February 26, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 40 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ चालीसवाँ अध्याय पार्वती की तपस्या, उनके तप के प्रभाव से अग्नि का शीतल होना, ब्राह्मण – बालक का रूप धारण करके आये हुए शिव के साथ उनकी बातचीत, पार्वती का घर को लौटना और माता-पिता आदि के द्वारा उनका सत्कार, भिक्षुवेषधारी शंकर का आगमन, शैलराज को उनके विविध रूपों के दर्शन, उनकी शिव भक्ति से देवताओं को चिन्ता, उनका बृहस्पतिजी को शिव-निन्दा के लिये उकसाना तथा बृहस्पति का देवताओं को शिव-निन्दा के दोष बताकर तपस्या के लिये जाना श्रीराधिका बोलीं — प्रभो ! यह बहुत ही विचित्र और अपूर्व चरित्र सुनने को मिला है, जो कानों में अमृत के समान मधुर, सुन्दर, निगूढ़ एवं ज्ञान का कारण है। भगवन् ! यह न तो अधिक संक्षेप से सुना गया है और न विस्तार से ही । परंतु अब विस्तार से ही सुनने की इच्छा है; अतः आप विस्तारपूर्वक इस विषय का वर्णन कीजिये । पार्वती ने स्वयं कौन-कौन-सा कठोर तप किया था ? और किस-किस वर को पाकर किस तरह महेश्वर को प्राप्त किया तथा रति ने फिर किस प्रकार कामदेव को जीवित कराया ? प्यारे कृष्ण ! आप पार्वती और शिव के विवाह का वर्णन कीजिये । श्रीकृष्ण ने कहा — प्राणाधिके राधिके ! प्राणवल्लभे! सुनो। प्राणेश्वरि ! तुम प्राणों की अधिष्ठात्री देवी हो । प्राणाधारे! मनोहरे! जब रुद्रदेव वटवृक्ष के नीचे से चले गये, तब पार्वती माता- पिता के बार-बार रोकने पर भी तपस्या के लिये चली गयी । गङ्गा तट पर जा तीनों काल स्नान करके वह मेरे दिये हुए मन्त्र का प्रसन्नतापूर्वक जप करने लगी। उस जगदम्बा ने पूरे एक वर्ष तक निराहार रहकर भक्ति भाव से तपस्या की । तदनन्तर और भी कठोर तप आरम्भ किया । ग्रीष्म ऋतु में अपने चारों ओर आग प्रज्वलित करके वह दिन- रात उसे जलाये रखती और उसके बीच में बैठकर निरन्तर मन्त्र जपती रहती थी । वर्षा ऋतु आने पर श्मशानभूमि में शिवा सदा योगासन लगाकर बैठती और शिला की ओर देखती हुई जल की धारा से भीगती रहती थी। शीतकाल आने पर वह सदा जल के भीतर प्रवेश कर जाती तथा शरत् की भयंकर बर्फवाली रातों में भी निराहार रहकर भक्तिपूर्वक तपस्या करती थी । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय इस प्रकार अनेक वर्षों तक कठोर तप करके भी जब सती-साध्वी पार्वती शंकर को न पा सकी, तब वह शोक से संतप्त हो अग्निकुण्ड का निर्माण करके उसमें प्रवेश करने को उद्यत हो गयी । तपस्या से अत्यन्त कृशकाय हुई सती शैल पुत्री को अग्निकुण्ड में प्रवेश करने को उद्यत देख कृपासिन्धु शिव कृपा करके स्वयं उसके पास गये । अत्यन्त नाटे कद के बालक ब्राह्मण का रूप धारण करके अपने तेज से प्रकाशित होते हुए भगवान् शिव मन-ही-मन बड़े हर्ष का अनुभव कर रहे थे । उनके सिर पर जटा थी। उन्होंने दण्ड और छत्र भी ले रखे थे। श्वेत वस्त्र, श्वेत यज्ञोपवीत, श्वेत कमल के बीजों की माला एवं श्वेत तिलक धारण किये वे मन्द मन्द मुस्करा रहे थे । निर्जन स्थान में उस बालक को देखकर पार्वती के हृदय में स्नेह उमड़ आया। उसके तेज से अत्यन्त आच्छादित हो उन्होंने स्वयं तप छोड़ दिया और सामने खड़े हुए शिशु से पूछा — ‘तुम कौन हो ?’ शिवा बड़े आदर के साथ उसे हृदय से लगा लेना चाहती थी । शैलकुमारी का प्रश्न सुनकर परमेश्वर शिव हँसे और ईश्वरी के कानों में अमृत उड़ेलते हुए-से मधुर वाणी में बोले । शंकर ने कहा — मैं ‘इच्छानुसार विचरने वाला ब्रह्मचारी एवं तपस्वी ब्राह्मण-बालक हूँ; परंतु सुन्दरि ! तुम कौन हो, जो परम कान्तिमती होकर भी इस दुर्गम वन में तप कर रही हो ? बताओ, किसके कुल में तुम्हारा जन्म हुआ है ? तुम किसकी कन्या हो और तुम्हारा नाम क्या है ? तुम तो तपस्या का फल देनेवाली हो; फिर स्वयं किसलिये तपस्या करती हो ? कमललोचने ! तुम तपस्या की मूर्तिमती राशि हो । अवश्य ही तुम्हारा यह तप लोकशिक्षा के लिये है । तुम मूलप्रकृति ईश्वरी, लक्ष्मी, सावित्री और सरस्वती – इन देवियों में से कौन हो ? इसका अनुमान करने में मैं असमर्थ हूँ। कल्याणि! तुम जो भी हो, मुझ पर प्रसन्न हो जाओ; क्योंकि तुम्हारे प्रसन्न होने पर परमेश्वर प्रसन्न होंगे । पतिव्रता स्त्री के संतुष्ट होने पर स्वयं नारायण संतुष्ट होते हैं और नारायणदेव के संतुष्ट होने पर सदा तीनों लोक संतोष का अनुभव करते हैं; ठीक उसी तरह जैसे वृक्ष की जड़ सींच देने पर उसकी शाखाएँ स्वतः सिंच जाती हैं । शिशु की यह बात सुनकर परमेश्वरी शिवा हँसने लगी और कानों में अमृत की वर्षा करती हुई मनोहर वाणी बोली । पार्वती ने कहा — ब्रह्मन् ! न तो मैं वेदजननी सावित्री हूँ, न लक्ष्मी हूँ और न वाणी की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती ही हूँ। मेरा जन्म भारतवर्ष में हुआ है। मैं इस समय गिरिराज हिमवान् की पुत्री हूँ। इससे पहले मेरा जन्म प्रजापति दक्ष के घर में हुआ था । उस समय मैं शंकर-पत्नी सती के नाम से प्रसिद्ध थी। एक बार पिता ने पति की निन्दा की। इसलिये मैंने योग के द्वारा अपने शरीर को त्याग दिया। इस जन्म में भी पुण्य के प्रभाव से भगवान् शंकर मुझे मिल गये थे; परंतु दुर्भाग्यवश वे मुझे छोड़कर और कामदेव को भस्म करके चले गये । शंकरजी के चले जाने पर मैं मानसिक संताप और लज्जा से विवश हो पिता के घर से तपस्या के लिये निकल पड़ी। अब मेरा मन इस गङ्गाजी के तट पर ही लगता है । दीर्घकाल तक कठोर तप करके भी मैं अपने प्राणवल्लभ को न पा सकी । इसलिये अग्नि में प्रवेश करने जा रही थी। किंतु तुम्हें देखकर क्षणभर के लिये रुक गयी । अब तुम जाओ। मैं प्रलयाग्नि की शिखा के समान प्रज्वलित अग्नि में प्रवेश करूँगी । ब्रह्मन् ! महादेवजी की प्राप्ति का संकल्प मन में लेकर शरीर का त्याग करूँगी और जहाँ-जहाँ भी जन्म लूँगी, परमेश्वर शिव को ही पति के रूप में प्राप्त करूँगी । प्रत्येक जन्म में भगवान् शिव ही मेरे प्राणों से भी बढ़कर प्रियतम पति होंगे। सब स्त्रियाँ अपने प्रियतम को ही पाने के लिये मनोवाञ्छित जन्म ग्रहण करती हैं। उन सबका वह जन्म अपने अभीष्ट पति की उपलब्धि के लिये ही होता है, ऐसा श्रुति में सुना गया है। पूर्वजन्म का जो पति है, वही स्त्रियों के प्रत्येक जन्म में पति होता है । जो स्त्री जिनकी पत्नी नियत है, वही उन्हें प्रत्येक जन्म में प्राप्त होती है; अतः इस जन्म में घोरतर तप के पश्चात् भी पति को न पाकर मैं यहाँ इस शरीर को अग्निकुण्ड में होम दूँगी। मेरा यह कार्य पति की कामना को लेकर होगा; इसलिये परलोक में मैं उन्हें अवश्य प्राप्त करूँगी । यों कहकर पार्वती वहाँ ब्राह्मण के बार-बार मना करने पर भी उसके सामने ही अग्निकुण्ड में समा गयी । परमेश्वरी राधे ! पार्वती के अग्नि प्रवेश ही करते उसकी तपस्या के प्रभाव से वह अग्नि तत्काल चन्दन के समान शीतल हो गयी। वृन्दावन-विनोदिनि ! एक क्षण तक अग्निकुण्ड में रहकर जब शिवा ऊपर आने लगी, तब शिव ने पुनः सहसा उससे पूछा । श्रीमहादेवजी बोले — भद्रे ! तुम्हारी तपस्या क्या है ? ( सफल है या असफल ? ) यह कुछ भी मेरी समझ में नहीं आया । जिस तप के प्रभाव से अग्नि ने तुम्हारा शरीर नहीं जलाया, उसी से तुम्हारी मनोवाञ्छित कामना पूर्ण नहीं हुई; यह आश्चर्य की बात है। तुम कल्याण-स्वरूप शिव को पति बनाना चाहती हो; परंतु वे तो निराकार हैं ! निराकार को पति बनाकर तुम्हारा कौन-सा मनोरथ सिद्ध होगा ? शुचिस्मिते! यदि संहारकर्ता हर को स्वामी बनाने की इच्छा है तो यह भी ठीक नहीं है; क्योंकि कौन ऐसी स्त्री है जो सर्वसंहारकारी को अपना कान्त (प्राणवल्लभ) बनाने की इच्छा करेगी ? देवि ! यदि उन्हें अपना स्वामी बनाकर तुम मोक्ष लेना चाहती हो तो इसके लिये तुम्हारी तपस्या व्यर्थ है; क्योंकि सबको मुक्ति प्रदान करने वाली तो तुम स्वयं ही हो ! ‘शिव’ का अर्थ है – मङ्गल (कल्याण), मोक्ष और संहारकर्ता । इसके अतिरिक्त अन्य अर्थ में इस शब्द का प्रयोग नहीं देखा जाता। शिव शब्द का दूसरा कोई अर्थ वेद में नहीं निरूपित हुआ है । सुन्दरि ! यदि तुम संहारकर्ता शिव को चाहती हो, तब तो सर्वलोक-भयंकर रुद्र को अपने प्रति अनुरक्त पाओगी। न तो तुम्हारा मोक्ष होगा और न अपने अभीष्ट देवता की सेवा ही उपलब्ध होगी । भगवान् श्रीहरि का स्मरण अमोघ है, वह सदा सब प्रकार से सम्पूर्ण मङ्गलों का दाता है । अब तुम शीघ्र ही अपने पिता के घर जाओ। वहाँ मेरे आशीर्वाद से और अपने तप के फल से तुम्हें परम दुर्लभ शिव के दर्शन प्राप्त होंगे। ऐसा कहकर ब्राह्मण वहीं अन्तर्धान हो गया। दुर्गा ‘ महादेव! महादेव ! ‘ का उच्चारण करती हुई पिता के घर की ओर चल दी । पार्वती का आगमन सुनकर मेना और हिमालय दिव्य यान को आगे करके हर्ष-विह्वल हो अगवानी के लिये चले । सारा नगर सजाया गया। मार्गों पर चन्दन, कस्तूरी आदि का छिड़काव हुआ । बाजे बजने लगे । शङ्ख-ध्वनि गूँज उठी। सड़कों पर सिन्दूर तथा चन्दन के जल से कीच मच गयी । नगर में प्रवेश करके दुर्गा ने माता-पिता के दर्शन किये। वे दोनों अत्यन्त प्रसन्न हो दौड़ते हुए सामने आये। उनके नेत्रों में हर्ष के आँसू भरे थे और अङ्ग अङ्ग पुलकित हो रहा था । देवी शिवा के मुख पर भी प्रसन्नता थी । उसने सखियों सहित निकट जा माता-पिता को प्रणाम किया। तब उन दोनों ने आशीर्वाद देकर पुत्री को हृदय से लगा लिया और ‘ओ मेरी बच्ची !’ कहकर प्रेम से विह्वल हो रोने लगे। उस समय दुर्गा को रथ पर बिठाकर वे दोनों अपने घर गये । स्त्रियों ने निर्मञ्छन किया और ब्राह्मणों ने आशीर्वाद दिया। पर्वतराज ने ब्राह्मणों और बन्दीजनों को धन दिया। उनसे वेद- पाठ और मङ्गल-पाठ करवाये। इस प्रकार वे दोनों अपनी पुत्री के साथ सुख से घर में रहने लगे । शिवा के आ जाने से उनके मन में बड़ा हर्ष था । एक दिन हिमवान् तप करने के लिये गङ्गाजी के तट पर गये। मेना अपनी पुत्री के साथ प्रसन्नतापूर्वक घर के आँगन में बैठी थीं। इसी समय एक नाचने-गाने वाला भिक्षुक सहसा मेना के पास आया। उसके बायें हाथ में सींग का बाजा और दायें हाथ में डमरू था । बहुत ही वृद्ध और जरा से अत्यन्त जर्जर हो चुका था । उसने सारे शरीर में विभूति लगा रखी थी। पीठ पर गुदड़ी लिये और लाल वस्त्र पहने वह भिक्षुक बड़ा मनोहर जान पड़ता था । उसका कण्ठ बड़ा ही मधुर था। वह मनोहर नृत्य करते हुए मेरे गुणों का गान करने लगा । कभी शृङ्ग बजाता और कभी डमरू । उसके बाजे की आवाज सुनकर बहुत-से नागरिक हर्ष-विह्वल हो वहाँ आ गये। दर्शकों में बालक, बालिका, वृद्ध, युवक, युवतियाँ तथा वृद्धाएँ भी थीं। मधुर तान और स्वर से युक्त उस सुन्दर गीत को सुनकर सहसा सब लोग मोहित एवं मूर्च्छित हो गये । दुर्गा को भी मूर्च्छा आ गयी । उसने अपने हृदय में भगवान् शंकर को देखा। वे त्रिशूल, पट्टिश और व्याघ्रचर्म धारण किये सम्पूर्ण अङ्ग विभूति से विभूषित थे। बड़ा ही रम्य रूप था । गले में अत्यन्त निर्मल अस्थियों की माला शोभा देती थी । प्रसन्नमुख पर मन्द हास्य की छटा छा रही थी। उनकी आकृति से आन्तरिक उल्लास सूचित होता था । पाँच मुख और प्रत्येक मुख में तीन-तीन नेत्र शोभा पाते थे। हाथ में माला, कंधे पर नागों का यज्ञोपवीत और मस्तक पर चन्द्राकार मुकुट-बड़ी सुन्दर झाँकी थी। वे पार्वती से कह रहे थे कि वर माँगो | हृदय स्थित हर को देखकर पार्वती ने मन-ही-मन उन्हें प्रणाम किया और वर माँगा, ‘आप हमारे पति हो जाइये।’ ‘एवमस्तु’ कहकर शिव अन्तर्धान हो गये। हृदय में शिव को न देखकर दुर्गा की मूर्च्छा भङ्ग हुई। उसने आँख खोलकर देखा, सामने वही भिक्षुक गा रहा है। भिक्षु के नृत्य और संगीत से संतुष्ट हो मेना सोने के पात्र में बहुत-से रत्न ले उसे देने के लिये गयीं; परंतु भिक्षु ने भिक्षा में दुर्गा को ही माँगा; दूसरी कोई वस्तु नहीं ली। वह कौतुकवश पुनः नृत्य करने को उद्यत हुआ; परंतु मेना उसकी बात सुनकर कुपित हो उठी थीं। उन्हें आश्चर्य भी हुआ था। उन्होंने भिक्षुक को बहुत डाँटा तथा उसे घर से बाहर निकाल देने की आज्ञा दी। इसी बीच में अपना तप पूरा करके हिमवान् घर पर आये। वहाँ उन्हें आँगन में खड़ा हुआ एक भिक्षु दिखायी दिया, जो बड़ा मनोहर था । उसके विषय में मेना के मुख से सब बातें सुनकर हिमवान् हँसे और रुष्ट भी हुए । उन्होंने अपने सेवक को आज्ञा दी – ‘ इस भिक्षुक को बाहर निकाल दो ।’ परंतु वह कोई साधारण भिक्षुक नहीं था । आकाश की भाँति उसका स्पर्श करना भी कठिन था । वह अपने तेज से प्रज्वलित हो रहा था । उसे कोई बाहर न कर सका। उसके निकट जाने की भी किसी में क्षमता नहीं थी । हिमवान् ने एक ही क्षण में देखा – उस भिक्षुक के सुन्दर चार भुजाएँ हैं; मस्तक पर किरीट, कानों में कुण्डल तथा शरीर पर पीताम्बर शोभा पाता है; श्याम सुन्दर रुचिर वेष मन को मोहे लेता है; मुख पर मन्द मुस्कान की प्रभा फैल रही है । सम्पूर्ण अङ्ग चन्दन से चर्चित हैं तथा वे श्रीहरि ( रूपधारी शिव) भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये कातर जान पड़ते हैं। हिमवान् श्रीहरि के उपासक थे। उन्होंने पूजा काल में भगवान् गदाधर को जो-जो फूल चढ़ाये थे, वे सब भिक्षुक के अङ्ग में और मस्तक पर देखे । उनके द्वारा जो धूप-दीप दिये गये थे अथवा जो मनोरम नैवेद्य निवेदित हुआ था, वह भी भिक्षुक के सामने प्रस्तुत दिखायी दिया। दूसरे ही क्षण में वह भिक्षुक द्विभुज रूप में दृष्टिगोचर हुआ। अब उसके हाथ में विनोद की साधनभूता मुरली थी । गोपवेष, किशोर अवस्था, श्यामसुन्दर वर्ण, मुस्कराता हुआ मुख, मस्तक पर मोरपंख का मुकुट, श्रीअङ्गों में रत्नमय आभूषण, चन्दन के अङ्गराग तथा गले में वनमाला – मानो साक्षात् श्रीकृष्ण दर्शन दे रहे हों। फिर क्षणभर में वह उज्ज्वल – कान्ति चन्द्रशेखर शिव के रूप में दिखायी दिया। उसके हाथों में त्रिशूल और पट्टिश शोभा पा रहे थे । वस्त्र की जगह सुन्दर बाघम्बर था। सम्पूर्ण अङ्गों में विभूति लगी थी । धवल वर्ण था । गले में अस्थियों की माला थी, जो आभूषण का काम देती थी। कंधे पर सर्पमय यज्ञोपवीत तथा सिर पर तपाये हुए सुवर्ण की-सी कान्ति वाली जटा थी । हाथों में शृङ्ग और डमरू थे। सुप्रशस्त एवं मनोहर रूप चित्त को आकृष्ट कर लेता था । भगवान् शिव श्वेत कमलों के बीज की माला से हरिनाम का जप करते थे। उनके प्रसन्न मुख पर मन्दहास की छटा छा रही थी। वे भक्तों पर अनुग्रह के लिये कातर दिखायी देते थे। अपने तेज से प्रज्वलित हो रहे थे। उनके पाँच मुख और प्रत्येक मुख में तीन-तीन नेत्र थे। फिर दूसरे ही क्षण में वह भिक्षुक ‘जगत्स्रष्टा’ चतुर्मुख ब्रह्मा के रूप में दृष्टिगोचर हुआ । ब्रह्माजी स्फटिक की माला लेकर हरिनाम का जप कर रहे थे । हिमवान् ने देखा, क्षणभर में वह त्रिगुणात्मक सूर्यस्वरूप हो गया । अत्यन्त दुःसह प्रकाश से युक्त सूर्यदेव ब्रह्मतेज से जाज्वल्यमान थे। फिर एक क्षण तक वह अत्यन्त तेज से प्रज्वलित अग्नि के रूप में विद्यमान रहा । तत्पश्चात् क्षणभर आह्लादजनक चन्द्रमा के रूप में शोभा पाता रहा । तदनन्तर एक ही क्षण में तेज: स्वरूप, निराकार, निरञ्जन, निर्लिप्त, निरीह परमात्मस्वरूप में स्थित हो गया । इस प्रकार स्वेच्छामय नाना रूप धारण करने वाले परमेश्व रका दर्शनकर शैलराज के नेत्रों में आनन्द के आँसू छलक आये । उनका अङ्ग- अङ्ग पुलकित हो गया। उन्होंने साष्टाङ्ग दण्डवत्- प्रणाम किया और भक्तिभाव से परिक्रमा करके बारंबार मस्तक झुकाया । फिर हर्ष से उछलकरहिमवान् ने जब पुनः देखा तो वही भिक्षुक सामने था । वास्तव में वह भिक्षुक ही है – ऐसा उन्हें दिखायी दिया । भगवान् विष्णु की माया से शैलराज उसके नाना रूप धारण-सम्बन्धी सब बातों को भूल गये । भिक्षुक उनसे भीख माँगने लगा। उसके पास भिक्षा का पात्र था। उसने रक्त वस्त्र धारण किया था। हाथों में शृङ्ग और विचित्र डमरू के बाजे थे । वह भिक्षा में केवल दुर्गा को ग्रहण करने के लिये उत्सुक था, दूसरी किसी वस्तु को नहीं, परंतु विष्णु- माया से मोहित हुए शैलराज ने उसकी याचना स्वीकार नहीं की । भिक्षु ने भी और कुछ नहीं लिया । वह वहीं अन्तर्धान हो गया । प्रिये ! उस समय मेना और गिरिराज को ज्ञान हुआ। वे बोले — ‘अहो ! हमने विश्वनाथ को दिन में स्वप्न की भाँति देखा है । भगवान् शिव हम दोनों को वञ्चित करके अपने स्थान को चले गये ।’ उन दोनों पति-पत्नी की भगवान् शिव में भक्ति बढ़ रही है — यह देख सब देवताओं को चिन्ता हो गयी । इन्द्र आदि देवता भार से सुमेरु की रक्षा के लिये युक्ति करने लगे। वे आपस में कहने लगे — ‘यदि हिमवान् अनन्य भक्ति से भारत में भगवान् शिव को कन्यादान करेंगे तो निश्चय ही निर्वाण – मोक्ष को प्राप्त होंगे। अनन्त रत्नों का आधार हिमालय यदि पृथ्वी को छोड़कर चला जायगा तो इसका ‘रत्नगर्भा’ नाम अवश्य ही मिथ्या हो जायगा । शूलपाणि शिव को अपनी कन्या दे स्थावरत्व का परित्याग और दिव्य रूप धारण करके वे विष्णुलोक को चले जायँगे। फिर तो अनायास ही उन्हें नारायण का सारूप्य प्राप्त हो जायगा । वे भगवान् के पार्षदभाव को पाकर हरिदास हो जायँगे ।’ यह सब सोचकर देवताओं ने आपस में सलाह की और वे गुरु बृहस्पति को हिमालय के घर भेजने के लिये गये। उन सबने गुरु को प्रणाम करके निवेदन किया- ‘गुरुदेव ! आप हिमालय के यहाँ जाकर उनके समक्ष भगवान् शिव की निन्दा कीजिये । यह तो निश्चय है कि दुर्गा शिव के सिवा दूसरे किसी वर का वरण नहीं करेगी। उस दशा में हिमवान् अनिच्छा से ही अपनी पुत्री शिव को देंगे। ऐसा करने से कन्यादान का फल कम हो जायगा । कालान्तर में गिरिराज भले ही मुक्त हो जायँ; परंतु इस समय तो इन्हें पृथ्वी पर रहना ही चाहिये । भगवन्! आप ही अनन्त रत्नों के आधारभूत हिमालय को भारतवर्ष में रखिये। (इन्हें यहाँ से जाने न दीजिये ।) देवताओं का वचन सुनकर गुरु बृहस्पतिजी ने दोनों हाथ कानों में लगा लिये और ‘नारायण !’ ‘नारायण ! ‘ का स्मरण करते हुए उनकी प्रार्थना अस्वीकार कर दी। वेद-वेदान्त के विद्वान् बृहस्पति हरि और हर के महान् भक्त थे । उन्होंने देवताओं को बारंबार फटकार कर कहा । बृहस्पति बोले — स्वार्थ-साधन में तत्पर रहनेवाले देवताओ ! मेरी सच्ची बात सुनो। मेरा यह वचन नीति का सारतत्त्व, वेदों द्वारा प्रतिपादित तथा परिणाम में सुख देने वाला है। जो पापी शिव और विष्णु के भक्त की, भूदेवता ब्राह्मणों की, गुरु और पतिव्रता की, पति, भिक्षु, ब्रह्मचारी तथा सृष्टि बीजभूत देवताओं की निन्दा करते हैं; वे चन्द्रमा और सूर्य के रहने तक कालसूत्र नामक नरक में पकाये जाते हैं । उन्हें कफ तथा मल- मूत्र में दिन-रात सोना पड़ता है। उन्हें कीड़े खाते हैं और वे कातर वाणी में आर्तनाद करते हैं । जो सृष्टिकर्ता जगद्गुरु ब्रह्मा की निन्दा करते हैं; जो सुरश्रेष्ठ शिव, दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती, गीता, तुलसी, गङ्गा, वेद, वेदमाता सावित्री, व्रत, तपस्या, पूजा, मन्त्र तथा मन्त्रदाता गुरु में दोष बताते हैं; वे अन्धकूप नामक नरक में यातना भोगते हैं और वहाँ उन्हें ब्रह्मा की आधी आयु तक रहना पड़ता है तथा वे सर्प-समूहों से भक्षित हो सदा चीखते-चिल्लाते रहते हैं। जो दूसरे देवताओं के साथ तुलना करके भगवान् हृषीकेश की निन्दा करते हैं; विष्णु भक्ति प्रदान करने वाले पुराण में, जो श्रुति भी उत्कृष्ट है, दोष निकालते हैं; राधा तथा उनकी कायव्यूहरूपा गोपियों की और सदा पूजित होने वाले ब्राह्मणों की भी निन्दा करते हैं; वे देवता ही क्यों न हों, ब्रह्माजी की आयुपर्यन्त नरक के गड्ढे में पकाये जाते हैं । उनके मुँह नीचे लटकाये जाते हैं और उनकी जाँघें ऊपर की ओर होती हैं। विकृताकार सर्पसमूह तथा सर्पकी-सी आकृति वाले कीट उनके सारे अङ्गों में लिपटकर काटते रहते हैं और वे अत्यन्त कातर तथा भयभीत हो सदा आर्तनाद किया करते हैं । निश्चय ही वहाँ उन्हें क्षोभपूर्वक कफ एवं मल- मूत्र खाने पड़ते हैं । रोष से भरे हुए यमराज के किङ्कर उनके मुँह में जलती हुई लुआठी डाल देते हैं। तीनों संध्याओं के समय उन्हें डाँट बताते हुए डंडों से पीटते हैं। डंडों के प्रहार से जब उन्हें प्यास लगती है, तब वे उन यमदूतों के भय से मूत्र – पान करते हैं। जब दूसरा कल्प आरम्भ होता है और पहले-पहल सृष्टि का आयोजन किया जाता है, उस समय उन पापियों के पापों का निवारण होता है – ऐसा ब्रह्माजी का कथन है। निश्चय ही शिव की निन्दा करने वाले देवता नरक में पड़ेंगे। मेरे बच्चो ! क्या तुम लोग मेरा यही उपकार करना चाहते हो ? ब्रह्माजी की आज्ञा से दक्ष प्रजापति ने शूलपाणि शंकर को अपनी पुत्री दी । उसी के पुण्य से शिव की निन्दा करने पर भी उन्हें पाप नहीं लगा; अपितु परम ऐश्वर्य की प्राप्ति हुई। उन्होंने अनिच्छा से ही भगवान् शंकर को कन्यादान किया था । इसलिये उन्हें चौथाई पुण्य की ही प्राप्ति हुई । अतएव वे सारूप्य मोक्ष को न पाकर तुच्छ सृष्टि का ही अधिकार प्राप्त कर सके। देवताओ! तुम्हीं लोगों में से कोई हिमवान् के घर जाकर अपने मत के अनुसार कार्य करे और प्रयत्नपूर्वक शैलराज के मन में अश्रद्धा उत्पन्न करे। अनिच्छा से कन्यादान करके गिरिराज हिमवान् सुखपूर्वक भारतवर्ष में स्थित रहें । भक्तिपूर्वक शिव को पुत्री देकर तो वे निश्चय ही मोक्ष प्राप्त कर लेंगे। अश्रद्धा उत्पन्न होने के बाद अरुन्धती को साथ ले सब सप्तर्षि अवश्य ही गिरिराज के घर जाकर उन्हें समझायेंगे । दुर्गा शिव के सिवा दूसरे किसी वर का वरण नहीं करेगी। उस दशा में पुत्री के आग्रह से वे अनिच्छापूर्वक शिव को अपनी कन्या देंगे । इस प्रकार मैंने अपना सारा विचार व्यक्त कर दिया। अब देवता लोग अपने-अपने घर को पधारें। यों कहकर बृहस्पतिजी शीघ्र ही तपस्या के लिये आकाशगङ्गा के तट पर चले गये । (अध्याय ४०) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे नारायणनारदसंवादे चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४० ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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