भगवान् वराह
स्रुक्-तुण्ड सामस्वरधीरनाद, प्राग्वंशकायाखिलसत्रसन्धे ।
पूर्तेष्टधर्मश्रवणोऽसि देव सनातनात्मन् भगवन् प्रसीद ।।

(विष्णुपुराण १ । ४ । ३४)
‘प्रभो ! स्रुक् आपका तुण्ड (थूथनी) है, सामस्वर धीर-गम्भीर शब्द है, प्राग्वंश (यजमानगृह) शरीर है तथा सम्पूर्ण सत्र (सोमयाग) शरीर की संधियाँ हैं । देव ! इष्ट (यज्ञ-यागादि) और पूर्त (कुआँ, बावली, तालाब आदि खुदवाना, बगीचा लगाना आदि लोकोपकारी कार्य) – रूप धर्म आपके कान हैं । नित्यस्वरूप भगवन् ! प्रसन्न होइये ।’varaha (1)
सम्पूर्ण शुद्ध-सत्व-मय लोकों के शिरो-भाग में भगवान् विष्णु का वैकुण्ठ-धाम स्थित है । वहाँ वेदान्त-प्रतिपाद्य धर्म-मूर्ति श्री-आदि-नारायण अपने भक्तों को सुखी करने के लिये शुद्ध-सत्त्व-मय स्वरूप धारण कर निरन्तर विराजमान रहते हैं । विष्णु-प्रिया श्रीलक्ष्मीजी वहाँ चञ्चलता त्याग कर निवास करती हैं । उस दिव्य और अद्भुत वैकुण्ठ-धाम में सभी लोग विष्णु-रूप होकर रहते हैं और वहाँ सम्पूर्ण कामनाओं को त्यागकर अपने धर्म द्वारा उन क्षीराब्धि-शायी की आराधना करने वाले परम भागवत ही प्रवेश पाते हैं ।
एक बार की बात है । आसक्ति त्यागकर समस्त लोकों में आकाश-मार्ग से विचरण करने वाले चतुर्मुख ब्रह्मा के मानस-पुत्र सनकादि उक्त अलौकिक वैकुण्ठ-धाम में जा पहुँचे । उनके मन में भगवदर्शन की लालसा थी, इस कारण वे अन्य दर्शनीय सामग्रियों की उपेक्षा करते आगे बढ़ते हुए छ: ड्योढ़ियाँ पार कर गये । जब वे सातवीं ड्योढ़ि पर पहुँचे, तब उन्हें हाथ में गदा लिये दो समान आयु वाले देव-श्रेष्ठ दिखलायी दिये । वे बाजूबंद, कुण्डल और किरीट आदि अनेक बहुमूल्य आभूषणों से अलंकृत थे । उनकी चार श्यामल भुजाओं के बीच वनमाला सुशोभित थी, जिसपर भ्रमर गुंजार कर रहे थे ।
समदर्शी सनकादि सातवीं ड्योढ़ी में प्रवेश कर ही रहे थे कि श्रीभगवान्‌ के उन दोनों द्वारपालों ने उन्हें दिगम्बर वृत्ति में देखकर उनकी हँसी उड़ायी और बेंत अड़ाकर उन्हें आगे बढ़ने से रोक दिया ।
‘तुम भगवान् वैकुण्ठ-नाथ के पार्षद हो, किंतु तुम्हारी बुद्धि अत्यन्त मन्द है ।’ सनकादि ने कुद्ध होकर उन्हें शाप देते हुए कहा – ‘तुम तो देव-रूपधारी हो, फिर भी तुम्हें ऐसा क्या दिखायी देता है, जिससे तुमने भगवान्‌ के साथ कुछ भेदभाव के कारण होने वाले भय की कल्पना कर ली? तुम अपनी भेद-बुद्धि के दोष से इस वैकुण्ठ-लोक से निकलकर उन पापपूरित योनियों में जाओ; जहाँ काम, क्रोध एवं लोभ — प्राणियों ये तीन शत्रु निवास करते हैं ।’
भगवन् ! हमने निश्चय ही अपराध किया है’, सनकादि के दुर्निवार शाप से व्याकुल होकर दोनों पार्षद उनके चरणों में लोटकर अत्यन्त दीन-भाव से प्रार्थना करने लगे – ‘आपके दण्ड से हमारे पाप का प्रक्षालन हो जायगा; किंतु आप इतनी कृपा करें कि अधमाधम योनियों में जाने पर भी हमारी भगवस्मृति बनी रहे ।’
इधर श्रीभगवान् पद्मनाभ को जब विदित हुआ कि हमारे पार्षदों ने सनकादि का अनादर किया है, तब वे तुरंत लक्ष्मीजी के साथ वहाँ पहुँच गये । समाधि के विषय भुवनमोहन चतुर्भुज विष्णुके अचिन्त्य, अनन्त सौन्दर्य-राशि के दर्शन कर सनकादि की विचित्र दशा हो गयी । वे अपने को सँभाल न सके और करुणासिन्धु भगवान् कमल-नयन के चरणारविन्द-मकरन्द से मिली तुलसी मञ्जरी की अलौकिक गन्ध से उनके मन में भी खलबली उत्पन्न हो गयी ।
ते वा अमुष्य वदनासितपद्मकोश-मुद्वीक्ष्य सुन्दरतराधरकुन्दहासम् ।
लब्धाशिष: पुनरवेक्ष्य तदीयमहनइघ्रि-द्वन्द्वं नखारूणमणिश्रयणं निदध्युः ।।

(श्रीमद्भा॰ ३ । १५ । ४४)
‘भगवान्‌का मुख नील कमल के समान था, अति सुन्दर अधर और कुन्दकली के समान मनोहर हास से उसकी शोभा और भी बढ़ गयी थी । उसकी झाँकी करके वे कृत-कृत्य हो गये और फिर पद्म-राग के समान लाल- लाल नखों से सुशोभित उनके चरण-कमल देखकर वे उन्हीं का ध्यान करने लगे ।’
फिर प्रभुके प्रत्यक्ष दर्शन का परम सौभाग्य प्राप्त कर वे निखिल-सृष्टि-नायक की स्तुति और उनके मङ्गलमय चरण-कमलों में प्रणाम करने लगे ।
‘मुनियों !’ वैकुण्ठ-निवास श्रीहरि ने उनकी प्रशंसा करते हुए कहा – ‘ये जय-विजय मेरे पार्षद हैं । इन्होंने आपका अपराध किया है । आपने इन्हें दण्ड देकर उचित ही किया है । ब्राह्मण मेरे परम आराध्य हैं । मेरे अनुचरों के द्वारा आप लोगों का जो अनादर हुआ है, उसे मैं अपने द्वारा ही किया मानता हूँ । मैं आप लोगों से प्रसन्नता की भिक्षा माँगता हूँ ।’
‘त्रैलोक्यनाथ !’ सनकादि ने प्रभु की अर्थ-पूर्ण और सार-युक्त गम्भीर वाणी सुनकर उनका गुण-गान करते हुए कहा – ‘आप सत्त्व-गुण की खान और सम्पूर्ण जीवों के कल्याण के लिये सदा उत्सुक रहते हैं । इन द्वारपालों को आप दण्ड अथवा पुरस्कार दें, हम विशुद्ध हृदय से आपसे सहमत हैं या हमने क्रोध-वश इन्हें शाप दे दिया, इसके लिये हमें ही दण्डित करें, हमें सहर्ष स्वीकार है ।’
‘मुनियों !’ दया-मय प्रभु ने सनकादि से अत्यन्त स्नेह-पूर्वक कहा – ‘आप सत्य समझिये, आपका यह शाप मेरी ही प्रेरणा से हुआ है । ये दैत्य-योनि में जन्म तो लेंगे, किंतु क्रोधावेश से बढ़ी एकाग्रता के कारण शीघ्र ही मेरे पास लौट आयेंगे ।’ सनकादि ऋषियों ने प्रभु की अमृत-मयी वाणी से आप्यायित होकर उनकी परिक्रमा की और उनके त्रैलोक्य-वन्दित चरणों में प्रणाम कर उनकी महिमा का गान करते हुए वे लौट गये ।
‘तुम लोग निर्भय होकर जाओ ।’ प्रभुने ऋषियों के प्रस्थान के अनन्तर अपने अनुचरों से कहा – ‘तुम्हारा कल्याण होगा । मैं सर्व-समर्थ होकर भी ब्रह्म-तेज की रक्षा चाहता हूँ । यही मुझे अभीष्ट है । एक बार मेरे योग-निद्रा में स्थिर होने पर तुम दोनों ने द्वार में प्रवेश करती हुई लक्ष्मीजी को रोका था । उस समय उन्होंने क्रुद्ध होकर पहले ही तुम्हें शाप दे दिया था । अब दैत्य-योनि में मेरे प्रति अत्यधिक क्रोध के कारण तुम्हारी जो एकाग्रता होगी, उससे तुम विप्र-तिरस्कार-जनित पाप से मुक्त होकर कुछ ही समय में मेरे पास लौट आओगे ।’
श्रीभगवान्‌ के पधारते ही सुरश्रेष्ठ जय-विजय ब्रह्म-शाप के कारण भगवान्‌ के उस श्रेष्ठ धाम में ही श्री-हीन हो गये और उनका सारा गर्व चूर्ण हो गया ।
लीला-मय प्रभुकी लीला अत्यन्त विचित्र होती है । उसका हेतु तथा रहस्य देवता और ऋषि-महर्षियों की भी समझ में नहीं आता, मनुष्य तो क्या समझे ? किंतु प्रभु की लीला जब हो, जैसी हो, होती है परम मङ्गलमयी; उसकी परिणति शुभ और कल्याण में ही होती है ।
प्रभु की इसी अद्भुत लीला के फलस्वरूप तपस्वी मरीचि-नन्दन कश्यप-मुनि जब खीर की आहुतियों द्वारा अग्रिजिह्व भगवान्‌ की उपासना कर सूर्यास्त देख अग्निशाला में ध्यानमग्न बैठे थे कि उनकी पली दक्ष-पुत्री दिति-देवी उनके समीप पहुँचकर सर्वश्रेष्ठ संतान प्राप्त करनेकी कामना व्यक्त करने लगीं ।
महर्षि कश्यप ने उनकी इच्छा-पूर्ति का आश्वासन देते हुए असमयकी ओर संकेत किया, पर दिति अपनी कामनापूर्ति के लिये हठ करती ही जा रही थीं । महर्षि कश्यप जब सब प्रकार से समझाकर थक गये, किंतु उनकी पली का दुराग्रह नहीं टला, तब विवश होकर इसे श्रीभगवान्‌ की लीला समझकर उन्होंने मन-ही-मन सर्वान्तर्यामी प्रभुके चरणों में प्रणाम किया और एकान्त में जाकर दिति की कामना-पूर्ति की और फिर स्नानोपरान्त यज्ञशाला में बैठकर तीन बार आचमन किया और सायंकालीन संध्या-वन्दन करने लगे ।
संध्या-वन्दनादि कर्म से निवृत्त होकर महर्षि कश्यप ने देखा कि उनकी सह-धर्मिणी दिति भय-वश थर-थर काँप रही है और अपने गर्भ के लौकिक तथा पारलौकिक उत्थानके लिये प्रार्थना कर रही है ।
‘तुमने चतुर्विध अपराध किया है ।’ महर्षि कश्यप ने दिति-देवी से कहा – ‘एक तो कामासक्त होने के कारण तुम्हारा चित्त मलिन था, दूसरे वह असमय था, तीसरे तुमने मेरी आज्ञा का उल्लङ्घन किया और चौथे, तुमने रुद्र आदि देवताओं का तिरस्कार किया है; इस कारण तुम्हारे गर्भ से दो अत्यन्त अधम और क्रूरकर्मा पुत्र उत्पन्न होंगे । उनके कुकर्मो एवं अत्याचारों से महात्मा पुरुष क्षुब्ध एवं धरित्री व्याकुल हो जायगी । वे इतने पराक्रमी और तेजस्वी होंगे कि ब्रह्म-तेज से भी वे प्रभावित नहीं होंगे । उनका वध करने के लिये स्वयं नारायण दो पृथक्-पृथक् अवतार ग्रहण करेंगे । तुम्हारे दोनों पुत्रों की मृत्यु प्रभु के ही हाथों होगी ।’
‘भगवान् चक्रपाणि के हाथों मेरे पुत्रों का अन्त हो, यह मैं भी चाहती हूँ ।’
कुछ संतोष के साथ दिति बोली – ‘ब्राह्मणों के शाप से उनकी रक्षा हो जाय; क्योंकि ब्रह्म-शाप से दग्ध प्राणी पर तो नारकीय जीव भी दया नहीं करते । मेरे पुत्रों के कारण लक्ष्मी-वल्लभ श्रीविष्णु अवतार ग्रहण करेंगे — यह अत्यन्त प्रसन्नता की बात है, यद्यपि वे प्रभु-भक्त नहीं होंगे – इस बात का मुझे दुःख है ।’
दिति-देवी का सर्वेश्वर प्रभु के प्रति सम्मान का भाव देखकर महामुनि कश्यप संतुष्ट हो गये । उन्होंने कहा – ‘देवि ! तुम्हें अपने कर्म के प्रति पश्चात्ताप हो रहा है, शीघ्र ही तुम्हारा विवेक जाग्रत् हो गया और भगवान् विष्णु भूतभावन शिव तथा मेरे प्रति भी तुम्हारे मन में आदर का भाव दीख रहा है, इस कारण तुम्हारे एक पुत्र के चार पुत्रों में एक श्रीभगवान्‌का अनन्य भक्त होगा । वह श्रीभगवान्‌ का अत्यन्त प्रीति-भाजन होगा और भक्तजन उसका सदा गुणगान करते रहेंगे । तुम्हारे उस पौत्र को कमलनयन हरिका प्रत्यक्ष दर्शन होगा ।’
‘मेरा पौत्र श्रीनारायण प्रभु का भक्त होगा तथा मेरे पुत्रों के जीवन का अन्त श्रीहरि के द्वारा होगा’ – यह जानकर दितिका मन उल्लास से भर गया । किंतु अपने पुत्रों के द्वारा सुर-समुदाय के कष्ट की कल्पना कर उन्होंने अपने पति (कश्यपजी) – के तेज को सौ वर्ष तक उदर में ही रखा । उस गर्भस्थ तेज से लोकों में सूर्यादि का तेज क्षीण होने लगा । इन्द्रादि लोक-पाल सभी तेजोहत हो गये ।
‘भूमन् !’ इन्द्रादि देव-गण तथा लोकपालादि ने ब्रह्मा के समीप जाकर उनकी स्तुति के अनन्तर निवेदन किया – ‘इस समय सर्वत्र अन्धकार बढ़ता जा रहा है । दिन- रात का विभाग स्पष्ट न रहने से लोकों के सारे कर्म लुप्त होते जा रहे हैं । सब दुःखी और व्याकुल हैं । आप उनका दुःख-निवारण कीजिये । दिति का गर्भ चतुर्दिक् अन्धकार फैलाता हुआ बढ़ता जा रहा है ।’
‘इस समय दक्ष-सुता दिति के उदर में महर्षि कश्यप का तेज है विधाता ने अपने मानस-पुत्र सनकादिके द्वारा वैकुण्ठ-धाम में श्रीनारायण के पार्षद जय-विजय को दिये हुए शाप का वृत्तान्त सुनाते हुए कहा – ‘और उसमें श्रीनारायण के उन दोनों पार्षदों ने प्रवेश किया है । उन दोनों दैत्यों के तेज के सम्मुख ही तुम सबका तेज मलिन पड़ गया है । इस समय लीलाधर श्रीहरि की यही इच्छा प्रतीत होती है । वे सृष्टि-स्थिति-संहारकारी श्रीहरि ही हम सबका कल्याण करेंगे । इस सम्बन्धमें हमलोगोंके सोच-विचार करनेका कोई अर्थ नहीं ।’

शंका-निवारण हो जाने के कारण देव-गण श्रीभगवान्‌ का स्मरण करते हुए स्वर्ग के लिये प्रस्थित हुए ।
‘मेरे पुत्र उपद्रवी होंगे और उनसे सत्पुरुषोंको कष्ट होगा ‘ – यह आशंका दिति के मन में बनी रहती थी । इस कारण सौ वर्ष पूरा हो जाने के उपरान्त उन्होंने दो यमज (जुड़वाँ) पुत्र उत्पन्न किये ।
उन दैत्यों के धरती पर पैर रखते ही पृथ्वी, आकाश और स्वर्ग में अनेकों उपद्रव होने लगे । अन्तरिक्ष तिमिराच्छन्न हो गया और बिजली चमकने लगी पृथ्वी और पर्वत काँपने लगे । भयानक आँधी चलने लगी सर्वत्र अमङ्गल-सूचक शब्द तथा प्रलयकारी दृश्य दृष्टिगोचर होने लगे । सनकादि के अतिरिक्त सभी जीव भयभीत हो गये । उन्होंने समझा कि अब संसार का प्रलय होने वाला ही है । वे दोनों दैत्य जन्म लेते ही पर्वताकार एवं परम पराक्रमी हो गये प्रजापति कश्यपजी ने उनमें से जो उनके वीर्य से दिति के गर्भ में पहले स्थापित हुआ था, उसका नाम ‘ हिरण्यकशिपु ‘ तथा जो दिति के गर्भ से पृथ्वी पर पहले आया, उसका नाम ‘ हिरण्याक्ष ‘ रखा ।
हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष – दोनों भाइयों में बड़ी प्रीति थी । दोनों एक-दूसरे को प्राणाधिक प्यार करते थे । दोनों ही महाबलशाली, अमित पराक्रमी एवं उद्धत थे । वे अपने सम्मुख किसी को कुछ नहीं समझते थे । हिरण्याक्ष ने अपनी विशाल गदा कंधे पर रखी और स्वर्ग जा पहुँचा । इन्द्रादि देवताओं के लिये उसका सामना करना सम्भव नहीं था । सब भयभीत होकर छिप गये । निराश हिरण्याक्ष अपने प्रतिपक्षी को ढूँढने लगा, किंतु उसके सम्मुख कोई टिक नहीं पाता था ।
अथ भूम्युपरि स्थित्वा मर्त्या यक्ष्यन्ति देवता: ।
तेन तेषां बलं वीर्यं तेजश्चापि भविष्यति ।।
इति मत्वा हिरण्याक्ष: कृते सर्गे तु ब्रह्मणा ।
भूमेर्या धारणाशक्तिस्तां नीत्वा स महासुर: ।।
विवेश तोयमध्ये तु रसातलतलं नृप ।
विना शक्त्या च जगती प्रविवेश रसातलम् ।।

(नरसिंहपुराण ३९ । ७-१)
एक बार उसने सोचा – ‘मर्त्यलोक में रहने वाले पुरुष पृथ्वी पर रहकर देवताओं का यजन करेंगे, इससे उनका बल, वीर्य और तेज बढ़ जायगा’ – यह सोचकर महान् असुर हिरण्याक्ष ब्रह्माजी द्वारा सृष्टि-रचना की जाने पर उसे धारण करने की भूमि में जो धारणा-शक्ति थी, उसे ले जाकर जल के भीतर-ही-भीतर रसातल में चला गया । आधार-शक्ति से रहित होकर यह पृथ्वी भी रसातल में ही चली गयी ।
मदोन्मत्त हिरण्याक्ष ने देखा कि उसके तेज के सम्मुख सभी देवता छिप गये हैं, तब वह महाबलवान् दैत्य जल॰क्रीड़ा के लिये गम्भीर समुद्र में घुस गया । उसे देखते ही वरुण के सैनिक जल-चर भय-वश दूर भागे । वहाँ भी किसी को न पाकर वह समुद्र की उत्ताल तरंगों पर ही अपनी गदा पटकने लगा । इस प्रकार प्रतिपक्षी को ढूँढ़ते हुए वह वरुण की राजधानी विभावरी-पुरी में जा पहुँचा ।
‘मुझे युद्धकी भिक्षा दीजिये ।’ बड़ी ही अशिष्टता से उसने वरुण-देव को प्रणाम करते हुए व्यंग्य-सहित कहा । ‘आपने कितने ही पराक्रमियों के वीर्य-मद को चूर्ण किया है । एक बार आपने सम्पूर्ण दैत्यों को पराजित कर राज-सूय यज्ञ भी किया था । कृपया मेरी युद्ध की क्षुधा का निवारण कीजिये ।’
भाई ! अब तो मेरी युद्धकी इच्छा नहीं है ।’ पराक्रमी और उन्मत्त शत्रु के व्यंग्य पर वरुण-देव क्रुद्ध तो हुए पर प्रबल दैत्य को देखकर धैर्य-पूर्वक उन्होंने कहा – ‘मेरी दृष्टि में श्रीहरि के अतिरिक्त अन्य कोई योद्धा नहीं दीखता, जो तुम्हारे – जैसे वीर-पुंगव को संतुष्ट कर सके । तुम उन्हीं के पास जाओ । उनसे भिड़ने पर तुम्हारा अहंकार शान्त हो जायगा । वे तुम-जैसे दैत्यों के संहार के लिये अनेक अवतार ग्रहण किया करते हैं ।’
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सत्यसङ्कल्प ब्रह्माजी सृष्टि-विस्तार के लिये मन-ही-मन श्रीहरि का स्मरण कर रहे थे कि अकस्मात् उनके शरीर के दो भाग हो गये । एक भाग से ‘ नर ‘ हुआ और दूसरे भाग से ‘ नारी ‘ । विधाता अत्यन्त प्रसन्न हुए ।
‘मेरे मन के अनुरूप होने के कारण तुम्हारा नाम ‘ मनु ‘ होगा ।” नर की ओर देखकर उन्होंने कहा – ”मुझ स्वयम्भू के पुत्र होने से तुम्हारा ‘स्वायम्भुव’ नाम भी प्रख्यात होगा । तुम्हारी बगल में अपने शत-शत रूपों से मन को आकृष्ट करने वाली सुन्दरी खड़ी है । इसका नाम ‘ शतरूपा ‘ प्रसिद्ध होगा । तुम पति और यह तुम्हारी पत्नी होगी । मेरे आधे अङ्ग से बनने के कारण यह तुम्हारी अर्धाङ्गिनी होगी । तुम्हारे मध्य धर्म स्थित है । इसे साक्षी देकर तुम इसे सह-धर्मिणी बना लो । यह तुम्हारी धर्मपत्नी होगी । तुम्हारे वंशज ‘ मनुष्य ‘ कहे जायँगे ।”
‘भगवन् ! एकमात्र आप ही सम्पूर्ण प्राणियों के जीवनदाता हैं ।’ अत्यन्त विनयपूर्वक स्वायम्भुव मनु ने अपने पिता विधाता से हाथ जोड़कर कहा । ‘ आप ही सबको जीविका प्रदान करने वाले पिता हैं । हम ऐसा कौन-सा उत्तम कर्म करें, जिससे आप संतुष्ट हों और लोक में हमारे यश का विस्तार हो । ‘
‘ मैं तुमसे अत्यधिक संतुष्ट हूँ । ‘
सृष्टि-विस्तार के कार्य में अपने पूर्वपुत्रों से निराश विधाता ने प्रसन्न होकर मनु से कहा । ‘ तुम अपनी इस भार्या से अपने ही समान गुणवती संतति उत्पन्न कर धर्म-पूर्वक पृथ्वी का पालन करते हुए यज्ञों के द्वारा श्रीभगवान्‌ की उपासना करो । ‘
‘ मैं आपकी आज्ञा का पालन अवश्य करूँगा; ‘
मनु ने श्रीब्रह्मासे निवेदन किया । ‘किंतु आप मेरे तथा मेरी भावी प्रजा के रहने योग्य स्थान बताइये । पृथ्वी तो प्रलय-जल में डूबी हुई है । उसके उद्धार का यत्न कीजिये ।’
‘अथाह जल में डूबी पृथ्वी को कैसे निकालूँ? ”
चतुर्मुख ब्रह्मा विचार करने लगे । क्या करूँ ?’ फिर उन्होंने सोचा-‘ जिन श्रीहरि के संकल्प मात्र से मेरा जन्म हुआ है, वे ही सर्व-समर्थ प्रभु यह कार्य करें ।’
सर्वान्तर्यामी, सर्व-लोक-महेश्वर प्रभु की स्मृति होते ही अकस्मात् पद्म-योनि के नासा-छिद्र से अँगूठे के बराबर एक श्वेत वराह-शिशु निकला । विधाता उसकी ओर आश्चर्य-चकित हो देख ही रहे थे कि वह तत्काल विशाल हाथी के बराबर हो गया ।
निश्चय ही यज्ञमूर्ति भगवान् हम लोगों को मोहित कर रहे हैं । स्वायम्भुव मनु के साथ ब्रह्माजी विचार करते हुए इस निष्कर्षपर पहुँचे । ‘ यह कल्याण-मय प्रभु का ही वेद-यज्ञ-मय वराह-वपु है । ‘
इतने में ही भगवान्‌ का वराह – वपु पर्वताकार हो गया । उन यज्ञ-मूर्ति वराह भगवान्‌ का घोर गर्जन चतुर्दिक् व्याप्त हो गया । वे घुरघुराते और गरजते हुए मत्त गजेन्द्र की-सी लीला करने लगे । उस समय मुनि-गण प्रभु की प्रसन्नता के लिये स्तुति कर रहे थे । वराह भगवान्‌का बड़ा ही अछूत एवं दिव्य स्वरूप था-
उत्क्षिप्तवाल: खचर: कठोर: सटा वधुन्वन् खररोमशत्वक् ।
खुराहताभ्रः सितदंष्ट्र ईक्षाज्योतिर्बभासे भगवान्महीध्र: ।।
घ्राणेन पृथ्व्या पदवीं विजिध्रन् क्रोडापदेश: स्वयमध्वराङ्गः ।
करालदंष्ट्रोऽप्यकरालदृग्भ्यामुद्वीक्ष्य विप्रान् ‌गृणतोऽविशत्कम्।।
(श्रीमद्भा॰ ३ । १३ । २७-२८)
‘पहले वे सूकर-रूप भगवान् पूँछ उठाकर बड़े वेग से आकाश में उछले और अपनी गर्दन के बालों को फटकार कर खुरों के आघात से बादलों को छितराने लगे । उनका शरीर बड़ा कठोर था, त्वचा पर कड़े-कड़े बाल थे, दाढ़ें सफेद थीं और नेत्रों से तेज निकल रहा था; उस समय उनकी बड़ी शोभा हो रही थी । भगवान् स्वयं यज्ञ-पुरुष हैं, तथापि सूकर-रूप धारण करने के कारण अपनी नाक से सूँघ-सूँघकर पृथ्वी का पता लगा रहे थे । उनकी दाढ़ें बड़ी कठोर थीं । इस प्रकार यद्यपि वे बड़े क्रूर जान पड़ते थे, तथापि अपनी स्तुति करने वाले मरीचि आदि मुनियों की ओर बड़ी सौम्य दृष्टि से निहारते हुए उन्होंने जलमें प्रवेश किया ।’
वज्रमय पर्वत के तुल्य अत्यन्त कठोर और विशाल वराह भगवान्‌ के कूदते ही महासागर में ऊँची-ऊँची लहरें उठने लगीं । समुद्र जैसे व्याकुल होकर आकाश की ओर जाने लगा । भगवान् वराह बड़े वेग से जल को चीरते हुए रसातल में पहुँचे । वहाँ उन्होंने सम्पूर्ण प्राणियों की आश्रय-भूता पृथ्वी को देखा । प्रभु को सम्मुख उपस्थित देखकर पृथ्वी ने प्रसन्न होकर उनकी अनेक प्रकार से स्तुति की –
मस्ते पुण्डरीकाक्ष शङख-चक्र-गदाधर ।
मामुद्धरास्मादद्य त्वं त्वत्तोऽहं पूर्वमुत्थिता ।।
भवतो यत्परं तत्त्वं तन्न जानाति कश्चन ।
अवतारेषु यद्रूपं तदर्चन्ति दिवौकस: ।।
यत्किञ्चिन्मनसा ग्राह्यं यद्ग्राह्यं चक्षुरादिभिः ।
बुद्ध्या च यत्परिच्छेद्यं तद्रूपमखिलं तव ।।
मूर्तामूर्तमदृश्यं च दृश्यं च पुरुषोत्तम ।
यच्चोक्तं यच्च नैवोक्तं मयात्र परमेश्वर ।
तत्सर्वं त्वं नमस्तुभ्यं भूयो भूयो नमो नम: ।।

(विष्णुपुराण १ । ४ । १२,१७,१९,२४)
पृथ्वी बोली – “शङ्ख, चक्र, गदा एवं पद्म धारण करने वाले कमल-नयन प्रभो ! आपको नमस्कार है । आज आप इस पाताल से मेरा उद्धार कीजिये । पूर्व-काल में आपसे ही मैं उत्पन्न हुई थी .. .. प्रभो ! आपका जो परतत्त्व है, उसे तो कोई भी नहीं जानता; अतः आपका जो रूप अवतारों में प्रकट होता है, उसी की देवगण पूजा करते हैं .. .. मनसे जो कुछ ग्रहण (संकल्प) किया जाता है, चक्षु आदि इन्द्रियों में जो कुछ (विषयरूपसे) ग्रहण करने योग्य है, बुद्धि द्वारा जो कुछ आकलनीय है, वह सब आपका ही रूप है ।. …हे पुरुषोत्तम ! हे परमेश्वर ! मूर्त-अमूर्त, दृश्य-अदृश्य तथा जो कुछ इस प्रसङ्ग में मैंने कहा है और जो नहीं कहा, वह सब आप ही हैं । अत: आपको नमस्कार है, बारम्बार नमस्कार है ।”
धरित्री की स्तुति सुनकर भगवान् वराह ने घर्घर- शब्द से गर्जना की और-
तत: समुत्क्षिप्य धरां स्वदंष्ट्रया महावराह: स्फुटपद्मलोचन: ।
रसातलादुत्पल-पत्र-संनिभः समुत्थितो नील इवाचलो महान्।।

(विष्णुपुराण १ । ४ । २६)
‘फिर विकसित कमल के समान नेत्रों वाले उन महावराह ने अपनी दाढ़ों से पृथिवी को उठा लिया और वे कमल-दल के समान श्याम तथा नीलाचल के सदृश विशालकाय भगवान् रसातल से बाहर निकले । ‘
उधर वरुणदेव के द्वारा अपने प्रतिपक्षी का पता पाकर हिरण्याक्ष अत्यन्त प्रसन्न हुआ ‘ आप मुझे श्रीहरिका पता बता दें । ‘ हिरण्याक्ष देवर्षि नारद के पास पहुँच गया । उसे युद्धकी अत्यन्त त्वरा थी ।
‘ श्रीहरि ने तो अभी-अभी श्वेत-वराह के रूप में समुद्र में प्रवेश किया है । ‘ देवर्षि के मन में दया थी । उन्होंने सोचा-‘ यह भगवान्‌ के हाथों मरकर दूसरा जन्म ले । तीन ही जन्म के अनन्तर तो यह अपने स्वरूप को प्राप्त होगा । ‘ बोले-‘ यदि शीघ्रता करो तो तुम उन्हें पा जाओगे । ‘
हिरण्याक्ष दौड़ा रसातल की ओर । वहाँ उसकी दृष्टि अपनी विशाल दाढ़ों की नोक पर पृथ्वी को ऊपर की ओर ले जाते हुए वराह-भगवान् पर पड़ी ।
‘ अरे सूकर-रूप-धारी सुराधम !’ चिल्लाते और भगवान्‌ की ओर तेजी से दौड़ते हुए हिरण्याक्ष ने कहा ‘ मेरी शक्ति के सम्मुख तुम्हारी योग-माया का प्रभाव नहीं चल सकता । मेरे देखते तू पृथ्वी को लेकर नहीं भाग सकता । निर्लज्ज कहीं का । ‘
श्रीभगवान् दुर्जय दैत्यके वाग्बाणों की चिन्ता न कर पृथ्वी को ऊपर लिये चले जा रहे थे । वे भयभीत पृथ्वी को उचित स्थान पर स्थापित करना चाहते थे । इस कारण हिरण्याक्ष के दुर्वचनों का कोई उत्तर नहीं दे रहे थे । कुपित होकर दैत्य ने कहा-‘ सत्य है, तेरे-जैसे व्यक्ति सभी अकरणीय कृत्य कर डालते हैं । ‘
प्रभु ने पृथ्वी को जल के ऊपर लाकर व्यवहार-योग्य स्थल पर स्थापित कर उसमें अपनी आधार-शक्तिका संचार किया । उस समय हिरण्याक्ष के सामने ही भगवान्‌ पर देवगण पुष्प-वृष्टि और ब्रह्मा उनकी स्तुति करने लगे । ‘ मैं तो तेरे सामने कुछ नहीं । ‘ तब प्रभुने कज्जल-गिरि के तुल्य हिरण्याक्ष से कहा । वह अपने हाथमें विशाल गदा लिये अनर्गल प्रलाप करता हुआ दौड़ा आ रहा था । प्रभु बोले-‘ अब तू अपने मन की कर ले । ‘
फिर तो वीर-वर हिरण्याक्ष एवं भगवान् वराह में भयानक संग्राम हुआ । दोनों के वज्र-तुल्य शरीर गदा की चोट से रक्त में सन गये । हिरण्याक्ष और माया से वराह-रूप धारण करनेवाले भगवान् यज्ञमूर्ति का युद्ध देखने मुनियों सहित ब्रह्माजी वहाँ आ पहुँचे । उन्होंने प्रभु से प्रार्थना की, ‘ प्रभो! शीघ्र इसका वध कर डालिये । ‘
विधाता के भोलेपन पर श्रीभगवान्‌ ने मुस्कराकर उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली । अब अत्यन्त शूर हिरण्याक्ष से प्रभु का भयानक संग्राम हुआ । अपने किसी अस्त्र-शस्त्र तथा छल-छद्म का आदि-वराह पर कोई प्रभाव पड़ता न देख हिरण्याक्ष श्रीहत होने लगा । अन्त में श्रीभगवान्‌ ने हिरण्याक्ष की कनपटी पर एक तमाचा मारा ।
श्रीभगवान्‌ ने यद्यपि तमाचा उपेक्षा से मारा था, किंतु उसकी चोट से हिरण्याक्ष के नेत्र बाहर निकल आये । वह घूमकर कटे वृक्ष की तरह धराशायी हो गया । उसके प्राण-पखेरू उड़ गये ।
‘ ऐसी दुर्लभमृत्यु किसे प्राप्त होती है ! ब्रह्मादि देवताओं ने हिरण्याक्ष के भाग्यकी सराहना करते हुए कहा । ‘ मिथ्या उपाधिसे मुक्ति प्राप्त करने के लिये योगीन्द्र-मुनीन्द्र जिन महामहिम परमेश्वर का ध्यान करते हैं, उन्हींके चरण- प्रहार से उनका मुख देखते हुए इस दैत्यराज ने अपना प्राण-त्याग किया! धन्य है यह । ‘ इसके साथ ही सुर-समुदाय महावराह प्रभुकी स्तुति करने लगा । और-
विहाय रूपं वाराहं तीर्थे कोकेति विश्रुते ।
वैष्णवानां हितार्थाय क्षेत्रं तद्रुसमुत्तमम् ।।

(नरसिंहपुराण ३९ । १८)
‘ फिर प्रभु ने वैष्णवों के हित के लिये कोका-मुख तीर्थ में वराह रूपका त्याग किया । वह वराह-क्षेत्र उत्तम एवं गुप्त तीर्थ है ।
‘पृथ्वी के उसी पुन: प्रतिष्ठा-काल से इस श्वेतवाराह- कल्प की सृष्टि प्रारम्भ हुई है ।
varaha
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उत्तरकुरुवर्ष में भगवान् यज्ञपुरुष वराहमूर्ति धारण करके विराजमान हैं । साक्षात् पृथ्वीदेवी वहाँ के निवासियों सहित उनकी अत्यन्त श्रद्धा- भक्ति से उपासना करती हैं और इस परमोत्कृष्ट मन्त्रका जप करती हुई उनका स्तवन करती हैं-
‘ ॐ नमो भगवते मन्त्रतत्त्वलिङ्गाय यज्ञक्रतवे महाध्वरावयवाय महापुरुषाय नम: कर्मशुक्लाय त्रियुगाय नमस्ते । ‘
( श्रीमद्भा॰ ५ । १८ । ३५)
‘ जिनका तत्त्व मन्त्रों से जाना जाता है, जो यज्ञ और क्रतुरूप हैं तथा बड़े-बड़े यज्ञ जिनके अङ्ग हैं – उन ओंकार-स्वरूप शुक्ल-कर्म-मय त्रि-युग-मूर्ति पुरुषोत्तम भगवान् वराह को बार-बार नमस्कार है ।

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