ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 32
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
बतीसवाँ अध्याय
ब्रह्मा-मोहिनी संवाद, ब्रह्मा-कृत-श्रीकृष्ण स्तोत्र

श्रीकृष्ण बोले — मोहिनी की स्तुति से कामदेव प्रसन्न हो गये । उसने स्वयं आकाश में स्थित होकर धनुष पर बाण चढ़ाया और उस महास्त्र को मन्त्रपूत करके पिता (ब्रह्मा) के ऊपर छोड़ दिया । काम के अस्त्र से ब्रह्मा चञ्चल और कामुक हो गये । किन्तु ब्रह्मा ज्ञान प्राप्त करके हरि का स्मरण करते हुए विरत हो गये । उन्होंने काम के सारे चरित को जान लिया । फिर क्रोध से विह्वल होकर काम को शाप दे दिया कि – हे काम ! यौवन से उन्मत्त ! मूढ़ ! ऐश्वर्य गर्वित ! मुझ गुरु का तिरस्कार करने के कारण तुम्हारा दर्पभंग होगा । तब जगत् के विधाता ने काम-पीड़ित मोहिनी से कहा जो मन्द मुसकान करती हुई वक्र दृष्टि से उन्हें देख रही थी ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

ब्रह्मा बोले — माता मोहिनी ! यहाँ तुम्हारा कार्य सफल नहीं होगा, इसलिए चली जाओ। मैंने तुम्हारा अभिप्राय समझ लिया है, मैं इस कर्म के योग्य नहीं हूँ । मैं स्वयं वेद-कर्ता और संसार में व्यवस्था करनेवाला हूँ, अतः वेद में मैं जो निन्दित कर्म है, उसे करने में मैं असमर्थ हूँ । वेद-वक्ता को इससे बढ़कर अयश और निन्द्य कर्म क्या हो सकता है ? कामभावना से उपस्थित होनेवाली स्त्री अनुरागी पुरुषों के लिए भी त्याग करने योग्य है और तपस्वियों को तो सर्वदा ही उसका त्याग कर देना चाहिए ऐसा वेद में सुना । अहो ! विशेषकर पुंश्चली स्त्री सभी के लिए त्याज्य है । पुंश्चली स्त्री धन, आयु, प्राण और यश का नाश करनेवाली, दुःखदायिनी, अपने ही कार्य में निरन्तर तत्पर रहनेवाली एवं दूसरे के कार्य को नष्ट करनेवाली है । कुलटा का प्रेम बिजली की कौंध, जल की रेखा, लोभवश मैत्री तथा परद्रोहवश सम्पत्ति के समान (क्षणिक) होता है । कुलटा स्त्री समस्त हिंसक जन्तुओं से बढ़कर विपत्ति का कारण होती है ।

जो मूढ उसका विश्वास करता है, उसे पग-पग पर विपत्ति प्राप्त होती है । तुम रूपवती एवं धन्य हो, युवा पुरुषों की सम्पत्ति स्वरूप और तपस्वियों के लिए विष के समान हो । तुम्ही अप्सराओं में श्रेष्ठ और सदा स्थिर यौवनवाली हो । हे सुन्दरि ! तुम्हारे ही कर्म के योग्य किसी युवा पुरुष को ढूंढ़ो । तुम स्त्रियों में चतुर हो, इसलिए किसी चतुर पुरुष की खोज करो । चतुर स्त्री का चतुर पुरुष के साथ संगम गुणवान् होता है । मैं तो वृद्धावस्था से आतुर, वृद्ध, तपस्वी, वैष्णव ब्राह्मण, अस्वतन्त्र और पराधीन हूँ । पुंश्चलियों में मेरा क्या अनुराग होगा ? मैं नाम से जगत्स्रष्टा हूँ, इसलिए तुम्हारा सदा पिता हूँ, तुम चन्द्रमित्र, कामदेव, जयन्त, नलकूबर, अश्विनीकुमार, बुध और सुन्दर दिति-पुत्रों के पास जाओ । वे कामशास्त्र में निपुण एवं रति-कर्म में दक्ष हैं । जो तुम उन्हें त्यागकर मेरे पास आयी हो सो तुम निपुण कामुकी कैसे हो ?

संभोग के विषय में सदा पुरुष ही स्त्री की प्रार्थना करता है, यदि स्त्री पुरुष के पास जाती है तो यह एक विपरीत विडम्बना है। सभी रत्नों में स्त्री-रत्न परम दुर्लभ होता है । स्वामी स्वयं स्त्री की प्रार्थना करता है, न कि स्त्री ही स्वामी की प्रार्थना करती है । स्त्री जातियों में उन स्त्रियों को धिक्कार है, जो स्वयं ( पुरुषों के पास) उपस्थित होती हैं । रत्न के स्वयं उपस्थित होने पर उसका मूल्य बहुत कम हो जाता है । नित्य पुरुष ही स्त्री के पास जाता है, स्त्री प्रिय के पास नहीं जाती है । लोकाचारों और वेदों में ऐसा नहीं देखा गया है कि स्त्री परपुरुष के पास जाती है । जो समय पर अपनी ही वस्तु का शास्त्र विधान द्वारा उपभोग करता है, वही पूज्य है, दूसरे की वस्तु से प्रेम करनेवाला पूज्य नहीं है । हे अबले ! तीनों लोकों में कौन किसका शत्रु है ? अपनी ही सब इन्द्रियाँ शत्रु हैं, जिनके निमित्त शत्रुता उत्पन्न होती है । वेदानुसार आचरण करने पर सारा जगत् मित्र हो जाता है ।

वेद विरुद्ध आचरण करने पर मित्र भी शत्रु हो जाता है और वेदानुसार चलनेवाले पर भगवान् दिन-रात प्रसन्न रहते हैं । भगवान् के तुष्ट रहने पर संसार तुष्ट रहता है और उनके रुष्ट होने पर संसार शत्रु हो जाता है । कहाँ है कुलटा जाति ? अथवा पतिव्रता जाति ही कहाँ है ? संसार में अपने ही आचरण द्वारा किये गये कर्म से सब कुछ होता है । स्त्री जाति प्रकृति के अंश से उत्पन्न हुई है जिसका निर्माण नारायण ने स्वयं किया है । दुःशील स्त्री पुंश्चली और निन्दनीय होती है और सुशील स्त्री पतिव्रता होती है । पतिव्रताएँ तीन प्रकार की होती हैं । पुंश्चली स्त्रियों का ऐसा कोई भेद नहीं है । जो स्त्री स्वयं परपुरुष के पास जाती है, वह स्त्री जातियों के बीच कुल की काजल है । ऐसी स्त्री संसार में रति के लिए स्वयं वेश बनाकर परपुरुष के पास जाती है । यदि भक्ष्य द्रव्य को देखती हुई वह क्षुब्ध कर दी जाती है तो अकुलीन होने के कारण उसे साध्य नहीं किया जा सकता, वह केवल सामान्य ही है ।

इतना कहकर जगद्विधाता (ब्रह्मा) चुप हो गये और क्रोध से फड़कते हुए ओंठवाली वह ( अप्सरा ) बोलने के लिए उद्यत हो गयी ।

मोहिनी बोली — हे जगत् के धाता ! मुझे इस समय तुम्हारा सब चरित मालूम हो गया है । तुमने जो नीति सुनायी है, इससे मेरा मन स्थिर नहीं होगा। जिस क्षण आपको देखा तभी से आप में मेरा मन लग गया है । तुम्हारे मुख देखने मात्र से अन्य सभी विस्मृत हो गये । यह हमारी देह काम की अग्नि से दग्ध होने लगी । जब मैं इसका त्याग करने को तैयार हुई तो रम्भा ने मुझे मना किया और इस प्रकार की मंत्रणा दी । तब मैं काम को सहायक बनाकर तुम्हारे समीप आयी । तुम्हारे शाप के कारण वह असफल होकर वसन्त को साथ लिये चला गया । यद्यपि तुमने मेरी भी भर्त्सना की किन्तु मैं जाने में असमर्थ हूँ । विभो ! इस समय मेरे सभी अंगों में जड़ता आ गयी है । कृपासिन्धो ! मुझ पर कृपा करो, मेरी हत्या करना तुम्हें उचित नहीं है । कर्मवश तुम्हीं जगत् के विधाता हुए हो और मैं कुलटा हुई हूँ । सज्जन लोग गर्व नहीं करते हैं। प्राणी कर्म-साध्य होते हैं । अतएव कोई सवारी से चलता है और कुछ लोग उसको ढोते हैं । ( कर्म से ) राजा कर ग्रहण करता है और प्रजाएं उसे देती हैं । कोई सिंहासन पर बैठता है और कोई नाममात्र का ही राजा है । अपने कर्म से कोई अनेक प्रकार के हो गये हैं । ( कर्म से ही ) कोई अश्व की पीठ पर और कोई हाथी की पीठ पर बैठकर चलते हैं । कर्म से कोई वाहक होते हैं और ( कर्म से ही ) वाहन-पालक होते हैं। अपने कर्म से कोई सूकरी के गर्भ में जाता है । कोई इन्द्राणी के गर्भ में जाता है, कोई आपके पुत्र होते हैं । कोई हरि की दास्य-भक्ति करके उनके पार्षद होते हैं ।

कोई भाग्य के दोष से विष्ठा के कीड़े होते हैं । कोई राजेन्द्र अपने कर्म के प्रभाव से स्वर्ग को जाते हैं । कोई नरक में जाते हैं और वहाँ विष्ठा एवं मूत्र में पकते हैं । कोई कर्म से देवप्रवर इन्द्र के भी इन्द्र होते हैं । कोई देवता, कोई मनुष्य और कोई क्षुद्र जन्तु होते हैं । कोई कर्म के प्रभाव से भूतल पर वर्णश्रेष्ठ ब्राह्मण होते हैं । कोई भूप, कोई वैश्य, कोई शूद्र और कोई म्लेच्छ होते हैं । कोई अपने कर्म से विद्वान् और कोई ज्ञान से सर्वदर्शी होते हैं । कोई मूर्ख कोई अन्धे, कोई अङ्गहीन होते हैं। कोई अपने कर्म से शिष्यों को शास्त्र का बोध कराते हैं । कोई पढ़ते हैं और गुरु के मुख से सभी पदार्थ को जान लेते हैं। कोई स्थावर और कोई जंगम की देह धारण करते हैं । तुम कर्म से ब्रह्मा हुए हो। कोई स्त्री अपने कर्म से पतिव्रता एवं दूसरे लोक में पूज्य होती है । कोई अपने अंगों का विक्रय करके जीविका चलाती है । मैं स्वर्ग की अप्सरा हूँ, सुरपुरी में देवताओं की भोग्या तथा सम्मानित हूँ ।

उन ( देवताओं) के आलिङ्गन मात्र से कर्मों का खंडन हो जाता है । मन का बीज है स्वभाव और स्वभाव का बीज कर्म है । उस कर्म और फल के बीज हैं सर्वोत्पादक हरि । स्वयं परमात्मा ही कर्म के द्वारा नियत फल देते हैं । कर्मरूपी जनार्दन सबसे बलवान् होते हैं । किस कारण मैं निन्दित हूँ ? और तुमने ही मेरी भर्त्सना क्यों की ? मैं तो जगत् स्रष्टा ईश्वर के चरणों का दर्शन करने आयी हूँ, जिसके चरणयुगल का दर्शन योगी स्वप्न में भी नहीं कर पाते हैं । उसी ईश्वर को पति बनाने की इच्छा से मैं स्वयं आयी हूँ । किसी दूसरे के स्थान में जाकर (जाने से ) मैं इस लोक तथा परलोक में भी अस्पृश्य हो जाऊँगी। क्योंकि स्त्रियाँ किसी एक की चरणधूलि से यशस्विनी होती हैं ।

यह कहकर मोहिनी शीघ्र बह्मा के आगे जाकर बैठ गयी । जगत् के विधाता (ब्रह्मा) कुलटा के भय से काँपने लगे । मोहिनी मुसकराकर तिरछी चितवन से कामभाव प्रकट करने लगी । इसी बीच सर्वज्ञ एवं समस्त योगों के वेत्ता काम ने प्रकट होकर ब्रह्मा के ऊपर पाँचों बाणों को चला दिया — सम्मोहन, समुद्वेग, बीजस्तम्भितकारण, ज्वलद उन्मत्तबीज तथा निरन्तर चेतनाहारक — इनको चलाकर कामदेव स्वयं आकाश में स्थित हो गया । उसने हर्ष से पिता को मोहित करने के लिए अपने सेवकों को भेजा । उसके सेवक में थे— वसन्त ऋतु, कोयल, भ्रमर तथा मनोहर सुगन्धित वायु । काम स्वयं भी ब्रह्मा के भीतर प्रविष्ट होकर विकार उत्पन्न करने लगा । उनके समीप नर कोकिल मधुर शब्द करने लगा । सामने स्थित होकर भौंरा गुञ्जार करने लगा । शीतल, मन्द, सुगन्ध, वायु बहने लगा । प्रिये ! वहाँ स्वयं वसन्त मुदित होकर भ्रमण करने लगा । तब जगत् के विधाता ब्रह्मा सर्वाङ्ग से पुलकित हो उठे । उन्होंने बार-बार हँसकर मोहिनी का भाव देखा । वह तिरछी चितनवाली काम के अस्त्रों से चेतना खो बैठी । विधाता ने समस्त धर्मों के निबन्धन को जान लिया, किन्तु अपने मन को नियन्त्रित न कर सके ।

तब भय से श्रीहरि का स्मरण करने लगे । वे मन से, शान्त, हृदय-कमल पर विराजमान, दो भुजाओंवाले, हाथ में मुरली लिये हुए, पीताम्बरधारी, श्रेष्ठ, अत्यन्त कमनीय, किशोर, स्थिर यौवनवाले, रत्नों के आभूषणों से सम्पन्न, मन्द मुसकान से युक्त, श्याम सुन्दर कृष्ण की स्तुति करने लगे ।

॥ ब्रह्मा रचित श्री कृष्णस्तोत्र ॥
॥ ब्रह्मोवाच ॥
रक्ष रक्ष हरे मां च निमग्नं कामसागरे ।
दुष्कीर्तिजलपूर्णे च दुष्पारे बहुसंकटे ॥ ७४ ॥
भक्तिविस्मृतिबीजे च विपत्सोपानदुस्तरे ।
अतीव निर्मलज्ञानचक्षुःप्रछन्नकारणे ॥ ७५ ॥
जन्मोर्मिसंघसहिते योषिन्नक्रौघसंकुले ।
रतिस्रोतःसमायुक्ते गंभीरे घोर एव च ॥ ७६ ॥
प्रथमामृतरूपे च परिणामविषालये ।
यमालयप्रदेशाय मुक्तिद्वारातिविस्मृते ॥ ७७ ॥
बुद्ध्या तरण्या विज्ञानैरुद्धरास्मानतः स्वयम् ।
स्वयं च त्वं कर्णधारः प्रसीद मधुसूदन ॥ ७८ ॥
मद्विधाः कतिचिन्नाथ नियोज्या भवकर्मणि ।
सन्ति विश्वेश विधयो हे विश्वेश्वर माधव ॥ ७९ ॥
न कर्मक्षेत्रमेवेदं ब्रह्मलोकोऽयमीप्सितः ।
तथापि नः स्पृहा कामे त्वद्भक्तिव्यवधायके ॥ ८० ॥
हे नाथ करुणासिन्धो दीनबन्धो कृपां कुरु ।
त्वं महेश महाज्ञाता दुःस्वप्नं मां न दर्शय ॥ ८१ ॥
इत्युक्त्वा जगतां धाता विरराम सनातनः ।
ध्यायंध्यायं मत्पदाब्जं शश्वत्सस्मार मामिति ॥ ८२ ॥
ब्रह्मणा च कृतं स्तोत्रं भक्तियुक्तश्च यः पठेत् ।
स चैवाकर्ण्य विषये न निमग्नो भवेद्ध्रुवम् ॥ ८३ ॥
मम मायां विनिर्जित्य संज्ञानं लभते ध्रुवम् ।
इह लोके भक्तियुक्तो मद्भक्तप्रवरो भवेत् ॥ ८४ ॥

ब्रह्मा बोले — हे हरे ! मेरी रक्षा करो, मैं कामसागर में डूब रहा हूँ, जो दुष्कीर्तिरूपी जल से पूर्ण, अति कठिनाई से पार किया जाने वाला एवं अतिसंकटमय है । वह भक्ति के विस्मरण का बीज ( मूलकारण ), विपत्तिरूपी सोपान (सीढ़ियों) के कारण दुस्तर, निर्मल ज्ञानरूपी नेत्र को अत्यन्त प्रच्छन्न करनेवाला, जन्मरूपी तरङ्गसमुदाय से युक्त, स्त्रीरूपी मगर समूह से व्याप्त, रतिरूपी नदियों से युक्त तथा भयंकर है । वह आरम्भ में अमृत रूप तथा परिणाम में विष का घर है और यमपुरी में प्रवेश के लिए अति विस्तृत खुला दरवाजा है । इसलिए हे मधुसूदन ! अपनी बुद्धिरूपी नौका से विज्ञान के द्वारा स्वयं पार करो। तुम स्वयं कर्णधार (पतवार चलानेवाले) हो, प्रसन्न हो जाओ । हे नाथ ! हे विश्वेश, हे विश्वेश्वर, हे माधव ! इस संसार सृष्टि के कार्य में मेरे समान अनेकों ब्रह्मा नियुक्त हैं । यद्यपि यह अभीष्ट ब्रह्मलोक है, कर्मक्षेत्र नहीं, तथापि तुम्हारी भक्ति में व्यवधान डालने वाले काम की इच्छा नहीं है । हे नाथ ! करुणासिंधो ! हे दीनबन्धो ! मेरे ऊपर कृपा करो । हे महेश ! तुम महान् ज्ञाता हो, मुझे दुःस्वप्न न दिखाओ।

इतना कहकर जगत् के विधाता एवं सनातन ब्रह्मा चुप हो गये और बार-बार मेरे चरण-कमलों में ध्यानपूर्वक निरन्तर मेरा स्मरण करने लगे । इस प्रकार ब्रह्मा-कृत स्तोत्र का जो भक्तिपूर्वक पाठ या श्रवण करेगा, वह विषय में नहीं फँसेगा, यह निश्चित है । वह मेरी माया को जीतकर निश्चित रूप से सम्यक् ज्ञान प्राप्त करेगा तथा मेरा श्रेष्ठ भक्त होगा ।  ( अध्याय ३२)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे नारायणनारदसंवादे ब्रह्ममोहिनीसंवादे द्वात्रिंशोऽध्यायः ॥ ३२ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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