भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १४ से १५
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय १४ से १५
यमद्वितीया तथा अशून्यशयन-व्रतकी विधि

श्रीकृष्ण बोले — पार्थ ! श्रावण मास के शुक्ल पक्ष से आरम्भ कर चार मास की द्वितीया आदि अन्य भी तिथियाँ इस प्रकार की हैं, जिनके अनुष्ठान सुसम्पन्न करने से प्राणी के समस्त दुःख नष्ट हो जाते हैं । पार्थ ! मैंने उन्हें इस लोक में सदैव गुप्त रखा था, किसी से कभी भी प्रकाशित नहीं किया था । किन्तु वह तुम्हें आज बता रहा हूँ । सावधान होकर सुनो ! श्रावण मास के शुक्ल की पहली, भाद्रपद (भादों) की दूसरी, आश्विन मास की तीसरी और कार्तिक मास की चौथी द्वितीया तिथि के क्रमशः कलुषा, गीर्मला, प्रेत-संचार और यम नाम बताये गये हैं ।
om, ॐ
युधिष्ठिर ने कहा — श्रावण, भाद्रपद, (भादों), आश्विन और कार्तिक मास की शुक्ल द्वितीया तिथि के उपरोक्त कलुषा आदि नाम क्रमशः जो रखे गये हैं, उनके उस नामकरण के क्या कारण हैं ?, बताने की कृपा करें ।
श्रीकृष्ण बोले — पहले समय में वृत्रासुर के वध के पश्चात् राज्य की प्राप्ति होने पर इन्द्र को ब्रह्महत्या का दोषभागी होना पड़ा था । उस ब्रह्महत्या से मुक्त होने के लिए उन्होने अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान आरम्भ किया, किन्तु यज्ञ के सुसम्पन्न होने पर भी अपने को उससे मुक्त होते न देखकर अत्यन्त क्रुद्ध होकर उन्होंने अपने वज्र द्वारा ब्रह्महत्या का नाश करना चाहा, जिससे व्रह्महत्या के छः खण्ड हो गये, उन खण्डों को क्रमशः वृक्ष, जल, पृथ्वी, स्त्री, वृषलीपति और अग्नि में समभाग करके बाँट देने पर ही वे उससे मुक्त हो सके । ब्रह्महत्या के उन भागों के ग्रहण करने वाले नारी, वृक्ष आदि ने श्रावण शुक्ल की द्वितीया के दिन सूर्योदय के समय सविधान स्नान पूर्वक अपने पापों के शमन किया । जिससे वे सब पूर्व की भाँति निर्मल हो गये । इसीलिए उस द्वितीया का कलुषा नामकरण हुआ । पहले समय में मधुकैटभ दैत्यों के रक्त से यह पृथ्वी अत्यन्त ओत-प्रोत हो गयी थी, लेकिन उस समय भी आठ अंगुल पृथ्वी अवशिष्ट रहने के नाते पवित्र थी । स्त्रियों का रज, नदियाँ के दोनों तट का जलपूर्ण रहना, और अग्नि में धूमशिखा रूप मल बताया गया है । उस द्वितीया के समय इन कलुषों के यथापूर्व स्थित रहने के और नष्ट होने से भी इसका कलुषा नाम हुआ है ।

गीर शब्द गिरा, भारती, वाणी, वाचा, मेघा और सरस्वती के अर्थ में प्रयुक्त होता है, इसीलिए इसके मल के भाद्रपद (भादों) की शुक्ल द्वितीया में नष्ट होने के नाते गीर्मला नामकरण उस द्वितीया का हुआ है । देव, ऋषि, एवं पितृधर्मों के निन्दक, नास्तिक, एवं शठ प्राणी के वाग्मल को विनष्ट करने के कारण भी उसका गीर्मला नाम हुआ है । अनध्याय के दिनों में शाब्दिक (वैयाकरण), तार्किक, एवं वैदिक विद्वान् शास्त्रों को पढ़ते पढ़ाते हैं, जिससे उनके मुख से निकले हुए शुद्ध और अशुद्ध शब्द मलरूप बताये जाते हैं उनके शमन करने के नाते भी उसका उपरोक्त नाम सार्थक हुआ है ।

आश्विन द्वितीया के दिन प्रेत (पितर) लोग अपना संचार करते रहते है, अग्निष्वात्ता, वहिषद, आज्यपा, तथा सोमपा आदि पितृ पितामह भी उस समय संचार (गमन) करते रहते हैं और उसी दिन पुत्र पौत्र, एवं दौहित्रों द्वारा स्वधा मंत्रों के उच्चारण पूर्वक श्राद्धदान रूपी यज्ञों से तृप्त होते हैं इसलिए भी उसका प्रेत-संचार नाम हुआ है ।

युधिष्ठिर ! उसी प्रकार कार्तिक शुक्ल द्वितीया के दिन यमुना ने यम को अपने घर भोजन कराया था, जिससे नारकीयों को अत्यन्त तृप्ति हुई थी । पापों से मुक्त होकर सभी लोग बन्धन हीन होकर यथेच्छ भ्रमण करते, नृत्य करते हुए अत्यन्त प्रसन्न रहते हैं । क्योंकि उस महोत्सव के सुसम्पन्न होने पर यमपुरी में अत्यन्त सुख की प्राप्ति होती है । युधिष्ठिर ! इसीलिए इसका यमद्वितीया नाम हुआ है । पार्थ ! इस द्वितीया के दिन विद्वानों को चाहिए कि अपने घर भोजन न करके भगिनी के यहाँ उसके बनाये हुए उस सुस्वादु और पुष्टिवर्धक भोजन से आत्मतुष्टि करें । उस अवसर पर स्वर्णाभरण एवं उत्तम वस्त्रादि के दान पूर्वक सत्कार भोजनादि द्वारा समस्त भगिनियों की पूजा करनी चाहिए । युधिष्ठिर ! सर्वप्रथम पितृव्यभगिनी (बुआ की लड़की), दूसरी मामा की पुत्री तथा तीसरी माता-पिता की भगिनी के हाथ के भोजन करने के उपरान्त अपनी सहोदरा भगिनी के यहाँ भोजन करना चाहिए । इस प्रकार सभी भगिनियों के हाथ का सुस्वादु भोजन करना आवश्यक होता है, जो पुष्टिकारक, धन्य और यश, आयु, धर्म, काम एवं अर्थ की वृद्धि करता रहता है । इस प्रकार स्नेह वश मैंने तुम्हें रहस्य समेत इसकी सम्पूर्ण व्याख्या सुना दी । जिस तिथि में यमुना ने यम को अपने घर भोजन कराया था, उस तिथि के दिन जो मनुष्य अपनी भगिनी के हाथ का सुस्वादुपूर्ण भोजन करता है, उसे उत्तम भोजन समेत धन की प्राप्ति सदैव होती रहती है ।

राजा युधिष्ठिर ने पूछा — भगवन् ! आपने बताया कि सब धर्मों का साधन गृहस्थाश्रम है, वह गृहस्थाश्रम स्त्री और पुरुष से ही प्रतिष्ठित होता है । पत्नीहीन पुरुष और पुरुषहीन नारी धर्म आदि साधन सम्पन्न करने में समर्थ नहीं होते, इसलिये आप कोई ऐसा व्रत बतायें जिसके अनुष्ठान से दाम्पत्य का वियोग न हो ।
भगवान् श्रीकृष्ण बोले — महाराज ! श्रावण मास के कृष्ण पक्ष को द्वितीया को अशून्यशयन नामक व्रत होता है । इसके करने से स्त्री विधवा नहीं होती और पुरुष पत्नी से हीन नहीं होता । इस तिथि को लक्ष्मी सहित भगवान् विष्णु की शय्या पर अनेक उपचारों द्वारा पूजन करना चाहिये । इस दिन उपवास, नक्तव्रत अथवा अयाचित — व्रत करना चाहिये । इस दिन लक्ष्मी के साथ श्रीवत्सधारी भगवान् श्रीविष्णु का पूजन कर हाथ जोडकर इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये –

“श्रीवत्सधारिञ्छ्रीकान्त श्रीधामञ्छ्रीपतेऽव्यय ॥
गार्हस्थ्यं मा प्रणाशं मे यातु धर्मार्थकामदम् ।
अग्नेयो मा प्रणश्यन्तु मा प्रणश्यन्तु देवताः ॥
पितरो मा प्रणश्यन्तु मत्तो दाम्पत्यभेदतः ॥
लक्ष्म्या वियुज्यते कृष्ण न कदाचिद्यथा भवान् ।
तथा कलत्रसम्बन्धो देव मा मे प्रणश्यतु ॥
लक्ष्म्या न शून्यं वरद यथा ते शयनं सदा ।
शय्या ममाप्यशून्यास्तु तथा जन्मनिजन्मनि ॥”

(उत्तरपर्व १५ । १०-१३)
‘भृगुलता को धारण करने वाले श्रीकान्त, श्रीधाम, श्रीपते एवं अव्यय मेरा यह गार्हस्थ्य धर्म का जिसके द्वारा धर्म अर्थ तथा काम की सफलता होती है, कभी विघटन न हो । उसी प्रकार मेरे अग्नि और देवता का भी न नाश हो तथा दम्पती (स्त्री-पुरुष) के भेद से मेरे पितरों का भी नाश न हो । कृष्ण ! जिस प्रकार आप को लक्ष्मी वियोग कभी नहीं होता है, देव ! उसी भाँति मेरा स्त्री संबंध कभी नष्ट न हो । जिस भाँति आप का शयन गृह लक्ष्मी से शून्य कभी नहीं होता है, उसी प्रकार मेरी भी शय्या प्रत्येक जन्म में सदैव स्त्री संयुक्त ही बनी रहे ।’

व्रत के दिन दही, अक्षत, कन्दमूल, फल, पुष्प, जल आदि सुवर्ण के पात्र में रखकर निम्न मन्त्र को पढ़ते हुए चन्द्रमा को अर्घ्य देना चाहिये—

“गगनाङ्गणसम्भूत दुग्धाब्धिमथनोद्भव ।
भाभासितदिगाभोग रमानुज नमोऽस्तु ते ॥”
(उत्तरपर्व १५ । १८)

‘गगन प्राङ्गण के उत्तमदीप, क्षीर सागर के मन्थन द्वारा उत्पन्न होने वाले एवं दिशाओं को पूर्ण प्रकाशित करने वाले आप लक्ष्मी जी के अनुज को बार-बार नमस्कार है ।’

इस विधानके साथ जो व्यक्ति चार मासतक व्रत करता है, उसको कभी भी स्त्री-वियोग प्राप्त नहीं होता एवं उसे सभी प्रकारके ऐश्वर्य प्राप्त होते हैं। जो स्त्री भक्तिपूर्वक इस व्रतको करती है, वह तीन जन्मतक विधवा और दुर्भगा-नहीं होती । यह अशून्य-द्वितीयाका व्रत सभी कामनाओं और उत्तम भोगोंको देनेवाला है, अतः इसे अवश्य करना चाहिये।
(अध्याय १४-१५)

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