भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १९०
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय १९०
विश्वचक्रदान-विधि-वर्णन

श्रीकृष्ण बोले — मैं तुम्हें विश्वचक्र नामक अत्यन्त अद्भुत दान बता रहा हूँ, जो प्रख्यात और समस्त पापों का नाश करता है । अग्नि संतृप्त एवं अत्यन्त विशुद्ध सुवर्ण का वह चक्र बनाना चाहिए । इसके निर्माण में सहस्र पल सुवर्ण की मूर्ति श्रेष्ठ, तदर्द्ध भाग की मध्यम और उसके भी आधे भाग का विश्व चक्र कनिष्ठ कहा जाता है तथा असमर्थ मनुष्य को भी उसके निर्माण में बीस पल से अधिक ही सुवर्ण लगाना चाहिए । om, ॐइस प्रकार उस चक्र के, जिसमें सोलह अरों तथा आठ युद्धियों से आवृत नेमि (मूडी) हो, नाभि कमल पर योगारुढ़ चतुर्भुज विष्णु, पार्श्व भाग में शंख-चक्र, स्थित करना चाहिए, जो आठ देवियों से घिरा रहता है । दूसरे आवरण में उसी भाँति पूर्व की ओर जलशायी विष्णु, अत्रि, भृगु, वशिष्ठ, ब्रह्मा, कश्यप, मत्स्य, कूर्म (कच्छप) वराह, नरसिंह, वामन, परशुराम राम, कृष्ण बुद्ध, और भगवान् का कल्कि रूप स्थित रहता है । तीसरे कक्षा में मनुष्यों और वसुओं समेत गौरी, चौथे कक्ष में द्वादशसूर्य एवं चारों वेद, पाँचवे में पाँचो महाभूत, एकादश रुद्र और आठों लोकपाल, छठे में दसों दिग्गज, सातवें में मंगलसमेत समस्त अरुणवृन्द और आठवें में बीच-बीच में देवगणों को स्थापित करना चाहिए । अनन्तर पताका और तोरणों से भूषित दस हाथ का वस्त्र सुसज्जित मण्डप बनाकर उसमें चार हाथ की वेदी की रचना करते हुए एक कुण्ड की रचना करें । तदुपरांत कृष्णमृगचर्म के ऊपर सविधान विश्वचक्र की स्थापना करके अष्टादश प्रकार के धान्य, लवणादि रस, वस्त्र माला से भूषित आठ पूर्ण कलश तथा पार्श्व भाग में फल और ऊपर पंचाङ्ग के वितान (पँदोवा) से सुसज्जित करे । पुनः चक्र का अधिवासन करके हवन कार्य सुसम्पन्न करने के लिए चार चातुश्चरणिक ब्राह्मणों को वस्त्राभरण से भूषित कर वहाँ नियुक्त करें । जो होम की सामग्री और स्रुक, स्रुवा तथा ताम्रपात्रों से सुसज्जित हो । समस्त उपद्रवों के शान्त्यर्थ उन संयमी ब्राह्मणों द्वारा चक्र में प्रतिष्ठित देवों के निमित्त उनके लिंग मन्त्रों के उच्चारण पूर्वक आहुति प्रदान कराये । पश्चात् मांगलिक शब्दों को कोलाहल में स्नान और शुक्लाम्वर धारण कर वह गृहस्थ हवन कार्य और अधिवासन होने के उपरांत हाथ में पुष्पाञ्जलि लिए तीन प्रदक्षिणा करते हुए इस मंत्र का उच्चारण करे —

नमो विश्वम्भरायेति विश्वचक्रात्मने नमः ।
परमानन्दरूपी त्वं पाहि नः पापकर्दमात् ॥
तेजोमयमिदं यस्मात् सदा पश्यन्ति सूरयः ।
हृदि तत्त्वं गुणातीतं विश्वचक्रं नमाम्यहम् ।।
वासुदेवे स्थितं चक्रं तस्य मध्ये तु माधवः ।
अन्योन्याधाररूपेण प्रणमामि स्थिताविह ॥
विश्वचक्रमिदं यस्मात् सर्वपापहरं हरेः ।
आयुधं चाधिवासश्च तस्माच्छान्तिं ददातु मे ॥
(उत्तरपर्व १९॰० । १८-२१)
‘विश्वचक्रात्मक विश्वम्भर देव को नमस्कार है । देव ! आप परमानन्द रूप हैं, अतः इस पाप कीचड़ से मेरी रक्षा करें । सुरिगण (विद्वद्गण) अपने हृदय में तेजोमय रूप में सदैव जिसका दर्शन करते हैं अतः उस गुणातीत विश्वचक्र को मैं नमस्कार करता हूँ । भगवान् वासुदेव में वह चक्र स्थित है और उस चक्र के मध्य में माधव की स्थिति है । अतः यहाँ पर अन्योन्य (एक दूसरे) के आधार पर स्थित उन दोनों को मैं नमस्कार करता हूँ । समस्त पापों को अपहरण करने वाला यह विश्वचक्र भगवान् विष्णु का आयुध और अधिवास रूप है । अतः मुझे शान्ति प्रदान करने की कृपा करे । ‘

इस भाँति आमन्त्रित कर विश्वचक्र का दान करने वाला पुरुष, समस्त पापों से मुक्त होकर विष्णु लोक में पूजित होता है । वहाँ वैकुण्ठ लोक में चार भुजाओं वाले विष्णु के साथ रहते हुए अप्सराओं के साथ तीन सौ कल्प सुखोपभोग करता है । इस प्रकार विश्व चक्र का निर्माण करके प्रतिदिन नमस्कार करने वाले पुरुष के दीर्घायुपूर्वक विपुल लक्ष्मी की प्राप्ति होती है । इसलिए प्रत्येक मनुष्य को अपने घर सुवर्ण, चाँदी अथवा ताँबे का ही विश्वचक्र बनाकर स्थापित करना चाहिए । इस प्रकार शुद्ध कांचन निर्मित उस विश्वचक्र का, जिसमें समस्त देवों का निवास रहता है, दान करने वाला पुरुष, विष्णुलोक पहुँचकर अप्सराओं से नमस्कार पूर्वक सुसेवित होता है । शत्रुओं के लिए सुदर्शन, कामिनियों के लिए मदन, सुदर्शन रूप होने वाला वह् सुदर्शन चक्र विष्णुका स्वरूप है, ऐसे सुवर्ण निर्मित सुदर्शन चक्र के दानी का समस्त पाप दग्ध हो जाता है । इसलिए गुरुतर पाप करने वाले प्राणी भी जो मुरारि विष्णु के उस रूपान्तर चक्र का, जो सोलह आरों से सज्जित रहता है, दान कराना है। तो संसार दुःखों से मुक्त होकर शिवलोक में बार-बार निवास करता है ।
(अध्याय १९०)

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