलों की शोभा को छीने लेते थे । मुक्ता-पङ्क्तियों की शोभा को निन्दित करनेवाली दन्त-पङ्क्ति से उनके मुख की मनोहरता बढ़ गयी थी । मणिराज कौस्तुभ की दिव्य दीप्ति से वक्षःस्थल उद्भासित हो रहा था। उन परिपूर्णतम शान्तस्वरूप परमेश्वर राधाकान्त को देखकर ब्रह्माजी ने अत्यन्त विस्मित होकर प्रणाम किया। वे बार-बार उन्हें देखने और प्रणाम करने लगे। उन्होंने अपने हृदयकमल में जिस रूप को देखा था, वही उन्हें बाहर भी दिखायी दिया। जो मूर्ति सामने थी, वही पीछे और अगल-बगल में भी दृष्टिगोचर हुई। मुने! वहाँ वृन्दावन में सब कुछ श्रीकृष्ण के ही तुल्य देख जगद्गुरु ब्रह्मा उसी रूप का ध्यान करते हुए वहाँ बैठ गये । गौएँ, बछड़े, बालक, लता, गुल्म और वीरुध आदि सारा वृन्दावन ब्रह्माजी को श्यामसुन्दर के ही रूप में दिखायी दिया । यह परम आश्चर्य देखकर ब्रह्माजी ने फिर ध्यान लगाया। अब उन्हें सारी त्रिलोकी श्रीकृष्ण के सिवा और कुछ भी नहीं दिखायी दी। कहाँ गये वृक्ष ? कहाँ हैं पर्वत ? कहाँ गयी पृथ्वी ? कहाँ हैं समुद्र ? कहाँ देवता ? कहाँ गन्धर्व ? कहाँ मुनीन्द्र और मानव ? कहाँ आत्मा ? कहाँ जगत् का बीज तथा कहाँ स्वर्ग और गौएँ हैं ? श्रीहरि की माया से ब्रह्माजी ने सब कुछ अपनी आँखों से देखा और सबको कृष्णमय पाया । कहाँ जगदीश्वर श्रीकृष्ण और कहाँ माया की विभूतियाँ ? सबको श्रीकृष्णमय देखकर ब्रह्माजी कुछ भी बोलने में असमर्थ हो गये – किस तरह स्तुति करूँ ? क्या करूँ ? इस प्रकार मन-ही- मन विचार करके जगद्धाता ब्रह्मा वहीं बैठकर जप करने को उद्यत हुए। उन्होंने सुखपूर्वक योगासन लगाकर दोनों हाथ जोड़ लिये । उनके सारे अङ्ग पुलकित हो गये । नेत्रों से अश्रुधारा बहने लगी और वे अत्यन्त दीन के समान हो गये । तदनन्तर उन्होंने इडा, सुषुम्णा, मध्या, पिङ्गला, नलिनी और धुरा – इन छः नाड़ियों को प्रयत्नपूर्वक योग द्वारा निबद्ध किया। तत्पश्चात् मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध और आज्ञा – इन छः चक्रों को निबद्ध किया। फिर कुण्डलिनी द्वारा एक-एक चक्र का लङ्घन कराते हुए क्रमशः छहों चक्रों का भेदन करके विधाता उसे ब्रह्मरन्ध्र में ले आये । तदनन्तर उन्होंने ब्रह्मरन्ध्र को वायु से पूर्ण किया । प्राणवायु को वहाँ निबद्ध करके पुनः उसे क्रमशः हृदयकमल में मध्या नाड़ी के पास ले आये। उस वायु को घुमाकर विधाता ने मध्या नाड़ी के साथ संयुक्त कर दिया। ऐसा करके वे निष्पन्द (निश्चल) हो गये और पूर्वकाल में श्रीहरि ने जिसका उपदेश दिया था, उस परम उत्तम दशाक्षर मन्त्र का जप करने लगे। मुने! श्रीकृष्ण के चरणारविन्दों का ध्यान करते हुए एक मुहूर्त तक जप करने के पश्चात् ब्रह्मा ने अपने हृदयकमल में उनके सर्वतेजोमय स्वरूप को देखा। उस तेज के भीतर अत्यन्त मनोरम रूप था, दो भुजाएँ, हाथ में मुरली और पीताम्बर-भूषित श्रीअङ्ग । कानों के मूलभाग में पहने ये मकराकृति कुण्डल अपनी उज्ज्वल आभा बिखेर रहे थे। प्रसन्न मुखारविन्द पर मन्द हास्य की छटा छा रही थी। भगवान् भक्त पर अनुग्रह करने के लिये कातर जान पड़ते थे । ब्रह्माजी ने ब्रह्मरन्ध्र में जिस रूप को देखा और हृदयकमल में जिसकी झाँकी की, वही रूप बाहर भी दृष्टिगोचर हुआ। वह परम आश्चर्य देखकर उन्होंने उन परमेश्वर की स्तुति की । मुने! पूर्वकाल में एकार्णव के जल में शयन करने वाले श्रीहरि ने ब्रह्माजी को जिस स्तोत्र का उपदेश दिया था, उसी के द्वारा विधाता ने भक्तिभाव से मस्तक झुकाकर उन परमेश्वर का विधिवत् स्तवन किया। ॥ ब्रह्मोवाच ॥ सर्वस्वरूपं सर्वेशं सर्वकारणकारणम् । सर्वानिर्वचनीयं तं नमामि शिवरूपिणम् ॥ ३७ ॥ नवीनजलदाकारं श्यामसुन्दरविग्रहम् । स्थितं जन्तुषु सर्वेषु निर्लिप्तं साक्षिरूपिणम् ॥ ३८ ॥ स्वात्मारामं पूर्णकामं जगद्व्यापिजगत्परम् । सर्वस्वरूपं सर्वेषां बीजरूपं सनातनम् ॥ ३९ ॥ सर्वाधारं सर्ववरं सर्वशक्तिसमन्वितम् । सर्वाराध्यं सर्वगुरुं सर्वमङ्गलकारणम् ॥ ४० ॥ सर्वमंत्रस्वरूपं च सर्वसंपत्करं वरम् । शक्तियुक्तमयुक्तं च स्तौमि स्वेच्छामयं विभुम् ॥ ४१ ॥ शक्तीशं शक्तिबीजं च शक्तिरूपधरं वरम् । संसारसागरे घोरे शक्तिनौकासमन्वितम् ॥ ४२ ॥ कृपालुं कर्णधारं च नमामि भक्तवत्सलम् । आत्मस्वरूपमेकांतं लिप्तं निर्लिप्तमेव च ॥ ४३ ॥ सगुणं निर्गुणं ब्रह्म स्तौमि स्वेच्छास्वरूपिणम् । सर्वेन्द्रियादिदेवं तमिन्द्रियालयमेव च ॥ ४४ ॥ सर्वेन्द्रियस्वरूपं च विराड्रूपं नमाम्यहम् । वेदं च वेदजनकं सर्ववेदाङ्गरूपिणम् ॥ ४५ ॥ सर्वमन्तस्वरूपं च नमामि परमेश्वरम् । सारात्सारतरं द्रव्यमपूर्वमनिरूपिणम् ॥ ४६ ॥ स्वतन्त्रमस्वतन्त्रं च यशोदानन्दनं भजे । सन्तं सर्वशरीरेषु तमदृष्टमनूहकम् ॥ ४७ ॥ ध्यानासाध्यं विद्यमानं योगीन्द्राणां गुरुं भजे । रासमण्डलमध्यस्थं रासोल्लाससमुत्सुकम् ॥ ४८ ॥ गोपीभिः सेव्यमानं च तं धरेशं नमाम्यहम् । सतां सदैव सन्तं तमसन्तमसतामपि ॥ ४९ ॥ योगीशं योगसाध्यं च नमामि शिवसेवितम् । मन्त्रबीजं मन्त्रराजं मन्त्रदं फलदं फलम् ॥ ५० ॥ मन्त्रसिद्धिस्वरूपं तं नमामि च परात्परम् । सुखं दुःखं च सुखदं दुःखदं पुण्यमेव च ॥ ५१ ॥ पुण्यप्रदं च शुभदं शुभबीजं नमाम्यहम् । इत्येवं स्तवनं कृत्वा दत्त्वा गाश्च स बालकान् ॥ ५२ ॥ निपत्य दण्डवद्भूमौ रुरोद प्रणनाम च । ददर्श चक्षुरुन्मील्य विधाता जगतां मुने ॥ ५३ ॥ ब्रह्मणा च कृतं स्तोत्रं नित्यं भक्त्या च यः पठेत् । इह लोके सुखं भुक्त्वा यात्यन्ते श्रीहरेः पदम् ॥ ५४ ॥ लभते दास्यमतुलं स्थानमीश्वरसन्निधौ । लब्ध्वा च कृष्णसान्निध्यं पार्षदप्रवरो भवेत् ॥ ५५ ॥ ब्रह्माजी बोले — जो सर्वस्वरूप, सर्वेश्वर, समस्त कारणों के भी कारण तथा सबके लिये अनिर्वचनीय हैं; उन कल्याणस्वरूप श्रीकृष्ण को मैं नमस्कार करता हूँ। जिनका श्रीविग्रह नवीन मेघमालाके समान श्याम एवं सुन्दर है, जो सम्पूर्ण जीवोंमें स्थित रहकर भी उनसे लिप्त नहीं होते, जो साक्षीस्वरूप हैं, स्वात्माराम, पूर्णकाम, विश्वव्यापी, विश्वसे परे, सर्वस्वरूप, सबके बीजरूप और सनातन हैं; जो सर्वाधार, सबमें विचरनेवाले, सर्वशक्तिसम्पन्न, सर्वाराध्य, सर्वगुरु तथा सर्वमङ्गलकारण हैं । सम्पूर्ण मन्त्र जिनके स्वरूप हैं, जो समस्त सम्पदाओंकी प्राप्ति करानेवाले और श्रेष्ठ हैं; जिनमें शक्तिका संयोग और वियोग भी है; उन स्वेच्छामय प्रभु की मैं स्तुति करता हूँ। जो शक्ति के स्वामी, शक्ति के बीज, शक्तिरूपधारी तथा घोर संसार-सागर में शक्तिमयी नौका से युक्त हैं; उन भक्तवत्सल कृपालु कर्णधार को मैं नमस्कार करता हूँ। जो आत्मस्वरूप, एकान्तमय, लिप्त, निर्लिप्त, सगुण और निर्गुण ब्रह्म हैं; उन स्वेच्छामय परमात्मा की मैं स्तुति करता हूँ। जो सम्पूर्ण इन्द्रियों के अधिदेवता, आवासस्थान और सर्वेन्द्रिय-स्वरूप हैं; उन विराट् परमेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ। जो वेद, वेदों के जनक तथा सर्ववेदाङ्गस्वरूप हैं; उन सर्वमन्त्रमय परमेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ। जो सार से सारतर द्रव्य, अपूर्व, अनिर्वचनीय, स्वतन्त्र और अस्वतन्त्र हैं; उन यशोदानन्दन का मैं भजन करता हूँ। जो सम्पूर्ण शरीरों में शान्तरूप से विद्यमान हैं, किसी के दृष्टिपथ में नहीं आते, तर्क के अविषय हैं, ध्यान से वश में होने वाले नहीं हैं तथा नित्य विद्यमान हैं; उन योगीन्द्रों के भी गुरु गोविन्द का मैं भजन करता हूँ। जो रासमण्डल के मध्यभाग में विराजमान होते हैं, रासोल्लास के लिये सदा उत्सुक रहते हैं तथा गोपाङ्गनाएँ सदा जिनकी सेवा करती हैं; उन राधावल्लभ को मैं नमस्कार करता हूँ। जो साधु पुरुषों की दृष्टि में सदैव सत् और असाधु पुरुषों के मत में सदा ही असत् हैं, भगवान् शिव जिनकी सेवा करते हैं; उन योगसाध्य योगीश्वर श्रीहरि को मैं प्रणाम करता हूँ। जो मन्त्रबीज, मन्त्रराज, मन्त्रदाता, फलदाता, फलरूप, मन्त्रसिद्धिस्वरूप तथा परात्पर हैं; उन श्रीकृष्ण को मैं नमस्कार करता हूँ । जो सुख – दुःख, सुखद-दुःखद, पुण्य, पुण्यदायक, शुभद और शुभ बीज हैं; उन परमेश्वरको मैं प्रणाम करता हूँ। इस प्रकार स्तुति करके ब्रह्माजी ने गौओं और बालकों को लौटा दिया तथा पृथ्वी पर दण्ड की भाँति पड़कर रोते हुए प्रणाम किया । मुने! तदनन्तर जगत्स्रष्टा ने आँखें खोलकर श्रीहरि के दर्शन किये। जो ब्रह्माजी के द्वारा किये गये इस स्तोत्र का प्रतिदिन भक्तिभाव से पाठ करता है, वह इहलोक में सुख भोगकर अन्त में श्रीहरि के धाम में जाता है । वहाँ उसे अनुपम दास्यसुख तथा उन परमेश्वर के निकट स्थान प्राप्त होता है । श्रीकृष्ण का सांनिध्य पाकर वह पार्षद-शिरोमणि बन जाता है । भगवान् नारायण कहते हैं — तदनन्तर जगत्-विधाता ब्रह्मा जब ब्रह्मलोक में चले गये, तब भगवान् श्रीकृष्ण ग्वालबालों के साथ अपने घर को गये । उस दिन गौओं, बछड़ों और ग्वालबालों ने एक वर्ष के बाद अपने घर पर पदार्पण किया था; किंतु श्रीकृष्ण की माया से उन सबने उस एक वर्ष के अन्तर को एक दिन का ही अन्तर समझा । गोप और गोपियाँ उस समय कुछ भी अनुमान न लगा सकीं। ( पहले के मायारचित बालकों में और आज के वास्तविक बालकों में उन्हें कोई अन्तर नहीं जान पड़ा।) योगी के लिये तो क्या नया और क्या पुराना, सारा जगत् कृत्रिम ही है । इस प्रकार श्रीकृष्ण का यह सारा शुभ चरित्र कहा गया – जो सुखद, मोक्षप्रद, पुण्यमय तथा सर्वकाल में सुख देनेवाला है। ( अध्याय २०) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे नारायणनारदसंवादे गोवत्सबालकहरणप्रस्तावो नाम विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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