ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 21
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
इक्कीसवाँ अध्याय
नन्द द्वारा इन्द्रयाग की तैयारी, श्रीकृष्ण द्वारा इसके विषय में जिज्ञासा, नन्दजी का उत्तर और श्रीकृष्ण द्वारा प्रतिवाद, श्रीकृष्ण की आज्ञा के अनुसार इन्द्र का यजन न करके गोपों द्वारा ब्राह्मणों और गिरिराज का पूजन, उत्सव की समाप्ति पर इन्द्र का कोप, नन्द द्वारा इन्द्र की स्तुति, श्रीकृष्ण का नन्द को इन्द्र की स्तुति से रोककर सब व्रजवासियों को गौओंसहित गोवर्धन की गुफा में स्थापित करके पर्वत को छाते के डंडे की भाँति उठा लेना; इन्द्र, देवताओं तथा मेघों का स्तम्भन कर देना, पराजित इन्द्र द्वारा श्रीकृष्ण की स्तुति, श्रीकृष्ण का उन्हें विदा करके पर्वत को स्थापित कर देना तथा नन्द द्वारा श्रीकृष्ण का स्तवन

भगवान् नारायण कहते हैं — मुने! एक दिन आनन्दयुक्त नन्द ने व्रज में इन्द्रयज्ञ की तैयारी करके सब ओर ढिंढोरा पिटवाया। उस समय सबको यह संदेश दिया गया कि जो-जो इस नगर में गोप, गोपी, बालक, बालिका, ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र निवास करते हैं; वे सब लोग भक्तिपूर्वक दही, दूध, घी, तक्र, माखन, गुड़ और मधु आदि सामग्री लेकर इन्द्र की पूजा करें। इस प्रकार घोषणा कराकर उन्होंने स्वयं ही प्रसन्नतापूर्वक सुविस्तृत रमणीय स्थान में यष्टिका-आरोपण किया (ध्वजा के लिये बाँस गड़वाया ) । उसमें रेशमी वस्त्र और मनोहर मालाएँ लगवायीं । चन्दन, अगुरु, कस्तूरी और कुङ्कुम के द्रव से उस यष्टि को चर्चित किया गया ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

नन्दजी ने स्नान और नित्यकर्म करके भक्तिभाव से दो धुले हुए वस्त्र धारण किये तथा पैर धोकर वे सोने के पीढ़े पर बैठे। उस समय नाना प्रकार के पात्रों के साथ ब्राह्मण, पुरोहित, गोप, गोपी, बालिका तथा बालक उपस्थित हुए। इसी बीच में वहाँ नगर-निवासी भी बहुत सामान एकत्र करके अनेक प्रकार की भेंट-पूजा लिये आ पहुँचे । तदनन्तर ब्रह्मतेज से जाज्वल्यमान, वेद-वेदाङ्गों के पारङ्गत विद्वान् एवं शान्त-स्वभाव – गर्ग, जैमिनि, कृष्णद्वैपायन आदि बहुत-से मुनिगण शिष्योंसहित वहाँ पधारे। और भी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, बन्दी, भिक्षुक आदि आये । गोपराज नन्द ने उठकर सभी का यथा-योग्य प्रणामादि द्वारा स्वागत-सत्कार किया । तत्पश्चात् यष्टि के समीप ही निपुण रसोइया ब्राह्मण पाक करने लगे । रत्नद्वीपों की तथा धूप की जगमगाहट और सुगन्धि चारों ओर फैल गयी। पुष्पमालाओं से स्थान सुसज्जित हो गये । भाँति-भाँति की मिठाई, पक्वान्न, मीठे फल, हजारों- लाखों घड़े दूध, दही, घृत, मधु, मक्खन आदि इकट्ठे हो गये । सुरीले बाजे बजने लगे । नाना प्रकार के सोने-चाँदी के पात्र, श्रेष्ठ वस्त्र, आभूषण, स्वर्णपीठ आदि लाये गये। सभी चीजें अगणित थीं । नृत्यगीत होने लगे ।

इसी बीच बलशाली बलराम तथा ग्वाल-बालों के साथ साक्षात् श्रीहरि शीघ्रतापूर्वक वहाँ आये। उन्हें देखकर सब लोग हर्ष से खिल उठे और उठकर खड़े हो गये । श्रीकृष्ण क्रीडास्थान से लौटकर आ रहे थे । उनका शान्त सुन्दर विग्रह बड़ा मनोहर था । विनोद की साधनभूत मुरली, वेणु और शृङ्ग नामक वाद्यों की ध्वनि उनके साथ सुनायी देती थी । रत्नों के सार तत्त्व से निर्मित आभूषणों तथा कौस्तुभमणि से वे विभूषित थे। उनका श्याम मनोहर शरीर अगुरु एवं चन्दनपङ्क से चर्चित था। वे रत्नमय दर्पण में शरद् ऋतु के मध्याह्नकाल में प्रफुल्ल कमल के समान अपने मनोहर मुख को देख रहे थे । भालदेश में कस्तूरी की बेंदी के साथ पूर्णिमा के चन्द्रमा की भाँति मनोहर चन्दन लगा था। इससे उनका ललाट चन्द्रदेव से अलंकृत आकाश की भाँति शोभा पा रहा था । श्याम कण्ठ और वक्षःस्थल मालती की माला से उज्ज्वल कान्ति धारण कर रहा था, मानो अत्यन्त निर्मल शरत्कालिक आकाश बगुलों की पंक्ति से अलंकृत हुआ हो । मनोहर पीताम्बर से उनके श्याम विग्रह की अनुपम शोभा हो रही थी, मानो नवीन मेघ विद्युत् की कान्ति से निरन्तर उद्भासित हो रहा हो । मस्तक पर एक ओर झुका हुआ टेढ़ा मोरमुकुट कुन्द के फूलों और गुञ्जाओं की माला से आबद्ध था, मानो आकाश नक्षत्रों तथा इन्द्र-धनुष से सुशोभित हो रहा हो । उनका मुस्कराता हुआ मुख रत्नमय कुण्डलों की दीप्ति से ऐसा दमक रहा था, मानो शरद् ऋतु का प्रफुल्ल कमल सूर्यदेव की किरणों से उद्दीप्त हो रहा हो ।

जगदीश्वर श्रीकृष्ण उनके बीच में रत्नमय सिंहासन पर बैठे, मानो शरत्काल के चन्द्रमा तारामण्डल बीच में भासमान हो रहे हों। वह महोत्सव देखकर नीति-शास्त्र-विशारद श्रीहरि ने पिता से तत्काल ऐसी नीतिपूर्ण बात कही, जो अन्य सब लोगों के लिये दुर्लभ थी ।

श्रीकृष्ण बोले — उत्तम व्रत का पालन करने वाले गोपसम्राट्! आप यहाँ क्या कर रहे हैं ? आपके आराध्य देवता कौन हैं ? इस पूजा का क्या स्वरूप है और इस प्रकार पूजन करने पर कौन-सा फल प्राप्त होता है ? इस फल से कौन-सा साधन सुलभ होता है और उस साधन से भी कौन-सा मनोरथ सिद्ध होता है ? यदि पूजा में भी विघ्न पड़ जाय और देवता रुष्ट हो जायँ तो क्या होता है ? अथवा यदि देवता संतुष्ट हों तो वे इहलोक और परलोक में कौन-सा फल देते हैं ? विप्ररूपधारी श्रीहरि नैवेद्य को साक्षात् ग्रहण करते हैं; अतः ब्राह्मण के संतुष्ट होने पर सब देवता संतुष्ट हो जाते हैं। जो ब्राह्मण के पूजन में लगा हुआ है, उसके लिये देवपूजा की क्या आवश्यकता है ? जिसने ब्राह्मणों की पूजा की है, उसने सम्पूर्ण देवताओं की पूजा सम्पन्न कर ली । देवता को नैवेद्य देकर जो ब्राह्मण को नहीं देता है, उसका वह नैवेद्य भस्मीभूत होता है और पूजन निष्फल हो जाता है । देवता का नैवेद्य यदि ब्राह्मण को दिया जाय तो उस दान से वह निश्चय ही अक्षय हो जाता है और उस अवस्था में देवता संतुष्ट होकर दाता को अभीष्ट वरदान दे अपने धाम को जाते हैं ।

जो मूढ़ देवता को नैवेद्य अर्पित करके ब्राह्मण के दिये बिना स्वयं खा लेता है, वह दत्तापहारी (देकर छीन लेनेवाला) है और देवता की वस्तु खाकर नरक में पड़ता है। जो भगवान् विष्णु को अर्पित न किया गया हो, वह अन्न विष्ठा और जलमूत्र के समान है । यह क्रम सभी के लिये है; परंतु ब्राह्मणों के लिये विशेषरूप से इस पर ध्यान देना उचित है । यदि नैवेद्य अथवा भोज्य वस्तु देवता को न देकर ब्राह्मण को दे दी गयी तो देवता ब्राह्मण के मुख में ही उसे खाकर संतुष्ट हो स्वर्गलोक को लौट जाते हैं; अतः पिताजी! आप सारी शक्ति लगाकर ब्राह्मणों का पूजन कीजिये; क्योंकि वे इहलोक और परलोक में भी उत्तम फल के दाता हैं। जो श्रीहरि की आराधना करनेवाले ब्राह्मण हैं, वे उन्हें प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं। हरिभक्त ब्राह्मणों का प्रभाव श्रुति में दुर्लभ है। उनके चरणकमलों की धूलि से पृथ्वी तत्काल पवित्र हो जाती है। उनका जो चरणचिह्न है, उसी को तीर्थ कहा गया है। उनके स्पर्शमात्र से तीर्थों का पाप नष्ट हो जाता है। उनके आलिङ्गन, श्रेष्ठ वार्तालाप, दर्शन और स्पर्श से भी मनुष्य समस्त पापों से छुटकारा पा जाता है। सम्पूर्ण तीर्थों में भ्रमण और स्नान करने से जो पुण्य प्राप्त होता है, वह हरिभक्त ब्राह्मण के दर्शनमात्र से सुलभ हो जाता है।

मनुष्य को चाहिये कि वह पुण्य के लिये समस्त जीवों को अन्न दे; परंतु विशिष्ट जीवों को अन्न-दान करने से विशिष्ट फल की प्राप्ति होती है । भगवान् विष्णु ब्राह्मणों के भक्त हैं। उन्हें उत्तम वस्तु का दान करने से दाता को जो फल मिलता है, वह निश्चय ही भक्त ब्राह्मण को भोजन कराने मात्र से मिल जाता है । भक्त के संतुष्ट होने पर श्रीहरि संतुष्ट होते हैं और श्रीहरि के संतुष्ट होने पर सब देवता सिद्ध हो जाते हैं। ठीक उसी तरह जैसे वृक्ष की जड़ सींचने से उसकी शाखाएँ भी पुष्ट होती हैं। यदि ये सब संचित द्रव्य आप किसी एक देवता को देते हैं तो अन्य सब देवता रुष्ट हो जायँगे। उस दशा में एक देवता क्या करेगा ? मेरी सम्मति तो यह है कि यहाँ जितनी वस्तुएँ प्रस्तुत हैं, उनका आधा भाग आप श्रीगोवर्धनदेव को दे दीजिये । वे गौओं की सदा वृद्धि करते हैं; इसलिये उनका नाम ‘गोवर्धन’ हुआ है । पिताजी ! इस भूतल पर गोवर्धन के समान पुण्यवान् दूसरा कोई नहीं है; क्योंकि वे नित्यप्रति गौओं को नयी-नयी घास देते हैं।

तीर्थस्थानेषु यत्पुण्यं यत्पुण्यं विप्रभोजने ।
सर्वव्रतोपवासेषु सर्वेष्वेव तपःसु च ॥ ८९ ॥
यत्पुण्यं च महादाने यत्पुण्यं हरिसेवने ।
भुवः पर्यटने यत्तु सर्ववाक्येषु यद्भवेत् ॥ ९० ॥
यत्पुण्यं सर्वयज्ञेषु दीक्षायां च लभेन्नरः ।
तत्पुण्यं लभते प्राज्ञो गोभ्यो दत्त्वा तृणानि च ॥ ९१ ॥

तीर्थ-स्थानों में जाकर स्नान-दान से जो पुण्य प्राप्त होता है; ब्राह्मणों को भोजन कराने से जिस पुण्य की प्राप्ति होती है, सम्पूर्ण व्रत-उपवास, सब तपस्या, महादान तथा श्रीहरि की आराधना करने पर जो पुण्य सुलभ होता है, सम्पूर्ण पृथ्वी की परिक्रमा, सम्पूर्ण वेद-वाक्यों के स्वाध्याय तथा समस्त यज्ञों की दीक्षा ग्रहण करने पर मनुष्य जिस पुण्य को पाता है; वही पुण्य बुद्धिमान् मानव गौओं को देकर पा लेता है ।

भुक्तवन्तीं तृणं यश्च गां वारयति कामतः ।
ब्रह्महत्या भवेत्तस्य प्रायश्चित्ताद्विशुध्यति ॥ ९२ ॥
सर्वे देवा गवा मङ्गे तीर्थानि तत्पदेषु च ।
तद्गुह्येषु स्वयं लक्ष्मीस्तिष्ठत्येव सदा पितः ॥ ९३ ॥
गोष्पदाक्तमृदा यो हि तिलकं कुरुते नरः ।
तीर्थस्नातो भवेत्सद्यो जयस्तस्य पदेपदे ॥ ९४ ॥
गावस्तिष्ठंति यत्रैव तत्तीर्थं परिकीर्तितम् ।
प्राणांस्त्यक्ता नरस्तत्र सद्यो मुक्तो भवेद्ध्रुवम् ॥ ९५ ॥
ब्राह्मणानां गवामङ्गं यो हन्ति मानवाधमः ।
ब्रह्महत्यासमं पापं भवेत्तस्य न संशयः ॥ ९६ ॥
नारायणांशान्विप्रांश्च गाश्च ये घ्नन्ति मानवाः ।
कालसूत्रं च ते यान्ति यावच्चन्द्रदिवाकरौ ॥ ९७ ॥

जो घास चरती हुई गाय को स्वेच्छापूर्वक चरने से रोकता है, उसे ब्रह्महत्या का पाप लगता है तथा वह प्रायश्चित्त करने पर ही शुद्ध होता है । पिताजी! सब देवता गौओं के अङ्गों में, सम्पूर्ण तीर्थ गौओं के पैरों में तथा स्वयं लक्ष्मी उनके गुह्य स्थानों (मल-मूत्र स्थानों ) – में सदा वास करती हैं । जो मुनष्य गाय के पद-चिह्न से युक्त मिट्टी द्वारा तिलक करता है, उसे तत्काल तीर्थ-स्नान का फल मिलता है और पग-पग पर उसकी विजय होती है। गौएँ जहाँ भी रहती हैं, उस स्थान को तीर्थ कहा गया है। वहाँ प्राणों का त्याग करके मनुष्य तत्काल मुक्त हो जाता है, इसमें संशय नहीं है। जो नराधम ब्राह्मणों तथा गौओं के शरीर पर प्रहार करता है; नि:संदेह उसे ब्रह्महत्या के समान पाप लगता है। जो नारायण के अंशभूत ब्राह्मणों गौओं का वध करते हैं, वे मनुष्य जब तक चन्द्रमा तथा और सूर्य की सत्ता है, तब तक के लिये कालसूत्र नामक नरक में जाते हैं ।

नारद! ऐसा कहकर श्रीकृष्ण चुप हो गये । तब आनन्दयुक्त नन्द ने मुस्कराते हुए उनसे कहा ।

नन्द बोले — बेटा! यह महात्मा महेन्द्र की पूजा है, जो पूर्व-परम्परा से चली आ रही है। यह सुवृष्टि का साधन है और इससे सब प्रकार के मनोहर शस्यों की उत्पत्ति ही साध्य है । शस्य ही प्राणियों प्राण हैं। शस्य से ही जीवधारी जीवन-निर्वाह करते हैं। इसलिये व्रजवासी लोग पूर्व पीढ़ियों के क्रम से महेन्द्र की पूजा करते चले आ रहे हैं। यह महान् उत्सव वर्ष के अन्त में होता है । विघ्न-बाधाओं की निवृत्ति और कल्याण की प्राप्ति ही इसका उद्देश्य है ।

नन्दजी की यह बात सुनकर बलरामसहित श्रीकृष्ण जोर-जोर से हँसने लगे और पुनः प्रसन्नतापूर्वक पिता से बोले ।

श्रीकृष्ण ने कहा — ‘ तात ! आज मैंने आपके मुख से बड़ी विचित्र और अद्भुत बात सुनी है । इसका कहीं भी निरूपण नहीं किया गया है। कि इन्द्र से वृष्टि होती है। आज आपके मुख से अपूर्व नीतिवचन सुनने को मिला है। सूर्य से जल उत्पन्न होता है और जल से शस्य एवं वृक्ष उत्पन्न होते और बढ़ते हैं। उनसे अन्न और फल पैदा होते हैं तथा उन अन्नों और फलों से जीवधारी जीवन-निर्वाह करते हैं । सूर्य अपनी किरणों द्वारा जो धरती का जल सोख लेते हैं, वर्षाकाल में उसी जल का उनसे प्रादुर्भाव होता है। सूर्य और मेघ आदि सबका विधाता द्वारा निरूपण होता है। पञ्चाङ्गों के अनुसार जिस वर्ष में जो मेघ गज और समुद्र माने गये हैं, जो शस्याधिपति राजा और मन्त्री निश्चित किये गये हैं; उन सबका विधाता द्वारा ही निरूपण हुआ है। प्रत्येक वर्ष में जल, शस्य तथा तृणों की आढक-संख्या निश्चित की जाती है, उस निश्चय के अनुसार वर्ष-वर्ष में, युग-युग में और कल्प-कल्प में वे सारी बातें घटित होती हैं । ईश्वर की इच्छा से ही जल आदि का आविर्भाव होता है । उसमें कोई बाधा नहीं पड़ती ।

तात ! भूत, वर्तमान और भविष्य तथा महान्, क्षुद्र और मध्यम — जिस कर्म का विधाता ने निरूपण किया है, उसका कौन निवारण कर सकता है ? ईश्वर की आज्ञा से ही ब्रह्माजी ने सम्पूर्ण चराचर जगत् का निर्माण किया है। पहले भोजन की व्यवस्था होती है, उसके बाद जीव प्रकट होता है ।

अभ्यासात्स स्वभावो हि स्वभावात्कर्म एव च ।
जायते कर्मणां भोगो जीविनां सुखदुःखयोः ॥ ११४ ॥

बारंबार ऐसा होने से ही इस नियत व्यवस्था को स्वभाव कहते हैं । स्वभाव से कर्म होता है और कर्म के अनुसार जीवधारियों को सुख-दुःख का भोग प्राप्त होता है। यातना, जन्म-मरण, रोग- शोक, भय, उत्पत्ति, विपत्ति, विद्या, कविता, यश, अपयश, पुण्य, स्वर्गवास, पाप, नरकनिवास, भोग, मोक्ष और श्रीहरि का दास्य — ये सब मनुष्यों को कर्म के अनुसार उपलब्ध होते हैं । ईश्वर सबके जनक हैं । शील और कर्मों का अभ्यास विधाता के लिये भी फलदाता होता है। सब कुछ ईश्वर की इच्छा से ही सम्भव होता है । विराट् पुरुष से प्रकृति, पञ्चतत्त्व, जगत्, कूर्म, शेष, धरणी तथा ब्रह्मा से लेकर कीटपर्यन्त सम्पूर्ण चराचर पदार्थों का निर्माण हुआ है। जिनकी आज्ञा से वायु कूर्म को, कूर्म शेष को, शेष अपने मस्तक पर वसुधा को और वसुधा सम्पूर्ण चराचर जगत् को धारण करती है; जिनके आदेश से जगत् के प्राणस्वरूप समीर सदा तीनों लोकों में बहते रहते हैं, उत्तम प्रभा के धाम सूर्य समस्त भूगोल का भ्रमण करते हुए तपा करते हैं, अग्नि जलाती है, मृत्यु समस्त जन्तुओं में संचरित होती है और वृक्ष समयानुसार फूल एवं फल धारण करते हैं; जिनकी आज्ञा से समुद्र अपने स्थान पर विद्यमान रहते और तत्काल ही नीचे-नीचे निमग्न हो जाते हैं; उन परमेश्वर का ही आप भक्ति-भाव से भजन कीजिये । इन्द्र क्या कर सकता है ? जिनके भ्रूभङ्ग की लीलामात्रसे आज तक कितने ही ब्रह्माण्ड पैदा हुए और काल के गाल में चले गये तथा कितने ही विधाता उत्पन्न होकर नष्ट हो गये । वे परमेश्वर ही मृत्यु की भी मृत्यु, काल के भी काल तथा विधाता के भी विधाता हैं ।

तात ! आप उन्हीं की शरण लीजिये । वे ही आपकी रक्षा करेंगे। अहो ! जिनके एक दिन-रात में अट्ठाईस इन्द्रों का पतन होता है, ऐसे एक सौ आठ ब्रह्माओं का उन निर्गुण परमात्मा श्रीहरि के एक निमेष में ही पतन हो जाता है; ऐसे परमात्मा के रहते हुए इन्द्र की पूजा विडम्बनामात्र है ।’

नारद ! यों कहकर श्रीकृष्ण चुप हो गये । उस समय सभा में बैठे हुए महर्षियों ने भगवान् की भूरि-भूरि प्रशंसा की । नन्द के शरीर में रोमाञ्च हो आया । वे हर्ष से उत्फुल्ल हो सभा में बैठे-बैठे नेत्रों से अश्रु बहाने लगे। मनुष्य यदि अपने पुत्रों से पराजित हों तो वे आनन्दित ही होते हैं । श्रीकृष्ण की आज्ञा मान नन्दजी ने स्वस्तिवाचन किया और क्रमशः सब ब्राह्मणों एवं मुनियों का वरण किया। उन्होंने आदरपूर्वक गिरिराज गोवर्धन की, समागत मुनीश्वरों की, विद्वान् ब्राह्मणों की तथा गौओं और अग्नि की सानन्द पूजा की । पूजा की समाप्ति होने पर उस यज्ञ-महोत्सव में नाना प्रकार के वाद्यों का तुमुल नाद होने लगा । जय-जयकार के शब्द, शङ्खध्वनि तथा हरिनाम-कीर्तन होने लगे । मुनिवर गर्ग ने वेदों के मङ्गल-काण्ड का पाठ किया। बन्दीजनों में श्रेष्ठ डिंडी जो कंस का प्रिय सचिव था, सामने खड़े हो उच्चस्वर से मङ्गलाष्टक का पाठ करने लगा ।

श्रीकृष्ण गिरिराज के निकट जा दूसरी मूर्ति धारण करके बोले — ‘मैं साक्षात् गोवर्धन पर्वत हूँ और तुम लोगों की दी हुई भोज्य वस्तुएँ खा रहा हूँ। तुम मुझसे वर माँगो ।’

उस समय श्रीकृष्ण ने नन्द से कहा — ‘पिताजी! सामने देखिये, गिरिराज प्रकट हुए हैं । इनसे वर माँगिये । आपका कल्याण होगा।’

तब गोपराज ने हरिदास्य और हरिभक्ति का वर माँगा । परोसी हुई सामग्री खाकर और वर देकर गिरिराज अदृश्य हो गये। मुनीन्द्रों और ब्राह्मणों को भोजन कराकर गोपराज ने बन्दीजनों, ब्राह्मणों और मुनियों को धन दिया। तत्पश्चात् आनन्दयुक्त नन्द बलराम और श्रीकृष्ण को आगे करके सपरिवार अपने घर को गये। उन्होंने बन्दी डिंडी को वस्त्र, चाँदी, सोना, श्रेष्ठ घोड़ा, मणि तथा नाना प्रकार के भक्ष्य पदार्थ दिये। मुनि और ब्राह्मण बलराम तथा श्रीकृष्ण की स्तुति एवं नमस्कार करके चले गये । समस्त अप्सराएँ, गन्धर्व और किन्नर भी अपने-अपने स्थान को पधारे। उस महोत्सव में आये हुए राजा और सम्पूर्ण गोप भी श्रीकृष्ण को सादर नमस्कार करके वहाँ से विदा हो गये ।

इसी समय यज्ञ-भङ्ग हो जाने से अपनी अनेक प्रकार की निन्दा सुनकर इन्द्र कुपित हो उठे । उनके ओठ फड़कने लगे । उन्होंने मरुद्गणों और मेघों के साथ तत्काल रथ पर आरूढ़ हो मनोहर नन्दनगर वृन्दावन पर आक्रमण किया। फिर युद्ध-शास्त्र में निपुण समस्त देवता भी हाथों में अस्त्र-शस्त्र लिये रोषपूर्वक रथ पर आरूढ़ हो उनके पीछे-पीछे गये । वायु की सनसनाहट, मेघों की गड़गड़ाहट और सेना की भयानक गर्जना से सारा नगर काँप उठा । नन्द को भी बड़ा भय हुआ; परंतु वे नीति में निपुण थे । अतः अपनी पत्नी सेवकगणों को पुकारकर निर्जन स्थान में ले जाकर शोक से कातर हो बोले ।

नन्दजी ने कहा — हे यशोदे ! हे रोहिणि ! इधर आओ और मेरी बात सुनो। तुम लोग राम और कृष्ण को व्रज से दूर ले जाओ । भय से व्याकुल बालक-बालिकाएँ और स्त्रियाँ भी दूर चली जायँ । केवल बलवान् गोप मेरे पास ठहरें। फिर हम लोग इस प्राण-संकट से निकलने का प्रयास करेंगे।

यों कहकर गोपप्रवर नन्द ने भयभीत हुए श्रीहरि का स्मरण किया। उनके दोनों हाथ जुड़ गये । भक्ति से मस्तक झुक गया और वे काण्वशाखा में कहे गये स्तोत्र द्वारा श्रीशचीपति की स्तुति करने लगे ।

॥ इन्द्र स्तोत्र ॥

॥ नन्द उवाच ॥
इन्द्रः सुरपतिः शक्रो दितिजः पवनाग्रजः ॥ १५१ ॥
सहस्राक्षो भगाङ्गश्च कश्यपाङ्गज एव च ।
बिडौजाश्च सुनासीरो मरुत्वान्पाकशासनः ॥ १५२ ॥
जयन्तजनकः श्रीमाञ्छचीशो दैत्यसूदनः ।
वज्रहस्तः कामसखो गौतमीव्रतनाशनः ॥ १५३ ॥
वृत्रहा वासवश्चैव दधीचिदेहभिक्षुकः ।
विष्णुश्च वामनभ्राता पुरुहूतः पुरन्दरः ॥ १५४ ॥
दिवस्पतिः शतमखः सुत्रामा गोत्रभिद्विभुः ।
लेखर्षभो बलारातिर्जम्भभेदी सुराश्रयः ॥ १५५ ॥
संक्रन्दनो दुश्च्यवनस्तुराषाण्मेघवाहनः ।
आखण्डलो हरिहयो नमुचिप्राणनाशनः ॥ १५६ ॥
वृद्धश्रवा वृषश्चैव दैत्यदर्पनिषूदनः ।
षट्चत्वारिंशन्नामानि पापघ्नानि विनिश्चितम् ॥ १५७ ॥
स्तोत्रमेतत्कौथुमोक्तं नित्यं यदि पठेन्नरः ।
महाविपत्तौ शक्रस्तं वज्रहस्तश्च रक्षति ॥ १५८ ॥
अतिवृष्टिशिलावृष्टिवज्रपाताच्च दारुणात् ।
कदाचिन्न भयं तस्य रक्षिता वासवः स्वयम् ॥ १५९ ॥
यत्र गेहे स्तोत्रमिदं यश्च जानाति पुण्यवान् ।
न तत्र वज्रपतनं शिलावृष्टिश्च नारद ॥ १६० ॥

नन्द बोले — इन्द्र, सुरपति, शक्र, अदितिज, पवनाग्रज, सहस्राक्ष, भगाङ्ग, कश्यपात्मज, विडौजा, शुनासीर, मरुत्वान्, पाकशासन, जयन्तजनक, दधीचि-देह-श्रीमान्, शचीश, दैत्यसूदन, वज्रहस्त, कामसखा, गौतमीव्रतनाशन, वृत्रहा, वासव, भिक्षुक, जिष्णु वामनभ्राता, पुरुहूत, पुरन्दर, दिवस्पति, शतमख, सुत्रामा, गोत्रभिद्, विभु, लेखर्षभ, बलाराति, जम्भभेदी, सुराश्रय, संक्रन्दन, दुश्च्यवन, तुराषाट् मेघवाहन, आखण्डल, हरि, हय, नमुचिप्राणनाशन, वृद्धश्रवा, वृष तथा दैत्यदर्पनिषूदन — ये छियालीस नाम निश्चय ही समस्त पापों का नाश करनेवाले हैं।

जो मनुष्य कौथुमीशाखा में कहे गये इस स्तोत्र का प्रतिदिन पाठ करता है, उसकी बड़ी से बड़ी विपत्ति में इन्द्र वज्र हाथ में लिये रक्षा करते हैं । उसे अतिवृष्टि, शिलावृष्टि तथा भयंकर वज्रपात से भी कभी भय नहीं होता; क्योंकि स्वयं इन्द्र उसकी रक्षा करते हैं । नारद! जिस घर में यह स्तोत्र पढ़ा जाता है और जो पुण्यवान् पुरुष इसे जानता है; उसके उस घर पर न कभी वज्रपात होता है और न ओले या पत्थर ही बरसते हैं ।

भगवान् श्रीनारायण कहते हैं — नन्द के मुख से इस स्तोत्र को सुनकर मधुसूदन श्रीकृष्ण कुपित हो गये। वे ब्रह्मतेज से प्रज्वलित हो रहे थे । उन्होंने पिता से यह नीति की बात कही। तात ! आप बड़े डरपोक हैं। किसकी स्तुति करते हैं ? कौन हैं इन्द्र ? मेरे निकट रहकर आप इन्द्र का भय छोड़  दीजिये, मैं आधे ही क्षण में लीलापूर्वक उसे भस्म कर डालने में समर्थ हूँ। आप गौओं, बछड़ों, बालकों और भयातुर स्त्रियों को गोवर्धन की कन्दरा में रखकर निर्भय हो जाइये।

अपने बच्चे की यह बात सुनकर नन्द ने प्रसन्नतापूर्वक वैसा ही किया। तब श्रीहरि ने उस पर्वत को बायें हाथ में छाते के डंडे की भाँति धारण कर लिया। इसी समय उस नगर में रत्नमय तेज से प्रकाश होने पर भी सहसा अन्धकार छा गया। सारा नगर धूल से ढक गया। मुने! हवा के साथ बादलों के समूह ने आकर आकाश को घेर लिया और वृन्दावन में निरन्तर अतिवृष्टि होने लगी । शिलावृष्टि, वज्र की वृष्टि और अत्यन्त भयानक उल्कापात – ये सब-के-सब गोवर्धन पर्वत का स्पर्श होते ही दूर जा पड़ते थे। मुने ! असमर्थ पुरुष के उद्यम की भाँति इन्द्र का वह सारा उद्योग विफल हो गया । वह सब कुछ व्यर्थ होता देख इन्द्र उसी क्षण रोष से भर गये और उन्होंने दधीचि की हड्डियों से बने हुए अपने अमोघ वज्रास्त्र को हाथ में ले लिया । इन्द्र को वज्र हाथ में लिये देख मधुसूदन हँसने लगे। उन्होंने इन्द्र के हाथसहित अत्यन्त दारुण वज्र को ही स्तम्भित कर दिया। इतना ही नहीं, उन सर्वव्यापी परमात्मा ने देवगणों सहित मेघ को भी स्तब्ध कर दिया। वे सब-के-सब दीवार में चित्रित पुतलियों की भाँति निश्चलभाव से खड़े हो गये ।

तदनन्तर श्रीहरि ने इन्द्र को जृम्भा (जँभाई) – के वशीभूत कर दिया। फिर तो उन्हें तत्काल तन्द्रा आ गयी। उस तन्द्रा में ही उन्होंने देखा, वहाँ का सारा जगत् श्रीकृष्णमय है। सभी द्विभुज हैं। सबके हाथों में मुरली है और सभी रत्नमय अलंकारों से विभूषित हैं। सबके अङ्गों पर पीताम्बर का परिधान है। सभी रत्नमय सिंहासन पर आसीन हैं। सबके प्रसन्नमुख पर मन्द हास्य की छटा छा रही है और सभी भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये कातर दिखायी देते हैं । उन सबके सभी अङ्ग चन्दन से चर्चित हैं । समस्त चराचर जगत् को इस परम अद्भुत रूप में देखकर वहाँ इन्द्र तत्काल मूर्च्छित हो गये । पूर्वकाल में गुरु ने उन्हें जिस मन्त्र का उपदेश दिया था, उसका वे वहीं जप करने लगे। उस समय उन्होंने हृदय में सहस्रदल-कमल पर विराजमान उग्र ज्योतिःपुञ्ज देखा । उस तेजोराशि के भीतर दिव्य रूपधारी, अत्यन्त मनोहर तथा नूतन जलधर के समान उत्कृष्ट श्यामसुन्दर विग्रह वाले श्रीकृष्ण दिखायी दिये । वे उत्तम रत्नों के सारतत्त्व से निर्मित एवं प्रकाशमान मकराकृत कुण्डलों  से अलंकृत थे, अत्यन्त उद्दीप्त एवं श्रेष्ठ मणियों के बने हुए मुकुट से उनका मस्तक उद्भासित हो रहा था । प्रकाशमान उत्तम कौस्तुभरत्न से कण्ठ और वक्षःस्थल जगमगा रहे थे । मणिनिर्मित केयूर, कंगन और मञ्जीर से उनके हाथ-पैरों की बड़ी शोभा हो रही थी। भीतर और बाहर समान रूप में ही देखकर परमेश्वर श्रीकृष्ण का उन्होंने स्तवन किया ।

॥ इन्द्र कृत श्रीकृष्ण स्तोत्र ॥

॥ इन्द्र उवाच ॥
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम् ।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनंतकम् ॥ १७९ ॥
भक्तध्यानाय सेवायै नानारूपधरं वरम् ।
शुक्लरक्तपीतश्यामं युगानुक्रमणेन च ॥ १८० ॥
शुक्लतेजःस्वरूपं च सत्ये सत्यस्वरूपिणम् ।
त्रेतायां कुंकुमाकारं ज्वलंतं ब्रह्मतेजसा ॥ १८१ ॥
द्वापरे पीतवर्णं च शोभितं पीतवाससा ।
कृष्णवर्णं कलौ कृष्णं परिपूर्णतमं प्रभुम् ॥ १८२ ॥
नवधाराधरोत्कृष्टश्यामसुन्दरविग्रहम् ।
नन्दैकनन्दनं वन्दे यशोदानन्दनं प्रभुम् ॥ १८३ ॥
गोपिकाचेतनहरं राधाप्राणाधिकं परम् ।
विनोदमुरलीशब्दं कुर्वन्तं कौतुकेन च ॥ १८४ ॥
रूपेणाप्रतिमेनैव रत्नभूषणभूषितम् ।
कन्दर्पकोटिसौन्दर्यं बिभ्रतं शान्तमीश्वरम् ॥ १८५ ॥
क्रीडन्तं राधया सार्धं वृन्दारण्ये च कुत्रचित् ।
कुत्रचिन्निर्जनेऽरण्ये राधावक्षःस्थलस्थितम् ॥ १८६ ॥
जलक्रीडां प्रकुर्वन्तं राधया सह कुत्रचित् ।
राधिकाकबरीभारं कुर्वन्तं कुत्रचिद्वने ॥ १८७ ॥
कुत्रचिद्राधिकापादे दत्तवन्तमलक्तकम् ।
सदा चर्वितताम्बूलं गृह्णन्तं कुत्रचिन्मुदा ॥ १८८ ॥
पश्यन्तं कुत्रचिद्राधां पश्यन्तीं वक्रचक्षुषा ।
दत्तवन्तं च राधायै कृत्वा मालां च कुत्रचित् ॥ १८९ ॥
कुत्रचिद्राधया सार्धं गच्छन्तं रासमंडलम् ।
राधादत्तां गले मालां धृतवन्तं च कुत्रचित् ॥ १९० ॥
सार्धं गोपालिकाभिश्च विहरन्तं च कुत्रचित् ।
राधां गृहीत्वा गच्छन्तं विहाय तां च कुत्रचित् ॥ १९१ ॥
विप्रपत्नीदत्तमन्नं भुक्तवन्तं च कुत्रचित् ।
भुक्तवन्तं तालफलं बालकैः सह कुत्रचित् ॥ १९२ ॥
वस्त्रं गोपालिकानां च हरन्तं कुत्रचिन्मुदा ।
गवां गणं व्याहरन्तं कुत्रचिद्बालकैः सह ॥ १९३ ॥
कालीयमूर्ध्नि पादाब्जं दत्तवन्तं च कुत्रचित् ।
विनोदमुरलीशब्दं कुर्वन्तं कुत्रचिन्मुदा ॥ १९४ ॥
गायन्तं रम्यसङ्गीतं कुत्रचिद्बालकैः सह ।
स्तुत्वा शक्रः स्तवेन्द्रेण प्रणनाम हरिं भिया ॥ १९५ ॥
पुरा दत्तेन गुरुणा रणे वृत्रासुरेण च ।
कृष्णेन दत्तं कृपया ब्रह्मणे च तपस्यते ॥ १९६ ॥
एकादशाक्षरो मन्त्रः कवचं सर्वलक्षणम् ।
दत्तमेतत्कुमाराय पुष्करे ब्रह्मणा पुरा ॥ १९७ ॥
कुमारोऽङ्गिरसे दत्तं गुरवेऽङ्गिरसा मुने ॥ १९८ ॥
इदमिन्द्रकृतं स्तोत्रं नित्यं भक्त्या च यः पठेत् ।
स हि प्राप्य दृढां भक्तिमन्ते दास्यं लभेद्ध्रुवम् ॥ १९९ ॥
जन्ममृत्युजराव्याधिशोकेभ्यो मुच्यते नरः ।
न हि पश्यति स्वप्नेऽपि यमदूतं यमालयम् ॥ २०० ॥

इन्द्र बोले — जो अविनाशी, परब्रह्म, ज्योतिः- स्वरूप, सनातन, गुणातीत, निराकार, स्वेच्छामय और अनन्त हैं; जो भक्तों के ध्यान तथा आराधना के लिये नाना रूप धारण करते हैं; युग के अनुसार जिनके श्वेत, रक्त, पीत और श्याम वर्ण हैं; सत्ययुग में जिनका स्वरूप शुक्ल तेजोमय है तथा उस युग में जो सत्यस्वरूप हैं; त्रेतायुग में जिनकी अङ्गकान्ति कुंकुम के समान लाल है और जो ब्रह्मतेज से जाज्वल्यमान रहते हैं, द्वापरयुग में जो पीत कान्ति धारण करके पीताम्बर से सुशोभित होते हैं; कलियुग में कृष्णवर्ण होकर ‘कृष्ण’ नाम धारण करते हैं; इन सब रूपों में जो एक ही परिपूर्णतम परमात्मा हैं; जिनका श्रीविग्रह नूतन जलधर के समान अत्यन्त श्याम एवं सुन्दर है; उन नन्दनन्दन यशोदाकुमार भगवान् गोविन्द की मैं वन्दना करता हूँ। जो गोपियों का चित्त चुराते हैं तथा राधा के लिये प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं, जो कौतूहलवश विनोद के लिये मुरली की ध्वनि का विस्तार करते रहते हैं, जिनके रूप की कहीं तुलना नहीं है, जो रत्नमय आभूषणों से विभूषित हो कोटि- कोटि कन्दर्पो का सौन्दर्य धारण करते हैं; उन शान्त स्वरूप परमेश्वर को मैं प्रणाम करता हूँ। जो वृन्दावन में कहीं राधा के पास क्रीड़ा करते हैं, कहीं निर्जन स्थल में राधा के वक्षः- स्थल पर विराजमान होते हैं, कहीं राधा के साथ जलक्रीड़ा करते हैं, कहीं वन में राधिका के केश-कलापों की चोटी गूँथते हैं, कहीं राधिका के चरणों में महावर लगाते हैं, कहीं राधिका के चबाये हुए ताम्बूल को सानन्द ग्रहण करते हैं, कहीं बाँके नेत्रों से देखती हुई राधा को स्वयं निहारते हैं, कहीं फूलों की माला तैयार करके राधिका को अर्पित करते हैं, कहीं राधा के साथ रासमण्डल में जाते हैं, कहीं राधा की दी हुई माला को अपने कण्ठ धारण करते हैं, कहीं गोपाङ्गनाओं के साथ विहार करते हैं, कहीं राधा को साथ लेकर चल देते हैं और कहीं उन्हें भी छोड़कर चले जाते हैं । जिन्होंने कहीं ब्राह्मणपत्नियों के दिये हुए अन्न का भोजन किया है और कहीं बालकों के साथ ताड़ का फल खाया है; जो कहीं आनन्दपूर्वक गोप-किशोरियों के चित्त चुराते हैं, कहीं ग्वालबालों के साथ दूर गयी हुई गौओं को आवाज देकर बुलाते हैं, जिन्होंने कहीं कालियनाग के मस्तक पर अपने चरणकमलों को रखा है और जो कहीं मौज में आकर आनन्द – विनोद के लिये मुरली की तान छेड़ते हैं तथा कहीं ग्वालबालों के साथ मधुर गीत गाते हैं; उन परमात्मा श्रीकृष्ण को मैं प्रणाम करता हूँ।

इस स्तवराज से स्तुति करके इन्द्र ने श्रीहरि को भय से प्रणाम किया । पूर्वकाल में वृत्रासुर के साथ युद्ध के समय गुरु बृहस्पति ने इन्द्र को यह स्तोत्र दिया था। सबसे पहले श्रीकृष्ण ने तपस्वी ब्रह्मा को कृपापूर्वक एकादशाक्षर – मन्त्र, सब लक्षणों से युक्त कवच और यह स्तोत्र दिया था। फिर ब्रह्मा ने पुष्कर में कुमार को, कुमार ने अङ्गिरा को और अङ्गिरा ने बृहस्पति को इसका उपदेश दिया था । इन्द्र द्वारा किये गये इस स्तोत्र का जो प्रतिदिन भक्तिपूर्वक पाठ करता है, वह इहलोक में श्रीहरि की सुदृढ़ भक्ति और अन्त में निश्चय ही उनका दास्य-सुख प्राप्त कर लेता है। जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि और शोक से छुटकारा पा जाता है और स्वप्न में भी कभी यमदूत तथा यमलोक को नहीं देखता ।

भगवान् नारायण कहते हैं — इन्द्र का वचन सुनकर भगवान् लक्ष्मीनिवास प्रसन्न हो गये और उन्होंने प्रेमपूर्वक उन्हें वर देकर उस पर्वत को वहाँ स्थापित कर दिया। श्रीहरि को प्रणाम करके इन्द्र अपने गणों के साथ चले गये; तदनन्तर गुफा में छिपे हुए लोग वहाँ से निकलकर अपने घर को गये। उन सबने श्रीकृष्ण को परिपूर्णतम परमात्मा माना। व्रजवासियों को आगे करके श्रीकृष्ण अपने घर को गये । नन्द के सम्पूर्ण अङ्गों में रोमाञ्च हो आया। उनके नेत्रों में भक्ति के आँसू भर आये और उन्होंने सनातन पूर्णब्रह्मस्वरूप अपने उस पुत्र का स्तवन किया ।

॥ नन्द कृत श्रीकृष्ण स्तोत्र ॥

॥ नन्द उवाच ॥
नमो ब्रह्मण्यदेवाय गोब्राह्मणहिताय च ।
जगद्धिताय कृष्णाय गोविन्दाय नमोनमः ॥ २०५ ॥
नमो ब्रह्मण्यदेवाय ब्रह्मणे परमात्मने ।
अनन्तकोटिब्रह्माण्डधामधाम्ने नमोऽस्तु ते ॥ २०६ ॥
नमो मत्स्यादिरूपाणां जीवरूपायसाक्षिणे ।
निर्लिप्ताय निर्गुणाय निराकाराय ते नमः ॥ २०७ ॥
अतिसूक्ष्मस्वरूपाय स्थूलात्स्थूलतमाय च ।
सर्वेश्वराय सर्वाय तेजोरूप नमोऽस्तु ते ॥ २०८ ॥
अतिप्रत्यक्षरूपाय ध्यानासाध्याय योगिनाम् ।
ब्रह्मविष्णुमहेशानां वन्द्याय नित्यरूपिणे ॥ २०९ ॥
धाम्ने चतुर्ण्णां वर्णानां युगेष्वेव चतुर्षु च ।
शुक्लरक्तपीतश्यामाभिधानगुणशालिने ॥ २१० ॥
योगिने योगरूपाय गुरवे योगिनामपि ।
सिद्धेश्वराय सिद्धाय सिद्धानां गुरवे नमः ॥ २११ ॥
यं स्तोतुमक्षमो ब्रह्मा विष्णुर्यं स्तोतुमक्षमः ।
यं स्तोतुमक्षमो रुद्रः शेषो यं स्तोतुमक्षमः ॥ २१२ ॥
यं स्तोतुमक्षमो धर्मो यं स्तोतुमक्षमो रविः ।
यं स्तोतुमक्षमो लम्बोदरश्चापि षडाननः ॥ २१३ ॥
यं स्तोतुमक्षमाः सर्वे मुनयः सनकादयः ।
कपिलो न क्षमः स्तोतुं सिद्धेन्द्राणां गुरोर्गुरुः ॥ २१४ ॥
न शक्तौ स्तवनं कर्तुं नरनारायणावृषी ।
अन्ये जडधियः के वा स्तोतुं शक्ताः परात्परम् ॥ २१५ ॥
वेदा न शक्ता नो वाणी न च लक्ष्मीः सरस्वती ।
न राधा स्तवने शक्ता किं स्तुवन्ति विपश्चितः ॥ २१६ ॥
क्षमस्व निखिलं ब्रह्मन्नपराधं क्षणेक्षणे ।
रक्ष मां करुणा सिन्धो दीनबन्धो भवार्णवे ॥ २१७ ॥
पुरा तीर्थे तपस्तप्त्वा पुत्रः प्राप्तः सनातनः ।
स्वकीयचरणाम्भोजे भक्तिं दास्यं च देहि मे ॥ २१८ ॥
ब्रह्मत्वममरत्वं वा सालोक्यादिकमेव वा ।
त्वत्पदाम्भोजदास्यस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ २१९ ॥
इन्द्रत्वं वा सुरत्वं वा संप्राप्तिं सिद्धिस्वर्गयोः ।
राजत्वं चिरजीवित्वं सुधियो गणयन्ति किम् ॥ २२० ॥
एतद्यत्कथितं सर्वं ब्रह्मत्वादिकमीश्वर ।
भक्तसङ्गक्षणार्द्धस्य नोपमा ते किमर्हति ॥ २२१ ॥
त्वद्भक्तो यस्त्वत्सदृशः कस्त्वां तर्कितुमीश्वरः ।
क्षणार्द्धालापमात्रेण पारं कर्तुं स चेश्वरः ॥ २२२ ॥
भक्तसङ्गाद्भवत्येव भक्तिं कर्तुमनेकधा ।
त्वद्भक्तजलदालापजलसेकेन वर्द्धते ॥ २२३ ॥
अभक्तालापतापात्तु शुष्कतां याति तत्क्षणम् ।
त्वद्गुणस्मृतिसेकाच्च वर्द्धते तत्क्षणे स्फुटम् ॥ २२४ ॥
त्वद्भक्त्यङ्कुरमुद्भूतं स्फीतं मानसजं परम् ।
न नश्यं वर्द्धनीयं च नित्यंनित्यं क्षणेक्षणे ॥ २२५ ॥
ततः संप्राप्य ब्रह्मत्वं भक्तस्य जीवनाय च ।
ददात्येव फलं तस्मै हरिदास्यमनुत्तमम् ॥ २२६ ॥
संप्राप्य दुर्लभं दास्यं यदि दासो बभूव ह ।
सुनिश्चयेन तेनैव जितं सर्वं भयादिकम् ॥ २२७ ॥
इत्येवमुक्त्वा भक्त्या च नन्दस्तस्थौ हरेः पुरः ।
प्रसन्नवदनः कृष्णो ददौ तस्मै तदीप्सितम् ॥ २२८ ॥
एवं नन्दकृतं स्तोत्रं नित्यं भक्त्या च यः पठेत् ।
सुदृढां भक्तिमाप्नोति सद्यो दास्यं लभेद्धरेः ॥ २२९ ॥
तपस्तप्त्वा यदा द्रोणस्तीर्थे च धरया सह ।
स्तोत्रं तस्मै पुरा दत्तं ब्रह्मणा तत्सुदुर्लभम् ॥ २३० ॥
हरेः षडक्षरो मन्त्रः कवचं सर्वरक्षणम् ।
इह सौभरिणा दत्तं तस्मै तुष्टेन पुष्करे ॥ २३१ ॥
तदेव कवचं स्तोत्रं स च मन्त्रः सुदुर्लभः ।
ब्रह्मणोंऽशेन मुनिना नन्दाय च तपस्यते ॥ २३२ ॥
मन्त्रः स्तोत्रं च कवचमिष्टदेवो गुरुस्तथा ।
या यस्य विद्या प्राचीना न तां त्यजति निश्चितम् ॥ २३३ ॥

नन्द बोले — जो ब्राह्मणों के हितकारी, गौओं तथा ब्राह्मणों के हितैषी तथा समस्त संसार का भला चाहने वाले हैं; उन सच्चिदानन्दमय गोविन्ददेव को बारंबार नमस्कार है । प्रभो ! आप ब्राह्मणों का प्रिय करनेवाले देवता हैं; स्वयं ही ब्रह्म और परमात्मा हैं; आपको नमस्कार है। आप अनन्तकोटि ब्रह्माण्डधामों के भी धाम हैं; आपको सादर नमस्कार है । आप मत्स्य आदि रूपों के जीवन तथा साक्षी हैं; आप निर्लिप्त, निर्गुण और निराकार परमात्मा को नमस्कार है। आपका स्वरूप अत्यन्त सूक्ष्म है । आप स्थूल से भी अत्यन्त स्थूल हैं । सर्वेश्वर, सर्वरूप तथा तेजोमय हैं; आपको नमस्कार है । अत्यन्त सूक्ष्म-स्वरूपधारी होने के कारण आप योगियों के भी ध्यान में नहीं आते हैं; ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी आपकी वन्दना करते हैं; आप नित्य-स्वरूप परमात्मा को नमस्कार है । आप चार युगों में चार वर्णों का आश्रय लेते हैं; इसलिये युग-क्रम से शुक्ल, रक्त, पीत और श्याम नामक गुण से सुशोभित होते हैं; आपको नमस्कार है। आप योगी, योगरूप और योगियों के भी गुरु हैं । सिद्धेश्वर, सिद्ध एवं सिद्धों के गुरु हैं; आपको नमस्कार है । ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, शेषनाग, धर्म, सूर्य, गणेश, षडानन, सनकादि समस्त मुनि, सिद्धेश्वरों के गुरु के भी गुरु कपिल तथा नर- नारायण ऋषि भी जिनकी स्तुति करने में असमर्थ हैं; उन परात्पर प्रभु का स्तवन दूसरे कौन-से जडबुद्धि प्राणी कर सकते हैं ? वेद, वाणी, लक्ष्मी, सरस्वती तथा राधा भी जिनकी स्तुति नहीं कर सकतीं; उन्हीं का स्तवन दूसरे विद्वान् पुरुष क्या कर सकते हैं ?

ब्रह्मन् ! मुझसे क्षण-क्षण में जो अपराध बन रहा है, वह सब आप क्षमा करें। करुणासिन्धो ! दीनबन्धो ! भवसागर में पड़े हुए मुझ शरणागत की रक्षा कीजिये । प्रभो ! पूर्वकाल में तीर्थस्थान में तपस्या करके मैंने आप सनातन-पुरुष को पुत्ररूप में प्राप्त किया है। अब आप मुझे अपने चरण-कमलों की भक्ति और दास्य प्रदान कीजिये । ब्रह्मत्व, अमरत्व अथवा सालोक्य आदि चार प्रकार के मोक्ष आपके चरणकमलों की दास्य-भक्ति की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं हैं; फिर इन्द्रपद, देवपद, सिद्धि- प्राप्ति, स्वर्गप्राप्ति, राजपद तथा चिरंजीवित्व को विद्वान् पुरुष किस गिनती में रखते हैं ? (क्या समझते हैं ?) ईश्वर! यह सब जो पूर्वकथित ब्रह्मत्व आदि पद हैं, वे आपके भक्त के आधे क्षण के लिये प्राप्त हुए सङ्ग की क्या समानता कर सकते हैं! कदापि नहीं। जो आपका भक्त है, वह भी आपके समान हो जाता है । फिर आपके महत्त्व का अनुमान कौन लगा सकता है ? आपका भक्त आधे क्षण के वार्तालाप मात्र से किसी को भी भवसागर से पार कर सकता है । आपके भक्तों के सङ्ग से भक्ति का विविध अङ्कुर अवश्य उत्पन्न होता है। उन हरिभक्तरूप मेघों के द्वारा की गयी वार्तालापरूपी जल की वर्षा से सींचा जाकर भक्ति का वह अङ्कुर बढ़ता है। जो भगवान् ‌के भक्त नहीं हैं, उनके आलापरूपी ताप से वह अङ्कुर तत्काल सूख जाता है और भक्त एवं भगवान् ‌के गुणों की स्मृतिरूपी जल से सींचने पर वह उसी क्षण स्पष्टरूप से बढ़ने लगता है। उनमें उत्पन्न आपकी भक्ति का अङ्कुर जब प्रकट होकर भली-भाँति बढ़ जाता है, तब वह नष्ट नहीं होता । उसे प्रतिदिन और प्रतिक्षण बढ़ाते रहना चाहिये । तदनन्तर उस भक्त को ब्रह्मपद की प्राप्ति कराकर भी उसके जीवन के लिये भगवान् उसे अवश्य ही परम उत्तम दास्यरूप फल प्रदान करते हैं । यदि कोई दुर्लभ दास्यभाव को पाकर भगवान्‌ का दास हो गया तो निश्चय ही उसी ने समस्त भय आदि को जीता है।

यों कहकर नन्द श्रीहरि के सामने भक्तिभाव से खड़े हो गये। तब प्रसन्न हुए श्रीकृष्ण ने उन्हें मनोवाञ्छित वर दिया। इस प्रकार नन्द द्वारा किये गये स्तोत्र का जो भक्तिभाव से प्रतिदिन पाठ करता है, वह शीघ्र ही श्रीहरि की सुदृढ़ भक्ति और दास्यभाव प्राप्त कर लेता है । जब द्रोण नामक वसु ने अपनी पत्नी धरा के साथ तीर्थ में तपस्या की, तब ब्रह्माजी ने उन्हें यह परम दुर्लभ स्तोत्र प्रदान किया था । सौभरिमुनि ने पुष्कर में संतुष्ट होकर ब्रह्माजी को श्रीहरि का षडक्षर – मन्त्र तथा सर्वरक्षणकवच प्रदान किया था । वही कवच, वही स्तोत्र और वही परम दुर्लभ मन्त्र ब्रह्मा के अंशभूत गर्गमुनि ने तपस्या में लगे हुए नन्द को दिया था । पूर्वकाल में जिसके लिये जो मन्त्र, स्तोत्र, कवच, इष्टदेव, गुरु और विद्या प्राप्त होती है, वह पुरुष उस मन्त्र आदि तथा विद्या को निश्चय ही नहीं छोड़ता है। इस प्रकार यह श्रीकृष्ण का अद्भुत आख्यान और स्तोत्र कहा गया, जो सुखद, मोक्षप्रद, सब साधनों का सारभूत तथा भवबन्धन को छुटकारा दिलानेवाला है ।   (अध्याय २१)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे नारायणनारदसंवादे इन्द्रयागभञ्जनो नामैकविंशतितमोऽध्यायः ॥ २१ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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