भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय ४७
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय ४७
उभय-सप्तमी-व्रत

भगवान् श्रीकृष्ण बोले — महाराज ! अब मैं सप्तमी-कल्प का वर्णन करता हूँ । आप इसे प्रीतिपूर्वक सुनें । माघ महीने की शुक्ला सप्तमी को संकल्पकर भगवान् सूर्य का वरुणदेव-नाम से पूजन करे । अष्टमी के दिन तिल, पिष्ट, गुड़ और ओदन (भात; पका हुआ चावल या दूध में पकाया हुआ अन्न) ब्राह्मणोंको भोजन कराये, ऐसा करनेसे अग्निष्टोम यज्ञ का फल प्राप्त होता है ।

फाल्गुन शुक्ला सप्तमी को भगवान् सूर्य का पूजन करने से वाजपेय यज्ञ का फल प्राप्त होता हैं ।om, ॐ चैत्र शुक्ला सप्तमी में वेदांशु-नाम से सूर्य-पूजन करने से उक्थ नामक यज्ञ के समान पवित्र फल प्राप्त होता है । वैशाख के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को धाता नाम से पूजा करने से पशुबन्ध-याग के पुण्य के समान फल प्राप्त होता है । ज्येष्ठ मास की सप्तमी को इन्द्र नाम से सूर्य की पूजा करने से वाजपेय यज्ञ का दुर्लभ फल प्राप्त होता है । आषाढ़ मास की सप्तमी को दिवाकर की पूजा करने से बहुत सुवर्ण की दक्षिणावाले यज्ञ का फल प्राप्त होता है । श्रावण की सप्तमी को मातापि (लोलार्क) को पूजने से सौत्रामणि याग का फल प्राप्त होता है । भाद्रपद मास में शुचि नाम से सूर्य का पूजन करे तो तुलापुरुष-दान का फल प्राप्त होता है । आश्विन शुक्ला सप्तमी को सविता की पूजा करने से सहस्र गोदान का फल मिलता है । कार्तिक शुक्ला सप्तमी में सप्तवाहन दिनेश की पूजा करने से पुण्डरीक-याग का फल प्राप्त होता है । मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी में भानु की पूजा करने से दस राजसूय यज्ञों का फल प्राप्त होता है । पौष मास में शुक्ल पक्ष की सप्तमी को भास्कर की पूजा करने से अनेक यज्ञों का फल मिलता है । इसी प्रकार प्रत्येक मास के कृष्ण पक्ष की सप्तमी को भी उन-उन नामों से पूजा करनी चाहिये ।

महाराज ! इस प्रकार एक वर्ष तक व्रत और पूजन कर उद्यापन करे । पवित्र भूमि पर एक हाथ, दो हाथ अथवा चार हाथ रक्तचन्दन का मण्डल बनाकर उसमें सिंदूर और गेरु का सूर्यमण्डल बनाये । कमल आदि रक्तपुष्पों, शल्लकी वृक्ष के गोंद आदि से निर्मित धूप तथा अनेक प्रकार के नैवेद्यों से भगवान् सूर्य का पूजन करे । अन्न तथा स्वर्ण से भरे कलशों को उनके सामने स्थापित करे । फिर अग्निसंस्कार कर तिल, घृत, गुड़ और आक की समिधाओं से ‘आ कृष्णेन आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्न् अमृतं मर्त्यं च । हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन् ॥(यजु० ३३ । ४३)  इस मन्त्र से एक हजार आहुति दें । अनन्तर द्वादश ब्राह्मणों को रक्तवस्त्र, एक-एक सवत्सा गौ, छतरी, जूता, दक्षिणा और भोजन देकर क्षमा-प्रार्थना करे । बाद में स्वयं भी मौन होकर भोजन करे ।

इस विधि से जो सप्तमी का व्रत करता है, वह नीरोग, कुशल वक्ता, रूपवान् और दीर्घायु होता है । जो पुरुष सप्तमी के दिन उपवास कर भगवान् सूर्य का दर्शन करता है, वह सभी पापों से मुक्त होकर सूर्यलोक में निवास करता है । यह उभय-सप्तमी-व्रत सम्पूर्ण अशुभों को दूर कर आरोग्य और सूर्यलोक प्राप्त करानेवाला है, ऐसा देवर्षि नारद का कहना है ।
(अध्याय ४७)

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