February 24, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 29 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ उनतीसवाँ अध्याय श्रीराधा के साथ श्रीकृष्ण का वन-विहार, वहाँ अष्टावक्रमुनि के द्वारा उनकी स्तुति तथा मुनि का शरीर त्याग कर भगवच्चरणों में लीन होना भगवान् नारायण कहते हैं — नारद । तदनन्तर प्रेम-विह्वला गोपियों के साथ भगवान् श्रीकृष्ण ने विविध भाँति से रास-क्रीड़ा की । गोपियाँ उन्मत्ता-सी हो गयीं। तब श्रीकृष्ण राधिका को लेकर वहाँ से अन्तर्धान हो गये तथा अनेक सुरम्य वनों, पर्वतों, सरोवरों एवं नदी तटों पर ले जाकर राधिका को आनन्द प्रदान करते रहे। श्रीराधा के साथ भ्रमण करते हुए श्यामसुन्दर ने अपने सामने एक वट-वृक्ष देखा, जिसकी शाखाओं का अग्रभाग बहुत ही ऊँचा था । उस वृक्ष का विस्तार भी बहुत अधिक था। उसके नीचे एक योजन तक का भूभाग छाया से घिरा हुआ था । केतकीवन भी वहाँ से निकट ही था । श्रीकृष्ण राधा के साथ वहीं बैठे थे। शीतल – मन्द-सुगन्ध वायु उस स्थान को सुवासित कर रही थी । हर्ष से भरे हुए श्रीकृष्ण ने वहाँ राधा से चिरकाल तक पुरातन एवं विचित्र रहस्य को बताने वाली कथाएँ कहीं । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय इसी समय उन्होंने वहाँ आते हुए एक श्रेष्ठ मुनि को देखा, जिनके मुख और नेत्र प्रसन्नता से खिले हुए थे। परमात्मा श्रीहरि के जिस रूप का वे ध्यान करते थे, उसे हृदय में न देखकर उनका ध्यान टूट गया था। अब वे अपने सामने बाहर ही उस रूप का प्रत्यक्ष दर्शन करने लगे थे । उनका शरीर काला था । सारे अवयव टेढ़े-मेढ़े थे और वे नाटे तथा दिगम्बर थे । उनका नाम था – अष्टावक्र । वे ब्रह्मतेज से प्रकाशित हो रहे थे। उनका मस्तक जटाओं से भरा था और वे अपने मुँह से आग उगल रहे थे, मानो मुखद्वार से उनकी तपस्याजनित तेजोराशि ही प्रकट हो रही हो अथवा वे ऐसे लगते थे, मानो उनके रूप में स्वयं ब्रह्मतेज ही मूर्तिमान् -सा हो गया हो। उनके नख और मूँछ – दाढ़ी के बाल बढ़े हुए थे। वे तेजस्वी और परम शान्त थे तथा भयभीत हो भक्तिभाव से दोनों हाथ जोड़ मस्तक झुकाये हुए थे। उन्हें देख राधा हँसने लगीं; परंतु माधव ने उन्हें ऐसा करने से रोका और उन महात्मा मुनीन्द्र के प्रभाव का वर्णन किया। मुनिवर अष्टावक्र ने गोविन्द को प्रणाम करके उनकी स्तुति की। पूर्वकाल में महात्मा भगवान् शंकर ने उन्हें जिस स्तोत्र का उपदेश दिया था, उसी को उन्होंने सुनाया । ॥ अष्टावक्र (देवल) कृत श्रीकृष्ण स्तोत्र ॥ ॥ अष्टावक्र उवाच ॥ गुणातीत गुणाधार गुणबीज गुणात्मक । गुणीश गुणिनां बीज गुणायन नमोऽस्तु ते ॥ ४० ॥ सिद्धिस्वरूप सिद्ध्येश सिद्धिबीज परात्पर । सिद्धिसिद्धिगुणाधीश सिद्धानां गुरवे नमः ॥ ४१ ॥ हे वेदबीज वेदज्ञ वेदिन्वेदविदां वर । वेदाज्ञाताद्यरूपेश वेदाज्ञेश नमोऽस्तु ते ॥ ४२ ॥ ब्रह्मानन्तेश शेषेन्द्र धर्मादीनामधीश्वर । सर्व सर्वेश शर्वेश बीजरूप नमोऽस्तु ते ॥ ४३ ॥ प्रकृते प्राकृत प्रज्ञ प्रकृतीश परात्पर । संसारवृक्ष तद्बीज फलरूप नमोऽस्तु ते ॥ ४४ ॥ सृष्टिस्थित्यन्तबीजेश सृष्टिस्थित्यन्तकारण । महाविराट्तरोर्बीज राधिकेश नमोऽस्तु ते ॥ ४५ ॥ अहो यस्य त्रयः स्कन्धा ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः । शाखाप्रशाखा वेदाद्यास्तपांसि कुसुमानि च ॥ ४६ ॥ संसारविफला एव प्रकृत्यंकुरमेव च । तदाधार निराधार सर्वाधार नमोऽस्तु ते ॥ ४७ ॥ तेजोरूप निराकार प्रत्यक्षानूहमेव च । सर्वाकारातिप्रत्यक्ष स्वेच्छामय नमोऽस्तु ते ॥ ४८ ॥ अष्टावक्र बोले — प्रभो! आप तीनों गुणों से परे होकर भी समस्त गुणों के आधार हैं । गुणों के कारण और गुणस्वरूप हैं । गुणियों के स्वामी तथा उनके आदिकारण हैं । गुणनिधे ! आपको नमस्कार है । आप सिद्धि-स्वरूप हैं । समस्त सिद्धियाँ आपकी अंश-स्वरूपा हैं । आप सिद्धि के बीज और परात्पर हैं । सिद्धि और सिद्धगणों के अधीश्वर हैं तथा समस्त सिद्धों के गुरु हैं; आपको नमस्कार है। वेदों के बीजस्वरूप परमात्मन्! आप वेदों के ज्ञाता, वेदवान् और वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ हैं । वेद भी आपको पूर्णतः नहीं जान सके हैं। रूपेश्वर ! आप वेदज्ञों के भी स्वामी हैं; आपको नमस्कार है । आप ब्रह्मा, अनन्त, शिव, शेष, इन्द्र और धर्म आदि के अधिपति हैं । सर्वस्वरूप सर्वेश्वर ! आप शर्व (महादेवजी ) – के भी स्वामी हैं; सबके बीजरूप गोविन्द ! आपको नमस्कार है। आप ही प्रकृति और प्राकृत पदार्थ हैं । प्राज्ञ, प्रकृति के स्वामी तथा परात्पर हैं। संसार वृक्ष तथा उसके बीज और फलरूप हैं। आपको नमस्कार है। सृष्टि, पालन और संहार के बीजस्वरूप ब्रह्मा आदि के भी ईश्वर ! आप ही सृष्टि, पालन और संहार के कारण हैं । महाविराट् (नारायण) – रूपी वृक्ष के बीज राधावल्लभ ! आपको नमस्कार है । अहो! आप जिसके बीज हैं, उस महाविराट् रूपी वृक्ष के तीन स्कन्ध (तने) हैं – ब्रह्मा, विष्णु और शिव । वेदादि शास्त्र उसकी शाखा प्रशाखाएँ हैं और तपस्या पुष्प हैं। जिसका फल संसार है, वह वृक्ष प्रकृति का कार्य है । आप ही उसके भी आधार हैं, पर आपका आधार कोई नहीं है । सर्वाधार ! आपको नमस्कार है । तेजः स्वरूप ! निराकार ! आपतक प्रत्यक्ष प्रमाण की पहुँच नहीं है । सर्वरूप ! प्रत्यक्ष के अविषय ! स्वेच्छामय परमेश्वर ! आपको नमस्कार है । यों कहकर मुनिश्रेष्ठ अष्टावक्र श्रीकृष्ण चरणकमलों में पड़ गये और श्रीराधा तथा गोविन्द दोनों के सामने ही उन्होंने अपने प्राण त्याग दिये । उनका शरीर भगवान् के पाद- पद्मों के समीप गिर पड़ा और उससे प्रज्वलित अग्नि-शिखा के समान उनका तेज ऊपर को उठा। वह सात ताड़ के बराबर ऊँचा उठकर भगवान् के चारों तरफ घूमकर पुनः उनके चरणों में गिरा और वहीं विलीन हो गया । अष्टावक्रकृतं स्तोत्रं प्रातरुत्थाय यः पठेत् । परं निर्वाण मोक्षं च समाप्नोति न संशयः ॥ ५२ ॥ प्राणाधिको मुमुक्षूणां स्तोत्रराजश्च नारद । हरिणाऽहो पुरा दत्तो वैकुण्ठे शंकराय च ॥ ५३ ॥ जो प्रातःकाल उठकर अष्टावक्र द्वारा किये गये स्तोत्र का पाठ करता है, वह परम निर्वाणरूप मोक्ष को प्राप्त कर लेता है; इसमें संशय नहीं है । नारद ! यह स्तोत्रराज मुमुक्षुजनों के लिये प्राणों से भी बढ़कर है। श्रीहरि ने पहले इसे वैकुण्ठधाम में भगवान् शंकर को दिया था । (अध्याय २९) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे नारायणनारदसंवादे मुनिमोक्षणप्रस्ताव एकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥ २९ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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