ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 58
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
(उत्तरार्द्ध)
अठावनवाँ अध्याय
पृथ्वी, सावित्री, गंगा, मनसा और राधा के दर्प का हरण

नारायण बोले — एक बार पृथ्वी को भी अभियान हो गया कि ‘सबका आधार में ही हूँ भगवान् ने राजा पृथु द्वारा उसके अभिमान को चूर कर दिया । फिर सावित्री को वेदमाता होने का अभिमान हुआ । भगवान् ने समय पर उसे पुत्रों समेत अदृश्य कर दिया । अनन्तर गङ्गा को अभिमान हो गया कि ‘मैं ही निर्वाण पद प्रदान करनेवाली हूँ ।’ जगत्पति भगवान् ने राजा जह्नु, द्वारा उसके भी अभिमान को चूर कर दिया ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

हे मुने ! पूर्वकाल में भगवान् ने मनसा के गर्व को दुर्गा के द्वारा नष्ट किया । एक बार विरजा गोपी के साथ बैठे कृष्ण को देखकर राधा ने अत्यन्त कोप से उनकी भर्त्सना की और मारे गर्व के रास भवन में प्रवेश करते समय उन्हें अपने द्वारपाल गोपियों द्वारा बेंतों से पिटवाया । तब हे नारद ! अपने निजी भक्त सुदामा द्वारा राधा को शाप दिलवाया, दैववश सहसा ध्वस्त हो जाने पर राधा, गोलोक से पृथिवी पर आयीं और वृषभानु की पत्नी कलावती के उदर से जन्म ग्रहण किया । भगवान् कृष्ण भी उनके अनुरोध से तथा कंस- भय के बहाने से नन्द के घर आ गये थे । सुदामा का वियोग रूप शाप पालन करने के हेतु भगवान् जगत्पति पुनः मथुरापुरी गये, ऐसा कमलोद्भव ब्रह्मा ने बताया था। हे नारद ! प्रकट होते ही मथुरा से गोकुल क्यों चले आये, उनके दूसरे अभिप्राय को कौन जान सकता है ! इस प्रकार मैंने यह सब कह दिया; अब और आगे की बात सुनो ।

जैसे नन्दनन्दन भगवान् कृष्ण नन्द के यहाँ से मथुरा गये, जैसे दैव संयोग से यशोदा-नन्द को दुःख हुआ, जैसे वृन्दावन की गोप-गोपियाँ एवं गौयें विरह-व्याकुल होकर वृन्दावन में इधर-उधर घूमने लगीं । हे मुने ! उत्तम वन तथा उसके रमणीक स्थानों को त्यागकर वन-वन में श्मशान अथवा श्मशान से भिन्न जगहों पर वह भामिनी ( यशोदा) भटक रही थीं । गाँव छोड़कर इधर-उधर घूमती हुई वह क्षण में चेतनाहीन हो जातों तो क्षण में पुन: चेतनायुक्त हो जातीं । क्षण में सबसे अलग हो जातीं तो क्षण में प्रार्थना करने लगतीं । क्षण में दीर्घनिःश्वास ( लम्बी साँस लेतीं तो क्षण में ध्यान मग्न हो जातीं,क्षण में शय्या पर लेट जातीं और क्षण में पुन: उस पर से उठकर खड़ी हो जातीं ।    (अध्याय ५८)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद अष्टप़ञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५८ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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