February 20, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 09 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ नौवाँ अध्याय श्रीकृष्ण की अनिर्वचनीय महिमा, धरा और द्रोणकी तपस्या, अदिति और कद्रूका पारस्परिक शापसे देवकी तथा रोहिणीके रूपमें भूतलपर जन्म, हलधर और श्रीकृष्णके जन्मका उत्सव नारदजी ने पूछा — भगवन् ! गोकुल में यशोदा-भवन के भीतर श्रीकृष्ण को रखकर जब वसुदेवजी ने अपने गृह को प्रस्थान किया, तब नन्दरायजी ने किस प्रकार पुत्रोत्सव मनाया ? श्रीहरि ने वहाँ रहकर क्या किया ? वे कितने वर्षों तक वहाँ रहे ? प्रभो ! आप उनकी बाल-क्रीड़ा का क्रमशः वर्णन कीजिये । पूर्वकाल में गोलोक में श्रीराधा के साथ भगवान् ने जो प्रतिज्ञा की थी, वृन्दावन में उस प्रतिज्ञा का निर्वाह उन्होंने किस प्रकार किया ? प्रभो ! उस समय भूतल पर वृन्दावन का स्वरूप कैसा था ? उनका रासमण्डल कैसा था ? यह सब बताइये। रासक्रीड़ा और जल-क्रीड़ा का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नन्द ने कौन-सी तपस्या की थी ? यशोदा और रोहिणी ने कौन-सा तप किया था ? श्रीहरि से पहले हलधर का जन्म कहाँ हुआ था ? श्रीहरि का अपूर्व आख्यान अमृतखण्ड के समान माना गया है। विशेषतः कवि के मुख में श्रीहरिचरित्रमय काव्य पद-पद पर नूतन प्रतीत होता है। आप अपने रासमण्डल की क्रीड़ा का स्वयं ही वर्णन कीजिये । काव्य में परोक्ष वस्तु का वर्णन होता है । परंतु जहाँ प्रत्यक्ष देखी हुई वस्तु का वर्णन हो, उसे उत्तम कहा गया है। साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण योगीन्द्रों के गुरु के भी गुरु हैं । जो जिसका अंश होता है, वह उस अंशी के सुख से सुखी होता है । प्रभो! आपने ही यह वर्णन किया है कि आप दोनों नर और नारायण श्रीहरि के चरणों में विलीन हो गये थे । उनमें भी आप ही साक्षात् गोलोक के अंश हैं; अतः उनके समान ही महान् हैं ( इसीलिये श्रीकृष्ण-लीलाएँ आपके प्रत्यक्ष अनुभव में आयी हुई हैं; अतः आप उनका वर्णन कीजिये) । भगवान् नारायण बोले — नारद! ब्रह्मा, शिव, शेष, गणेश, कूर्म, धर्म, मैं, नर तथा कार्तिकेय — ये नौ श्रीकृष्ण के अंश हैं । अहो ! उन गोलोकनाथ की महिमाका कौन वर्णन कर सकता है ? जिन्हें स्वयं हम भी नहीं जानते और न वेद ही जानते हैं । फिर दूसरे विद्वान् क्या जान सकते हैं ? शूकर (वराह), वामन, कल्कि, बुद्ध, कपिल और मत्स्य — ये भी श्रीकृष्ण के अंश हैं तथा अन्य कितने ही अवतार हैं, जो श्रीकृष्ण की कला-मात्र हैं। नृसिंह, राम तथा श्वेतद्वीप के स्वामी विराट् विष्णु पूर्ण अंश से सम्पन्न हैं । श्रीकृष्ण परिपूर्णतम परमात्मा हैं। वे स्वयं ही वैकुण्ठ और गोकुल में निवास करते हैं । वैकुण्ठ में वे कमलाकान्त कहे गये हैं और रूप-भेद से चतुर्भुज हैं। गोलोक और गोकुल में ये द्विभुज श्रीकृष्ण स्वयं ही राधाकान्त कहलाते हैं। योगी पुरुष इन्हीं के तेज को सदा अपने चित्त में धारण करते हैं। भक्त पुरुष इन्हीं भगवान् के तेजोमय चरणारविन्द का चिन्तन करते हैं। भला, तेजस्वी के बिना तेज कहाँ रह सकता है ? ब्रह्मन् ! सुनो। मैं तुमसे यशोदा, नन्द और रोहिणी के तप का वर्णन करता हूँ, जिसके कारण उन्होंने श्रीहरि का मुँह देखा था । वसुओं में श्रेष्ठ तपोधन द्रोण नन्द नाम से इस धरातल पर अवतीर्ण हुए थे। उनकी पत्नी जो तपस्विनी धरा थीं, वे ही सती-साध्वी यशोदा हुई थीं। सर्पों को जन्म देने वाली नागमाता कद्रू ही रोहिणी बनकर भूतल पर प्रकट हुई थीं। इनके जन्म और चरित्र का वर्णन करता हूँ, सुनो। एक समय की बात है, पुण्यदायक भारतवर्ष में गौतम-आश्रम के समीप गन्धमादन पर्वत पर धरा और द्रोण ने तपस्या आरम्भ की। मुने! उनकी तपस्या का उद्देश्य था— भगवान् श्रीकृष्ण का दर्शन । सुप्रभा के निर्जन तट पर दस हजार वर्षों तक वे वसु-दम्पति तपस्या में लगे रहे, परंतु उन्हें श्रीहरि के दर्शन नहीं हुए । तब वे दोनों वैराग्यवश अग्निकुण्ड का निर्माण करके उसमें प्रवेश करने को उद्यत हो गये। उन दोनों को मरने के लिये उत्सुक देख वहाँ आकाशवाणी हुई- ‘वसुश्रेष्ठ ! तुम दोनों दूसरे जन्म में भूतल पर अवतीर्ण हो गोकुल में अपने पुत्र के रूप में श्रीहरि के दर्शन करोगे; योगियों को भी उन भगवान् का दर्शन होना अत्यन्त कठिन है। बड़े-बड़े विद्वानों के लिये भी ध्यान के द्वारा उन्हें वश में कर पाना असम्भव है । वे ब्रह्मा आदि देवताओं के भी वन्दनीय हैं।’ यह सुनकर धरा और द्रोण सुखपूर्वक अपने घर को चले गये और भारतवर्ष में जन्म लेकर उन्होंने श्रीहरि के मुखारविन्द के दर्शन किये। इस प्रकार यशोदा और नन्द का चरित तुमसे कहा गया; अब देवताओं के लिये भी परम गोपनीय रोहिणी का चरित्र सुनो। एक समय देवमाता अदिति ने ऋतुमती होने पर समस्त शृङ्गारों से सुसज्जित हो अपने पतिदेव श्रीकश्यपजी से मिलना चाहा। उस समय कश्यपजी अपनी दूसरी पत्नी सर्पमाता कद्रू के पास थे । कश्यपजी के आने में विलम्ब होने पर अदिति को बहुत क्षोभ हुआ और उन्होंने कद्रू को शाप दे दिया कि ‘वे स्वर्गलोक को त्यागकर मानव-योनि को प्राप्त हों।’ इस बात को सुनकर कद्रू ने भी अदिति को शाप दिया कि ‘वे जरायुक्त होकर मर्त्यलोक में मानव-योनि में जायँ ।’ इस प्रकार दोनों के शापग्रस्त होने पर कश्यपजी ने कद्रू को सान्त्वना देकर समझाया कि ‘तुम मेरे साथ मर्त्यलोक में जाकर श्रीहरि के मुखकमल का दर्शन प्राप्त करोगी।’ तदनन्तर कश्यपजी ने अदिति के घर जाकर उनकी इच्छा पूर्ण की। उसी ऋतु से देवराज का जन्म हुआ। इसके बाद अदिति ने देवकी के रूप में, कद्रू ने रोहिणी के रूप में और कश्यपजी ने श्रीकृष्ण के पिता श्रीवसुदेवजी के रूप में जन्म ग्रहण किया। मुने! यह सारा गोपनीय रहस्य बताया गया । अब अनन्त, अप्रमेय तथा सहस्रों मस्तकवाले भगवान् बलदेवजी के जन्म का वृत्तान्त सुनो। साध्वि ! रोहिणी वसुदेवजी की प्रेयसी भार्या थीं । मुने! वे वसुदेवजी की आज्ञा से संकर्षण की रक्षा के लिये गोकुल में चली गयीं । कंस से भयभीत होने के कारण उन्हें वहाँ से पलायन करना पड़ा था। उन दिनों योगमाया ने श्रीकृष्ण की आज्ञा से देवकी के सातवें गर्भ को रोहिणी के उदर में स्थापित कर दिया था। उस गर्भ को स्थापित करके वे देवी तत्काल कैलासपर्वत को चली गयीं। कुछ दिनों के बाद रोहिणी नन्दभवन में श्रीकृष्ण के अंशस्वरूप पुत्र को जन्म दिया। उसकी अङ्गकान्ति तपाये हुए सुवर्ण के समान गौर थी। वह बालक साक्षात् ईश्वर था । उसके मुख पर मन्द हास्य की मनोहर छटा एवं प्रसन्नता छा रही थी । वह ब्रह्मतेज से प्रकाशित हो रहा था। उसके जन्ममात्र से देवताओं में आनन्द छा गया। स्वर्गलोक में दुन्दुभि, आनक और मुरज आदि दिव्य वाद्य बज उठे । आनन्दमग्न हुए देवता शङ्खध्वनि के साथ जय-जयकार करने लगे । नन्द का हृदय हर्ष से उल्लसित हो उठा। उन्होंने ब्राह्मणों को बहुत-सा धन दिया । धाय ने आकर बालक की नाल काटी और उसे नहलाया । समस्त आभूषणों से विभूषित गोपियाँ जय-जयकार करने लगीं । उस पराये पुत्र के लिये भी नन्द ने बड़े आदर के साथ महान् उत्सव मनाया। यशोदाजी ने गोपियों तथा ब्राह्मणियों को प्रसन्नतापूर्वक धन दान किया । नाना प्रकार के द्रव्य, सिन्दूर एवं तैल प्रदान किये । वत्स ! इस प्रकार मैंने तुमसे नन्द और यशोदा के तप का प्रसङ्ग कहा, हलधर के जन्म की कथा कही तथा रोहिणीजी के चरित्र को सुनाया है। अब तुम्हें जो अभीष्ट है, वह नन्दपुत्रोत्सव का प्रसङ्ग सुनो। वह सुखदायक, मोक्षदायक तथा जन्म, मृत्यु और जरावस्था का निवारण करने वाला सारतत्त्व है। श्रीकृष्ण का मङ्गलमय चरित्र वैष्णवों का जीवन है । वह समस्त अशुभों का विनाशक तथा श्रीहरि के दास्यभाव को देने वाला है । वसुदेवजी ने श्रीकृष्ण को नन्दभवन में रख दिया और उनकी कन्या को गोद में लेकर वे हर्षपूर्वक अपने घर को लौट आये। यह प्रसङ्ग तथा उस कन्या का श्रवणसुखद चरित्र पहले कहा जा चुका है। अब गोकुल में जो श्रीकृष्ण की मङ्गलमयी लीला प्रकट हुई, उसे बताता हूँ, सुनो। जब वसुदेवजी अपने घर को लौट गये, तब जया तिथि अष्टमी से युक्त उस विजयपूर्ण मङ्गलमय सूतिकागार में नन्द और यशोदा ने देखा — उनका पुत्र धरती पर पड़ा हुआ है। उसके श्रीअङ्गों से नवीन मेघमाला के समान तेजःपुञ्जमयी श्यामकान्ति प्रस्फुटित हो रही है । वह नग्न बालक बड़ा सुन्दर दिखायी देता था । उसकी दृष्टि गृह के शिखरभाग की ओर लगी हुई थी। उसका मुख शरत्काल की पूर्णिमा के चन्द्रमा को लज्जित कर रहा था। दोनों नेत्र नील कमल की शोभा को छीने लेते थे । वह कभी रोता था और कभी हँसने लगता था । उसके श्रीअङ्ग में धूलि के कण लगे हुए थे। उसके दोनों हाथ धरती पर टिके हुए थे और युगल चरणारविन्द प्रेम पुञ्ज – से जान पड़ते थे। उस दिव्य बालक श्रीहरि को देखकर पत्नी सहित नन्द को बड़ी प्रसन्नता हुई । धाय ने ठंढे जल से बालक को नहलाया और उसकी नाल काट दी। उस समय गोपियाँ हर्ष से जय-जयकार करने लगीं । व्रज की सारी गोपिकाएँ, बालिका और युवतियाँ भी ब्राह्मणपत्नियों के साथ सूतिकागार में आयीं । उन सबने आकर बालक को देखा और प्रसन्नता-पूर्वक उसे आशीर्वाद दिया । नन्द-नन्दन की भूरि-भूरि प्रशंसा करती हुई वे उन्हें अपनी गोद में ले लेती थीं। उनमें से कितनी ही गोपियाँ रात में वहीं रह गयीं । नन्द ने वस्त्रसहित स्नान करके धुली हुई धोती और चादर धारण की। फिर प्रसन्नचित्त हो वहाँ परम्परागत विधि का पालन किया । ब्राह्मणों को भोजन कराया, उनसे मङ्गल-पाठ करवाया, नाना प्रकार के बाजे बजवाये और वन्दीजनों को धन-दान किया। तत्पश्चात् नन्द ने आनन्दपूर्वक ब्राह्मणों को धन दिया तथा उत्तम रत्न, मूँगे और हीरे भी आदरपूर्वक उन्हें दिये । मुने! तिलों के सात पर्वत, सुवर्ण के सौ ढेर, चाँदी, धान्य की पर्वतोपम राशि, वस्त्र, सहस्त्रों मनोरम गौएँ, दही, दूध, शक्कर, माखन, घी, मधु, मिठाई, स्वादिष्ट मोदक, सब प्रकार की खेती से भरी-पूरी भूमि, वायु के समान वेगशाली घोड़े, पान और तेल – इन सबका दान करके नन्दजी बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने सूतिकागार की रक्षा के लिये ब्राह्मणों को नियुक्त किया । मन्त्रज्ञ मनुष्यों तथा बड़ी-बूढ़ी गोपियों को लगाया। उन्होंने ब्राह्मणों द्वारा वेदों का पाठ कराया । एकमात्र मङ्गलमय हरिनाम का कीर्तन कराया तथा देवताओं की पूजा करवायी। युवती तथा बड़ी-बूढ़ी ब्राह्मण-पत्नियाँ बालक-बालिकाओं को साथ ले मुस्कराती हुई नन्दभवन में आयीं । नन्दरायजी ने उनको भी नाना प्रकार के धन और रत्न दिये। रत्नमय अलंकारों से विभूषित बड़ी- बूढ़ी गोपियाँ भी मुस्कराती हुई तीव्र गति से नन्द-मन्दिर में आयीं। उन्हें बहुत-से वस्त्र, चाँदी और सहस्रों गौएँ सादर अर्पित कीं। ज्यौतिष-शास्त्र के विशेषज्ञ विविध ज्यौतिषी, जिनकी वाणी सिद्ध थी, हाथ में पुस्तकें लिये नन्दमन्दिर में पधारे । नन्दजी ने उन्हें नमस्कार करके प्रसन्नतापूर्वक उनके सामने विनय प्रकट की। उन सबने आशीर्वाद दिये और उत्तम बालक को देखा। इस प्रकार व्रजराज नन्द ने सामग्री एकत्र करके पुत्रोत्सव मनाया और ज्यौतिषियों द्वारा शुभाशुभ भविष्य का प्रकाशन कराया। तदनन्तर वह बालक नन्दभवन में शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा की भाँति दिनोंदिन बढ़ने लगा । श्रीकृष्ण और हलधर दोनों ही माता का स्तन पान करते थे। मुने! वहाँ नन्द के पुत्रोत्सव में प्रसन्न हुई रोहिणी देवी ने आयी हुई स्त्रियों को प्रसन्नतापूर्वक तैल, सिन्दूर और ताम्बूल प्रदान किये। वे सब बालक के सिर पर आशीर्वाद दे अपने-अपने घर को चली गयीं । केवल यशोदा, रोहिणी और नन्द-ये ही उस घर में हर्षपूर्वक रहे । (अध्याय ९ ) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखंडे नारायणनारदसंवादे नंदपुत्रोत्सवो नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. 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