ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 65
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
(उत्तरार्द्ध)
पैंसठवाँ अध्याय
भगवद्दर्शन की सम्भावना से अक्रूर के हर्षोल्लास एवं प्रेमावेश का वर्णन

श्रीनारायण कहते हैं — नारद! कंस की बात सुनकर धर्मात्माओं में श्रेष्ठ शान्तस्वरूप अक्रूर के मन में बड़ी प्रसन्नता हुई; वे शान्तस्वभाव उद्धव से बोले ।

अक्रूर ने कहा — उद्धव ! आज की रात का बड़ा सुन्दर प्रभात हुआ । आज मेरे लिये शुभ दिन प्राप्त हुआ है । निश्चय ही देवता, ब्राह्मण और गुरु मुझ पर संतुष्ट हैं। करोड़ों जन्मों के पुण्य आज स्वयं मुझे फल देने को उपस्थित हैं । मेरा जो-जो शुभाशुभ कर्म था, वह सब मेरे लिये सुखद हो गया। कर्म से बँधे हुए मुझ अक्रूर का बन्धन आज कर्म ही काट दिया। मैं संसाररूपी कारागार से मुक्त होकर श्रीहरि के धाम को जा रहा हूँ । विद्वान् कंस ने आज रोषवश मुझे मित्रार्थी बना दिया । इस नरदेव का क्रोध मेरे लिये वरदान तुल्य हो गया । इस समय व्रजराज को लाने के लिये मैं व्रज में जाऊँगा और वहाँ भोग तथा मोक्ष प्रदान करने वाले परमपूज्य परमात्मा श्रीकृष्ण के दर्शन करूँगा ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

नूतन जलधर के समान श्यामकान्ति, नीलकमल के सदृश नेत्र तथा कटिप्रदेश में पीताम्बर धारण करने वाले वे भगवान् या तो व्रज की धूलि से धूसरित होंगे या चन्दन से चर्चित होंगे अथवा उनके अङ्गों में नवनीत लगा होगा और वे मुस्करा रहे होंगे। इस झाँकी में मैं उनके दर्शन करूँगा । विनोद के लिये मुरली बजाते अथवा इधर-उधर झुंड-की-झुंड गौएँ चराते हुए या कहीं बैठे, चलते-फिरते अथवा सोते हुए उन मनोहर नन्दनन्दन को मैं देखूँगा; यह पूर्णतः निश्चित है । शुभ बेला में आज भगवान्‌ का भली-भाँति दर्शन करके जो सुख मिलेगा, उसके सामने राजा का आदेश क्या महत्त्व रखता है ? ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि जिनके चरणकमलों का निरन्तर ध्यान करते हैं तथा अनन्त-विग्रह भगवान् अनन्त भी जिनका अन्त नहीं जानते हैं, देवता और संत भी जिनके प्रभाव को सदा नहीं समझ पाते हैं, जिनकी स्तुति करने में देवी सरस्वती भी भयभीत एवं जडवत् हो जाती हैं, जिनकी सेवा के लिये महालक्ष्मी भी दासी नियुक्त की गयी हैं तथा जिनके चरणकमलों से उन सत्त्वरूपिणी गङ्गा का प्रादुर्भाव हुआ है, जो तीनों लोकों से उत्कृष्ट, जन्म – मृत्यु एवं जरारूप व्याधि को हर लेने वाली और दर्शन एवं स्पर्शमात्र से मनुष्यों के समस्त पातकों को नष्ट कर देने वाली हैं, त्रैलोक्यजननी, मूलप्रकृति ईश्वरी दुर्गतिनाशिनी देवी दुर्गा भी जिनके चरणकमलों का ध्यान करती हैं, जिन स्थूल से भी स्थूलतर महाविष्णु के रोमकूपों में असंख्य विचित्र ब्रह्माण्ड विद्यमान हैं, वे भी जिन सर्वेश्वर के सोलहवें अंशरूप हैं, उन माया-मानवरूपधारी श्रीकृष्ण को देखने के लिये मैं व्रज में जाता हूँ।

बन्धु उद्धव ! वे नन्दनन्दन सर्वरूप, सबके अन्तरात्मा, सर्वज्ञ, प्रकृति से परे, ब्रह्मज्योतिःस्वरूप, भक्तजनों पर अनुग्रह के लिये दिव्य विग्रह धारण करने वाले, निर्गुण, निरीह, निरानन्द, सानन्द, निराश्रय एवं परम परमानन्दस्वरूप हैं। उन्हीं स्वेच्छामय, सबसे परे विराजमान, सबके सनातन बीजरूप बालमुकुन्द का योगीजन नित्य-निरन्तर अहर्निश ध्यान करते रहते हैं । पहले पाद्मकल्प में कमल-जन्मा ब्रह्माजी ने कमल पर बैठकर एक सहस्र मन्वन्तरों तक श्रीकृष्ण-दर्शन के लिये तपस्या की थी। उन दिनों सर्वथा उपवास के कारण उनका पेट पीठ में सट गया था । सहस्र मन्वन्तर पूर्ण होने पर उन्हें आदेश मिला कि ‘फिर तपस्या करो, तब मुझे देखोगे।’ उन्हें एक बार यह शब्दमात्र सुनायी दिया। इतनी बड़ी तपस्या करने पर भी वे भगवान्‌ का प्रत्यक्ष दर्शन न पा सके। तब उन्होंने पुनः उतने ही समय तक तपस्या करके श्रीहरि का दर्शन और वरदान पाया । उद्धव ! ऐसे परमेश्वर को मैं आज अपनी आँखों से देखूँगा ।

पूर्वकाल में भगवान् शंक रने ब्रह्माजी की आयुपर्यन्त तप किया। तब ज्योतिर्मण्डल के बीच गोलोक में परमात्मा श्रीकृष्ण के उन्हें दर्शन हुए। वे श्रीकृष्ण सर्वतत्त्व-स्वरूप और सम्पूर्ण सिद्धियों से सम्पन्न हैं । वे सबके अपने तथा सर्वश्रेष्ठ परमतत्त्व हैं । भगवान् शिव ने उनके चरणारविन्दों की परम निर्मल भक्ति पायी। उद्धव ! जिन भक्तवत्सल ने अपने भक्त शिव को अपने समान ही बना दिया, ऐसे प्रभावशाली उन परमेश्वर के आज मैं दर्शन करूँगा । जितने समय में सहस्र इन्द्रों का पतन हो जाता है, उतने काल तक निराहार रहकर कृशोदर हुए भगवान् अनन्त ने उन परमात्मा की प्रसन्नता के लिये भक्तिभाव से तपस्या की । तब उन्होंने उन अनन्त देव को अपने समान ज्ञान प्रदान किया । उद्धव ! उन्हीं परमेश्वर के आज मैं दर्शन करूँगा । उद्धवजी ! अट्ठाईस इन्द्रों का पतन हो जाने पर ब्रह्माजी का एक दिन-रात होता है। इसी क्रम से तीस दिनों का मास और बारह मासों का वर्ष मानकर सौ वर्ष पूर्ण होने पर ब्रह्माजी की आयु पूरी होती है । अहो ! ऐसे ब्रह्मा का पतन जिनके एक निमेष में हो जाता है, उन परमात्मा को आज मैं प्रत्यक्ष देखूँगा।

भाई उद्धव ! जैसे भूतलके धूलि-कणों की गणना नहीं हो सकती, उसी प्रकार ब्रह्माओं तथा ब्रह्माण्डों की गणना भी असम्भव है। उन अखिल ब्रह्माण्डों के आधार हैं। महाविराट्, जो श्रीकृष्ण के षोडशांश-मात्र हैं। प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि देवता, मुनि, मनु, सिद्ध तथा मानव आदि चराचर प्राणी वास करते हैं। ब्रह्माण्डों के आधारभूत वे महाविराट् भी, जिनका सोलहवाँ अंश हैं और जिनकी लीलामात्र से आविर्भूत एवं तिरोभूत होते हैं; ऐसे सर्वशासक परमेश्वर के आज मैं दर्शन करूँगा ।

ऐसा कहकर अक्रूरजी प्रेमावेश से मूर्च्छित हो गये । उनका अङ्ग अङ्ग पुलकित हो उठा और वे नेत्रों से आँसू बहाते हुए भगवच्चरणारविन्दों का ध्यान करने लगे। उनका हृदय भक्ति से भर गया । वे परमात्मा श्रीकृष्ण के चरणकमल का स्मरण करते हुए भावना से ही उनकी परिक्रमा करने लगे। उद्धव ने अक्रूर को हृदय से लगा लिया और बारंबार उनकी प्रशंसा की। तत्पश्चात् अक्रूरजी भी शीघ्र ही अपने घर को चले गये।      (अध्याय ६५)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद अक्रूरहर्षोत्कर्षकथनं नाम पञ्चषष्टि,मोऽध्यायः ॥ ६५ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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