February 25, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 31 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ इकतीसवाँ अध्याय ब्रह्माजी का राजा सुचन्द्र को वर देना, राजा का गोलोक जाना, ब्रह्माजी को देखकर मोहिनी का काम-मुग्ध होना, मोहिनी कृत कामदेव स्तोत्र तदनन्तर श्रीराधिका ने पूछा — श्यामसुन्दर ! ब्रह्माजी को क्यों और किससे शाप प्राप्त हुआ था ? श्रीकृष्ण बोले — प्रिये ! रैवत मन्वन्तर में नृपश्रेष्ठ सुचन्द्र तपस्वी, वैष्णव, श्रेष्ठ ज्ञानी एवं परम-धार्मिक थे । वे मेरी तपस्या करते हुए भारत में मनोहर इस मलयाचल की घाटी में आये । राजेन्द्र ने यहाँ एक सहस्र वर्षों तक तप किया । कठोर तपस्या से उनकी देह जीर्ण-शीर्ण हो गयी और वल्मीक (बांबी) से आच्छादित देह को देखकर कृपानिधान ब्रह्मा उन्हें वर देने के लिए उस अति निर्जन तपःस्थान में आये । योगवेत्ता ब्रह्मा ने कमण्डलु के जल से, जो मेरी देह से उत्पन्न हुआ था, मेरे दिये हुए मंत्र के उच्चारणपूर्वक तपस्वी का सेचन किया । कमण्डलु-जल के स्पर्श से राजा स्वयं उठकर जगत्-रचयिता ब्रह्मा के सामने खड़े हो गये और भक्ति-पूर्वक उन्हें नमस्कार करने लगे । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ब्रह्मा ने उनसे कहा — “राजेन्द्र ! जैसी तुम्हारी इच्छा हो — वर मांगो” । उनकी बात सुनकर राजा ने सर्वश्रेष्ठ वरदान मांगा कि – “भगवान् के चरणों में मेरी भक्ति हो और मुझे उनका दास्य-पद प्राप्त हो” । ब्रह्मा ने कृपा करके उन्हें अभिलषित वरदान प्रदान किया । उसी समय राजा ने देखा कि – एक उत्तम रथ आकाश से नीचे उतर रहा है, जो सैकड़ों सूर्य के समान प्रभापूर्ण था । उसके तेज से दशों दिशाएँ अत्यन्त प्रदीप्त हो उठी थीं। वह रथ रत्नों के सारभाग से निर्मित सो चक्कों से युक्त, अमूल्य रत्नों से रचित, विचित्र कलशों से समुज्ज्वल, मुक्ता, माणिक्य और हीरों की मालाओं से सुशोभित, उत्तम रत्नों के अति दीप्त दर्पणों से अति मनोहर, दिव्य वस्त्रों एवं करोड़ों श्वेत चामरों से सुशोभित, पारिजात के पुष्पों की मालाओं से सुसज्जित, मन की भाँति चलनेवाला, अनेक भाँति के चित्रों से चित्रित और महान् अद्भुत था । वह रत्न के आभूषणों से भूषित दिव्य पार्षदों से घिरा था । वे पार्षद चतुर्भुज, श्यामल, तेजस्वी, स्थिर यौवनवाले, पीताम्बर पहने और चन्दन, अगुरु से चर्चित थे । रथ पर विराजमान देवों को देखकर राजा ने उन्हें सहर्ष प्रणाम किया । एकाएक उनके सिर पर पुष्पवृष्टि होने लगी, स्वर्ग में दुन्दुभियाँ (नगाड़े) और मनोहर आनक (ढोल) बजने लगे । ऋषि, मुनि एवं सिद्धगणों ने बड़ी प्रसन्नता से राजा को आशीर्वाद दिया। देवों ने विभोर होकर उनकी प्रशंसा की । राजा ने उन पार्षदों का ध्यान करते हुए उन्हीं के समान रूप धारण कर लिया । पार्षदों ने उन्हें रथ पर बैठाकर मेरे लोक में पहुँचा दिया । वह मेरा पार्षद बनकर मेरे समीप रहने लगा । तदनन्तर अपने मन्दिर को जाते हुए ब्रह्मा को मोहिनी ने देख लिया । पुष्पों के रमणीय उद्यान में पुष्प-चन्दन-सम्पृक्त वायु के स्पर्श से ब्रह्मा को देखकर वह कामाग्नि से जलने लगी। तिरछी चितवन डालकर उसने मुसकराहट सहित मुख को छिपा लिया, जिसमें कस्तूरी के बिन्दु के साथ सिन्दूर का बिन्दु लगा हुआ था । मोहिनी के शरीर की कान्ति सुन्दर चम्पापुप्प के समान थी, यौवन सतत स्थिर था । उसके मुख की शोभा शरत्पूर्णिमा के चन्द्रमा की उज्ज्वल प्रभा को चुरानेवाली थी । वह सूक्ष्म वस्त्रों को पहने हुई तथा रत्नों के आभूषणों से विभूषित थी । वह कटाक्षों से ही अनायास तीनों लोकों को मोहित करने में समर्थ थी । वह निरन्तर कामभाव में रहनेवाली तथा गजराज के समान मन्द मन्द चलनेवाली थी । उसके सर्वाङ्ग में रोमाञ्च हो आया । वह मार्ग में ही मूर्च्छित हो गयी । उसे देखकर ब्रह्मा श्रीहरि का स्मरण करते हुए चले गये । आत्माराम (आत्मा में रमण करनेवाले) तथा जितेन्द्रिय ब्रह्मा को कुछ भी विकार नहीं उत्पन्न हुआ । जगत्पति ब्रह्मा ब्रह्मलोक में पहुंच गये । किन्तु कामातुर होने के नाते वह कुलटा चेतनाहीन हो गयी । दिन-रात सोते-जागते वह एकमात्र ब्रह्मा का ही चिन्तन करती थी । उसने सभी उपपतियों को विस्मृत कर दिया, इन्द्र को भी भुला दिया — उठते- बैठते और शयन करते समय (ब्रह्मा के अतिरिक्त किसी का भी स्मरण नहीं करती थी ) । तप्त पात्र में पड़े धान्य की भाँति वह मार्ग में घूमने लगी । उसी बीच अप्सराओं में श्रेष्ठ एवं अति चतुर रम्भा आ गयी, जो कामवश उसी मार्ग से कामदेव के यहाँ जा रही थी । उसने अपनी सहचरी ( सखी-साथी) को देखा कि उसके कण्ठ, ओठ और तालू सूख गये हैं । उसके अभिप्राय से वह समझ गयी, तब मुसकराती हुई उसने पूछा । रम्भा बोली — हे त्रैलोक्य के चित्त को मोहित करनेवाली ! तुम्हारी ऐसी अवस्था क्यों है? हे महाभागे ! शीघ्र बताओ, मैं रम्भा हूँ, होश में आओ । किसको उद्देश्य करके तुम सकाम हुई हो ? अभीष्ट प्रियतम के पास जाओ । कुलटा सबसे सौभाग्य प्राप्त करने वाली या सबकी भोग्या होती है, हम लोग कुल-मर्यादा का पालन करने वाली नहीं हैं। तीनों लोक में सभी लोग इन्द्रियों के सुखार्थ व्यग्र रहते हैं । जहाँ प्राण-संकट उपस्थित हो, वहाँ जीवों को लज्जा किस बात की ? तीनों लोकों में अपने आत्मा से बढ़कर कोई भी प्रिय नहीं होता है । जिनमें जिनका निरन्तर चित्त लगा रहता है, उनके प्राण भी उन्हीं में टिके रहते हैं । प्रिये ! मेरी ओर भी देखो, मैं कामवश कामलोक को जा रही हूँ । तुम सखी के साथ विचार करके मन से उस प्रियतम के पास जाओ । अपनी रक्षा करती हुई, तीनों लोकों में स्त्री जाति के प्रभाव को नष्ट न होने दो। सुरति में अपना अभिप्राय कभी भी प्रकट नही करना चाहिए। जब तक कि अनुरक्त एवं आत्मीय कान्त न मिले । हे प्रिये ! अनुरक्त प्रिय के मिलने पर ही उससे अपना हार्दिक भाव प्रकट करना चाहिए , अन्यथा उपहास होने का भय रहता है और मृत्यु का कारण बनता है । उसकी बात सुनकर वह मन्द मुसकान करती हुई अति लज्जित हुई तथा अपनी हार्दिक बात कहने लगी, जिसके कारण उसकी ऐसी अवस्था हो गयी थी । मोहिनी बोली — रम्भे ! मैंने जबसे निर्जन प्रदेश में ब्रह्मा को देखा है, तभी से मेरा मन कामाग्नि से निरन्तर जल रहा है । ( तबसे ) अपने को भोजन नहीं दिया, क्योंकि भीतर रुचता नहीं है । मैं चन्द्रमा और सूर्य का उदय नहीं जानती । इस समय मुझे निरन्तर स्वप्न और जागरण में भेद नहीं मालूम हो रहा है । मैं चल-फिर नहीं सकती, न बैठ सकती हूँ, केवल ( शय्या पर ) पड़ी रहती हूँ । रम्भे ! इस समय कौन-सा उपाय करूं । लज्जा और शरीर इन दोनों में किसका त्याग करूँ ? मोहिनी की बात सुनकर अप्सरा श्रेष्ठ ने हंसकर उससे हितकर नीतियुक्त और शुभकारक उपाय बताया । रम्भा बोली — भद्रे ! यदि ऐसा ही है, तो निर्भय होकर सुनो! मैं तुम्हारे कल्याण का उपाय कह रहीं हूँ । मैं तुम्हारा सभी दु:ख हटा दूंगी । सुन्दरी ! तुम पहले अपना उत्तम वेश बनाकर काम की उपासना करो और तब उन्हें साथ लेकर ब्रह्मा के पास जाकर उन्हें मोहित करो । वे जितेन्द्रियों में सर्वश्रेष्ठ तथा साक्षात् नारायण स्वरूप हैं, बिना काम की सहायता के उन ईश्वर को कौन शक्ति जीत सकती है । मोहिनि ! पुष्कर क्षेत्र में तपस्या करके काम की सेवा करो, वे दयालु एवं स्त्रियों के स्वामी हैं, तुरन्त तुम्हें दर्शन देंगे । उससे इतना कहकर वह अप्सरा श्रेष्ठ रम्भा काम के यहाँ चली गयी और वह मोहिनी पुष्कर क्षेत्र को गयी । मोहिनी ने पुष्कर में तप करके काम को प्राप्त किया और उसी के साथ वह रोगरहित ब्रह्मलोक को चली गयी । वहाँ निर्जन स्थान में ब्रह्मा को देखकर मोहिनी ने उन्हें मोहित करने के लिए उनके सामने अपना कार्य आरम्भ किया । वह क्षण में देर तक नृत्य करती, तो क्षण में उत्तम गाना गाती, मुझसे सम्बन्धित संगीत उसने प्रारम्भ किया, जो भक्तों के चित्त को मुग्ध करनेवाला था । जगद्विधाता (ब्रह्मा) उसका अभीष्ट संगीत सुनकर मुग्ध हो गये, उनके सर्वांग में रोमाञ्च हो आया और नेत्र सजल हो गये । ब्रह्मा को मुग्ध देखकर मोहिनी बहुत प्रसन्न हुई । ब्रह्मा ने उसके भाव को जानकर अपना मुख नीचे कर लिया और उससे विरत हो गये ( मन हटा लिया )। ब्रह्मा के भाव को समझकर मोहिनी के कण्ठ, ओंठ और तालू सूख गये । अपना प्रयत्न निष्फल समझकर उसने कामनाओं की पूर्ति करनेवाले एवं सर्वश्रेष्ठ कामदेव की स्तुति करना आरम्भ किया । ॥ मोहिनी कृत कामदेव स्तोत्र ॥ ॥ मोहिन्युवाच ॥ सर्वेन्द्रियाणां प्रवरं विष्णोरंशं च मानसम् । तदेव कर्मणां बीजं तदुद्भव नमोऽस्तु ते ॥ ६६ ॥ स्वयमात्मा हि भगवाञ्ज्ञानरूपो महेश्वरः । नमो ब्रह्मञ्जगत्स्रष्टस्तदुद्भव नमोऽस्तु ते ॥ ६७ ॥ सृष्टिः सर्वशरीरेषु दृष्टिश्च योगिनामपि । जगत्साध्य दुराराध्य दुर्निवार नमोऽस्तु ते ॥ ६८ ॥ सर्वाजित जगज्जेतर्जीव जीवमनोहर । रतिबीज रतिस्वामिन्रतिप्रिय नमोऽस्तु ते ॥ ६९ ॥ शश्वद्योषिदधिष्ठान योषित्प्राणाधिकप्रिय । योषिद्वाहन योषास्त्र योषिद्बन्धो नमोऽस्तु ते ॥ ७० ॥ पतिसाध्यकराशेषरूपाधार गुणाश्रय । सुगन्धिवातसचिव मधुमित्र नमोऽस्तु ते ॥ ७१ ॥ शश्वद्योनिकृताधार स्त्रीसंदर्शनवर्धन । विदग्धानां विरहिणां प्राणान्तक नमोऽस्तु ते ॥ ७२ ॥ अकृपा येषु तेऽनर्थास्तेषां ज्ञानविनाशनम् । अनूहरूपभक्तेषु कृपासिन्धो नमोऽस्तु ते ॥ ७३ ॥ तपस्विनां च तपसां विघ्नबीजावलीलया । मनः सकामं मुक्तानां कर्तुं शक्त नमोऽस्तु ते ॥ ७४ ॥ तपःसाध्याश्चाराध्याश्च सदैवं पाञ्चभौतिकाः । पञ्चेन्द्रियकृताधार पञ्चबाण नमोऽस्तु ते ॥ ७५ ॥ मोहिनीत्येवमुक्त्वा तु मनसा सा विधेः पुरः । विरराम नम्रवक्त्रा बभूव ध्यानतत्परा ॥ ७६ ॥ उक्तं माध्यंदिने कान्ते स्तोत्रमेतन्मनोहरम् । पुरा दुर्वाससा दत्तं मोहिन्यै गन्धमादने ॥ ७७ ॥ स्तोत्रमेतन्महापुण्यं कामी भक्त्या यदा पठेत् । अभीष्टं लभते नूनं निष्कलङ्को भवेद् ध्रुवम् ॥ ७८ ॥ चेष्टां न कुरुते कामः कदाचिदपि तं प्रियम् । भवेदरोगी श्रीयुक्तः कामदेवसमप्रभः । वनितां लभते साध्वीं पत्नीं त्रैलोक्यमोहिनीम् ॥ ७९ ॥ मोहिनी बोली — आप सभी इन्द्रियों में श्रेष्ठ तथा विष्णु के मानस अंश हैं । आप ही कर्मों के बींज तथा उनसे उत्पन्न होनेवाले हैं । आपको नमस्कार है । भगवान् स्वयं आत्मा हैं और शिव ज्ञान रूप हैं । ब्रह्मन् ! जगत् के स्रष्टा और उससे उत्पन्न आपको नमस्कार है । आप समस्त शरीरों में स्थित हैं और योगियों की भी दृष्टि हैं । हे संसार के साध्य, दुराराध्य, दुर्निवार ! आपको नमस्कार है । सबसे अजेय ! जगत् के विजेता ! प्रत्येक जीव से मनोहर ! रति के बीज ! रति के स्वामी और रति प्रिय ! आपको नमस्कार । निरन्तर स्त्रियों के अधिष्ठान स्वरूप ! स्त्रियों के प्राणों से भी अधिक प्रिय ! स्त्रीवाहन ! स्त्री-अस्त्रन एवं स्त्री बन्धु ! आपको नमस्कार है । पति को साध्य करनेवाले ! निखिल रूपों के आधार ! गुणों के आश्रय ! सुगन्धित वायु के सचिव ! वसन्त के मित्र ! आपको नमस्कार है । निरन्तर योनि कृत आधार ! स्त्रियों के सम्यक् दर्शन में वृद्धि करनेवाले, चतुर विरही जनों के प्राणान्त करनेवाले ! आपको नमस्कार है । जिन लोगों पर आपकी कृपा नहीं होती है, उनके जीवन व्यर्थं होते हैं, उनके ज्ञान का नाश हो जाता है । भक्तों में आपका रूप अवितवर्य है । हे दयासागर ! आपको नमस्कार है। तपस्वियों के तप में विघ्न डालने में बीज रूप ! मुक्तजनों के मन को लीला पूर्वक सकाम करने में समर्थ ! आपको नमस्कार है । पाञ्चभौतिक जीव सदा इसी प्रकार तपस्या से साध्य एवं आराध्य होते हैं । हे पाँच इन्द्रियों के आधार और पांच बाणवाले (या कामरूप ) ! आपको नमस्कार है । इस प्रकार कहकर मोहिनी विरत हो गयो और ब्रह्मा के सामने मुंह नीचे करके ध्यान-निरत हो गयी । हे कान्ते ! उसने माध्यन्दिन शाखा के अन्तर्गत उक्त मनोहर स्तोत्र को कहा, जिसे पूर्वकाल में गन्धमादन पर्वत पर दुर्वासा ने मोहिनी को दिया था । इस महापुण्य स्तोत्र का पाठ जो कामी भक्तिपूर्वक करता है, उसकी अभीष्ट सिद्धि निश्चय होती है और वह निश्चित निष्कलङ्क होता है । अपने उस प्रिय को काम कभी भी पीड़ित नहीं करता है । वह नीरोग, श्रीसम्पन्न एवं काम के समान कान्तिपूर्ण बना रहता है और उसे तीनों लोकों को मोहित करनेवाली पत्नी प्राप्त होती है । ( अध्याय ३१) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे नारायणनारदसंवादे मोहिनी स्तोत्रवर्णनं नामैकत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३१ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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