भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १८४
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय १८४
शय्यादान का वर्णन

श्रीकृष्ण बोले — पाण्डुकुलोद्भव ! मैं तुम्हें शय्या दान का विधान बता रहा हूँ, जिसके प्रदान से प्राणी लोक परलोक मैं सुखी होता है इसलिए श्रेष्ठ व्राह्मणगण सदैव शय्या दान सम्पन्न करते रहते हैं । क्योंकि जीवन अनित्य होने के नाते पीछे (निधनोपरांत) कौन इसे पूरा कर सकेगा । भारत ! प्राणी जब तक जीवित रहता है तभी तक परबन्धु पिता कहलाता है और उसके मरने पर वही स्नेह क्षणमात्र में निकल जाता है । om, ॐइसलिए यह आत्मा ही आत्मा का बन्धु (सहायक) है ऐसा समझ कर शय्या, भोजन और जलादि का स्वयं दान करे । दान भोगादि यदि स्वयं इस आख्या की अर्चा नहीं की तो इससे बढ़ कर दूसरा हितैषी कौन होगा, जो निधनोपरांत उसकी पूजा करेगा । अतः काष्ठ की दृढ़ शय्या, जो कुन्द पुष्प से सुरचित, रम्य, सुवर्ण से भूषित, हंस के समान श्वेत कोमल रूई वाले गद्दे से आच्छन्न, सुभग, सुन्दर तकिये से युक्त, ऊपर चद्दर से अलंकृत और गंध, धूप से अधिवासित हो, निर्माण कर उस पर विष्णु लक्ष्मी को सुवर्ण प्रतिमा को प्रतिष्ठित करते हुए ऊपर सिर होने के समीप कलश की स्थापना करे । पाण्डव ! भगवान् को उस पर निद्रित की कल्पना कर उसके पार्श्व भाग में ताम्बूल, कुंकुम (चूर्ण), कपूर, अगरु, चन्दन, दीपक, उपानह, छत्र, चामर, आसन, भोजन और यथाशक्ति सप्तधान्य की स्थापना करे । उस समय शयन के समय झारी (गेरुआ) पुष्पादि अन्य भी वस्तुएँ वहाँ उपस्थित करनी चाहिए । उपर पाँच रङ्ग की चाँदनी (दोबा) आदि से समलंकृत उस भाँति की शय्या किसी पुण्य दिन सपत्नीक ब्राह्मण की पूजा कर उसे अर्पित करे ।

नमस्ते सर्वदेवेश शय्यादानं कृतं मया ।
देहि तस्माच्छान्तिफलं नमस्ते पुरुषोत्तम ।।
यथा न कृष्ण शयनं शून्यं सागरजातया ।
शय्या ममाप्यशून्यास्तु तथा ज़न्मनि जन्मनि ॥
(उत्तरपर्व १८४ । १३-१४)

सर्वदेवेश ! पुरुषोत्तम यथाशक्ति सुसज्जित यह शय्यादान आप को अर्पित किया है अतः मुझे शांति फल प्रदान करने की कृपा करें । कृष्ण ! जिस प्रकार सागर (लक्ष्मी) से जय की शय्या कभी शून्य नहीं रहती है, उसी भाँति मेरी भी शय्या जन्मान्तर में कभी शून्य न रहे ।

इस प्रकार उस निर्मल शय्या का एकादशाह के दिन सविधि एवं नमस्कारपूर्वक दान करके विसर्जन करे । राजेन्द्र ! बन्धु आदि के निधन होने पर उसके निमित्त यदि धर्मार्थ शय्यादान आदि यदि कोई करता है तो मैं उसके लिए और विशेषता बता रहा हूँ, सुनो ! उस मृतक की उपभोग की हुई घर में हो या उसके अंगों में (सुवर्ण आदि) लगे हों, तथा वस्त्र, वाहन, भाजन (पात्र) जो कुछ उसे अभीष्ट हो, उन सब को वहाँ वाचन पुराण के समीप रखना चाहिए । पूजनोपरांत इस प्रकार की मृत शय्या दान करने से वह इन्द्र के गृह और सूर्य अन्न के भवन में सुखी निवास करता है। उसे भीषण मुख वाले यमदूत कभी पीड़ित नहीं करते हैं और धूप, शीत की बाधा भी कभी नहीं होती है अपितु पाप युक्त होने पर (उस शय्या.दान के प्रभाव से) स्वर्ग लोक में पूजित होता है । उत्तम विमान पर महाप्रलय पर्यन्त अप्सरायें उसकी समुचित सेवा करती हैं । पाण्डुनन्दन ! इस प्रकार अमल शय्या को दान करने वाला पुरुष जो समस्त सौख्य का विधान कहा गया है, स्वर्ग में विकल्प बाधाओं से रहित सुखानुभव करता है ।
(अध्याय १८४)

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